Thursday, April 23, 2015


पंजाब में 'लोकपक्ष' द्वारा मई दिवस, 2015 के  अवसर पर दनामण्डी,मलोट में आयोजित खुली आम सभा के  लिए जारी पर्चा 
 

मज़दूर दिवस जिंदाबाद!            सर्वहारा समाजवादी क्रांति जिंदाबाद!           इंक़लाब जिंदाबाद!


मई दिवस पर लोकपक्ष की अपील

     मेहनतकश वर्ग क्या करे ?

साथियों,
    मई दिवस, यानि कि मज़दूरों के संघर्ष का दिन, वह दिन जब मेहनतकश जनता इन्सान के हाथों इन्सान के शोषण और दमन के ख़िलाफ अपनी संघर्षशील एकजुटता का इज़हार करती हैं, करोड़ों मेहनतकशों को भूख, ग़रीबी, शोषण और ज़िल्लत की ज़िन्दगी से आज़ाद कराने की प्रतिज्ञा करती है। यह दिन है हमारी एकता का, शोषण के खिलाफ़ विद्रोह का, यह दिन है मेहनतकशों का, उन लोगों का जिन्होंने गुलामी और जिल्लत के साथ सर झुका के समझौता करना नहीं सीखा, जो आज़ाद इंसान की तरह जीना चाहते हैं, गुलामों की तरह जिंदगी बसर नहीं करना चाहते। यह दिन है विश्व में चल रहे मज़दूरों, किसानों और तमाम अन्य जनपक्षीय संघर्षों के साथ एक होकर पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ अपनी आवाज़ को एकजुट हो बुलंद करने का।
    आज हमारे सामने दो दुनिया खड़ी है। एक ओर है संकटग्रस्त सड़ती हुई मरणासन्न पूँजीवादी व्यवस्था और दूसरी ओर है एक ऐसी नई दुनिया का सपना जिसमे कोई जुल्म न झेले, भूख क्या होती है यह न जाने। एक ऐसी दुनिया जिसमें साझी मेहनत से पैदा हुई दौलत से मुट्ठी भर अमीरों को नहीं, बल्कि सभी मेहनत करने वालों को फायदा होगा।
    आज जहाँ पूँजीवाद अपने एक संकट से दूसरे संकट तक घिरता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर यह भी सच है कि इसने मज़दूरों पर अपना आक्रमण व शोषण और भी तेज़ कर दिया है। मेहनतकश अवाम का ख़ून चूसने वाले सरमायेदार मुट्ठी भर हैं, लेकिन उन्होंने फैक्टरियाँ और मिलें, तमाम मशीनें व औज़ार हथिया रखे हैं। उन्होंने करोड़ों एकड़ ज़मीन और दौलत के पहाड़ों को अपनी निजी जायदाद बना लिया है। उन्होंने सरकार और उसके तमाम दूसरे अंगों, चाहे वो पुलिस हो, सरकार चलाने वाले नेता हों या फिर फौज हो, सब को इन्‍होंने अपना ख़िदमतगार, लूट-खसोट से इकट्ठा की हुई अपनी दौलत की रखवाली करने वाला वफादार सेवक बना लिया है। मज़दूरों को इनसे कोई आशा नहीं रखनी चाहिए। इस व्यवस्था में अगर मज़दूरों के साथ कुछ होगा तो केवल जुल्म, शोषण और अत्याचार।
    चाहे भारत हो या कोई और देश, पूँजीपतियों ने अपने शोषण के साम्राज्य को हर तरफ फैला रखा है। इसने मज़दूरों को धन्ना सेठों के सामने हाथ फैलाने पर मजबूर कर रखा है। रोटी के एक टुकड़े के लिए भी उन्हें तमाम उम्र एड़ियाँ रगड़नी पड़ती हैं। काम पाने के लिए भी गिड़गिड़ाना पड़ता है, कमरतोड़ श्रम में अपने ख़ून की आख़िरी बूँद तक झोंक देने के बाद भी गाँव की अँधेरी कोठरियों और शहरों की सड़ती, गन्दी बस्तियों में भूखे पेट ज़िन्दगी गुज़ारनी पड़ती है। लेकिन ऐसा नहीं है की विश्व में किसी चीज़ की कमी है। इसके विपरीत, टेक्नोलॉजी के विकास के कारण आज इतिहास के किसी भी समय की तुलना में ज्यादा उत्पादन क्षमता विकसित हो गई है, लेकिन तब भी, इस ज्यादा में भी, मानवता दरिद्रता का शिकार है। कहीं अनाज सड़ रहे हैं, तो कहीं लोग भूख से मर रहे हैं।
    विश्‍व पूँजीवाद का संकट जो 2008  से शुरू हुआ अभी तक खत्म नहीं हुआ है, बल्कि ज्यादा गहराता जा रहा है। विश्व शक्ति कहलाने वाले अमरीका में वहाँ  के सरकारी आकड़ों के अनुसार लगभग 4.5 करोड़ लोग अपना जीवन गरीबी रेखा से नीचे बिताने पर मजबूर हैं, या कहें ये वो लोग हैं  जिनके पास दो वक़्त की रोटी खाने के लिये पैसे तक नहीं हैं। ऐसे लोग वहाँ की कुल आबादी के करीब 20 प्रतिशत हैं। और दूसरी और, यह वही देश है जो अपने रक्षा बजट में हर साल करीब पाँच हजार करोड़ डॉलर खर्च करता है और पूरी दुनिया में अपनी फौजी ताक़त के बल पर जनता की आवाज़ को कुचलने का काम करता रहता है।
    सन 2008 से ही विश्वपूँजीवाद खुद को बचाने के चक्कर में लगा हुआ है, पर अपने संकट से निकलने का उसे कोई रास्ता नहीं दिख रहा। इसलिए तो सबसे पहले अरबों डॉलर के राहत पैकेज के जरिये डूबे हुए बैंकों और सरमाएदारों को तो बचा लिया, किन्तु इस सारी वित्त गड़बड़ी का ठीकरा गरीब मेहनतकशों के सर पर फोड़ दिया। यूरोप और अमरीका में मज़दूरों की छंटनी, उनके वेतन में कटौती, स्वास्‍थ्‍य सुविधा में कटौती और उसका निजीकरण और अन्‍य तमाम सुविधाओं में भारी कटौती पूरे जोर-शोर से लागू की जा रही है। नतीज़ा यह है कि यूरोप के कई देशों में खास कर ग्रीस, स्पेन, इत्यादि में लोग अपने बच्चों को अनाथ आश्रमों में छोड़ने तक मजबूर हो गए हैं। हालात यहाँ तक पहुँच चुकी है कि लोगों की पूरी जीवन की कमाई बैंक के डूबने से खत्म हो गयी है और वो भीख पर गुजारा करने को मजबूर हैं।
   
पूँजीवाद के इसी पक्ष पर मज़दूरों के महान नेता और शिक्षक लेनिन ने लिखा था  ----

   “...[पूँजीवादी] संकट यह दर्शाता है कि मज़दूरों को अपना संघर्ष केवल आर्थिक मुद्दे तक ही सीमित नहीं रखना चाहिये, क्योंकि जब आर्थिक संकट आता है तब जो सहूलियतें पूँजीपतियों ने मज़दूरों को दी होती हैं, उन्हें न केवल वे हटा लेते हैं, बल्कि मज़दूरों की असहाय स्थिति का फायदा उठाते हुए उनकी मजदूरी को और नीचे कर देते हैं। यह स्थिति तब तक चलती रहेगी जब तक सर्वहारा वर्ग की समाजवादी सेना पूँजीवाद का पूरी तरह से नाश नहीं कर देती।”
साथियों! हमारे अपने देश में श्रमिकों और किसानों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। जब से श्री नरेंद्र मोदी की सरकार आई है इसने देश पर सरमाएदारों (पूँजीपतियों) के जोर को और भी तेज़ कर दिया है। 'श्रम मेव जयते' का उदघोषणा कर मज़दूरों को श्रम-ऋषि बोलने के ठीक बाद श्रम कानून को पूँजीपतियों के हवाले कर दिया। शायद इन श्रम-ऋषियों को जंगल में भजने की सरकार ने पूरी तैयारी कर ली है। दरअसल केंद्र के इस नए निजाम के जनविरोधी कारनामों की फेहरिस्त काफी लम्बी है और जगह कम। मोदी सरकार ने पूँजीपतियों की सुविधा के लिये फैक्ट्री ऐक्ट 1948, ट्रेड यूनियन ऐक्‍ट 1926, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1948, ठेका मज़दूरी कानून 1971, एपरेंटिस ऐक्ट 1961 से लेकर तमाम श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर उन्हें पूरी तरह से कमज़ोर और ढीला कर दिया। उदाहरण के तौर पर जहाँ पहले फैक्ट्री एक्ट की धारा 10 कर्मचारी द्वारा बिजली की मदद से और 20 कर्मचारी द्वारा बिना बिजली से चलने वाली फैक्ट्रियों पर लागू होती थी, वहीं बदलाव के बाद यह क्रमशः 20 और 40 मजदूर वाले कारखानों/संस्थानों पर लागू होगी। इसी तरह अब मज़दूरों को कानूनी तौर पर मालिक हर अधिकार से वंचित कर सकता है। इसके अलावा केंद्र  सरकार ने एक माह में ओवरटाइम की सीमा को 50 घण्टे से बढ़ाकर 100 घण्टे कर दिया । वहीं दूसरी तरफ मज़दूरों के लिए यूनियन बनाना और भी मुश्किल कर दिया गया है। पहले किसी भी कारखाने या कम्पनी में 10 प्रतिशत या 100 मज़दूर मिलकर यूनियन पंजीकृत करवा सकते थे पर अब ये संख्या बढ़कर 30 प्रतिशत कर दी गई है। ठेका मज़दूरों के लिए बनाया गया ठेका मज़दूरी कानून-1971 भी अब सिर्फ 50 या इससे ज्यादा मज़दूरों वाली फैक्टरी पर लागू होगा। मतलब अब कानूनी तौर पर भी ठेका मज़दूरों के शोषण और उनके श्रम की लूट पर कोई रोक नहीं होगी। औद्योगिक विवाद अधिनियम के नए प्राविधानों के तहत अब कारखाना प्रबंधन को तीन सौ कर्मचारियों की छंटनी के लिए सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं होगी, पहले यह सीमा सौ मजदूरों की थी! साथ ही फैक्टरी से जुड़े किसी विवाद को श्रम अदालत में ले जाने के लिए पहले कोई समय-सीमा नहीं थी, अब इसके लिए भी तीन साल की सीमा तय कर दी गयी है। एप्रेंटिस ऐक्ट में संशोधन कर सरकार ने बड़ी संख्या में स्थायी मज़दूरों की जगह ट्रेनी (प्रशिक्षु) मज़दूरों को भर्ती करने का कदम उठाया है। साथ ही किसी भी विवाद में अब मालिकों के ऊपर किसी भी किस्म की कानूनी कार्रवाई का प्रावधान हटा दिया गया है। अब अप्रेंटिसशिप ऐक्ट न लागू करने वाले फैक्ट्री मालिकों को गिरफ्तार या जेल में नहीं डाला जा सकेगा। यही नहीं कामगारों की आजीविका की सुरक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में समरूपता लाने संबंधी उपाय राज्य सरकारों की मर्जी पर छोड़ दिए गए हैं। तो यह सौगात दिया है मोदी जी ने मजदूरों और युवाओं को!
    हमारा अपना पंजाब जो कभी शहीदों की धरती कहलाता था आज शराब और ड्रग माफियाओं की धरती के नाम से कुख्यात हो रहा है। पंजाब जो इस देश के 'अनाज का कटोरा' कहलाता था आज बदहाली और तबाही के दौर से गुजर रहा है। किसान क़र्ज़ में डूबते जा रहे हैं और खुदकुशी कर रहे हैं। छोटी आय व जोत वाले मेहनतकश किसान आज उजड़ने के कगार पर है। पूँजीवादी खेती और हरित क्रांति का नाम रटने वाले कहीं दूर तक इस परेशानी का उपाय निकालते नहीं नज़र आ रहे है। आज पंजाब में कोई भी धरना प्रदर्शन नहीं कर सकता, ऐसा काला कानून इस सरकार ने जनता के माथे पर फोड़ दिया है। इस कानून के अनुसार कोई भी यदि प्रदर्शन करता पाया गया तो उसकी सम्पति पर सरकार कब्ज़ा कर लेगी, क्या यह कानून अंग्रेजों के कानून जैसा या उससे भी बदतर नहीं है? पंजाब की धरती, भगत सिंह की धरती आज कराह रही है।
    साथियों, ऐसी स्थति में निराशा और मायूसी स्वाभाविक है। किन्तु जहाँ एक ओर शोषण और दमन का राज है, वहीं दूसरी और इसको खत्म करने वालों ने भी विद्रोह का बिगुल बजा दिया है। पूरे विश्व में पूँजीवाद और शोषण के राज को खत्म करने के लिए मेहनतकश सड़कों पर आ रहे हैं । यही बात हमारी आशा का केंद्र है। मजदूरों की बगावत दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है। यह संकेत है बदलाव का। हमारे देश में भी कोयला बिल के खिलाफ कोयला खान मज़दूरों नें शानदार तरीके से हड़ताल कर सरकार की नींद उड़ा दी थी। हरियाणा में हर रोज़ मज़दूर हड़ताल और संघर्ष कर रहे हैं। लाख कोशिश और दमन के बावजूद मारुती के मज़दूर हारे नहीं और लड़ कर उन्होंने अपने जेल में कैद साथिओं को आज़ाद करवा लिया। झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओड़िसा या तमिलनाडु हर जगह मज़दूर-संघर्ष बढ़ रहा है और आने वाले समय में और बढ़ेगा, क्योंकि पूँजीवाद के पास हमे देने के लिए दुःख, तकलीफ और मुश्किल के सिवा कुछ नहीं है।
    साथियों! इसलिए हम उन लोगों की तरह नहीं हैं जो मई दिवस को धार्मिक भावना से मनाते हैं, जैसा कि आजकल का चलन हो गया है। इस दिन को भी होली-दिवाली-बैसाखी की तरह एक रस्मअदायगी करने का अवसर बना देने की साजिश की जा रही है। ये कुछ नारा और भाषण दे कर अगले साल तक के लिए सो जाते हैं। इन्हीं की तरह, तथाकथित वामपंथी - संशोधनवादी नेताओं, जो लाल झंडा पकड़ कर पूँजीवाद के खिलाफ संघर्ष का दिखावे करते हुए अंतिम तौर पर शोषक-शासक वर्गों की तरफदारी करते हैं, के खिलाफ भी हमें कटु राजनैतिक व वैचारिक संघर्ष करना होगा।
    साथियों, यह दिन है बीते साल हमने जो संघर्ष किये उनका लेखा-जोखा करने का और नए संघर्ष के बारे में चिंतन करने का। साथ ही साथ यह दिन है आगामी दिनों में सभी तरह के शोषण व उत्‍पीड़न के खिलाफ मजदूरों, किसानों व छात्रों-युवाओं के संघर्षों को फैसलाकुन मंजिल तक ले जाने के प्रश्‍नों पर गंभीरता से विचार करने का। हमें सोचना होगा कि किस प्रकार से हमे इस सड़ी-गली पूँजीवादी व्यवस्था को खत्म करना है और मज़दूरों-मेहनतकशों का राज कायम करना है।
    साथियों! आइए , दोगुने जोश से आने वाले निर्णायक संघर्ष की तैयारियों पर विचार करें। आइए, क्रांतिकारी और संघर्षशील सर्वहाराओं की तादात तेज़ी से बढ़े और हमारी मुक्ति की बात दूर-दूर तक फैले इसके लिए कमर कसें। मई दिवस के इस अवसर पर हम हजारों-लाखों मज़दूर-किसान-युवा एकजुट हो कर एक मुक्ति की एक नई जंग का एलान करें। यह वह जंग है जिसमें हमारी जीत न सिर्फ हमारे अपने देश, बल्कि इस पूरी धरती से शोषण और पूँजी की गुलामी से सदा के लिए मुक्ति दिलाकर एक नई आज़ादी और शोषणमुक्‍त समाज की उदघोषणा करेगी।

क्रांतिकारी अभिवादन के साथ 
लोकपक्ष/मई दिवस तैयारी कमिटी 

पर्चा जारी करने की तिथि -24/04/2015    

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