Monday, April 27, 2015

किस्‍त – 4
आलोचना नहीं निवेदन ............

राजनीतिक अर्थशास्‍त्र के क्षेत्र में ''महामंदी'' के लेखक नरेंद्र जी की विश्‍लेषनात्‍मक क्षमता या बौद्धिक स्‍तर क्‍या है इसके बारे में हम उनकी पुस्‍तक से उद्धरण देकर अपनी आलोचना की तीसरी किस्‍त में ही बता चुके हैं। अब यह सर्वविदित है उन्‍हें उपयोग मूल्‍य, मूल्‍य और विनिमय मूल्‍य जैसी प्राथमिक चीजों का प्राथमिक ज्ञान भी सही से नहीं है। अगर कोई पाठक गंभीरता से इस पुस्‍तक को पढ़ेगा तो वह देख सकता है कि हमारी इस बात की पुष्टि पुस्‍तक में लगभग प्रत्‍येक जगह मिलती है। मैं तो हैरान हूँ यह देखकर कि ''महामंदी'' के लेखक इस पुस्‍तक में दुनिया भर के अखबारों और पत्रिकाओं से जुटाई गई रिेपोर्टों से इतर जैसे ही अर्थशास्‍त्रीय विवेचना में जाता है, वहीं उसकी स्थित हास्‍यास्‍पद हो जाती है और तुरंत इस बात का आभास होने लगता है कि लेखक ने कम से कम मार्क्‍सवादी राजनीतिक अर्थशास्‍त्र को तो बिल्‍कुल ही नहीं समझा है। लेकिन यह देखकर कोई भी मुस्‍कुराए बिना नहीं रहेगा कि भले ही उन्‍होंने मार्क्‍सवादी राजनीतिक अर्थशास्‍त्र को नहीं समझा है या राजनीतिक अर्थशास्‍त्र की भाषा तक पर इनकी पकड़ नहीं है, लेकिन इससे जुड़े गूढ़ विषयों पर अपने अधूरे-अधकचरे ज्ञान का प्रदर्शन लेखक इतने आत्‍मविश्‍वास के साथ करता है कि एकबारगी कोई भी धोखा जाए।                

किस्‍त–4, भाग–1

जैसा कि सबको मालूम है, अपनी आलोचना की तीसरी क़िस्त में मैंने इस पुस्तक के पृष्ठ 90 पर से एक उद्धरण देकर यह बताया था कि किस तरह लेखक ने राजनीतिक अर्थशास्त्र की प्राथमिक शब्दाब्लियों को सुना भर है लेकिन समझा नहीं है!

लेकिन लेखकीय उर्जा, आत्मविश्वास और दर्प व अभिमान से लैश हमारा लेखक इस बात की कोई फ़िक्र नहीं करता! वह अपने लक्ष्य पर दृढ़ता से कायम रहता है और मार्क्स की तरह ही लाभ दर और बेशी मूल्य की दर की विवेचना गणितीय क्षगणनाओं के आधार पर करने की हिम्मत भी करता हैI

लेकिन अफ़सोस! एक बार फिर से बस यही साबित हो सका है कि आत्मविश्वास का लेखक का यह प्रदर्शन बस दिखावटी है, जो उन्हें लेखक कम नाम कमाऊ प्रवृति से ग्रसित कोई नौसिखुआ के रूप में ज्यादा पेश करता हैI   

महज़ एक पेज के उपरांत अर्थत पेज 91 पर वे मार्क्‍स के मुनाफा की दर और बेशी मूल्‍य की दर की व्‍याख्‍या प्रस्‍तुत करते हुए वह लिखता है  –

''मार्क्‍स का विचार था कि बेशी मूल्‍य मशीन से नहीं, बल्कि श्रम शक्ति से पैदा होता है, इसलिए पूँजीपति परिवर्तनशील पूँजी यानी मजदूरी पर v पूँजी खर्च कर s बेशी-मूल्य प्राप्त करता है।" (बोल्ड हमारा)

यहाँ मामूली रूप से जानकार कोई भी व्‍यक्ति यह देख सकता है कि नरेंद्र कुमार ने यह कह कर कि बेशी मूल्‍य श्रम शक्ति से पैदा होता है, एक बार फिर यह प्रदर्शित कर दिया है कि उन्हें बेशी मूल्य और बेशी मूल्य की दर के बारे में भी कोई बुनियादी समझ नहीं हैI

दरअसल, उन्होंने यह पढ़ रखा है कि बेशी-मूल्य की दर s' = s/v होता है (इसे उन्होंने इस लिखा भी है) और क्योंकि बेशी मूल्य की दर को मार्क्स बेशी मूल्य और परिवर्तनशील पूँजी, जिससे पूँजीपति श्रमशक्ति रूपी माल को खरीदता है, के अनुपात में व्यक्त करते हैं, इसीलिए बस उन्होने यह समझ लिया होगा के जरूर बेशी मूल्य श्रमशक्ति से पैदा होता हैI

यह पढ़कर कुछ लोग कह सकते हैं यानी तर्क कर सकते हैं कि लेखक ने शायद ऐसा सिर्फ चालू भाषा में यह साबित करने के लिए कहा हो कि बेशी मूल्य मशीन से नहीं पैदा होता है, बल्कि किसी और चीज़ से अर्थात श्रम शक्ति खर्च करने से (नरेंद्र जी की बात को सुधरे हुए रूप में कहें तो) पैदा होता है, जिसे अजय जी जान बुझकर extrapolate कर रहे हैं .....वगैरह वगैरह।

ऐसे लोगों के लिए जवाब लेखक नरेन्द्र जी ने ही स्वयं उपलब्ध करा दिया हैI वे दूसरी पंक्ति में ही लिखते हैं ---

"चूँकि बेशी-मूल्य सिर्फ परिवर्तनशील पूँजी से (मजदूरी) से प्राप्त होता है ..............."

तो यह रहा "महामंदी" के हमारे "महाज्ञानी" लेखक श्री नरेन्द्र कुमार जी के ज्ञान का अद्भुत चमत्कार। इस चमत्कार का प्रभाव यह है कि बेशी मूल्य, जो पहले बेशी/अतिरिक्त श्रम, जिसके लिए पूँजीपति मजदूर को एक धेला नहीं देता है, से प्राप्त होता था, अब श्रमशक्ति से या परिवर्तनशील पूँजी से प्राप्त होता है अर्थात उस पूँजी से पैदा होता है जिसे पूँजीपती मजदूर को उसकी श्रमशक्ति खरीदने के लिए अदा करता है!!

और सबसे बड़ी बात यह है कि नरेन्द्र जी का इन सबके बारे में कहना है कि ये मार्क्स के विचार है!!

मित्रों! मार्क्सवादी लोग अपने काबिल विरोधियों को भी सम्मान देते आये हैं, लेकिन हमारे इस लेखक के साथ कैसा व्यवहार किया जाए जो बात तो करता है क्रांति और समाजवाद की, लेकिन लेखक बनकर नाम कमाने की शुद्ध रूप से व्यक्तिवादी ललक के कारण मार्क्सवाद को प्रहसन की चीज़ बनाने और स्वयं को एक ....बनाने पर तुला हुआ है?

किस्‍त–4, भाग–2

पूँजीवादी संकट के कारण व आधार पर अत्‍यंत भद्दा गड़बड़झाला ------  

वे अगले ही पृष्ठ पर कहते हैं – 

"अतः यह कहा जा सकता है कि मुनाफे की दर (p') बेशी मूल्य की दर (s') से छोटी होती जाएगी..........मार्क्स ने इस आधार पर कहा कि बेशी मूल्य की दर (s') के बढ़ने के बावजूद मुनाफे की दर (p') में गिरने की प्रवृति पूँजीवादी संकट का कारण बनती है, क्योंकि पूँजीपति सिर्फ और सिर्फ मुनाफे के लिए उत्पादन करते हैंI

यानी, दूसरे शब्दों में, मार्क्सीय व्याख्या के अनुसार पूँजीवादी संकट का कारण यानी उसका आधार ''बेशी मूल्य की दर (s') के बढ़ने के बावजूद मुनाफे की दर (p') में गिरने की प्रवृति'' हैI

यह पूरी तरह गलत बात है। हालांकि उपरोक्‍त वाक्‍य में अन्‍य ग‍ड़बडि़याँ भी हैं, लेकिन उन पर बाद में। 

मित्रों, इसकी सम्पूर्ण मार्क्सीय व्याख्या लेकर आने की कोशिश हम जल्द ही करेंगेI अभी जल्दी में हम अंग्रेजी से कुछ उद्धरण भर देकर अपनी बात को ख़त्म करेंगेI

मार्क्स ''लाभ दर के गिरने की प्रवृत्ति'' के नियम को "double-edged law" के रूप में देखते और व्‍याख्‍या करते हैं। मार्क्‍स ने यह दिखाया है कि ''countervailing factors transformed this law into a tendency'' वे आगे कहते हैं -  “The law operates therefore simply as a tendency, whose effect is decisive only under certain particular circumstances and over long periods.” (Marx, Capital, vol.3, pp.326 &346, Penguin edition)

मार्क्‍स ''थ्‍योरी ऑफ सरप्‍लस वैल्‍यू'' (Marx, Theories, vol.3, p.84 ) में यह स्‍पष्‍ट तौर पर लिखते हैं कि ---

'' The fact that bourgeois production is compelled by its own immanent laws, on the one hand, to develop the productive forces as if production did not take place on a narrow restricted social foundation, while, on the other hand, it can develop these forces only within these narrow limits, is the deepest and most hidden cause of crises, of the crying contradictions within which bourgeois production is carried on and which, even at a cursory glance, reveal it as only a transitional, historical form.''
“This is grasped rather crudely but nonetheless correctly by Sismondi, for example, as a contradiction between production for the sake of production and distribution which makes absolute development of productivity impossible.” 

इसी में और आगे पृष्‍ठ 122 (Ibid, p.122) पर मार्क्‍स लिखते हैं –

'' “Overproduction, the credit system, etc., are means by which capitalist production seeks to break through its own barriers and to produce over and above its own limits… Hence crises arise, which simultaneously drive it onward and beyond [its own limits] and force it to put on seven-league boots, in order to reach a development of the productive forces which could only be achieved very slowly within its own limits.”

यही बात मार्क्‍स Capital, vol.3, p.615 पर अलग तरीके से दुहराते हुए कहते हैं कि ----- 

''The ultimate reason for all real crises always remains the poverty and restricted consumption of the masses as opposed to the drive of capitalist production to develop the productive forces as though only the absolute consuming power of society constituted their limit.” 

ड्यूहरिंग मत खंडन में एंगेल्स लिखते हैं --- 

'' We have seen that the ever increasing perfectibility of modern machinery is, by the anarchy of social production, turned into a compulsory law that forces the individual industrial capitalist always to improve his machinery, always to increase its productive force”, explains the author. “The bare possibility of extending the field of production is transformed for him into a similar compulsory law. The enormous expansive force of modern industry, compared with which that of gases is mere child’s play, appears to us now as a necessity for expansion, both qualitative and quantitative, that laughs at all resistance.” (पृष्‍ठ 326)


मित्रों, उपरोक्‍त उद्धरणों से कम से कम इतना तो स्‍पष्‍ट हो ही गया है कि मार्क्‍स ने किसी भी आधार पर यह नहीं कहा कि '' बेशी मूल्य की दर (s') के बढ़ने के बावजूद मुनाफे की दर (p') में गिरने की प्रवृति पूँजीवादी संकट का कारण बनती है''  हाँ, यह जरूर है कि  यह प्रवृत्ति पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है ...... 

(आगे भी जारी)  

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