(सर्वहारा, न्यू सीरिज न. 3 से) .............................
अब पंजाब, बिहार
और बंगाल की बारी है
इतिहास गवाह है और इसलिए इस बात में किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि फासीवादी ताक़तें पूँजीवादी संसदीय लोकतंत्र के दायरे के भीतर और स्वयं लोकतंत्र तथा इसके निकायों का इस्तेमाल करते हुए भी सत्ता में आती हैं और इस संसदीय ढाँचे के भीतर रहकर ही अपने फासीवादी मंसूबों को पूरा कर सकती हैं। इस लिहाज से, वर्तमान में केंद्र में मोदी सरकार का उदाहरण एक माकूल उदाहरण है जिसने लोकतंत्र और इसके निकायों का पहले तो उपयोग किया (और आज भी कर रही है) और फिर भीतर ही भीतर इन्हें पूरी तरह कब्जा करने की तैयारी को अंजाम तक पहुँचाकर संघी फासीवाद को एक अत्यंत महत्वपूर्ण विजय दिलाई है।
दूसरी तरफ, इतिहास में ऐसी मिसालें भी हैं जिनमें पूँजीपति वर्ग का आर्थिक और राजनीतिक संकट अत्यधिक रूप से गहराने पर पूँजीपति वर्ग का सबसे खुंखार गिरोह पूँजीवादी जनतंत्र का नकाब पूरी तरह उतार कर अपनी खुली निरंकुश तानाशाही स्थापित करता है।
साधारणत: भारत में पूँजीवादी-फासीवादी शक्तियों के लिए पहली वाली स्थिति ज्यादा व्यवहारिक और मुफीद प्रतीत होती है। भारत का राजनीतिक इतिहास यूरोप के इतिहास से अलग है और कई मायनों में विशिष्ट चरित्र लिए हुए है। इस बात के मद्देनज़र इस बात की संभावना कम है कि भारत के फासीवादी पूँजीपति संसदीय ढाँचे को पूरी तरह भंग करके किसी तानाशाह को सत्ता में खुले तौर पर बिठा दें। अधिक संभावना इस बात की है कि फासीवादी ताक़तें संसदीय पूँजीवादी जनवाद को अंदर से कब्जा लें, जैसा कि आज मोदी सरकार के द्वारा होता दिख रहा है, और इसके तमाम निकायों का अंदर ही अंदर फासीवादीकरण करते हुए पूर्ण विजय की तरफ बढ़ें और पूरे अवाम खासकर मेहनतकश अवाम पर हमले की मशीनरी को धीरे-धीरे और बड़ी चालाकी से सुदृढ़ और चाक-चौबन्द करें। और जब तक ऐसा न हो जाए, वे इस लोकतंत्र के भीतर ही बनें रहें।
इसके लिए जरूरी है कि पहले वे देश की टटपुँजिया और मज़दूर वर्गीय आबादी को धर्म के नाम पर बाँटने में सफल हों, उन्हें एक काल्पनिक दुश्मन (अल्पसंख्यक) के खिलाफ छाया युद्ध में उतारने में सफल हों और आबादी की भयानक मुफलिसी के लिए असली और एकमात्र रूप से ज़िम्मेवार पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता को आम अवाम के निशाने पर आने पर से बचाने में सफल रहें। इसे किए बिना फासीवाद की पूर्ण विजय कभी संभव नहीं है और इसीलिए भारतीय फासीवादी वे सब कुछ कर रहे हैं जो इसके लिए जरूरी है। एक नक़ली शत्रु को कठघरे में खड़ा करने और प्राचीन मिथकों को यथार्थ के रूप में पेश करने का काम आज इसीलिए बड़ी सफाई से मोदी सरकार के द्वारा किया जा रहा है। बीच-बीच में अपने ''रूट मार्च'' जैसा कार्यक्रम करके संघी फासीवादी अपनी असली व दूरगामी मंशा भी प्रकट करते रहे हैं।
मोदी सरकार में संघ को अपना मिलिटरी स्कूल चलाने की खुली छूट मिली हुई है। महाराष्ट्र के नासिक शहर में सैकड़ों एकड़ में खुलेआम फैले ''भौंसला मिलिटरी स्कूल'' इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। मालेगाँव और अन्य कई शहरों में हुए बम-धमाकों के साथ भी इस स्कूल का नाम जुड़ चुका है। यह भी याद रखना चाहिए कि इसके पहले की कांग्रेसी सरकार ने भी या किसी अन्य पार्टी ने आज तक इस स्कूल को बन्द करवाने के बारे कभी एक लफ्ज़ तक नहीं बोला है, कदम उठाने की तो बात दूर है। कारण भी स्पष्ट है। सभी पार्टियाँ भारत के बड़े पूँजीपति वर्ग की मुलाजिम हैं और वे अच्छी तरह जानती हैं कि गहन और कठिन संकट के दौर में उन्हें इन संघी सैनिकों की जरूरत वैसे ही होगी, जैसे जंजीर से बंधे कुत्ते को खोलने की जरूरत आसन्न खतरे को भांपकर उसके मालिक को होती है।
आज के दौर में भारतीय पूँजीपति वर्ग, खासकर कॉरपोरेट पूँजीवाद की यह खुली चाहत और कोशिश है कि संघ और भाजपा के प्रभाव से देश का कोई भी हिस्सा न बचे और इसीलिए वह इनके पक्ष में खुलकर आ चुका है, खासकर पूँजीपति वर्ग का दैत्याकार कॉरपोरेट संस्तर, जो हर हाल में चाहता है कि देश का कोना-कोना फासीवादी-प्रभाव क्षेत्र में आ जाए। यह यूँ ही नहीं है कि भाजपा (पहले जनसंघ) शासन में रहे या न रहे, लेकिन संघ का सांगठनिक ताना-बाना और उसका प्रभाव लगातार फैलता रहा है। सरकार में होना उसे अतिरिक्त लाभ की स्थिति में जरूर पहुँचा देता है लेकिन सत्ता में होना फासीवाद के फैलाव के लिए कोई विशिष्ट और सबसे अहम कारक नहीं है। सबसे जरूरी बात यह समझना है कि आज के दौर के पूँजीपति वर्ग को इतिहास के इस मोड़ पर जिस तरह का गंभीर आर्थिक संकट झेलना पड़ रहा है और जिस तरह वह क्रांति की मनोगत शक्तियों की अनुपस्थिति में भी इतिहास और राजनीति के रंगमंच से विदा होने के ऐतिहासिक खतरों का सामना कर रहा है, उससे घबराकर फासीवाद की शरण में जाना उसकी आवश्यकता बन चुका है। यह सच है कि सरकार में आने से इसकी ऐसी सरगर्मियों की तेजी और इसके दायरे में बहुत अधिक वृद्धि हो जाती है।
हम पाते हैं कि फासीवादी ताकतों ने भारत के कई दूसरे प्रान्तों में अपने पैर अच्छी तरह जमा लिये हैं, लेकिन पंजाब, बिहार और बंगाल जैसे राज्यों में अभी भी ये अपेक्षाकृत तौर पर कमजोर स्थिति में हैं। इसीलिए अब वे इसकी तैयारी कर रही हैं कि कैसे इन राज्यों को अपना शिकार बनाया जाए। लोकसभा चुनावों में जीत के बाद पंजाब, बिहार और बंगाल में संघ की सरगर्मियों में गजब की तेज़ी आयी है जो इस बात का प्रमाण है कि इन तीनों राज्यों में अपने पैर जमाने के लिए ये किस तरह एड़ी-चोटी का पसीना एक कर रहे हैं।
जैसा कि सबको पता है पहले गुजरात में इन्होंने अपने मजबूत अड्डे बनाए। फिर कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड और यहाँ तक कि केरल जैसे प्रांत में अपनी नायाब चालें चलीं और अपने पैर वहाँ मजबूती से जमा लिए। हम सभी जानते हैं कि 16वीं लोकसभा के ठीक पहले इन्होंने उत्तरप्रदेश के मुज़फ्फ़रनगर को दंगों की आग में झोंका और लोक सभा चुनावों में वोटों की जबर्दस्त फसल काटी। और अब वे वही सब पंजाब और बाकी बचे राज्यों, जिसमें बंगाल और बंगाल भी शामिल है, में दुहराने की तैयारी कर रहे हैं।
हम यहाँ खास पंजाब में संघी फासीवादियों की अत्यंत तेज होती गतिविधियों व सरगर्मियों की कुछ बानगियों पर नजर डालेंगे। बिहार और बंगाल में इनकी तेज होती सरगर्मियों पर अगले अंक में विस्तार से चर्चा करेंगें।
संघ के नेतागण लगातार पंजाब आ-जा रहे हैं। पिछले दिनों संघ प्रमुख मोहन भागवत शहर मानसा आते हैं, संघ के एक शिक्षा शिविर में भाग लेते हैं और फिर वे धार्मिक डेरे के मुखिया के साथ बन्द-कमरे में मीटिंग करते हैं। पिछले दिनों पंजाब के कई शहरों में इनके ''शिक्षा शिविर'' लगे और आज भी लग रहे हैं जिसमें लगातार तेजी देखी जा रही है। पिछले साल जून महीने में जालन्धर और मलेरकोटला में संघ ने ''रूट मार्च'' किये। याद रहे कि ''रूट मार्च'' सेना की तरफ़ से युद्ध की तैयारियों में युवा आबादी को शामिल करने के लिए किए जाते हैं। संघ ने अपने कैडर को बिल्कुल इसी तर्ज पर रूट मार्च करवाए। फर्क यह है कि सैनिक जहाँ देश के बाह्य मोर्चे पर लगते हैं, वहीं संघी सैनिक कहाँ इस्तेमाल होते हैं इसका ज्ञान अमूमन सभी को है।
कुछ महीना पहले बरनाला और जैतो नाम के दो शहरों में संघी सैनिकों ने पिस्तौलें व बन्दूकें लहराते हुए मार्च निकाले।
संकेतों से यह साफ पता चलता है कि इनके निशाने पर इन दिनों मलेरकोटला है जो पंजाब का एक मुस्लिम बहुल शहर है। मलेरकोटला का मुसलिम बहुल होना संघी फासीवादियों के इरादों के अनुकूल है और इसीलिए इन्होंने इस शहर को अपना निशाना बनाया हुआ है। पिछले साल यहाँ अगस्त (अगस्त, 2013) में गौ-हत्या के एक मामले के बहाने माहौल ख़राब करने की पुरजोर कोशिश की गयी। हालांकि वे सफल नहीं हो सके। अभी कुछ महीने पहले ही एक बच्चे की हुई दर्दनाक मौत को संघियों ने अपने मकसद के लिए इस्तेमाल करने की भरपूर कोशिश की जिसमें संघ और शिवसेना के “सिपाहियों” ने दूसरे धर्म के लोगों को जबरन निशाना बनाने की कोशिश की। जबरन दुकानें बन्द करवाई गईं। बच्चे की मौत के लिए दूसरे धर्म के लोगों पर बिना सबूतों के दोष लगाए गए। इसे लेकर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण किया गया। लेकिन इस बार भी ये असफल रहे।
लोकसभा ख़त्म होने के बाद आगामी पंजाब विधान सभा चुनाव के मद्देनजर मलेरकोटला को निशाने पर लेने की कार्रवाई में और तेजी दिखाई देगी यह तय है। बीते 16 जून 2014 को यहाँ लगे ''शिक्षा शिविर'' के बाद संघियों ने जो ''रूट मार्च'' निकाला था उसमें बाकायदा संघ के सदस्यों ने लाठियों को अपने कन्धों पर बन्दूक की तरह रखकर सैनिकों के पोज में मार्च किया था। इसका मकसद सिर्फ यही था - मलेरकोटला के अल्पसंख्यकों को डराना और लुम्पेन-बेरोज़गार युवाओं को धार्मिक उन्मादियों की भीड़ का हिस्सा बनाना ताकि आगामी दिनों में उनका जम कर इस्तेमाल किया जा सके। उसी साल सितम्बर महीने में यहाँ कुछ पशुओं की हड्डियाँ मिलीं, तो एक बार फिर से इसे जबरन गौ-हत्या का मामला बनाकर माहौल को गर्म किया गया।
दूसरी तरफ़, प्रशासन तथा पुलिस भी इनकी मदद कर रहे हैं। आम तौर पर अपने जायज़ हक़ माँगते आम मेहनतकश लोगों, मज़दूरों, किसानों, बेरोज़गार नौजवानों आदि को बेरहमी से पीटने वाली पुलिस इनके ''रूट मार्च'' में इनके सहयोगी की भूमिका में थी और ये इन ''रूट मार्चों'' को सफलतापूर्वक और भव्यता के साथ आयोजित करने में लगे रहे।
अगर आने वाले दिनों में पंजाब के भीतर भी कोई उत्तरप्रदेश के मुज़फ्ऱफ़रनगर में हुए दंगे और मारकाट जैसी स्थिति पैदा होती है, तो यह बिल्कुल ही आश्चर्य की बात नहीं होगी। न ही इसे अचानक हुई घटना या कोई विलक्षण परिस्थिति माना जाना चाहिए। वर्तमान हालात इसके स्पष्ट संकेत दे रहे हैं।
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