आंकड़े चीख-चीख कर कह रहे है .....
विकास हो रहा पूँजी का,
विनाश हो रहा मेहनतकशों व आम अवाम का
पिछले दो दशक से
दसियों नहीं सैंकड़ों बार यह कहा गया है, और आज भी
कहा जा रहा है, कि पूँजी व उद्योग पक्षीय नीतियाँ इसलिए
जरूरी हैं कि इससे विदेशी निवेश आकर्षित होगा और आर्थिक विकास में वृद्धि होगी और
फिर इससे रोजगार सृजन में तेजी आएगी जिससे अंतत: आम जनता को फायदा होगा।
नवउदारवादी (खुले तौर पर लागू की जा रही पूँजीपक्षीय) आर्थिक नीतियों के सभी किस्म
के पैरोकार यह कहते पाये जाते हैं कि मजदूर-मेहनतकश वर्ग व आम अवाम अगर आज तात्कालिक
त्याग करेगा अर्थात अगर वह अपने आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक हितों को तात्कालिक
तौर पर त्यागने और इन खुली व नग्न पूँजीपक्षीय नीतियों को अपनाने के लिए राज़ी
होता है, तो ही उसे भविष्य में बेहतर जीवन प्राप्त होगा।
मीडिया इसे अक्सरहाँ ''तीखी दवा'' कहता
है जिसे मजदूरों को मन से या जबरन ''देश की भलाई'' के लिए पीना पड़ेगा। आइए, जाँच कर देखें कि क्या इस
बात में सच्चाई है?
1. पिछले दो दशकों की सच्चाई यह है कि
आर्थिक विकास ( इकोनॉमिक ग्रोथ) हुआ है लेकिन रोजगारविहीन विकास (जॉबलेस ग्रोथ)
हुआ है अर्थात एक ऐसा विकास जिससे रोजगार
या तो पैदा नहीं हुआ या हुआ तो बुरी तरह से असुरक्षित रोजगार पैदा हुआ है जो
रोजगार के इनफॉरमल क्षेत्र (कॉन्ट्रैक्ट लेबर के क्षेत्र) के नाम से जाना जाता है। जीडीपी शानदार ढंग से
बढ़ा,
एफडीआई में भी व़ृद्धि देखी गई, फिर भी रोजगार
की स्थिति बुरी ही बनी रही ।
2. रोजगार की बुरी स्थिति का ही परिणाम है
कि कृषि में जीडीपी का हिस्सा अत्यंत कम होने और कृषि पर आधारित अधिकांश अबादी, खासकर गरीब और छोटे किसानों, के लिए कृषि के
अलाभप्रद हो जाने के बावजूद कृषि पर
रोजगार की निर्भरता काफी अधिक बनी हुई है और मजदूरों की एक बहुत बड़ी आबादी अभी भी
कृषि से जुड़ी या बंधी हुई है। रोजगार निर्भरता में कृषि की हिस्सेदारी अभी भी
56 प्रतिशत बनी हुई है जिसका अर्थ यह है कि जीडीपी ग्रोथ से रोजगार निर्माण नहीं
हो रहा है।
3. 1993-94 से 2004-05 तक रोजगार वृद्धि दर
इसके पिछले दशक अर्थात 1983-84 के दौरान हासिल रोजगार वृद्धि दर 2.02 प्रतिशत की
तुलना में मात्र 1.84 प्रतिशत से बढ़ा, जबकि इसी
बीच जीडीपी विकास दर 6.3 प्रतिशत रहा। इसके अगले दशक अर्थात 2004-05 से 2009-10 के
बीच जीडीपी वृद्धि दर लगभग 9 प्रतिशत रहा, लेकिन रोजगार
वृद्धि दर में कोई अतिरिक्त वृद्धि नहीं हुई।
4. 1999-00 से 2004-05 के बीच अर्थव्यवस्था
में कुल रोजगार में वृद्धि 397 मिलियन से 458 मिलियन की हुई, लेकिन संगठित या फॉरमल क्षेत्र में हुई कुल वृद्धि इसमें से मात्र 8.5
मिलियन की ही थी। यही नहीं, यह वृद्धि भी अनियमित किस्म की
नौकरियों में अर्थात इनफॉरमल चरित्र वाली नौकरियों में हुई। इसके अतिरिक्त,
फॉरमल क्षेत्र का इनफॉरमलाईजेशन भी हुआ और पहले से बेहतर स्थितियों
में काम करने वाले कामगारों की स्थिति बुरी होती गई।
5. 2006 से 2010 तक कुल रोजगार वृद्धि दर
मात्र 0.1 प्रतिशत का रहा, जबकि श्रम की उत्पादकता में
इसी दौरान 34 प्रतिशत की शानदार वृद्धि हुई।
6. 1995-96 से 2000-01 के बीच लगभग 1.1
मिलियन मजदूर नौकरी से निकाले गए।
7. सैंकड़ों सेज (Special
Economic Zones-SEZs) बन कर खड़े हो गए जिन्हें पब्लिक यूटिलिटी
घोषित कर दिया और जहाँ हड़ताल या किसी भी तरह के संघर्ष पर लगभग पूर्ण पाबंदी होती
है। मजदूरों के पास सामुहिक ऐक्शन की ताकत के अलावा और कुछ भी नहीं होता है,
लेकिन मजदूरों को इन नये क्षेत्रों में इस महत्वपूर्ण अधिकार से
वंचित कर दिया गया।
8. सेज के अंदरूनी क्षेत्र व परिसर में बिना
अनुमति के आना-जाना असंभव है और इसलिए सेज मजदूरों को संगठित करने का काम भी असंभव
हो गया।
9. सेज को स्टेट लेबर डिपार्टमेंट से बाहर
रखा गया। यहाँ तक कि स्वयं सेज को ही लेबर डिपार्टमेंट बना दिया गया। यानी स्टेट
लेबर डिपार्टमेंट का काम देखने वाले अब सेज के निजी मालिक या डेवलपर्स हो गए।
मजदूरों के मुजरिम को ही न्यायकर्ता बना दिया गया।
10. सेज में रेग्युलर रोजगार देने का कोई
प्राबधान नहीं है।
11. ज्यादा से ज्यादा एफडीआई को आकर्षित करने
के लिए ''तुलनात्मक लाभ की स्थिति'' निर्मित करने के नाम पर
श्रम कानूनों में लगातार ढील दी जा रही है। पूँजीपतियों और कारखाना-मालिकों को स्वयं
अपने बारे में प्रमाणपत्र जारी करने का अधिकार दिया जा रहा है। श्रम कानूनों के
तहत उनके निरीक्षण की पुरानी व्यवस्था को खत्म किया जा रहा है और इस तरह श्रम
कानूनों का खुले तौर पर उल्लंघन किया जा रहा है। जब भी मजदूर ट्रेड यूनियन
अधिकारों या श्रम कानूनों के तहत प्राप्त अधिकारों का उपयोग करने की जुर्रत करते
हैं, उन्हें नृशंसतापूर्ण ढंग से दबाया जाता है।
12. एक नये तरह की मुहिम, दिल्ली-कोलकता और दिल्ली-मुंबई कॉरीडोर के इर्द-गिर्द विशाल राष्ट्रीय
औद्योगिक मैनुफैक्चरिंग क्षेत्र स्थापित किये जाने की मुहिम, शुरू हुई है। और इसके लिए बड़ी मात्रा में कृषि-भूमि को अधिगृहित करने की
योजना बनाई जा रही है। मजेदार बात यह है कि सेज की तरह इन औद्योगिक क्षेत्रों को
भी पब्लिक यूटिलिटी घोषित किया जाएगा और इनमें हड़ताल करने और स्वतंत्रतापूर्वक
ट्रेड यूनियन करार्रवाइयों की छूट नहीं दी जाएगी। ट्रेड यूनियन अधिकारों का मजदूर
उपयोग न कर पाएँ, इसके लिए वेतन की एक न्यूनतम सीमा तय की
जाएगी जिससे कम वेतन पाने वाले मजदूरों को ही यूनियन बनाने या यूनियन की
कार्रवाइयों में शामिल होने की छूट दी जाएगी। माना जा रहा है कि अंतिम मसविदे में
इन प्रस्तावों को हटा दिया गया है, लेकिन स्थिति अभी भी साफ
नहीं है।
13. कुल मजदूरों में से केवल 3 प्रतिशत मजदूर
ही फॉरमल व संगठित सेक्टर में कार्यरत हैं। केवल इतने मजदूरों को ही बमुश्किल
समाजिक सुरक्षा लाभ प्राप्त हो रहे हैं। बाकी के 97 प्रतिशत मजदूर इनफॉरमल सेक्टर
में लगे हैं। इन्हें शायद ही कोई समाजिक सुरक्षा लाभ प्राप्त होता हो। इन्हें
जानबूझकर श्रम कानूनों के दायरे से बाहर रखा गया है ताकि इनकी श्रमशक्ति का मनमाने
दोहन के रास्ते में कोई रूकावट न पैदा हो।
14. लगभग 836 मिलियन भारतीय आबादी 20 रूपये
प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन की आय पर जीवन यापन कर रही है। अनुसूचित जाति के 88
प्रतिशत,
पिछड़ी जातियों के 80 प्रतिशत तथा मुस्लिमों के 84 प्रतिशत लोग गरीब
या आर्थिक रूप से कमजोर ग्रुप में हैं। इनफॉरमल क्षेत्र के 79 प्रतिशत लोग भी इसी
केटेगरी में आते हैं।
15. कुल मजदूरों में से मात्र 6.4 प्रतिशत
मजदूर ही यूनियनों में संगठित हैं। 173 मिलियन वेतनभोगियों में से 73 मिलियन
मजदूरों को न्यूनतम वेतन भी प्राप्त नही होता है।
16. उदारीकरण के वर्तमान दौर में भारत में कुल
राष्ट्रीय आय में पूँजीपतियों के मुनाफे का हिस्सा लगातार और भयानक से बढ़ रहा
है जबकि मजदूरों को प्राप्त होने वाले वेतन का हिस्सा लगातार घट रहा है। इसका
सीधा अर्थ है कि मजदूरों की सामुहिक मोल-तोल करने की क्षमता में भारी गिरावट हुई
है।
17. भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में एक नये ढंग
के अत्यंत ही खतरनाक अंतरराष्ट्रीय श्रम विभाजन का जन्म भी हुआ है। देखा जा रहा
है कि श्रम केंद्रित, स्वास्थ्य के लिए खतरनाक
और पर्यावरणीय तौर पर खर्चीले मैनुफैक्चरिंग क्रिया-कलापों और अन्य तरह के
कार्यों को विकासशील देशों, खासकर के एशिया के विकासशील
देशों में स्थानांतरित किया जा रहा है। इस परिघटना ने विकासशील देशों को प्रदूषण
का स्वर्ग बना दिया है।
18. भारत में कुल विदेशी निवेश में ''डर्टी इंडस्ट्रीज'' का हिस्सा 1991-2000 के दौरान
51 प्रतिशत था। इसका 27.4 प्रतिशत उर्जा में, 4.5 प्रतिशत
केमिकल्स में, 7.5 प्रतिशत परिवहन में, 5.5 प्रतिशत धातु-निष्कर्षन में और 3.5 प्रतिशत खाद्य प्रसंस्करण में है।
इनमें से ये सभी लाल रंग से तारांकित हैं अर्थात सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले
उद्योग हैं।
19. भारत के 75000 किलोमीटर लंबे समुद्री तटों
को पूरे विश्व के कुड़े-कचरों के डंपिंग-ग्राउंड में परिवर्तित कर दिया गया है।
जले शीशे की राख, जले जस्ते की राख, बैटरी स्कार्प, गंदे और व्यर्थ व अपशिष्ट तेल और
एसबेस्टस से भरे पुराने समुद्री जहाज इन तटों पर बड़ी मात्रा में निपटाए जाते
हैं। किसी को भी आश्चर्य में डालने वाली बात यह है कि भारत प्रतिवर्ष अपने 7 वृहत
और 100 छोटे बंदरगाहों से 70000 मिट्रीक टन जिंक अपशिष्ट और लगभग 50000 मिट्रीक
टन लीड अपशिष्ट का आयात करता है। आस्ट्रेलिया, कनाडा,
इंगलैंड और अमेरिका से भारी मात्रा में प्लास्टिक और धातु के
अपश्ष्टि भारत में रिसाइक्लिंग के लिए आयातित होते हैं। यह पूरा सच नहीं, हिमपर्वत का सिरा भर है और सच्चाई की और इंगित करने वाली प्रवृति का सूचक
मात्र है। पूरी तस्वीर सच में भयावह है। भारतीय व्यापार में प्रदूषण का अनुपात
जो 1985 में 0.480 था 2000 में बढ़कर 1.38 हो चुका है। सिर्फ 2006 से 2009 के तीन
वर्षों में स्वास्थ्य के लिए खतरनाक उद्योगों की संख्या कई गुना बढ़ गई है और
वहीं इनमें कार्यरत मजदूरों की संख्या जो 2006 में 324437 थी 2009 में बढ़कर
1949977 हो गई है।
20. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के एक अनुमान के
मुताबिक भारत में 403000 लोग प्रतिवर्ष कार्य से जुड़े रोगों से मर जाते हैं।
प्रतिदिन 1000 से ज्यादा मजदूर या 46 मजदूर प्रतिघंटा पेशे से संबंधित रोगों और
कार्य के दौरान पर्याप्त सुरक्षा के अभाव से जुड़े मामलों के कारण मर जाते हैं।
भारत में पेशे से जुड़े रोगों का वर्तमान बोझ 18 मिलियन है।
21. भारत में जीडीपी का मात्र 3 प्रतिशत सवास्थ्य
सेवाओं और इसके रख-रखाव पर खर्च होता है। इसका 75 प्रतिशत उपचारात्मक स्वास्थ्य
पर खर्च होता है। पेशे से जुडे बीमारियों पर होने वाला सरकारी खर्च लगभग शून्य
है।
''सर्वहारा''
( नई सीरिज न. 3) से
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