महान रूसी अक्तुब्ार क्रांति का विश्व-ऐतिहासिक महत्व और उसके कुछ ठोस सबक
part - I
25 अक्तुबर 1917 (नये कैलेंडर के अनुसार 7 नवंबर 1917) के दिन, आज से 99 वर्ष पूर्व, रूस में बोल्शेविकों द्वारा संगठित सर्वहारा समाजवादी क्रांति ने पूँजीपति वर्ग का तख्ता पलट दिया था और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना की थी। 18 मार्च 1871 के दिन पेरिस कम्यूून की स्थापना और फिर साढ़े 3 महीने के भीतर ही (28 मई 1871 को) उसके पतन के बाद विश्वपूँजीवाद की चूल हिला देने वाली मजदूर-तेहनतकश वर्ग की यह पहली महान ऐतिहासिक कार्रवाई थी। इस क्रांति ने एक संक्रमणकारी सर्वहारा राज्य को जन्म दिया और मजदूर वर्ग के हमारे रूसी पूर्वजों ने एक नयी शोषणमुक्त समाज व्यवस्था बनाने के अपने चिरकालिक स्वप्न को अपनी आँँखों के समक्ष साकार हाेते देखा। पॅूंजीवाद पर दृढ़ता से विजय पाते ही उस पूँजीवादी महामारी - प्रत्येक कुछ वर्षों के अंतराल पर 'अतिउत्पादन' के कारण बार-बार प्रकट होने वालेे आर्थिक संकट और विनाश की पूँजीवाद की लाइलाज बीमारी - पर भी विजय पा लिया गया जो आज भी सभी पॅूंजीवादी मुल्कों में अनिवार्य रूप से पायी जाती है। विश्वपूँजीवाद का गला घोंट देने वाली 1930 के दशक की वैश्विक महामंदी के दौरान भी सोवियत अर्थव्यवस्था का अत्यधिक ऊँचे दर से विकास करना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। मशीनीकरण से बेरोजगारी की समस्या की तीव्रता का बढ़ना पूँजीवादी विकास की एक आम प्रवृत्ति है, लेकिन सोवियत समाजवादी विकास ने इसे भी अतीत की चीज बना दिया था। उपरोक्त महामंदी के ठीक बीचो-बीच सोवियत कृषि में अत्यंत तेजी से मशीनीकरण हुआ, लेकिन इससे बेरोजगारों की कोई फौज खड़ी नहीं हुई। ऐसी तेजी पूँजीवादी मुल्कों में बेरोजगारी को विस्फोटक स्तर पर पहुँचा देती। उल्टे, यह हुआ कि मशीनीकरण से कृषि से मुक्त हुए लाखों-करोड़ों लोगों ने समाजवादी औद्योगीकरण में हाथ बंटाये और इसके सभी मायनों में भागीदार बने। यह एक अकाट्य सच्चाई है कि स्तालिन काल तक सोवियत यूनियन में मशीनीकरण ने न तो किसी की रोजी-रोटी छीनी और न ही नई गगनचुंबी सोवियत औद्योगिक सभ्यता के मलबे के नीचे गरीब, मेहनतकश व जन साधारण लोगों की जिंदगियों को दफन होना पड़ा। जबकि दूसरी तरफ, प्रत्येक पूँजीवादी मुल्क में विकास के साथ-साथ ऐसा ही होता आया है और आज भी हो रहा है। सोवियत समाजवादी अर्थव्यवस्थाा में सोवियत मजदूर व मेहनतकश व किसान सभी नवीन सभ्यता के निर्माता भी थे और इसके स्वामी भी। राेजगार और काम के अधिकार की सौ फीसदी गारंटी तो थी ही, श्रम की गरिमा को भी प्रतिष्ठित किया गया अर्थात 'जो कााम नहीं करेगा, वह खायेगा भी नहीं' के मूलमंत्र को सोवियत संविधान की आत्मा बना दिया गया।* (*ARTICLE 12 of the Soviet Constitution constituted in 1936 under Stalin's leadership reads as such - "In the U.S.S.R. work is a duty and a matter of honour for every able-bodied citizen, in accordance with the principle: He who does not work, neither shall he eat." The principle applied in the U.S.S.R. is that of socialism : "From each according to his ability, to each according to his work.")
जब कि आज भी पूँजीवाद के तहत पूरे विश्व में भुुखमरी, कुपोषण और बेरोजगारी की समस्या का कोई समाधान नहीं हुआ है, उल्टे इसका साम्राज्य और भी ज्यादा फैलता गया है ; जब कि, इतना ही नहीं, मानवजाति के महाविनाश की आहटें भी सुनाई देने लगी हैं तथा प्रकृति के अवैज्ञानिक पूँजीवादी अतिदोहन के कारण पृथ्वी का अस्तित्व भी संकट में पड़ता दिख रहा है, तो रूसी अक्तुबर समाजवादी क्रांति आज हमारी चाहत नहीं अपितु हमारेे अस्तित्व के लिए, पूरी मानवजाति के अस्तित्व की रक्षा के लिए हमारी परम आवश्यकता के रूप में प्रकट हो रहीी है। भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में आबादी की बहुसंख्या के उत्तरोत्तर संपतिहरण व स्वत्वहरण्ा के आधार पर खड़ी और कार्यरत यह पूँजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था अब सभ्यता के विकास में रोड़े ही नहीं अटका रही है, अपितु इस अनमोल आधुनिक सभ्यता का भक्षण भी कर रही है, इसे नष्ट और बर्बाद कर रही है। पूरे विश्व में अतिप्रचुरता के बीच घोर दारिद्रय का बर्बर दृश्य इसका ही प्रमाण है। आज के विश्व की ऐसी आदमखोर अवस्था अपने आप में वह एक बड़ा कारण है जिसकी वजह से हमारे लिए और पूरी मानवजाति के लिए नवंबर क्रांति के पैगाम को एक बार फिर से पूरे शिद्दत के साथ याद करनाा जरूरी हो गया है।
क्या है नवंबर क्रांति का? वह पैगाम यह है कि पूँजीवाद पूरी तरह मानवद्रोही बन चुका है और इसे इतिहास और समााज के रंगमंच से हटाने का वक्त आ चुका है, समाज की ड्राइविंग सीट से इसे उतार फेंकने का कार्यभार, जो पहले से ही उपस्थित हो चुका था, आज फौरी जरूरत बन चुका है। इतिहास के दरबार से न्याय की वह पर्ची कट चुकी है जिसमें लिखा है कि मौत बांटने वाली इस आदमखोर पूँजीवादी व्यवस्था को तख्त पर लटकाने में देरी करना इतिहास के साथ और इसके न्याय की भी अवमानना होगी। आज इस पैगाम को याद करने का नहीं, इसे लागू करने के लिए पूरे शिद्दत से लग जाने का वक्त है।
क्या है नवंबर क्रांति का? वह पैगाम यह है कि पूँजीवाद पूरी तरह मानवद्रोही बन चुका है और इसे इतिहास और समााज के रंगमंच से हटाने का वक्त आ चुका है, समाज की ड्राइविंग सीट से इसे उतार फेंकने का कार्यभार, जो पहले से ही उपस्थित हो चुका था, आज फौरी जरूरत बन चुका है। इतिहास के दरबार से न्याय की वह पर्ची कट चुकी है जिसमें लिखा है कि मौत बांटने वाली इस आदमखोर पूँजीवादी व्यवस्था को तख्त पर लटकाने में देरी करना इतिहास के साथ और इसके न्याय की भी अवमानना होगी। आज इस पैगाम को याद करने का नहीं, इसे लागू करने के लिए पूरे शिद्दत से लग जाने का वक्त है।
खास भारत की बात करें, तो इस पैगाम का महत्व कई अर्थों में बढ़ जाता है। विगत कई दशकों के दौरान ऊपर से जारी राज्य-प्रायोजित सुधारों द्वारा हुए क्रमिक व मंद पूँजीवादी विकास का घोर अंतरविरोधी, प्रतिक्रियावादी व घिनौना स्वरूप आज अपने नग्नतम रूपों में हम सबके सामने प्रकट हो रहा है, उदघाटित हो रहा है। भारत की संपदा और यहाँँ के जन साधारण खासकर मजदूरों-मेहनतकशों के श्रम के शोषण व लूट का शायद यह सर्वाधिक निर्लज्ज व निष्ठुर दौर है जिसके हम सब गवाह बन रहे हैं। इसकी विद्रुप तस्वीर हर कहीं देखी जा सकती है। एक तरफ आँखे चौंधिया देने वाले ऐश्वर्य के चंद टापू दिखाई देते हैं, तो दूसरी तरफ कंगाली और दरिद्रता का महासमुद्र नजर आता है। एक तरफ रात-दिन गुलछर्रे उड़ाते सुविधा-संपन्न अतिधनाड्य मुट्ठी भर लोगों की एक छोटी सीमित दुनिया उग आई है, तो दूसरी तरफ कुंठा, हताशा, कुपोषण, कर्जग्रस्तता, भूख, कुपोषण और बीमारी से बजबजाती, नरक से भी बदतर, गिरती-पड़ती और बदहबास एक अलग विशाल दुनिया उठ खड़ी हुई है जो लगातार फैलती और विस्तारित होती जा रही है। आम लोगों के दुखों का मानों कोई अंत ही न हो। ऐश्वर्य और दारिद्रय का यह घिनौना वैपरित्य आज निर्लज्जता की सारी हदेंं लांघ चुका है।
कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसी बेरहम परिस्थितियाँँ दिन-प्रतिदिन क्रांतिकारी परिस्थिति को परिपक्व बना रहीं हैंं। ऐसेे में नवंबर समाजवादी क्रांति के व्यवहारिक व सैद्धांतिक दोनों तरह के अनुभवों का सटीक आकलन करना भारत के सक्रिय कम्युनिस्टों का का एक बड़ा काम है। रूसी बोल्शेविकों की क्रांतिकारी तैयारी के पूरे काल का सावधानी से सार संकलन करना और फिर उससे मिले सबकों को पूरी तरह आत्मसात करना आज हमारी फौरी जरूरत बन चुकी है। भारत में आज जिस तरह से फासीवाद अपने विजय के तरफ कदम बढ़ाता जा रहा है वह इसे और भी मौजूं बना दे रहा है। फासीवाद के खिलाफ हमारी मूहिम को किस तरह अक्तुबर क्रांति के सबकों के साथ मिलाया जाये और कैसे बिना पीछे हटेे ही दोनों कार्यभारों को एक ही रणनीति के तहत संयुक्त किया जाए यह आज का हमारा सबसे महत्वपूर्ण युगीन कार्यभार है जो यह माँँग कर रहा है कि हम नवंबर क्रांंति के अनुभवों को, इस क्रांति की तैयारी में आये तमाम नुकीले मोड़ों को और बिना किसी सांगठनिक टूट और बिखराव के कार्यनीतियों व रणनीतियों में लचीलेपन को लागू करने की बोल्शेविक विलक्षणता के स्रोतों को यानि संपूणता में बोल्शेविक क्राति के समग्र विकासक्रम को काफी नजदीकी से समझा जाये। आइये, रूसी नवंबर क्रांति के ठोस सबकों में से कुछ के बारे में हम यहाँँ बात करें। (क्रमश: जारी)
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