Tuesday, January 20, 2015

सम्पादकीय (15 जनवरी 2015, "सर्वहारा")
शंकर बिगहा नरसंहार : सोलह साल आये फैसले में बरी हुए सभी 22 दलितों के 24 के हत्यारोपी

एक बार फिर दिखा न्यायालय पूर्वाग्रहित और पक्षपातपूर्ण 

शंकर बिगहा नरसंहार मामले में दो दिनों पूर्व 16 वर्षों की तपस्या के बाद जहानाबाद व्यवहार नयायालय के अतिरिक्त जिला न्यायाधिश ने जो फैसला दिया है उसने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि गैर-वर्गीय और आम तौर पर सामान्य मसलों पर अत्यंत ही संवेदनशील और क्रियाशील दिखने वाले "न्याय के मंदिर" वर्गीय तौर पर कितने पूर्वाग्रहित और यहां तक कि पक्षपातपूर्ण भी दिखते हैं. ज्ञातव्य है कि उक्त गांव में 25 जनवरी 1999 की रात में रणवीर सेना के द्वारा 22 गरीब ग्रामीणों की घुप्प अंधेरे में नृशंस हत्या कर दी गयी थी और 14 अन्य को घायल कर दिया गया था. 
न्यायालय का तर्क भी वही घिसापिटा है कि पर्याप्त सबूत नहीं थे. तो न्यायलय ने कम से कम पुलिस को फिर से अभियोग पत्र दाखिल करने के लिए क्यों नहीं कहा? आखिर क़त्ल तो हुए और किसी ने तो 22 लोगों के क़त्ल किए थे! क़त्ल मंगल ग्रह के काल्पनिक वासिंदों तो नहीं किये हैं न! लेकिन न्यायालय ने ऐसा कुछ भी नहीं किया. ऐसे फैसले आम लोगो को भी नयायालय की आलोचना के लिए तैयार करेंगे यह तय है और तब न्यायालय यह चीख पुकार करेगा कि उसका अवमानना हो रहा है.
बिहार या भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में, जहां भी वर्ग विभाजित समाज है, न्याय के इन तथाकथित मंदिरों का यही चेहरा सामने प्रकट होता रहा है. अमरीका और ब्रिटेन जैसे अत्यधिक विकसित पूंजीवादी जनतंत्रों में भी न्यायालय का न्याय वर्गीय न्याय ही होता है. अभी चंद दिनों पहले ही अमेरिका के सेंट लुई मेट्रोपोलिटन सिटी के फेर्गुसन (Ferguson) शहर में यहां के एक स्थानीय न्यायालय के ग्रैंड जूरी ने एक एक काले निर्दोष युवक की हत्या करने वाले गोरे पुलिस ऑफिसर डैरेन विल्सन को बरी कर दिया था जबकि उसे एक  व्यक्ति की जान लेने के लिए सख्त सजा होनी चाहिए थी. इसके विरुद्ध झड़पें हुईं और पूरे फेर्गुसन में काले लोगों का जबर्दश्त आन्दोलन उठ खड़ा हुआ. और यह सब तब हुआ जब अमेरिका में आज के राष्ट्रपति भी काले हैं.  
बिहार में, अभी चंद दिनों पहले ही, 2013 में, बाथे, बथानी टोला, नगरी और मियापुर में इसी रणवीर सेना के द्वारा रचाए गए नरसंहार  के मामले में भी पटना उच्च न्यायालय का एक ऐसा ही हृदयविदारक, जनविरोधी और विस्मयकारी फैसला आया था जिसका बिहार में कार्यरत सभी जनपक्षीय ताकतों ने खुलकर प्रतिवाद किया था. जन अभियान ने उक्त नरसंहार पीड़ित गावों और इलाको का बाजाप्ता दौरा करते हुए और हजारों की संख्या में परचा वितरित करते हुए इसका प्रतिवाद किया था जिसके विरुद्ध पटना उच्च नयायालय की एक तल्ख़ टिपण्णी भी सामने आई थी. 
इस मौके पर मारुती उद्योग के संघर्षशील और जेल में बंद 147 कामगारों की जमानत याचिका पर मई 2013 में हरियाणा उच्च न्यायलय का फैसला और फैसला देने वाले न्यायाधीशों के उस कमेन्ट को भी यहां याद करना चाहिए जिसने दिखाया था कि "न्याय के मंदिरों" में बैठने वाले लोग स्वयं और पूंजीवादी बुद्धिजीवी जमात चाहे जो कह लें, सच यही है कि ये 'मंदिर' भी वर्ग से ऊपर नहीं है और यहां भी सब कुछ शासक वर्गों के बुनियादी हितों को ध्यान में रखकर ही फैसले किये जाते हैं. जजों ने अपने फैसले में कहा था कि इन मजदूरों को इसलिए जमानत नहीं दी जा सकती है क्योंकि इससे देश में एफ.डी.आई. का माहौल बिगड़ेगा. तब से उनके साथी और परिजन दर्ज़नों बार उच्चतम न्यायालय का चक्कर लगा चुके हैं, लेकिन उन्हें अभी तक न्याय नहीं मिला है. न्यायालयों के वर्गीय चरित्र का इससे अधिक प्रमाण और क्या हो सकता है? 
याद रखना होगा कि मारे गए लोग महज़ "गरीब लोग" नहीं थे, वे पुरातन अर्थात ढहते सामंती समाज और इससे उभरते खुंखार पूंजीवादी भूस्वामियों द्वारा चलाये जा रहे पुराने बर्चस्व के खिलाफ जनता की चल रही राजनीतिक लड़ाई के भी वे प्रतीक थे और इसीलिए यह वर्ग शासन को मंजूर नहीं हो सकता है कि ऐसे "मारे लोगों" को न्याय मिले. यह पुराने सामंती ताकतों की एक और हर होती. न्यायलय ने सच में बड़ी वर्गीय  इमानदारी  दिखाई  है!  
जाहिर है न्यायालय स्वयं यह साबित कर रहा है कि वह न्याय का मंदिर नहीं ऊपरी तौर पर तठस्थ दिखने वाला लेकिन वास्तव में वर्ग शासन को और पुखता बनाने वाला वर्गीय शासन का एक एक और निकाय भर है. और तब इसका विरोध भी होगा और इतिहास का दरबार ऐसे फैसले लिखने वाले को ही कठघरे में रखना चाहेगा. जहानाबाद जिला अदालत का यह फैसला और इसी तरह के अन्य फैसले सच में इस बात के पुख्ता प्रमाण है इतिहास करवट लेने को बेचैन है. (15.01.2015) 
कोल इंडिया हड़ताल (पांच दिवसीय जिसे आनन-फानन में दो दिनों में ही उठा लिया गया)

फिर चढ़ाई गई मज़दूर हितों की बलि
15 जनवरी, 2015,"सर्वहारा" 


एक हड़ताल जिसकी परिणति सब को मालूम थी और जिसका ऐलान ही जीतने के लिए नहीं बल्कि हारने के लिए किया गया था - यह है संक्षेप में पांच दिवसीय कोयला हड़ताल की कहानी. 6 से 10 जनवरी तक समूचे कोयला मज़दूरों की देशव्यापी हड़ताल की घोषणा चार केंद्रीय ट्रेड यूनियनों -- बी.एम.एस, एटक, इंटक तथा एच.एम.एस द्वारा की गई थी, जिसमें बाद में सीटू भी शामिल हो गया. किन्तु जिस प्रकार से इस हड़ताल को लेकर इन यूनियनों के शीर्ष नेताओं से लेकर जमीनी कार्यकर्ताओं में मायूसी और लाचारी का भाव दिख रहा था, यह कहना कि इन यूनियनों ने लड़ाई शुरू होने से पहले ही हार स्वीकार कर ली थी, कोई गलतबयानी नहीं होगी.
रामपंथी से लेकर संसदीय वामपंथी संगठनों तक ने एक तरह से कोई तैयारी न करने का लगता है कि फैसला कर लिया था. केवल घोषणा करना और अख़बारों और टेलीविज़न में बयानबाजी करना ही अब इन नेताओं का काम रह गया है. इन घोषणावीरों के चरित्र और इनकी राजनीति को देखते हुए यह भी लगता है कि इस तरह के हड़ताल करने का उद्देश्य केवल सरकार और मैनेजमेंट को इशारा करना था कि मज़दूर लडाई के लिए तैयार नहीं हैं और वह अपनी मनमानी बिना किसी डर और मज़दूर प्रतिघात की चिंता किये बगैर कर सकते हैं. वस्तुत इस तरह की हड़ताल का मतलब एक ऐसी कार्रवाई है जिससे सरकार को संभवतः यह अहसास कराया जाता है कि मजदूर संघर्ष के लिए तैयार नहीं हैं और सरकार को बिना किसी से डरे अपना काम करते जाना चाहिए. घोषणावीर केंद्रीय यूनियनें अक्सर कहा करती हैं कि मजदूर लड़ने के लिए तैयार नहीं हैं, लेकिन उल्टे क्या इस हड़ताल में इनके खुद के कुकृत्यों से यह प्रकट नहीं हो गया कि वास्तव में कौन लड़ने के लिए तैयार नहीं है? क्या ऐसे ही नेतृत्व के भरोसे मजदूर वर्ग पूंजीपति वर्ग द्वारा किए जा रहे ताबड़तोड़ हमलों का मुंहतोड़ जवाब देगा? ऐसे नेतृत्व के भरोसे तो सिर्फ हारा जा सकता है जैसा कि इस हड़ताल का परिणाम हुआ. इनके मांगपत्र को लें. किसी को भी यह जानकर आश्चर्य होगा कि इन यूनियनों ने कोल ऑर्डिनेंस, जो वास्तव में कोल इंडिया के निजीकरण का दस्तावेज है, को खारिज करने या वापिस लेने की मांग तक नहीं की थी. ऐसा लगता है इन्होंने सिद्धांततः निजीकरण को मान लिया है और फिर बस कुछ राहत भर की मांग कर रहे थे. इसी तरह इन्होंने मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों, कारखाना कानूनों और अप्रेंटिस कानूनों में किए जा रहे घोर मजदूर विरोधी सुधारों पर भी चुप्पी साध ली थी. मांगपत्र से लेकर हड़ताल करने के इनके तरीके से यह शुरू से ही स्पष्ट था कि इन्होंने हड़ताल की घोषणा जरूर कर दी थी और ये हड़ताल में गिरते-पड़ते चली भी गईं, लेकिन इनकी मंशा मोदी सरकार के मजदूर विरोधी कदमों को वास्तव में रोकने की कतई नहीं थी. 
किन्तु इन सरकारीनिष्ठ केंद्रीय संगठनों को शायद यह आभास नहीं था कि आन्दोलन की दिशा कुछ और ही होने वाली है! बिना किसी केंद्रीय समन्वय तथा सघन और व्यवस्थित रूप से प्रयास के शुरू हुई यह हड़ताल मानो मज़दूरों के स्वस्फूर्त आन्दोलन का रूप अख्तियार कर लेने को तैयार बैठी थी. हम अपने पाठकों को यहां कोल इंडिया के बारे में कुछ बताना चाहेंगे। 
कोल इंडिया दुनिया की सबसे बड़ी कोयला खनन कंपनी है। यह कंपनी भारत में 81 प्रतिशत कोयला उत्पादन करती है, और उसका भारत के कोयला बाज़ार पर 74 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। कंपनी कोयला से चलने वाले 86 थर्मल प्लांटों में 82 को कोयला सप्लाई करती है. उसके पास हर दिन औसतन करीब 15 लाख टन कोयला उत्पादन की क्षमता है। कोल इंडिया का गठन 1975 में किया गया था. इसके गठन और अस्तित्व में आने की भी एक अपनी कहानी है. देश में 1947 के सत्ता हस्तांतरण के बाद भी कोयला उद्योग निजी कम्पनियों के हाथ में ही था. इन कम्पनियों के मालिकों का एक ही उद्देश्य था – अधिक से अधिक कोयला का दोहन. इस प्रक्रिया में उन्होंने न तो कभी नई तकनीकों का इस्तेमाल किया और न ही सुरक्षा और पर्यावरण का ही ख्याल किया. इसका नतीज़ा था कोयला उत्पादन में गतिहीनता और खतरनाक काम करने के हालात. मज़दूरों की हालत तो और भी ख़राब थी. ज्यादातर मज़दूर उस उत्पीड़ित तबके से आते थे जिन्हें मालिक आज भी जानवर से ज्यादा नहीं समझते हैं. इस हालत से निकलने के लिए हजारों मज़दूरों ने आन्दोलन की राह चुनी. उनका सीधा मुकाबला पूंजीपतियों और उनके गुंडे, जो कोयलांचल में माफिया गिरोह के रूप में काम करने लगे थे, होने लगा। सैकड़ों मज़दूरों नें इस संघर्ष में अपनी जान की बाजी लगा दी और कई तो शहीद भी हो गए. कोयलांचल की धरती मज़दूरों के संघर्ष और बलिदान की धरती रही है जिसका अपना यशस्वी और क्रांतिकारी इतिहास रहा है.  मज़दूरों के आन्दोलन और संघर्ष का नतीज़ा था कि सरकार को हार कर कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण करना पड़ा. 1 मई 1972 को देश के सभी 226 कोकिंग कोल खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और 31 जनवरी 1973 को बाकी 711 गैर-कोकिंग कोल खानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया. 
आज नवउदारवादी नीति के समर्थकों का यह कहना कि कोयला उद्योग निजी क्षेत्र द्वारा सुचारू और “ज्यादा अच्छे”  रूप से चलाया जा सकता है, सर्वथा निरर्थक और थोथी-दलील से ज्यादा कुछ नहीं है. अगर निजी क्षेत्र इतना ही पेशेवर और कुशल है, जैसा कि वह अपने ख़रीदे हुए पत्रकारों और दलाल मीडिया के द्वारा प्रचारित करता है, तो फिर पहली बात यह कि कोयला खानों का राष्ट्रीयकरण करना ही क्यों पड़ा? आखिर निजी कम्पनियों के विरुद्ध कड़ा रुख अख्तियार करते हुए उच्चतम न्यायालय को 24 दिसम्बर 2014 को यू.पी.ए सरकार द्वारा आवंटित कोयला ब्लॉकों को क्यों रद्ध करना पड़ा? इस ऐतिहासिक फैसले में न्यायालय ने सरकार की कड़े शब्दों में निंदा करते हुए कहा था कि प्राकृतिक संसाधनों को देश हित में तथा जनता के हित में उपयोग किया जाए न कि कॉरर्पोरेट मुनाफे के लिए, और इसके लिए दीर्घदर्शी (दूरगामी) नीतियां बनाई जाएं. क्या इन सब तथ्यों को देखते हुए भी हम इस बात को स्वीकार कर सकते हैं कि खानों के निजीकरण से ही देश हित की पूर्ति हो सकती है?
जैसे ही हड़ताल की घोषणा की गई, कोल इंडिया के विभिन्न कंपनियों के कामगार सड़क पर उतर गए और इस तरह से शुरू हुई कोयला मज़दूरों की पिछले 30 सालों की सबसे बड़ी औद्योगिक हड़ताल. देश में बिजली संकट मंडराने लगा और सरकार तथा पूंजीपतियों के पैर कांपने लगे. केंद्रीय विद्युत् प्राधिकरण के मुताबिक, देश भर में 100 विद्युत् प्रोजेक्ट हैं जो देश में निकाले गए कोयले से चलते हैं, इनमें से 42 प्रोजेक्ट के पास कोयले का भंडार सात दिन से कम था और 20 के पास तो चार दिन से भी कम था.
5 लाख मज़दूर हड़ताल में पूरी तरह से शामिल हो गए और कुछ इलाकों में तो इन्होनें सरकारी तंत्र का प्रतिघात भी झेला. ईस्टर्न कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड (इ.सी.एल) के राजमहल क्षेत्र में तो प्रदर्शनकारी मज़दूरों पर सरकार और मैनेजमेंट ने अपने सी.आई.एस.एफ. के सशस्त्र सैनिकों द्वारा लाठीचार्ज करवा कर 3 संघर्षरत कामगारों को बुरी तरह से घायल कर दिया जिसके कारण उनको हस्पताल में भरती होना पड़ा. इस बर्बरता की जितनी निंदा की जाए वो कम है. ऐसा लगने लगा कि यह हड़ताल सरकार पर दबाव बनाने में सफल होने को है. फिर क्या था? दूसरे दिन से ही पूंजीपतियों और सरकार की खलबलाहट साफ़ झलकने लगी थी. सरमाएदारों के संघ एसोचैम (ASSOCHAM) ने तो अपना पुराना राग भी आलापना शुरू कर दिया था. उसने दुःखपूर्वक कहा कि देश की अर्थयवस्था पूरी तरह से चरमरा जाएगी तथा देश को रोज़ 200 करोड़ रुपये का नुक्सान उठाना पड़ेगा जो कि इन मुनाफाखोरों की नींद उड़ाने के लिए काफी है. डी.एस.रावत, जो एसोचैम के महासचिव है, ने कहा कि भारत का औद्योगिक विकास प्रभावित होगा, खास कर के पूर्वी और दक्षिणी भाग, जहां पहले से भी बिजली की समस्या है, बुरी तरह प्रभावित होगा. दूसरी सभी चीज़ों (जिनमें इनका मुनाफा सर्वप्रमुख है) के लिए चिंतित रहने वाले इन लोगों के लिए किन्तु मज़दूरों की समस्या कोई मायने नहीं रखती.
एक बात जो हर हड़ताल की तरह इस बार भी सामने आई वह थी  सरकार और मीडिया का खुल कर केवल पूंजीपतियों के नफे नुक्सान का विश्लेषण करना और पूरी तरह से कामगार हितों की अनदेखी करना, मानो ऐसा प्रतीत होता है जैसे मज़दूर हड़ताल अपने मज़े के लिए करते हैं और सारे देश के कल्याण की चिंता और उसका ठेखा मुनाफाखोरों-सरमायादारों ने ले रखी है.  
     पांच दिनों की हड़ताल का असर दूसरे दिन ही दिखने लगा था और राष्ट्रव्यापी समर्थन की दिशा में कदम भी उठने लगे थे. अखबारी रिपोर्टों को भी माने तो हड़ताल पूरे कोल इंडिया में 75 से 80 फीसदी से ऊपर सफल थी. इसीएल के आसनसोल स्थित खदानों में हालांकि हड़ताल शुरू के दो दिनों में उतनी सफल नहीं मानी जाएगी, लेकिन यहां के मजदूरों में भी दूसरे दिन के अंत से गोलबंदी दिखने लगी थी. निजीकरण के विरोध में शुरू हुई पांच दिनों की इस हड़ताल को देश के 12 लाख बिजली कर्मचारियों और अभियंताओं ने भी समर्थन देने की घोषणा की थी. पर जैसा आकलन हमने हमारे पर्चे में ( खान मजदूर कमचारी यूनियन, इफ्टू द्वारा जारी पर्चे में) की थी ठीक वैसा ही हुआ. रस्मअदायगी की मंशा से उतरे दक्षिणपंथी और संशोधनवादी-वामपंथी फिर एक हुए और घुटनों के बल गिर कर नतमस्तक हो गए सरकार तथा मैनेजमेंट के सामने. अखबारों के मुताबिक छह घंटे तक चली वार्ता के बाद हड़ताल वापिस ले ली गई. हर बार की तरह न तो मज़दूरों से सलाह ली गई, न उनको किसी प्रकार की कोई सूचना मिली कि उनके नेतागण छह घंटे तक क्या बातें सरकार से कीं?
सरकार के साथ फैसला
7 तारीख को जब एक तरफ मज़दूरों पर सी.आई.एस.एफ. द्वारा सरकार-मैनेजमेंट के कहने पर लाठी चार्ज कराया जा रहा था, वहीं दिल्ली में श्रमिक नेता कोयला मंत्री के साथ हड़ताल ख़त्म करने की बात कर रहे थे. जहां सडकों पर मज़दूर शानदार संघर्ष कर रहे थे, वहीं ट्रेड यूनियन ब्यूरोक्रेसी के नेता उनकी तक़दीर को फिर से पूंजीपति सरकार के हाथ गिरवी रखने की तैयारी कर रहे थे. अखबारों में छपी खबर के मुताबिक, कोयला अध्यादेश संशोधन के लिए कमिटी बनाने पर दोनों पक्ष की सहमति हुई और कमिटी की रिपोर्ट पर अध्यादेश में आवश्यक फेरबदल करने का सरकार ने वादा किया. इसके अलावा यह भी तय हुआ कि सरकार मज़दूरों की आवास व्यवस्था पर भी विचार करेगी, यानि, सरकार ने कोई फैसला नहीं लिया केवल वायदा भर ही किया और यूनियन नेताओं ने हड़ताल वापिस ले ली. अगर सरकार की मंशा इतनी अच्छी थी तो क्यों नहीं उसने श्रमिक संगठनों की मांग के अनुसार संशोधन कर दिया? क्या यह एक और छलावा नहीं, इस तरह के वायदे न जाने कितनी बार किए  गए हैं और न जाने कितनी बार मजदूरों को छला गया है!
कोयला मंत्री ने निजी कंपनियों को आवंटित कोल ब्लॉक से उत्पादित कोयला बेचने के अधिकार पर कोई बात नहीं की, यानी कि यह बात साफ़ है की सरकार इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाने जा रही. आवंटित कोल ब्लॉक से कोयला बेचने का मतलब होगा निजीकरण, भले ही इसका नाम कुछ भी दे दिया जाए. ज्ञात रहे कि इन निजी ब्लाकों में मज़दूरों की तनख्वाह कोल इंडिया के मज़दूरों के मुकाबले एक तिहाई और कभी तो इससे भी कम होती है और मालिकों द्वारा न ही कोई सुरक्षा या किन्ही और नियमों का पालन होता है, जिसके कारण कोयला बहुत ही सस्ती कीमत में निकाली जाती है. इन कोल ब्लॉक कंपनियो का एक ही उद्देश्य होता है ज्यादा से ज्यादा संसाधनों का दोहन, भले ही उसके कारण कितनी ही जानें चली जाएं और कितने ही पर्यावरण की क्षति हो. इस प्रकार के द्वारा की जाने वाली खनन प्रणाली का नाम अंग्रेजी में Slaughter of Mine यानि "खान का वध" कहा जाता है. जहां कहीं भी इस तरीके से खनन किया गया है या किया जा रहा है, वहां मनुष्यों और पर्यावरण की भारी क्षति हुई है और साथ ही कई बड़ी दुर्घटनाएं भी घटित हुई हैं. इसी प्रणाली को सरकार लाना चाह रही है. वाकई यह सरकार मज़दूरों के अच्छे दिन लाने वाली है.
यूनियन के प्रतिनिधियों से सरकार ने यह भी पारित करवा लिया कि इस हड़ताल से हुए नुकसान की भरपाई भी मज़दूर करेंगे. इसके लिए उनको 1मिलियन (दस लाख) मीट्रिक टन का नया बढ़ा हुआ टारगेट दिया गया है.
यानि, एक तो कोई ठोस बात नहीं मानी गई, ऊपर से नया कमरतोड़ लक्ष्य. जीती हुई लड़ाई को कैसे हारा जाता है यह कोई इन श्रमिक संगठनों से सीखे!
इफ्टू का परचा और संघर्ष
लेकिन इस पूरी हड़ताल के दौरान खान मज़दूर कर्मचारी यूनियन (आई.एफ.टी.यू.-सर्वहारा) ने अपने लड़ाकू तेवर को कायम ही नहीं रखा, बल्कि मज़दूर विरोधी संगठनों को बेनक़ाब भी किया. हमने अपने पर्चे वितरित किए, प्रेस विज्ञप्ति जारी की और सबसे बढ़कर के.एम.के.यू./ आई.एफ.टी.यू.-सर्वहारा के समर्थक हड़ताल का खुल कर समर्थन किया और हड़ताल पर रहे, परंतु साथ में रणछोड़ श्रमिक नेताओं की राजनीति और लाइन का खुल कर विरोध भी किया. हमने अपने पहले पर्चे में ही यह आकलन पेश किया था कि:
''पूरी तस्वीर यह है कि मजदूर वर्ग को हर हाल में एकजुट होकर संघर्ष में उतरना ही होगा, नहीं तो सरकार मजदूरों को पूंजीपति वर्ग का पालतू जानवर बना देने में कोई कोताही नहीं करेगी. हालत यह है कि हम अब और इंतजार या देर नही कर सकते. हमें जल्द ही लड़ाई के केंद्र को मजबूत बनाना और फैलाना होगा और सीधी कार्रवाइयों में उतरना होगा. इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि हम छोटे हैं या वे बड़े हैं. असली ताकत मजदूर वर्ग की एकता में है और यह ताकत तभी उभरेगी जब हम संघर्ष के मैदान में कूदेंगे. असल बात है वक्त का नब्ज पकड़ना और फिर उसके अनुरूप तैयारी में लगना. मजदूर वर्ग की ताकत एकमात्र वर्ग संघर्ष में ही खुल कर प्रकट होती है.''
''इसीलिए आईएफटीयू और खान मजदूर कर्मचारी यूनियन अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों सहित सभी लड़ाकू मजदूरों से यह आहवान करता है कि बिना कोई वक्त गंवाए तथा केंद्रीय यूनियनों के नेतृत्व की जमीर और उनकी अंतरात्मा के जगने का और इंतजार किए बिना पूंजीपति वर्ग के हमलों का मुंहतोड़ जवाब देने हेतु हर स्तर पर सीधी कार्रवाइयों मे एकजुट हो उतरें और अंतिम जीत हासिल करने के मजदूरवर्गीय दमखम के परिचय दें. केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के तौर तरीकों से यह स्पष्ट है कि इस पांच दिवसीय दंतविहीन हड़ताल का केंद्रीय सरकार पर रत्ती भर भी प्रभाव नहीं पड़ेगा, उल्टे, वह और बड़े हमले के लिए प्रोत्साहित होगी. इसीलिए हमें जल्द ही समय को मुट्ठियों में पकड़कर इस लड़ाई को अंजाम तक ले जाने की तैयारी में लग जाना चाहिए. हमें पूरा विश्वास है कि एकमात्र इसी तरीके से मजदूर वर्ग केंद्रीय सरकार के बुरे मंसूबों और साथ ही साथ केंद्रीय यूनियनों के नक्कारेपन और नाकाबिलियत का मुंहतोड़ जवाब देते हुए अपनी ऐतिहासिक जीत की मंजिल पर पहुंच सकता है.'' 
अपने सीमित प्रभाव क्षेत्र में ही सही लेकिन आई.एफ.टी.यू.-सर्वहारा ने मज़दूर राजनीति में क्रांतिकारी लाइन को आगे बढ़ाते हुए मार्क्सवाद-लेनिनवाद के लाल झंडे को धूलधूसरित नहीं होने दिया. कार्ल मार्क्स ने लिखा है कि “इतिहास खुद को दोहराता है, पहली बार एक त्रासदी की तरह, दूसरी बार एक मज़ाक की तरह.”  यदि 24 नवम्बर की हड़ताल का न होना एक त्रासदी थी, तो इस बार के हड़ताल का वापिस होना एक मजाक, यद्यपि एक क्रूर मजाक! 
लेकिन इस नवउदारवादी व्यवस्था में मज़दूर हितों की बात कोई क्यों करेगा! इस पर विचार तो सर्वहारा वर्ग को ही करना होगा. वह कब करता है इसका हम सबको इंतज़ार है. n

Tuesday, January 13, 2015

सेन्ट्रल ट्रेड यूनियनों द्वारा पांच दिवसीय जुझारू हड़ताल को एकाएक बेनतीजा ख़त्म किये जाने के विरुद्ध आइ.एफ.टी.यू. (सर्वहारा) और खान मज़दूर कर्मचारी यूनियन द्वारा जारी परचा 


     जुझारू रूप ले रहे पांच दिवसीय कोल इंडिया हड़ताल को दो दिनों में ही बेनतीजा ख़त्म क्यों किया, जवाब दो!


मजदूर भाइयो ! आई.एफ.टी.यू. की रैली व सभा में जुटें और राष्ट्रव्यापी मजदूर  आन्दोलन के नए क्रांतिकारी प्लेटफॉर्म के निर्माण में पूरी ताकत से आगे आएं

मजदूर भाइयों, 
वही हुआ जिसका अंदेशा हमें ही नहीं मजदूरों को भी था. हमने पहले वाले पर्चे में स्‍पष्‍ट संकेत भी दिया था और  फिर से यह साबित भी हुआ कि सेंट्रल यूनियनें अब संघर्ष की रस्मअदायगी निभाने की नीयत और क्षमता दोनों खो चुकी हैं. इन्होंने हड़ताल तब बेनतीजा वापस ले ली जब पूरे कोल इंडिया में यह पहली बार सफलतापूर्वक (80%) जारी थी और मजदूर लाठी खाकर भी इसे और तेज करने के लिए तैयार थे. राजमहल में हुई लाठीचार्ज के बाद की स्थिति यही बता रही थी. लेकिन सेंट्रल यूनियनें? ऐसा लगा कि सोये शेर (मजदूर वर्ग) के जगने से सरकार से ज्‍यादा ये ही बुरी तरह घबड़ा गईं! इनकी ऐसी करतूतों से ही मजदूर संघर्ष और हड़ताल से विमुख होते गए हैं. इनकी ऐसी कारगुजारियों का एक लम्बा इतिहास है जिससे यह लगभग तय था कि ये भाग खड़े होंगे और सरकार से हाथ मिला लेंगे. हमने ये बातें 3 जनवरी को आसनसोल में हुई इनकी सयुंक्‍त बैठक में भी कही थी और इसीलिए हड़ताल में साथ रहते हुए भी इनके साथ संयुक्‍त रूप से हस्‍ताक्षर नहीं ‍किया था.
     भाइयों, इस तरह की हड़ताल की खानापूर्ति से मजदूर लड़ाई लड़ने के पहले ही पराजित हो जाते हैं और सरकार को और भी बड़े हमले करने का प्रोत्साहन मिलता है. और ठीक यही हुआ है. मिटींग से निकलते हुए कोयला मंत्री ने अकड़ते हुए साफ-साफ कहा कि कोल इंडिया को लेकर सरकार की नीतियों और मुख्यत: कोल ऑर्डिनेंस को लागू करने की सरकारी नीति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है. यह हड़ताल मूलत: कोल इंडिया के निजीकरण की चल रही प्रक्रिया को थामने हेतु बुलाई गई थी, लेकिन, उल्टा यह हुआ कि ये यूनियनें वार्ता से एक बढ़ा हुआ और एक मिलियन मीट्रिक टन अतिरिक्त उत्‍पादन का लक्ष्‍य लेकर लौटीं, जैसा कि दूसरे दिन सभी अंग्रेजी अखबारों में कोयला मंत्री का बयान छपा है! 2019-20 तक कुल 100 करोड़ टन कोयला उत्पादन का लक्ष्य दिया गया है!! स्पष्ट है मजदूरों के ऊपर वर्कलोड और बढेगा! ''चौबे गए छब्‍बे बनने, दुब्‍बे बन के लौटे" इसी को कहते हैं. हां, एक कमिटी का आश्‍वासन जरूर मिला जो यह देखेगी कि (कोल ऑर्डिनेंस लागू होने से) मजदूरों को कोई हानि न हो. यह तो अत्यंत ही बेहूदी बात है. कोई हमारा घर छीन ले और फिर यह कहे कि आपको दिक्कत न हो इसके लिए यह कमिटी लीजिए और शिकायत करिए! हम यह देख सकते हैं कि हड़ताल के नाम पर मजदूरों के साथ यह कैसा भद्दा मजाक किया गया है. हमने हड़ताल के दो दिन पूर्व जारी अपने पर्चे में इसके बारे में आगाह किया था – ''हम अगर इनके द्वारा जारी मांगपत्र को लें तो यह जानकर आश्चर्य होगा कि वे कोल ऑर्डिनेंस, जो कोल इंडिया के निजीकरण का दस्तावेज है, को निरस्त करने की मांग ही नहीं कर रहे हैं. ऐसा लगता है मानों इन्होंने कोल इंडिया के निजीकरण को सिद्धांतत: स्वीकार कर लिया है और फिर इसकी एवज में बस कुछ राहत की मांग कर रहे हैं. इसी तरह इन्होंने मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों, कारखाना कानूनों और अप्रेंटिस कानूनों में किए जा रहे घोर मजदूर विरोधी सुधारों पर भी चुप्पी साध ली है. मांग पत्र से लेकर हड़ताल के इनके तौर-तरीकों से अर्थात सभी मायनों में यह स्पष्ट है कि इन्होंने हड़ताल की घोषणा अवश्य कर दी है और हो सकता है कि वे किसी तरह हड़ताल में उतर भी जाएं, लेकिन इनकी मंशा मोदी सरकार के मजदूर विरोधी कदमों को रोकने की कतई नहीं है.'' आज इस पर्चे की एक-एक बात सच साबित हुई है. अब ये यूनियनें यह प्रचार करेंगी कि सरकार ने निजीकरण न करने का आश्वासन दिया है, लेकिन मजदूरों को इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए. जब तक कोल ऑर्डिनेंस है, तब तक यह खतरा भी है. कोल ऑर्डिनेंस में यह लिखा है ''कोई कंपनी या संयुक्त उद्यम (जिसे परमिट प्राप्त है) अपनी मर्जी से चाहे अपनी खपत के लिए, चाहे बिक्री के लिए या फिर किसी अन्य उद्देश्य के लिए यानि किसी भी रूप में, परमिट के अनुसार, कोयला खनन कर सकता है.'' इसका सीधा अर्थ यही है कि कोल ऑर्डिनेंस लागू होगा, तो निजीकरण भी होकर रहेगा.   
     स्पष्ट है मोदी सरकार निजीकरण करेगी और ये यूनियनें अब चेहरा बचाने के लिए मजदूरों को भरमाएंगी कि सरकार ने निजीकरण नहीं करने का वचन दिया है आदि. दरअसल सरकार निजीकरण करने के पहले कोल ऑर्डिनेंस को लागू करके निजीकरण का आधार पुख्ता करना चाहती है जिसकी अनुमति ये यूनियनें 7 जनवरी की वार्ता में सरकार को दे आई हैं.


     मजदूर भाइयों, अब यह सवाल है कि मजदूर क्या करें? क्या मजदूर इन सेंट्रल यूनियनों के भरोसे बैठे रहें या फिर इन्हें पीछे छोड़ते हुए लड़ाई की कमान अपने हाथ में लेने की कोशिश करें? आई.एफ.टी.यू. (सर्वहारा) का स्पष्ट मानना है कि आम तौर पर समग्र मजदूर आंदोलन और खासकर कोयला मजदूर आंदोलन के वर्तमान हस्र को देखते हुए अब इसमें देर नहीं करना चाहिए कि राष्ट्रव्यापी कोयला मजदूर आंदोलन के एक नए क्रांतिकारी प्लेटफॉर्म के निर्माण के लिए हम खुलकर आगे आएं. हमें इस उहापोह से भी निकल जाना चाहिए कि एकमात्र सेंट्रल यूनियनें ही राष्ट्रव्यापी आंदोलन चला सकती हैं. हमें अब सेंट्रल ट्रेड यूनियनों की चिंता छोड़ देनी चाहिए. आखिर मजदूर कब तक इनके भरोसे लूटते रहेंगे. हम यह नहीं भूलें कि हम अगर नहीं लड़े और कमर नहीं कसे तो सरकार हमें पूंजीपति वर्ग का पालतू जानवर बना देने में कोताही नहीं करेगी. इसीलिए साथियों, आइए, इस विकट परिस्थिति में हम संघर्ष के नये प्लेटफॉर्म को पूरे कोल इंडिया में बनाने में लगें. लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है. जंग नए सिरे से और नए रूप में जारी है. आइए, यूनियन का दायरा तोड़ते हुए एक वर्ग के बतौर एकजुट हो एक नये राष्‍ट्रव्‍यापी जंगी प्‍लेटफॉर्म की तैयारी में लगें. 

रैली व सभा का विवरण इस प्रकार है -----
1.       झांझरा, 18 जनवरी, 4.30 बजे शाम हिंदी स्‍कूल परिसर में  
2.       केंदा, 19 जनवरी, 4.30 बजे शाम, बहुला बाज़ार में
3.       पांडेश्‍वर, 20 जनवरी 4.30 बजे शाम, डालूबांध कोलियरी ऑफिस के सामने             केन्द्रीय कमिटी
खान मजदूर कर्मचारी यूनियन
आई.एफ.टी.यू. (सर्वहारा)
मोबाइल संपर्क (0)9434577334

खान मजदूर कर्मचारी यूनियन के लिए कॉमरेड कान्‍हाई बर्णवाल, महा‍सचिव, आईएफटीयू ऑफिस, हरिपुर द्वारा जारी और लोकनाथ प्रिंटर्स द्वारा मुद्रित (14.01.2015)  

Friday, January 9, 2015

KHAN MAZDOOR KARMCHARI UNION
Central Office - Haripur, Raniganj (West Bengal)
(Affiliated to IFTU-sarwahara)
Regd. No. 14856
Ref. No…                                                                            date: 09.01.2015


Press Release

Khan Mazdoor Karmachari Union (affiliated to Indian Federation of Trade Unions – Sarwahara) expresses its following concerns and comments on the Coal India workers’ strike that unfortunately has already been called off abruptly in the middle on flimsy grounds and without any tangible gain except for few hollow, useless and old assurances given by the Coal Minister Piyush Goel      


·         First of all, we strongly condemn the barbaric lathicharge (baton charge) against the striking coal workers in the Rajmahal area of Eastern Coalfields Limited (ECL). As is well known, in this barbaric incident three workers have been injured and they are still hospitalised.
·      
         Khan Mazdoor Karmchari Union as also the coal workers at large are aghast at the way the Central Trade Unions’ have called off the successfully ongoing Coal India workers’ strike in the late evening on 7th Jan 2014 itself Just on few flimsy, completely unsubstantiated and hollow assurances delivered by Coal Minister in his meeting with five TUs leaders. The minister as well as the leaders of the five TUs is keeping mum on issues pertaining to scraping of Coal Ordinance, stopping of Privatization move of CIL and altogether an end to the system/policy of contractualization of work force in CIL. The Coal Minister reportedly gave an assurance that there was no move on the part of the central govt. to privatize CIL, while the Coal Ordinance unambiguously speaks that ‘a company or a joint venture…may carry on coal mining operations in India in any form either for own consumption, sale or for other purposes in accordance with the permit…’ (quoted from the ordinance) which amply shows the real intention of the govt. Notwithstanding what the Coal Minister assured the TUs leaders, anyone can clearly see privatization creeping in here in the guise of Coal Ordinance. Only those who don’t want to see can overlook this.

·         Apart from this, the way the central TUs ignored the issue of labor laws reform in this strike was also appalling and brought to light their doubtful behavior as well as their collusion with the govt. from the very beginning.

·         This has shown that the mainstream Central Trade Unions (BMS, HMS, INTUC, AITUC and CITU etc.) have already accepted in principle the Coal India Privatization Move of the central Govt. and begging for, in lieu of this, just some safety mechanism in that to befool and hoodwink the belligerent workers and save their faces.          

·         Not to mention, these were the main issues on which their call of Coal India workers strike gained unprecedented support of the workers even though Central TUs practically did nothing on the ground to make it a successful great event.

·         The reason (one of many other reasons, of course) of this is now obvious, as usual. They all (the central TUs-the lackeys of capital) fear an awaken lion (working class) and didn’t ever wish to agitate it and wake up. However, the lion woke up this time. Its natural class instinct forced it to wake up and grab this opportunity to give a strong rebuttal against Modi’s government pro-capital move. We see that a kind of militancy was growing from the second day in the face of state machinery gearing up for using force to tame the strikers as shown amply by the incident of Rajmahal area as also in other areas of CIL. The Lion not only woke up, it was becoming ferocious, too. This caught the central TUs unaware, got their hands and feet swollen out of fear and finally wrote the future course of sheer and openly capitulationalistic actions of the central TUs. They not only ran away from the battle field, but also sided with the enemies of the workers.

·         KMKU firmly expresses it deep concern over such developments as, on the one hand, the coal ordinance is definitely a big threat in the direction of Privatization of CIL and, on the other hand, the mainstream central trade Unions are rendering their services not to workers but to the central Govt. 
·         In Such heavily disturbing circumstances, IFTU and KMKU feels duty bound, on the one hand, to expose the anti-working class character of these Central Trade unions and, on the other hand, place an alternative way i.e. program and platform in front of the Coal India workers to galvanize their anger and actions so that a direct and head on struggle against privatization of CIL and other pro-capitalist moves be launched as soon as possible in the coming days or months.
·         We are already out in the open questioning the abrupt withdrawal of the strike and exposing the character of the central TUs. We are also directly calling upon the workers to strengthen IFTU and KMKU as the new alternative fighting center and platform of Coal workers.

·         We held on 8th Jan, just the other day of calling off the strike, a “Bhandafor Rally” (exposer rally and compaign) in Kenda Area of ECL, a motorcycle “Bhandafor Rally” in Pandeshwar Area on the same day and yet again a “Bhandafor Rally” in Jhanjra Area on 9th Jan. This will continue in the whole of ECL. We are summoning all our forces at our disposal to quickly go to workers to stop them from falling into depression due to capitulation of central TUs. We have also decided to hold three huge mass meetings in three different areas of ECL. Pamphlets and literature are being prepared to be circulated in huge amount in the whole of ECL. We are also trying to establish connections and contacts with the belligerent workers of other ECL subsidiaries, too.  

·         We also earnestly and urgently call upon all the other small or big but truly fighting centers and organizations operating in Coal India to immediately get united in joint actions or otherwise with KMKU under the heroic banner of IFTU (sarwahara) so that a strong and powerful coal workers movement be launched in near future, not only to stop privatization per se, but, to coordinate and unite with the workers of all categories and industries so that an all India proletarian offensive against big capitalists and their lackeys, who are hell bent to decimate the workers, be launched and won.
·         We sincerely hope that the day is bound to come when the workers of this country along with their fighting allies i.e. the rural proletariat and the small and poor peasantry will win the final battle of freedom, liberty, democracy and socialism in this country.
            
KMKU (IFTU-S) offers its revolutionary red salute to all the belligerent workers whose actions forced the central TUs to come in their true color!
With Revolutionary Greetings
Central Committee
Khan Mazdoor Karmachari Union
Indian Federation of Trade Unions – Sarwahara

Signed by :

1.       Kanai Baranwal, GS, KMKU
2.       Damodar, Central Committee Member, KMKU

Wednesday, January 7, 2015

Barbaric lathicharge by CISF personnel on the striking workers of Rajmahal (ECL)

The state brutality on the belligerent Coal workers shows the real intention of the Government

IFTU and KMKU strongly Condemns and opposes the barbaric lathicharge by CISF personnel on the striking workers of Rajmahal (ECL) at the behest of Management in which at least three workers are seriously injured and have been hospitalised

As it is well known, the Coal India workers are on five days strike from yesterday 6th January 2015. Today was the second day of the strike. Although there is no doubt that the central trade unions that are behind it are in consonance with the basic direction of liberalisation, privatisation and globalisation on which the Modi Government. is moving with full speed and they are hand in glove with it (the Modi Govt.) so far as the implementation of the basic direction is concerned, yet the workers struggle or strike, even if led by pro-capitalist and pro-Government unions which continue even for a short period, generates a lot of heat, hatred and panic among the bourgeoisie and its lackeys. Today’s incident at Rajmahal colliery where striking workers have been brutally lathicharged and many of them are injured is just the outcome of this situation. It is true that the workers struggle in any form or led by any force be it revolutionary or reactionary generates a lot of anxiety among the capitalists. Even a strike led mainly by BMS, a RSS/ BJP affiliated trade union, is bound to become intolerable for them, if it anyhow embraces within it even a part of workers' sentiment, sympathy and initiative. The very unfolding of workers' initiatives on truly working class issues is dangerous! After all workers are workers and their demands are after all the demands of a class which is the gravedigger of capitalism!! How can the capitalists and its state machinery tolerate them even if led by their darlings and hirelings!!! This is the basic difference even between the partial struggles of the proletariat and those of other propertied classes. The brutal lathicharge on striking workers of Rajmahal todays has amply proved it once again.

Let us all, one and all, come forward to condemn, oppose and resist the above ghastly incident and come to resist all the way on the road any possibilities of further brutalities to be let loose    

Description: https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi6zCFtacuOwbaOPsYUUGBna8WEJWzR-fZG8Edhog8Labl0Csj-Lm9Ktei0lthpqB7WmmDV3NPBY1M3aZdxFa_g52Sn9M2E3lcEH4TG4qgnySVbYX858KnVxQ7SVNjxhwN8WoeDTrLHLb5X/s1600/IMG_5078.JPG


We know that the Modi Government is different from UPA II Government. in the sense that apart from being an out and out a reactionary government with sweet words as promises for the people while delivering the real benefits to the capitalists. It has proved the old English saying “A honey tongue, a heart of gall” true for the working class.

One of the leaders of BMS was yesterday talking to a TV reporter that BMS and other TUs were not consulted before bringing into force the Coal Ordinance. How strange! Has this strike been called just because Modi didn't talk to and take into confidence BMS and other TUs? How could the dreaded Coal Ordinance have been different if Modi had managed some time to talk to the representative of trade unions? Is this the reason that the Strikers' leaders didn't include in the charter of demands a straight forward demand to "scrape the Coal Ordinance"? Not only that, no word has been said about labor laws reforms! 

In ECL, no ground preparation whatsoever was taken up to make the call of five days strike a success. Same would have been the situation elsewhere too. However workers in most areas took the call seriously in WCL, BCCL, ACCL etc simply because they understand the danger and the impact that this dreaded coal ordinance would have on their life and livelihood. It is equally true that the workers can't  win their struggle and get the whole process of LPG rolled back unless and until they come out of the influence of these pro-capital and revisionist-opportunist and white collar central TUs and launch a decisive struggle leading to an all-out effort to get the Government and capitalist class kneel down before them. And such a struggle, which is of course the need of the hour, is out of question until and unless such Unions are ousted from the wkg class sphere/areas or at least cornered to a larged extent. This must not be forgotten and lost sight of. 

Workers and Comrades! For a decisive struggle, unite as a class around an anti-capitalist organization!

Let us wrest the leadership of the workers movement from the lackeys of capital           
    


Monday, January 5, 2015

Booklet on Biometric Attendance that contains a short report of KMKU's fight against Biometics Attendance in ECL 


https://docs.google.com/viewer?a=v&pid=sites&srcid=ZGVmYXVsdGRvbWFpbnxwcmNjcGltbHxneDo2ZjdlZTE5ZDY1MTUxMDNh
सेंट्रल यूनियनों ने एक बार फिर की जमीनी तैयारी के बिना हड़ताल की घोषणा और दिखाई लड़ाई के पहले ही पीठ 
दुहराई जा रही है असफल हउ़ाताल के जरिए मजदूर वर्ग को युद्ध के पहले ही पराजित करने की पुरानी कहानी 

मजदूर भाइयों, एकमात्र मजदूर वर्ग की एकजुट और वास्‍तविक दहाड़ ही
ठिकाने लगा सकती है पूंजीवादी सरकारों और प्रबंधन के दिमाग

साथियों,

केंद्र की मोदी सरकार बड़े पूंजीपतियों से हाथ मिलाते हुए कोयला मजदूरों के ऊपर एक और बड़े हमले की तैयारी कर रही है. अब बात कोल ऑर्डिनेंस अर्थात कोल इंडिया के निजीकरण तक पहुंच गई है. कोल इंडिया के 10 प्रतिशत शेयर बेचे जा चुके हैं] कोयला खदानों की कमर्शियल माइनिंग की इजाजत दे दी गई है. ठेकेदार मजदूरों को भारी संख्‍या में बहाल करके सरकार परमानेंट मजदूरों के हाथ पैर पहले बांध्‍ दिए हैं. स्थिति यह है कि पूरे कोल इंडिया में अब कुल कॉन्‍ट्रैक्‍ट मजदूरों की संख्‍या जल्‍द ही कुल परमानेंट मजदूरों की संख्‍या से अधिक हो जाएगी. केंद्रीय सरकार के श्रम मंत्रालय द्वारा 21.06.1988 को निर्गत उस नोटिफिकेशन का व्‍यवहारत निरस्‍त कर दिया गया है जिसके अनुसार खतरनाक, प्रतिब‍ंधित और स्‍थाई प्रकृति वाले कार्यों में कांटैक्‍ट मजदूरों की बहाली पर रोक के प्रावधान हैं. भूमिगत खदानों से लेकर अत्‍याधुनिक मशीनों से होने वाले कार्यों तक में कांट्रैक्‍ट मजदूरो को लगाया जा रहा है और उनका जमकर शोषण किया जा रहा है. इसके अतिरिक्‍त श्रम कानून एक्‍ट 1988, कारखाना एक्‍ट 1948 और अप्रें‍टिस एक्‍ट 1961 में ऐसे परिवर्तन किए जा रहे है जिनके पास होने का मतलब संक्षेप यह है कि मजदूर वर्ग को केंद्रीय सरकार जानवरों की तरह हांकने की तैयारी कर रही है. सारे अधिकार पूंजीपतियो को दिए जा रहे है. मजदूर वर्ग को बस गुलाम की तरह काम में लगे रहने के लिए कहा जा रहा है. मोदी सरकार के आने से जो ‘आशा’ बंधी थी, वह अब घोर निराशा में बदल चुकी है. बैंक, बीमा, रेलवे सहित सभी उद्योगों के मजदूर और कामगार निजीकरण, विनिवेशीकरण, ठेकेदारीकरण और एफडीआई आदि की नीतियो के खिलाफ गुस्‍से से भरे है और बुरी तरह आक्रोशित हैं. किसान वर्ग और युवा वर्ग तथा आम जन भी पूंजीपति वर्ग के हमलो से परेशान है. जमीन अधिग्रहण कानून में संशोधन करके किसानों की जमीन को जबर्दस्‍ती कब्‍जाने की नीति पर मोदी सरकार तेजी से काम कर रही है. महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी तथा कुपाषण की स्थिति और बदतर हुई है. इसलिए संघर्ष और लड़ाई का होना लाजिमी और आवश्‍यक दोनों है. मजदूर वर्ग को ही, खासकर औद्योगिक मजदूरों को इस लड़ाई का नेतृत्‍व करना होगा.

लेकिन दूसरी तरफ हम यह भी देख रहे हैं कि हमारी तथाकथित सेट्रल ट्रेड यूनियनें संघर्ष के बदले संघर्ष की खानापूर्ति करने में लगी है. क्‍या कोई यह दावा कर सकता है कि 6-10 जनवरी की प्रस्‍तावित पांच दिवसीय कोल इंडिया हड़ताल को सफल बनाने के लिए कोई जमीनी तैयारी की गई थी? ऐसा लगता है कि बस घोषणा कर देना ही इनका काम है और मजदूरों के बीच प्रचार करना, पर्चा-पोस्‍टर जारी करना, मजदूरों के बीच सघन और व्‍यवस्‍थित रूप से आह्रवान करना ताकि मजदूरों को संघर्ष के आहवान पर भरोसा हो सके आदि यह सब इनका काम नहीं है. वस्‍तुत इस तरह की हड़ताल का मतलब एक ऐसी कार्रवाई है जिससे सरकार को संभवत यह अहसास कराया जाता है कि मजदूर संघर्ष के लिए तैयार नहीं है और सरकार को बिना किसी से डरे अपना काम करते जाना चाहिए. घोषणावीर केंद्रीय यूनियने कहती हैं कि मजदूर लड़ने के लिए तैयार नहीं है, लेकिन उल्‍टे क्‍या इनके अपने कृत्‍यों से ही यह प्रकट नहीं हो जा रहा है कि स्‍वयं ये यूनियने ही लड़ाई का नेतृत्‍व करने लायक नहीं रह गई हैं? क्‍या इसी तरह की नपुंसक, दंतविहीन और ठूंठ घोषणा के बल पर ही मजदूर पूंजीपति वर्ग द्वारा किए जा रहे ताबड़तोड़ हमलों का मुंहतोड़ जवाब देगा? क्‍या ये केंद्रीय यूनियने बस अखबारी यूनियनें बन कर नहीं रह गई हैं? हम अगर इनके द्वारा जारी मांगपत्र को लें तो मजदूरों को यह जानकर आश्‍चर्य होगा कि ये यूनियने कोल ऑर्डिनेंस, जो वास्‍तव में कोल इंडिया के निजीकरण का दस्‍तावेज है, को खारिज करने या वापिस लेने की मांग तक नहीं कर रही हैं. ऐसा लगता है मानों इन्‍होंने निजीकरण को मान लिया है और फिर कुछ राहत भर की मांग कर रहे हैं. इसी तरह इन्‍होंने मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों, कारखाना कानूनों और अप्रेंटिस कानूनों में किए जा रहे घोर मजदूर विरोधी सुधारों पर भी चुप्‍पी साध ली है. मांगपत्र से लेकर हड़ताल करने के इनके तरीके अर्थात सभी मायनों में यह स्‍पष्‍ट है कि इन्‍होंने हड़ताल की घोषणा जरूर कर दी है और हो सकता है कि ये किसी तरह हड़ताल में भी चले जाएं, लेकिन इनकी मंशा मोदी सरकार के मजदूर विरोधी कदमों को वास्‍तव में रोकने की कतई नहीं है.
            मजदूर भाइयों, केंद्रीय यूनियने लड़ना चाहती हैं या नहीं यह तस्‍वीर का मात्र एक पहलू है. पूरी तस्‍वीर यह है कि मजदूर वर्ग को हर हाल में एकजुट होकर संघर्ष में उतरना ही होगा, नहीं तो सरकार मजदूरों को पूंजीपति वर्ग का पालतू जानवर बना देने में कोई कोताही नहीं करेगी. हालत यह है कि हम अब और इंतजार या देर नही कर सकते. हमें जल्‍द ही लड़ाई के केंद्र को मजबूत बनाना और फैलाना होगा और सीधी कार्रवाइयों में उतरना होगा. इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि हम छोटे हैं या वे बड़े हैं. असली ताकत मजदूर वर्ग की एकता में है और यह ताकत तभी उभरेगी जब हम संघर्ष के मैदान में कूदेंगे. असल बात है वक्‍त का नब्‍ज पकड़ना और फिर उसके अनुरूप तैयारी में लगना. मजदूर वर्ग की ताकत एकमात्र वर्ग संघर्ष में ही खुल कर प्रकट होती है.

            इसीलिए आईएफटीयू और खान मजदूर कर्मचारी यूनियन अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों सहित सभी लड़ाकू मजदूरों से यह आहवान करता है कि बिना कोई वक्‍त गवांए तथा केंद्रीय यूनियनों के नेतृत्‍व की जमीर और उनकी अंतरात्‍मा के जगने का और इंतजार किए बिना पूंजीपति वर्ग के हमलों का मुंहतोड़ जवाब देने हेतु हर स्‍तर पर सीधी कार्रवाइयों मे एकजुट हो उतरें और अंतिम जीत हासिल करने के मजदूरवर्गीय दमखम के परिचय दें. केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के तौर तरीकों से यह स्‍पष्‍ट है कि इस पांच दिवसीय दंतविहीन हड़ताल का केंद्रीय सरकार पर रत्‍ती भर भी प्रभाव नहीं पड़ेगा, उल्‍टे वह और बड़े हमले के लिए प्रोत्‍साहित होगी. इसीलिए हमें जल्‍द ही समय को मुटिठयों में पकड़कर इस लड़ाई को अंजाम तक ले जाने की तैयारी में लग जाना चाहिए. हमें पूरा विश्‍वास है कि एकमात्र इसी तरीके से मजदूर वर्ग केंद्रीय सरकार के बुरे मंसूबों और साथ ही साथ केंद्रीय यूनियनों के नक्‍कारेपन और नाकाबिलियत का मुंहतोड़ जवाब देते हुए अपनी ऐतिहासिक जीत की मंजिल पर पहुंच सकता है.

केंद्रीय कमिटी
खान मजदूर कर्मचारी यूनियन
आईएफटीयू (सर्वहारा)
·          कॉमरेड कान्‍हाई, महासचिव द्वारा जारी और लोकनाथ प्रिंटर्स द्वारा मुद्रित (05.01.2015)  



पीडीएफ में पर्चा  के लिए नीचे क्लिक करें   https://docs.google.com/viewer?a=v&pid=sites&srcid=ZGVmYXVsdGRvbWFpbnxwcmNjcGltbHxneDo2ZjdlZTE5ZDY1MTUxMDNh