टप्पूखेड़ा (अलवर, राजस्थान) के होंडा के संघर्षरत मजदूरों के साथ खड़े हों!
कौन नहीं जानता है होंडा कंपनी को? पहले यह हीरो-होंडा के रूप में भारत व जापान के मालिकों का एक संयुक्त उद्यम था। 2010 में इसके जापानी मालिक ने संयुक्त उद्यम से बाहर निकलने का फैसला कर लिया। भारतीय पार्टनर, हीरो साईकिल ग्रुप के मालिकों मुंजल भाइयों ने होंडा के शेयर खरीद लिए और हीरो मोटर कॉरपोरेशन नाम से अलग कंपनी बना ली। तब से होंडा कंपनी अलग हो गई और आज की तारीख में यह जापान की होंडा मोटर कंपनी लिमिटेड की 100 प्रतिशत सब्सिडियरी कंपनी है।
इन सबके बावजूद न तो होंडा के ब्रांड के नाम में कोई बट्टा लगा, न इसके उत्पादन में कोई गिराबट आई। मुनाफा का ग्राफ भी ऊपर चढ़ता गया। पूरे भारत में इसके कई प्लांट है। हम जिस प्लांट के मजदूरों की बात लेकर यहाँ उपस्थित हैं वह अलवर, राजस्थान के टप्पूखेड़ा में स्थित है। होंडा कंपनी आज भी भारत के दोपहिये वाहन बनाने वाली कंपनियों में नंबर एक के रूप में विख्यात है। लेकिन जो बात विख्यात नहीं हो पाई वह बात यह है कि यह कंपनी अपने मजदूरों के शोषण-उपीड़न में भी नंबर एक है। हम इस कंपनी में बनी मोटर साइकिलों पर सवार हो इसके मजे लेते हैं और इसकी खूबियों को जानते ही नहीं रटते भी रहते हैं। लेकिन जो मजदूर इन्हें बनाते हैं क्या उनके बारे में भी जानते हैं? क्या हम जानते हैं कि उन्हें किस तरह यह कंपनी नोचती-खसोटती है? इसके इस पक्ष को जब हम जानेंगे और मजदूरों के साथ इस कंपनी द्वारा किये जा रहे करतूतों को सुनेंगे तो रोंगटे खड़े हो जाएंगे। कोई भी यह जानकर सहम उठेगा कि होंडा कंपनी अपने कुशल मजदूरों को भी लगातार कई दिनों तक लगातार आठो पहर ओवर टाइम करने के लिए बाध्य करती है! लगता है न कि भला यह कैसे संभव है? लेकिन यह सच है। इस कंपनी के मजदूरों का वर्तमान संघर्ष 16 फरवरी को तब शुरू होता है जब फैक्टरी के अंदर जारी ऐसे ही अमानवीय शोषण व उत्पीड़न के खिलाफ मजदूरों ने अंतत: लड़ने का मन बना लिया। और जैसा कि ऐसे हर मामले में होता है, मजदूरों को तब से ही कंपनी के भाड़े के गुंडों के, पैसे और ताकत से खरीद लिये गये पुलिस प्रशासन के और संर्पूणता में पूरी राज्य मशीनरी के भयानक दमन का सामना करना पड़ रहा है। आइये, पहले संक्षेप में यह समझें कि होंडा मजदूरों का वर्तमान संघर्ष 16 फरवरी को आखिर शुरू कैसे हुआ।
ज्ञातव्य है कि इस फैक्टरी में 16 फरवरी 2016 को एक श्रमिक के साथ जबरन मारपीट करके ओवर टाइम करने के लिये जबर्दस्ती रोका गया जबकि वह मजदूर पहले ही दो दिनों से ओवर टाइम कर रहा था और बीमार भी था। उस दिन पहली शिफ्ट के तुरंत बाद सुपरवाइजर ने, जो एक इंजियनर है, उसे दूसरी शिफ्ट में काम पर लगा दिया। जब मजदूर ने इनकार किया तो उसे सुपरवाइजरों ने बुरी तरह मारा तथा अपमानित किया। जब अन्य श्रमिकों को इस बात की जानकारी मिली तो सभी ने मिलकर इसका विरोध और कम्पनी के प्रबंधन से दोषी इंजीनियरों पर कार्रवाई की माँग की। किन्तु पूँजी की बादशाहत में जैसा होता आया है, प्रबंधन ने मजदूरों को सुनने के बजाय फैक्टरी में अंदर से तालाबंदी करवा कर मज़दूरों को बाहर जाने से रोक दिया और जबर्दस्ती काम करने को कहा। शाम होते ही जब अँधेरा हुआ तो अपने बाउन्सरों के द्वारा, यानि भाड़े के अपने गुंडों को मज़दूरों की यूनिफार्म पहना कर मजदूरों के साथ मारपीट करवाई। इतना ही नहीं, पुलिस को बुलवा कर मज़दूरों के साथ बुरी तरह से मारपीट की गई जिसमें कई मज़दूरों को गंभीर चोटें आईं। इतना ही नहीं, पुलिस ने 44 मजदूरों को गिरफ्तार कर उन पर धारा 307 (हत्या की कोशिश), धारा 148 (घातक हथियार से सज्जित हो बल्वा करना), धारा 336 (दूसरे के जीवन और सुरक्षा को नुकसान पहुचना) इत्यादि लगा दिया गया । इसके अलावा 42 और मजदूरों पर धारा 149 (ग़ैरक़ानूनी रूप से एकत्रित होना ) और धारा 395 (डकैती) जैसे संगीन धारायें लगायी गईं। 44 मजदूरों को जयपुर उच्च न्यायालय से दो जमानती और 1 लाख रुपये के मुचलके के आधार जमानत मिली, किन्तु एक लाख रुपये की जमानत राशि क्या किसी सामान्य मजदूर के लिये इकट्ठा करना आसान है? जबकि उच्चतम न्यायालय अपने एक फैसले में कह चुका है कि जमानत की राशि उतनी ही हो जितना कि वह व्यक्ति दे पाये। ऐसे सभी मजदूर जेल में डाल दिये गये। इतना ही नहीं, 2500 से अधिक दक्ष मजदूरों को बर्खास्त भी कर दिया गया और आज की स्थिति यह है कि अकुशल मजदूरों से फॉल्ट वाले होंडा मोटरसाइकिलों का निर्माण कराया जा रहा है और ग्राहकों को भी धोखा दिया जा रहा है। दीवाली में लोग नये वाहन खरीदते हैं और होंडा प्रबंधन ने इसका फायदा उठाने के लिए अत्यंत कम वेतन पर रखे गये अकुशल मजदूरों द्वारा धड़ाधड़ फॉल्ट वाली मोटर साईकिलों का निर्माण कराया जा रहा है।
होंडा में मजदूरों के शोषण का सिलसिला पुराना है। इसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाएंगे। पहले तो यह कि 16 फरवरी की घटना कोई पहली घटना नहीं है। बल्कि इस कंपनी का मजदूरों के शोषण और हक ना देने का एक लम्बा इतिहास रहा है। होंडा के मज़दूर लम्बे अरसे से अपने कानूनी और संविधान द्वारा दिए गए श्रम अधिकारों को हासिल करने के लिए अपनी यूनियन को पंजीकृत करवाने के लिए प्रयासरत थे। टप्पूखेड़ा के प्लांट में ज्यादातर राजस्थान, हरियाणा के सुदूर इलाकों सहित बिहार, यूपी आदि से आये मजदूर काम करते हैं। इन मजदूरों के काम करने के हालात अत्यंत ही कठिन हैं। काम इस गति से लिया जाता है कि मजदूर हमेशा काम के दबाव में रहते हैं। दम मारने का समय भी इन्हें नहीं मिलता। समय की पाबंदी ऐसी कि थोड़ी भी देर हुई नहीं कि वेतन में में एक बड़ी कटौती हो जाती है। जितना अधिक काम की तीव्रता है और प्राप्य वेतन इतना कम कि शोषण की तीव्रता अत्यधिक जानलेवा बन जाती है। शायद ही ये कभी मूल वेतन से अधिक कमा पाते हैं। ऊपर से कानूनी हथियार तो उनके पास है ही नहीं। जब यूनियन ही बनाने दिया जाता है तो अन्य कानूनी सुविधाओं की बात ही क्या की जाए। प्रबंधन की बात ही कानून और न्याय है यहाँ। मजदूर यहाँ प्रजा हैं और प्रबंधन राजा। हर समय बरखास्तगी की चाबुक लिये प्रबंधन के डर से मजदूर मेमने की तरह डरते हुए यहाँ काम करते हैं। टिफिन का समय और पेशाब-पैखाना का वक्त भी ठीक से नहीं मिलता। तभी तो 18 सेकेंड में एक इंजन मजदूर कस देते हैं। प्रतिदिन 4000 से ऊपर दोपहिया वाहन बन कर तैयार हो जाते हैं। और यह होता है मजदूरों को आठो पहर और लगातार ओवरटाइम की भट्टी में जबर्दस्ती झोंक कर। यही नियति यहाँ कार्यरत चारो तरह के मजदूरों – ठेका, कैजुअल, ट्रेनी और स्थाई – सभी तरह के मजदूरों की है। वेतन 10000 रूपये से 23000 रूपये तक मिलता है। लेकिन कटौती होने पर, जो होती ही है, किसी भी मजदूर को 4700 से लेकर 6500 रूपये तक ही मिल पाते हैं। जब 16 फरवरी को संघर्ष की शुरूआत हुई, तो होंडा मैनेजमेंट मज़दूरों की यूनियन को पंजीकृत होने से रोकने के लिए तमाम हथकंडे पहले से अपना रखी थी। ऐसी घटनाएँ कोई नयी बात नहीं हैं। जब भी मज़दूर अपने हकों के लिए आवाज़ उठाते है तब-तब उनके साथ ऐसा ही बर्ताव किया जाता है। 16 फरवरी की घटना के बाद मज़दूरों ने जब भी टप्पूखेड़ा, धारुहेड़ा में कोई भी प्रदर्शन या रैली आयोजित करने का प्रयास किया, तब होंडा मैनेजमेंट के इशारे पर उन पर राजस्थान पुलिस ने बर्बर लाठीचार्ज किया। जैसा कि हमने मारुती मजदूर आन्दोलन में देखा है, आज भी पूरी राज्य की ताक़त मैनेजमेंट के साथ खड़ी नज़र आ रही है। मजदूरों को राज्य मशीनरी एक अपराधी की तरह पेश आ रही है।
दोस्तों, आखिर मजदूर कब तक यह स्थिति झेलते रहते। एक न एक दिन तो यह संघर्ष होना ही था। यही सबक सारे मजदूरों को सीखना होगा और शोषण के खिलाफ एकजुट हो कर उठ खड़ा होना होगा। फिलहाल होंडा मजदूरों ने अपने संघर्ष को आगे बढ़ाते हुए 19 सितंबर से दिल्ली के जंतर-मंतर पर आमरण अनशन शुरु दिया। इसी क्रम में मजदूरों ने 23 सितंबर 2016 को राजस्थान भवन पर अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करने पहुंचे। किंतु अपनी जायज माँगों के लिए इन मजदूरों का शांतिपूर्वक प्रदर्शन भी प्रशासन को रास न आया और 50 प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर संसद मार्ग थाने पर पहुँचा दिया गया है।
हम देख रहे हैं कि जब से नव उदारवादी पूँजीवाद का दौर शुरू हुआ है तब से और जब से केंद्र और कई राज्यों में भाजपा की सरकार बनी है तब से राज्य और उसकी मशीनरी ने मजदूर वर्ग के खिलाफ़ जैसे एक अघोषित युद्ध छेड़ रखा है। जैसे ही मजदूर अपने हक के लिये आवाज़ उठाते हैं, तो सारे नियम कानून को ताक पर रख कर, सारे जनतांत्रिक अधिकार को कुचल कर और निरंकुशता थोपते हुए मजदूरों को संगीन आपराधिक मामलों में फंसा कर जेल में डाल दिया जाता है। दूसरी तरफ, फिर कानूनी दांव-पेंच में उलझा कर पूरे मामले को ठंढे बस्ते में डाल कर पूँजीपतियों के पक्ष में खुलेआम शासन चलाया जा रहा है। मोदी सरकार ने 'श्रम मेव जयते' की उद्घोषना कर मज़दूरों को श्रम ऋषि बोलने के ठीक बाद श्रम कानून को पूँजीपतियों के हवाले कर दिया । शायद इन श्रम-ऋषियों को जंगल (या जेल) में भजने की सरकार ने पूरी तैयारी कर ली है। सरकार ने पूँजीपतियों की सुविधा के लिये फैक्ट्री एक्ट 1948, ट्रेड यूनियन एक्ट 1926, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1948, ठेका मज़दूरी कानून 1971, एपरेंटिस एक्ट 1961 से लेकर तमाम श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर उन्हें पूरी तरह से कमज़ोर और ढीला कर दिया है। इस तरह अब मज़दूरों को कानूनी तौर पर मालिक हर अधिकार से वंचित कर सकता है और कर रहा है। मज़दूरों के लिए यूनियन बनाना और भी मुश्किल बना दिया गया है। पहले किसी भी कारखाने या कम्पनी में 10 प्रतिशत या 100 मज़दूर मिलकर यूनियन पंजीकृत करवा सकते थे पर अब ये संख्या बढ़कर 30 प्रतिशत कर दी गई है। ठेका मज़दूरों के लिए बनाया गया ठेका मज़दूरी कानून-1971 भी अब सिर्फ 50 या इससे ज्यादा मज़दूरों वाली फैक्टरी पर लागू होगा। मतलब अब कानूनी तौर पर भी ठेका मज़दूरों के शोषण और उनके श्रम की लूट पर कोई रोक नहीं होगी। सरकार ने कारखाना अधिनियम के अनुच्छेद 56 में संशोधन कर भोजनावकाश के साथ 8 घण्टे काम की अवधि को बढ़ाकर साढ़े दस घंटे से 12 घण्टे तक करने का प्रावधान कर दिया है। इस अतिरिक्त काम को ओवरटाइम नहीं माना जायेगा और इसके लिए सामान्य वेतन ही देय होगा। इसी प्रकार अनुच्छेद 64-65 में संशोधन करके वर्तमान ओवरटाइम को 50 घण्टे प्रति तिमाही से बढ़ाकर सीधे 100 घण्टे करने और जनहित के नाम पर राज्य सरकार द्वारा छूट देने पर 125 घण्टे तक किया जा सकता है। इसके लिए भी मजदूरों को महज समान्य वेतन ही देय होगा। इसी तरह अनुच्छेद 66 में संशोधन कर महिलाओं को रात्रि पाली में काम करने पर लगी रोक समाप्त कर दी गयी है। सबसे महत्वपूर्ण बात इस संशोधन में यह है कि इसमें राज्य सरकारों को कारखाना कानून का दायरा तय करने के लिए नियोजित मजदूरों की संख्या तय करने का अधिकार दे दिया गया है जो अधिकतम 40 मजदूरों की सीमा के अंदर कोई भी सीमा तय कर सकती है।
हम देख रहे हैं कि जब से नव उदारवादी पूँजीवाद का दौर शुरू हुआ है तब से और जब से केंद्र और कई राज्यों में भाजपा की सरकार बनी है तब से राज्य और उसकी मशीनरी ने मजदूर वर्ग के खिलाफ़ जैसे एक अघोषित युद्ध छेड़ रखा है। जैसे ही मजदूर अपने हक के लिये आवाज़ उठाते हैं, तो सारे नियम कानून को ताक पर रख कर, सारे जनतांत्रिक अधिकार को कुचल कर और निरंकुशता थोपते हुए मजदूरों को संगीन आपराधिक मामलों में फंसा कर जेल में डाल दिया जाता है। दूसरी तरफ, फिर कानूनी दांव-पेंच में उलझा कर पूरे मामले को ठंढे बस्ते में डाल कर पूँजीपतियों के पक्ष में खुलेआम शासन चलाया जा रहा है। मोदी सरकार ने 'श्रम मेव जयते' की उद्घोषना कर मज़दूरों को श्रम ऋषि बोलने के ठीक बाद श्रम कानून को पूँजीपतियों के हवाले कर दिया । शायद इन श्रम-ऋषियों को जंगल (या जेल) में भजने की सरकार ने पूरी तैयारी कर ली है। सरकार ने पूँजीपतियों की सुविधा के लिये फैक्ट्री एक्ट 1948, ट्रेड यूनियन एक्ट 1926, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1948, ठेका मज़दूरी कानून 1971, एपरेंटिस एक्ट 1961 से लेकर तमाम श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर उन्हें पूरी तरह से कमज़ोर और ढीला कर दिया है। इस तरह अब मज़दूरों को कानूनी तौर पर मालिक हर अधिकार से वंचित कर सकता है और कर रहा है। मज़दूरों के लिए यूनियन बनाना और भी मुश्किल बना दिया गया है। पहले किसी भी कारखाने या कम्पनी में 10 प्रतिशत या 100 मज़दूर मिलकर यूनियन पंजीकृत करवा सकते थे पर अब ये संख्या बढ़कर 30 प्रतिशत कर दी गई है। ठेका मज़दूरों के लिए बनाया गया ठेका मज़दूरी कानून-1971 भी अब सिर्फ 50 या इससे ज्यादा मज़दूरों वाली फैक्टरी पर लागू होगा। मतलब अब कानूनी तौर पर भी ठेका मज़दूरों के शोषण और उनके श्रम की लूट पर कोई रोक नहीं होगी। सरकार ने कारखाना अधिनियम के अनुच्छेद 56 में संशोधन कर भोजनावकाश के साथ 8 घण्टे काम की अवधि को बढ़ाकर साढ़े दस घंटे से 12 घण्टे तक करने का प्रावधान कर दिया है। इस अतिरिक्त काम को ओवरटाइम नहीं माना जायेगा और इसके लिए सामान्य वेतन ही देय होगा। इसी प्रकार अनुच्छेद 64-65 में संशोधन करके वर्तमान ओवरटाइम को 50 घण्टे प्रति तिमाही से बढ़ाकर सीधे 100 घण्टे करने और जनहित के नाम पर राज्य सरकार द्वारा छूट देने पर 125 घण्टे तक किया जा सकता है। इसके लिए भी मजदूरों को महज समान्य वेतन ही देय होगा। इसी तरह अनुच्छेद 66 में संशोधन कर महिलाओं को रात्रि पाली में काम करने पर लगी रोक समाप्त कर दी गयी है। सबसे महत्वपूर्ण बात इस संशोधन में यह है कि इसमें राज्य सरकारों को कारखाना कानून का दायरा तय करने के लिए नियोजित मजदूरों की संख्या तय करने का अधिकार दे दिया गया है जो अधिकतम 40 मजदूरों की सीमा के अंदर कोई भी सीमा तय कर सकती है।
दरअसल सरकार ने श्रम कानूनों को खतम कर कुछ संहिताओं में समेटने जा रही है। जिसमें से वेतन विधेयक श्रम संहिता और औद्योगिक सम्बंधों पर श्रम संहिता विधेयक का प्रारूप सरकार ने पेश किया है। वेतन विधेयक श्रम संहिता में न्यूनतम वेतन अधिनियम, बोनस भुगतान अधिनियम, वेतन भुगतान अधिनियम, समान वेतन अधिनियम आदि चार अधिनियमों को मिलाकर यह संहिता बनायी गयी है। इस संहिता में श्रम कानूनों को लागू कराने के लिए निरीक्षण की व्यवस्था को समाप्त कर निरीक्षकों की भूमिका मददकर्ता की बना दी गयी है। हौंडा में भी ठेका मजदूरी करा कर जहाँ एक ओर कंपनी अपने मुनाफे को तेज़ी से बढाया है, वही दूसरी और मजदूरों के शोषण का भी एक नया इतिहास लिख डाला है।
साथियों, होंडा मजदूरों के संघर्ष की जीत होगी या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि मजदूर एकट्ठा हो इनके समर्थन में उठ खड़े होते हैं कि नहीं। और जो आज होंडा मजदूरों के साथ हो रहा है, बीते कल में मारूती मजदूरों के साथ हुआ और कई दूसरे दर्जनों-सैंकड़ों फैक्टरियों के मजदूरों के साथ हुआ है। और आगे न जाने कितने मजदूरों के साथ दुहराया जाएगा। मजदूरों के साथ ही क्यों, यही पूँजीपति वर्ग निम्न पूँजीपति वर्ग के बेरोजगार नौजवानों और गरीब लोगों के साथ भी तो यही कर रही है। छोटे दुकानदार, छोटे किसान, छोटे व्यवसायी, ..... आखिर कोई बड़ी पूँजी की मार से आज बच गये हैं! आखिर इसका उपाय क्या है? इसका उपाय इसके सिवा और कुछ नहीं है कि हम सब एकजुट हो इसके खिलाफ संघर्ष तेज करें। साथियों, किसी भी बुर्जुआ पार्टी और उसकी सरकार से अब उम्मीद करना बंद कर देना चाहिए। मोदी सरकार की कारगुजारियों ने यह सीखा दिया है कि वायदे करने वाला कोई हो और वायदे चाहे जितने भी लुभावने क्यों नहीं हों, इनका कोई महत्व नहीं है। अगर महत्व है तो बस इस बात का कि हम सब मिल कर लड़ें और लड़ते हुए इस लूट की व्यवस्था को ही पलट दें जो इस तरह की लूट को संभव बनाती है। इसकी शुरूआत हम चाहे तो आज कर सकते हैं। होंडा मजदूरों के साथ खड़ा होना हमारा कर्तव्य है और स्वयं हमारी जरूरत भी। आइये, होंडा मजदूरों के जायज संघर्ष के समर्थन में देश के कोने-कोने से आवाज बुलंद करें।
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