Saturday, September 19, 2015

चीन की महामंदी और पूंजीवाद का गहराता संकट
बाजार आधारित समाजवाद का अंत
                                                                                                                           -- दामोदर

सन 1980 के दशक में जब चीन में पूँजीवाद की बहाली पूरी हो चुकी थी, तब तत्कालीन राष्ट्रपति देंग ने चीन की अर्थव्वस्था को नव-उदारवाद के रास्ते पर आगे बढाने का निर्णय लिया। उन्होंने यह दलील दी कि अमीर होना कोई गलत नहीं, यानी पूँजीवादी तरीके का इस्तेमाल जैसे मुनाफा के लिये शोषण, बाजार आधारित उत्पादन, जनता के आर्थिक स्तर में भारी असमानता और अन्य तमाम तरीके जिसके खिलाफ चीन में क्रांति हुई थी उन सभी बातों को सरकारी मान्यता प्रदान कर दी गयी।

चीन नव-उदारवाद का चेहरा बन कर उभरा, एक ऐसा मॉडल जिसे सभी अपनाना चाहते थे। यदि हम कहें कि पिछले दो-तीन दशकों का विश्व व्यापार का इतिहास चीनी व्यापर का इतिहास रहा है, तो यह कोई अतिश्‍योक्ति नहीं होगी। चीनी अर्थव्यवस्था आज दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गयी है और इसका दुनिया की जी.डी.पी. या आय में 15 फीसदी हिस्सा है। इसके अलवा विश्व के विकास में भी 25 फीसदी हिस्सा चीन का है। 1980 से 2008 तक चीनी अर्थव्यवस्था औसतन 10 प्रतिशत के दर से बढ़ती रही और पहले एशिया और फिर विश्व के ‘ग्रोथ इंजन’ या विकास का केंद्र बन कर उभरी। एक तरफ चीन में पूरी तरह से पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो चुकी थी पर वहाँ अभी भी ‘कम्युनिस्ट’ शब्द ढोने वाली पार्टी का ही राज है, जो अपने पूँजीवादी सिद्धांत को ‘बाजार आधारित समाजवाद’ के रूप में दुनिया के सामने रखती है। बाज़ार और समाजवाद का कोई मेल नहीं है, किन्तु चीन में हमें इसका नाजायज़ मेल देखने को मिला, अंतरराष्ट्रीय पूँजीवादियों के लूट और मुनाफे लिये चीनी बाजार खोल दिया गया और जनता को बहलाने के लिये समाजवाद का मुखौटा भी पहने रखा। मजदूर-किसान राज के नाम पर सर्वहारा वर्ग से गद्दारी का इतिहास चीन में बहुत पुराना है लेकिन इस लेख में यह चर्चा का विषय नहीं है।

लगभग तीन दशक तक चीन का विश्व बाजार पर तेज गति से कब्जा बढ़ता गया। नब्बे के दशक में चीन ने अपनी आर्थिक नीति में मूलभूत परिवर्तन किया। उसने निर्यात आधारित निर्माण और विकास की नीति अपनाई, जिसके तहत अंतरराष्ट्रीय पूँजी का देश में खुले रूप से स्वागत हुआ और चीनी मजदूर के अपेक्षाकृत कम वेतन, मानव संसाधन का मुनाफे के लिये असीमित दोहन पश्चिमी पूँजीपतियों के लिये वरदान सिद्ध हुआ जो अपने देश में बढ़ते वेतन और गिरते मुनाफे के कारण ‘मुनाफे का संकट’ झेल रहे थे। चीन ने अपने दरवाजे पूँजी के लिये खोल दिये, अंधाधुंध उद्योग लगने लगे और साथ में ही जनवादी सरकार के दौरान बने कल-कारखानों का निजीकरण और चीनी क्रांति उपरांत बनी व्‍यवस्‍था में मिले जनता के अधिकारों को एक-एक कर के खत्‍म कर दिया गया। चीन में आज तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टी का राज होते हुए भी मजदूरों को हड़ताल करने की मनाही है और न ही वहाँ की ट्रेड यूनियन मजदूर हित पर होते प्रहार को रोकने में दिलचस्पी रखती है।

2008 तक चीनी मॉडल पूँजीवाद के नये सिद्धांत का आगाज करने वाला बना रहा। इस प्रयोग की पूँजीवादी जगत तथा इसके द्वार स्थापित संस्थान जैसे विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष इत्यादि ने जम कर तारीफ की और वे दूसरे देशों को इसकी नकल करने की सलाह देते रहे। 

किन्तु निर्यात आधारित अर्थव्यस्था बहुत देर तक संभाली नहीं जा सकती, क्योंकि इसका आधार विदेशी बाजार होता है और घरेलु बाजार पर निर्भरता न के बराबर होती है। चीन के साथ भी कमोबेश कुछ ऐसा ही हुआ है। पिछले दस सालों में घरेलु उपभोग में बढ़ोतरी के बावजूद इस समय वहाँ घरेलु उपभोगता के द्वारा किया जाने वाला खर्च जी.डी.पी. का सिर्फ 35 फीसदी है, जो अमरीका के घरेलु उपभोग के आधे से भी कम है. यानी चीन अपने विकास के लिये पूरी तरह से विदेशी बाजार पर निर्भर है। इस बात कि पुष्टि तब हुई जब विश्व बाज़ार में मंदी आने लगी। फिर 2008 में अमरीका का वित्तीय संकट शुरू हो गया।

अमरीका और अन्य यूरोपीय देशों में माँग घटने लगी और चीन का विकास मंदा होने लगा। इस स्थिति में सरकार देश को मंदी के चंगुल से निकालने के लिये हर तरह के उपाय करने लगी। विश्व बाज़ार से निर्भरता हटाने के लिए घरेलु बाज़ार में माँग बढाने पर जोर देना शुरू किया। माँग तभी बढ़ती है जब लोगों के पास सामान खरीदने के लिये अति‍रिक्त पैसा हो। तो देश की घरेलु माँग को बढ़ाने के लिये लोगों के वेतन में भारी वृद्धि की गयी, ताकि लोगों के पास सामान खरीदने के लिये अतरिक्त पैसे हों। इस वेतन वृद्धि से एक तरफ तो माँग बढ़ी लेकिन वहीं दूसरी अोर चीन में उत्पादन लागत भी बढ़ने लगा, और इससे निर्यात आधारित मॉडल के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो गया। 2013 में ‘द इकॉनोमिस्ट’ पत्रिका में छपे एक रिपोर्ट के अनुसार चीन के मुकाबले अमरीका के कैलिफोर्निया में उत्पादन लागत केवल 10 प्रतिशत ज्यादा था, और कई सारी अमरीकी कंपनियाँ चीन से उत्पादन हटा कर वापिस अमरीका ले आईं हैं या संजीदगी से इस पर विचार कर रही हैं। 

घटते निवेश को दोबारा बढ़ाने के लिये सरकार ने प्रादेशिक सरकारों और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को लगातार प्रोत्साहित किया कि वे भारी कर्ज लेकर बुनियादी ढांचा, निर्माण-कार्य और क्षमता बढ़ाने में बड़े निवेश करें। इन सब का उद्देश्य केवल अर्थव्यस्था को किसी भी तरह से चलाते रहने का था। वित्तीय इतिहासकार एडवर्ड चांसलर ने चीन की अर्थव्यस्था पर आये संकट पर एक महत्वपूर्ण श्वेत पत्र लिखा है। जिसमें उन्होंने देश की अर्थव्यस्था का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए लिखा हैं कि -

 “वर्ष 2009 में जब हम वित्तीय संकट के बीच में फंसे हुए थे, चीन का स्थिर संपत्ति निवेश जीडीपी के 30 फीसदी से बढ़कर 58 फीसदी हो गया। पूरे वर्ष के आर्थिक विकास में इसकी हिस्सेदारी 90 फीसदी थी। कुल खर्च में बुनियादी ढांचे की हिस्सेदारी दो तिहाई थी। फिर भी चीन के पास पर्याप्त बुनियादी ढांचा मौजूद था, राजमार्ग का इस्तेमाल ओईसीडी औसत का महज 12 फीसदी था। किसी भी एशियाई अर्थव्यवस्था की तुलना में चीन में जी.डी.पी. की हिस्सेदारी के लिहाज से सबसे अधिक निवेश था।”

इस तरह के निवेश एक कृत्रिम विकास की उत्पत्ति करते है। जिसे अर्थशास्त्र की भाषा में बुलबुला कहा जाता है। आज चीन में उस बुलबुले के मौजूद होने के सारे लक्षण दिख रहें हैं। 

चांसलर के अनुसार चीन में लोग जिस तेजी के साथ कर्ज लेने की आदत डाल रहे हैं, वह अपने आप में वित्तीय बुलबुले के उठने का एक बड़ा संकेत है। 2007 से 2014 के बीच लोगों के कर्ज का अनुपात चार गुना बढ़ गया। इसी के साथ कर्ज और जी.डी.पी. का अनुपात दोगुना बढ़कर 80 फीसदी तक चला गया है। दूसरी और जमीन-जायदाद और निर्माण के कारोबार का बुलबुला तैयार किया गया, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और कई तरह की बैंकिंग गतिविधियों ने अपना पूरा योगदान दिया। लोगों पर कर्ज बढता जा रहा है। वर्ष 2009 में चीन में बैंक द्वारा दिया जाने वाला कर्ज 10 लाख करोड़ आर.एम.बी. (चीनी मुद्रा) बढ़ गया जो कि जी.डी.पी. का करीब 29 फीसदी है।  

2014 से अचल संपत्ति में भारी गिरावट आयी है, जिसकी वजह से भवन निर्माण का काम लगभग पूरी तरह से रुक गया है और देश में अधबने भवन और भुतहा शहर उभर आये हैं। सम्पति क्षेत्र का विकास लगभग शून्य है और हाल में घोषित ब्याज दरों में कटौती भी इसको पुनर्जीवित करते नहीं दिख रहे। उस पर से इस संपत्ति क्षेत्र के विकास में लगे धन चीन की सार्वजनिक बैंकों से लिये गये थे जिसका लौटना अब मुश्किल लग रहा है। और हो सकता है कि‍ यह अमरीका की तरह चीन में भी बैंकों के दिवालिया होने का संकट मंडराने लगे। बी.बी.सी. के अनुसार - 

“चीन के बैंक विशेषकर चारों सबसे बड़े सरकारी बैंकों ने वैश्विक वित्तीय संकट के बाद के वर्षों में देश में तेज विकास दर को बनाए रखने के लिए रिकार्ड उधारी दी है। हालांकि ऐसी चिंता जताई गई है कि इन पैसों का एक हिस्सा गैर उत्पादक निवेश में चला गया है और बैंक संभवतः इन ऋणों की वसूली नहीं कर पाएंगे।” 

इसके अलावा देश में बढ़ते शैडो बैंकिंग यानी गैर बैंकिंग कंपनियों द्वारा दी जाने वाली उधारी में वृद्धि भी चिंता का कारण है जिसका अर्थव्यवस्था पर प्रभाव अभी तक सामने नहीं आया है पर कई विश्लेषकों के अनुसार आर्थिक विकास के लिए एक बड़ा जोखिम है।

जमीन-जायदाद में आयी गिरावट से लोगों ने अपना पैसा शेयर बाजार में लगाना शुरू कर दिया है। सरकारी तंत्र और सरकार ने भी लोगों को शेयर बाजार का रुख करने की सलाह दी है। चीन में भारत की तरह ही ज्यादातर शेयर बाजार में छोटे निवेशकों का पैसा लगा है। बीबीसी के अनुसार - 

''चाइना हाउसहोल्ड फाइनेंस ने एक सर्वे किया। इस सर्वे में पाया गया कि नये निवेशकों की जमात में अधिकतर वे लोग शामिल हैं जिनकी संपत्ति बहुत ही कम है और जिनकी शिक्षा हाईस्कूल से ज़्यादा नहीं हो पाई है। सर्वे के मुताबिक़ 36.7 फ़ीसदी निवेशक आठवीं तक शिक्षित हैं, 14.7 फीसदी हाईस्कूल और 25.1 प्रतिशत केवल प्राइमरी तक पढ़े हैं. जबकि 5.8 फीसदी तो साक्षर तक नहीं हैं।''

सरकार ने कर्ज से लदी कंपनियों को धन इकट्ठा करने में मदद देने के लिए उभरते शेयर बाजारों के इस्तेमाल की मंजूरी दी थी। इन कम्पनियों ने छोटे निवेशक की धन कमाने की लोलुपता और बाजार के बारे में तकरीबन न के बराबर जानकारी का पूरा फ़ायदा उठाया। बी.बी.सी. की रिपोर्ट बताती है कि- 

“जून 2015 में बाजार में तेजी आने से ठीक पहले आई.पी.ओ. से इकट्ठा होने वाली कुल धनराशि 1.8 अरब अमरीकी डॉलर से बढ़कर 9.89 अरब अमरीकी डॉलर हो गई थी।”

चीन की शेयर नियामक चाइना सिक्युरिटीज़ रेगुलेटरी कमीशन के प्रवक्ता डेंग जी  ने 5 दिसंबर 2014, को चेतावनी भी दी थी। डेंग जी ने कहा था -

 "अर्थव्यवस्था के लिए बाजार का स्थिर रहना आवश्यक है... मैं निवेशकों से उम्मीद करता हूँ, खासकर छोटे और मंझोले स्तर के निवेशकों से, जो बाजार में नए हैं, कि वे तर्कसंगत तरीके से निवेश करें, बाजार का सम्मान करें और शेयर बाजार में निवेश से पहले जोखिमों का ध्यान रखें।"

लेकिन भारत में हर्षद मेहता कांड के समय छोटे और मंझोले निवेशकों ने जिस प्रकार से सारे बाजार आधारित नियमों को धत्ता बताते हुए अँधाधुंध खरीदारी की थी उसी तरह आज चीन में भी निवेशकों ने चेतावनी को नजरअंदाज करते हुए अपनी कमाई सटोरियों के हवाले कर दी। इस खेल में सबसे ज्यादा नुकसान उन पेंशनधारियों का हुआ जिन्होंने अपनी जीवन की सारी कमाई इस शेयर बाजार में डालकर सब कुछ खो दिया। नतीजा यह हुआ कि बाजार तेजी से उछाल के बाद जमीन पर आ गया। कुछ हफ्तों के अन्दर ही चीनी स्टॉक मार्केट से 3.4 ट्रिलियन (करीब 1985.39 खरब रुपये से ज्‍यादा) अमरीकी डॉलर डूब गये।

चीनी सरकार की परेशानी केवल यही अंत नहीं होती। देश की अर्थव्यवस्था पहली बार करीब 7 प्रतिशत से बढ़ी है, पर इस सरकारी आंकडे पर भी यकीन करने वालों की संख्या कम होती जा रही है। और कई चीनी विशेषज्ञों का मानना है कि वास्तविक तौर पर विकास दर 3 से 5 प्रतिशत के बीच ही है। पूँजी की बाहरी उड़ान भी चीन से शुरू हो चुकी है जो निवेशकों के गिरते भरोसे का प्रतीक है। जब से सरकार ने मुद्रा के अवमूल्यन का फैसला लिया है उसके बाद से देश का विदेशी मुद्रा भण्डार 4 ट्रिलियन (खरब) डॉलर से घट कर 3.65 खरब रह गया है इसमें करीब 350 अरब घटाव पूँजी के देश छोड़ कर जाने से है जिसका एक मुख्य कारण कम्पनियों और लोगों द्वारा अपना पैसा दूसरे देश भेजना है। 


चीन की तथाकथित कम्युनिस्ट सरकार चारों और से आर्थिक संकट में घिरती नजर आ रही है और अर्थव्यस्था ठंडी हो रही है। सरकार इससे कैसे निपटती है यह देखने योग्य है, लेकिन इतिहास साक्षी रहा है कि‍ पूँजीवादी संकट का कोई मुकम्मल हल नहीं है और चीन इसका अपवाद नहीं हो सकता। आगे क्या होगा इसका साक्षी इतिहास है लेकिन जो बात निश्चित है वो यह है कि चीनी संशोधनवादियों द्वारा दिये गये “बाज़ार आधारित समाजवाद” या चीनी छदम “समाजवाद” का यह अंत है।