आलोचना नहीं एक निवेदन
काश, राजनीतिक
अर्थशास्त्र पर लेखक की यह अतिम कृति हो!
भूमिका के चन्द कड़वे शब्द
भूमिका के चन्द कड़वे शब्द
नरेंद्र कुमार जी अपनी 'महान' कृति ''महामंदी''
की शुरूआत धुमिल की एक कविता और उसकी पैरोडी से और इसके तत्काल बाद एडम स्मिथ और रिकार्डो
के ''मूल्य के श्रम सिद्धांत'' पर एक टिप्पणी से शुरू करते हैं। स्मिथ और
रिकार्डो पर उनकी टिप्पणी पर बात बाद में करेंगे, लेकिन आश्चर्य है वे कविता के माध्यम
से राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझाने और व्यक्त करने की कोशिश करने वाले 'मुर्ख' कुर्गमैन,
जिसकी वे हंसी उ़ड़ाते हैं, से स्वयं ही होड़ करते प्रतीत होते हैं। लेकिन अफसोस। वे
यहाँ पिछड़ जाते हैं। जहाँ 'मुर्ख' कुर्गमैन ने अपनी स्वयं की कविता का उपयोग
किया, वहीं इन्होंने उधार ली गई एक शानदार कविता की पैरोडी का। परंतु, आइए, कौन ज्यादा
मुर्ख या चालाक है इस बात को यहीं छोड़ते हुए हम नरेंद्र कुमार जी द्वारा एडम स्मिथ और
डेविड रिकार्डो के ''मूल्य के श्रम सिद्धांत'' पर की गई इनकी टिप्पणियों पर लौट
चलें और इस बात की जाँच-परख करके यह देखने की कोशिश करें कि 'मुर्ख' कुर्गमैन से होड़
करने में पहले ही पिछड़ जाने वाले इस 'महान' लेखक की राजनीतिक अर्थशास्त्र की समझदारी
इस मुर्ख से कम है या ज्यादा ....
वे लिखते हैं – ''एडम स्मिथ तथा
रिकार्डो बर्षों पहले इस बात को बता चुके थे कि उत्पादित मालों में मूल्य का सृजन
श्रम से होता है और श्रम के इसी रूप को पूँजीपति मूल्य के रूप में
हासिल करता है।'' (बोल्ड हमारा)
अगले ही क्षण लेखक कूद कर मृत श्रम पर आ जाते
हैं और लिखते हैं – ''पूँजी की विराट राशि के रूप में यही मृत श्रम
संकेद्रित होता जाता है, लेकिन इस सिद्धांत में काफी अस्पष्टता थी।'' (बोल्ड हमारा)
सच तो यह है कि यह टिपण्णी मामूली रूप से भी
गंभीर किसी सच्चे मजूदर वर्गीय आंदोलनात्मक पर्चे में लिखे जाने योग्य भी नहीं
है। इसके अतिरिक्त लेखक ने पाठकों की एक और इच्छा भी अधूरी छोड़ दी है। जैसे स्मिथ
और रिकार्डो के बारे में अपना 'ज्ञान' इन्होंने इन उपरोक्त पंक्तियों
में उड़ेल रखा है, वैसे ही वे अपने इस ज्ञान का प्रदर्शन भी कर देते तो अच्छा था जिससे
यह पता चलता कि इस सिद्धांत में, कि ''पूँजी की विराट राशि के रूप में यही मृत
श्रम संकेद्रित होता जाता है", क्या अस्पष्टता थी या है। पाठक के नाते मैं यह जानकर
अनुगृहित ही होता कि इस संबंध में उनका यह ज्ञान भी स्मिथ, रिकार्डो और मार्क्स
पर कलम चलाने वाले एक महाज्ञानी होने के अनुरूप ही है।
लेकिन पाठकों को, और खासकर मुझे, इस बात
के लिए उनका ऋणी होना चाहिए कि कम से कम इन पंक्तियों में लेखक ने मार्क्स-एंगेल्स का
यह स्पष्ट करके बड़ा भला किया है कि श्रम, मूल्य और पूँजी के बारे में इन्होंने
जो ऊपर महान विचार प्रकट किए हैं वे मार्क्स के नहीं हैं, फिर चाहे वे वास्तव में
एडम स्मिथ और रिकार्डो के भी हो या न हों। जी हाँ, पाठक को यह जानकर आश्चर्य होगा
कि ये विचार मार्क्स के तो नहीं ही हैं, बुनियादी तौर पर या कहें बारीक तौर पर ये
एडम स्मिथ और रिकार्डो के भी नहीं हैं, भले ही लेखक नरेंद्र कुमार ने ऐसा दावा
किया है। दरअसल ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक को न तो ठीक से यह मालूम है कि एडम स्मिथ का ''मूल्य
का श्रम सिद्धांत'' क्या है तथा रिकार्डो उनकी कहाँ, किसलिए और क्या आलोचना करते
हैं और न ही उन्हें मार्क्स द्वारा इनके किए गए परिष्कार का ही ज्ञान है अथवा उससे कोई खास मतलब है।
राजनीतिक अर्थशास्त्र एक गंभीर विषय है। इसका
अध्ययन करते समय हर व्यक्ति इसकी बारीकियों पर उचित ही ध्यान देता है। और जब
कोई व्यक्ति इस पर कलम चलाता है और दावा करता है कि उसकी कृति ''क्लासिक
अर्थशास्त्र से लेकर अब तक के तमाम प्रभावशाली अर्थशास्त्रियों के विचारों व विश्लेषणों
तथा पूँजी की उत्पति से उसकी अब तक की विकास-यात्रा को ....'' को समेटे हुए है, तो
कम से यह उम्मीद हर गंभीर अध्येता करेगा कि लेखक ने महान सिद्धांतकारों का नहीं,
तो कम से कम अपने दावे का मान जरूर रखा होगा। लेकिन यहाँ तो लेखक ने हद ही कर दी है। लेखक
ने कहीं से यह आधा-अधूरा ज्ञान हासिल कर लिया है कि श्रम से मूल्य बनता है और
मूल्य से पूँजी, और बस उन्होंने अपने को स्मिथ, रिकार्डो और मार्क्स पर कलम
चलाने के लायक समझ लिया है। यह हद दर्जे के लापरवाह लेखन, जिसे फूहड़पन भी कहा जा सकता है, के अतिरिक्त और कुछ नहीं है
जिसका लक्ष्य बस अनभिज्ञ पाठकों पर यह रोब गाँठना है कि ''महामंदी'' का लेखक महाज्ञानी
भी है और राजनीतिक अर्थशास्त्र की बारीकियों को समझता ही नहीं है, उन पर कलम भी
चला सकता है। आखिर तभी तो लेखक के अंतिम लक्ष्य, जो निश्चिय ही यह होगा कि यह
कृति खूब बिके, की पूर्ति होगी।
भला हो उनका जिन्होंने यह किताब अभी तक
नहीं पढ़ी है! लेकिन जो बेचारे इसे पढ़ चुके हैं और राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे
में उनके गंभीर अध्ययन के प्रथम सत्र के अभी-अभी हुए शुभारंभ की पावन बेला में ही
उनका इस कृति/किताब से पाला पड़ चुका है, खासकर कम्युनिस्ट आंदोलन में अभी-अभी शामिल
हुए नये-नये युवाओं और छात्रों का, और अगर वे इस फूहड़पन के शिकार हो चुके हैं
और अगर अभी तक वे सचेत नहीं हुए हैं, तो निश्चय ही वे हमेशा के लिए राजनीतिक
अर्थशास्त्र की सही और वैज्ञानिक समझ से हाथ धो बैठेंगे। इस अर्थ में लेखक अक्षम्य
अपराध कर रहे है, जिसका साथ जाने या अनजाने 'संवाद प्रकाश' के जिम्मेवार लोग भी दे
रहे हैं।
नरेंद्र जी हमारे पूर्व के आंदोलन के साथी रहे हैं। जहाँ तक मैं उन्हें जानता
हूँ उसके अनुसार उनकी कृति पर कलम चलाने से बेहतर काम चादर ओढ़कर सो जाना होता,
बशर्ते पानी नाक से ऊपर न चला गया होता। उम्मीद है, हमारा साझा राजनीतिक सर्किल
और स्वयं नरेंद्र जी, हमारी बातों की तीक्ष्णता को अन्यथा नहीं लेंगे। साथीगण
यह समझेंगे कि बात अगर राजनीतिक अर्थशास्त्र जैसे गंभीर विषय की हो और सर्वोपरि
रूप से समग्रता में कार्ल-मार्क्स के सिद्धांतों पर किए जा रहे चौतरफा फुहड़पन से
भरे आधातों के खिलाफ तनकर खड़े होने की हो, तो इसे स्वस्थ वाद-विवाद का ही हिस्सा
माना जाना चाहिए।
हम आगे सिलसिलेवार ढंग से अपने मित्र लेखक की 'महान' कृति का ब्योरेबार आलोचना प्रस्तुत करेंगे, लेकिन घनी व्यस्तताओं की वज़ह से ऐसा करना एकमात्र टुकड़ो में ही संभव हो पायेगा (आगे जारी ....)
हम आगे सिलसिलेवार ढंग से अपने मित्र लेखक की 'महान' कृति का ब्योरेबार आलोचना प्रस्तुत करेंगे, लेकिन घनी व्यस्तताओं की वज़ह से ऐसा करना एकमात्र टुकड़ो में ही संभव हो पायेगा (आगे जारी ....)
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