Friday, April 24, 2015


आलोचना नहीं एक निवेदन 

काश, राजनीतिक अर्थशास्‍त्र पर यह लेखक

 की अंतिम कृति हो!

(किस्‍त–3)

                           
सफ़र में चलते_चलते 

यूँ तो ''महामंदी'' के बारे में इसके शुरूआती दस पृष्‍ठों को पढ़कर ही यह समझ में आ गया था कि ''महामंदी'' एकमात्र विश्‍व पूँजीवादी व्यवस्था में ही नहीं, विचार जगत में भी, यहाँ तक कि तथाकथित मार्क्सवादी 'लेखकों' और 'चितंकों' के बीच भी बुरी तरह व्याप्त है। लेकिन स्थिति इतनी खराब होगी, इसकी कल्‍पना नहीं की थी। आखिर तभी तो यह संभव हुआ कि ''महामंदी'' जैसी किताब प्रेस में जाने से पहले, जब यह पांडुपलि‍पि के रूप में ही थी, ख्‍यातिप्राप्‍त क्रांतिकारी कन्‍युनिस्‍ट नेताओं, तथाकिथत रूप से जिनके सुझाव और सहयोग के लिए इसकी पाण्डुलिपि दी गयी थी, उनकी नजरों से गुजर कर भी अक्षुण्‍ण बनी रही! उनसे इस सम्बन्ध में मिले ''उपयोगी'' सह्योग के बारे में लेखक द्वारा लिखित भूमिका में पाठकों को भव्य तरीके से सूचित भी किया गया है। वे जिन्हें इसकी पांडुलिपि दी गयी थी इनमे प्रमुख हैं – कामरेड एस.आर.भाई जी, कामरेड अर्जुन प्रसाद सिंह, कामरेड नंद्किशोर सिंह तथा कामरेड मनोज कुमार सिन्‍हां आदि। इनके अतिरिक्‍त, ''उपयोगी'' सुझाव देने वालों में एक नाम ऐसे व्‍यक्ति का भी है जो किसी भी मायने में मार्क्‍सवादी नहीं है। यह व्‍यक्ति मेरी जान-पहचान के भी हैं और वे किसी भी तरह से मार्क्‍सवादी नहीं हैं और मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उन्‍होंने किसी भी तरह का ''उपयोगी'' सुझाव नहीं दिया होगा, सिवाए प्रोत्‍साहन के जो हर किसी को इस दुनिया का हर सामान्‍य या चालू व्‍यक्ति दुनियादारीपरस्‍त तरीके से ''आगे बढ़ते'' रहने के लिए आम तौर पर देता रहता है। इसलिए इनसे कुछ भी कहना नहीं है। नरेंद्र जी के लिए इनका 'उपयोगी मूल्‍य' जरूर ही कुछ और रहा होगा, जिससे इस पुस्‍तक व लेखक की आलोचना के क्रम में मुझे कुछ भी लेना-देना नहीं है। इसके अतिरिक्‍त, विद्यानंद चौधरी, मधु (नरेंद्र की जीवनसंगि‍नी, बैंककर्मी और यूनियन नेत्री) और अमृत राज के नाम भी शामिल हैं जिनके बारे में कहा गया है कि वे इस पुस्‍तक को लिखने की प्रक्रिया में यानि लेखक की विचार-प्रक्रिया में शामिल रहे हैं। हम इन सब के प्रति पूरे सम्‍मान और आदर के साथ यह आग्रह करते हैं कि ये सभी लोग और साथ ही वे भी जिन्‍होंने फेसबुक पर नरेंद्र जी को इस किताब का लेखक बनने पर जम कर  बधाइयाँ दी हैं और इस पुस्तक के प्रचार में भूमिका निभाई है, मेरी समझ से वे सभी इस बात के लिए कर्तव्‍यबद्ध हैं कि वे या तो नरेंद्र जी के पक्ष से तर्क करें, या फिर अपनी अन्‍यान्‍य स्थिति स्‍पष्‍ट करें,  खासकर, निम्‍न पंक्तियों के बारे में, जिनमें लेखक मंदी और पूँजीवादी संकट की मार्क्‍सीय व्‍याख्‍या प्रस्‍तुत करते हुए लिखता है कि - 

        '' .......मार्क्स ने सिद्ध किया कि कुछ निश्चित सामाजिक परिस्थितियों में प्रत्येक माल के उत्पादन के लिए जितना औसत श्रम-काल आवश्यक होता है, उसी द्वारा उसका मूल्य निर्धारित होता है। इस मूल्य को (अर्थात औसत श्रम-काल द्वारा निर्धारित मूल्‍य को*) वस्तु का उपयोग मूल्य कहते हैं। पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया में पूँजीपति जो विनिमय मूल्य तय करता है, उसमें उपयोग मूल्य और मुनाफा जुड़ा होता है।" (''महामंदी'' की पृष्‍ठ संख्‍या 90 से उद्धृत, कोष्ठक में तारांकित शब्द मेरे)   

      ऊपरोक्त साथियों से अनुरोध है कि वे बताएं कि क्या वे नरेन्द्र जी की इस बात से सहमत हैं या नहींI अगर वे कोई जवाब नहीं देते हैं, तो मुझे यह समझने का अधिकार होगा कि वे भी नरेन्द्र जी की इस मार्क्सीय व्याख्या से सहमत हैं। 

      अंत में, फिलहाल, हमें अत्‍यधिक खेद, पीड़ा और और घोर आश्‍चर्य के साथ यह पूछना पड़ रहा है कि जिस व्यक्ति को मूल्‍य और उपयोग मूल्‍य की प्राथमिक समझ नहीं है, वह व्‍यक्ति पूँजीवादी संकट और महामंदी जैसी विश्‍वव्‍यापी और अत्यंत ही महत्वपूर्ण आर्थिक व सामाजिक परिघटना के ऊपर मार्क्‍स के राजनीतिक अर्थशास्त्र की दृष्टि और विचारों के आलोक में एक किताब की रचना कैसे कर देता है? यह कौन सी प्रवृति है? और इसे किसी भी रूप में कोई कैसे समर्थन कर सकता है? जो चीज सबसे ज्‍यादा परेशान करने वाली है वह बात यह है कि इसमें किसी न किसी रूप में शामिल उपरोक्त क्रांतिकारी लोगों ने इन्‍हें आखिर किस तरह के ''उपयोगी'' सुझाव दिये थे कि मालो में निहित औसत श्रम या औसत श्रम-काल और उससे बना मूल्य उसका उपयोग मूल्य हो जाता है? इसी तरह, भला विनिमय मूल्य में उपयोग मूल्य किस तरह समाहित हो गया? क्या वे "उपयोगी" सुझाव सच में ऐसे थे? यह बात और भी दुखदायी है और अत्‍यधिक रोष इसलिए पैदा करता है, क्योंकि ऐसा करने वाला व्यक्ति हमारे बीच का है, किस और खेमे का नहीं। 

  मार्क्स बारंबार स्पष्ट करते हुए लिखते हैं –

    "उपयोग-मूल्यों के रूप में पण्यों में सबसे बड़ी बात यह होती है कि उनमें अलग-अलग प्रकार के गुण होते हैं, लेकिन विनिमय-मूल्य के रूप में वे महज़ अलग-अलग परिमाण होते हैं, और इसीलिए उपयोग मूल्य का उनमें एक कण भी नहीं होता है।''   

        हम समझते हैं कि पाठकों को मार्क्‍स के इस एकमात्र उद्धरण से मूल्‍य, उपयोग मूल्‍य और विनिमय मुल्‍य के बारे में माकर्सीय विचार की स्थिति स्‍प्ष्‍ट हो चुकी होगी। पिलहाल इतना ही..................
                                                                                                                           (आगे भी जारी )

3 comments:

  1. Pustak ki samalochana ka swagat hai kintu iske ssaath lekhak evam kinhi anyako visheshanoñse mahimaamandan sansaadhanka apvyay hai.

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  2. Pustak ki samalochana ka swagat hai kintu iske ssaath lekhak evam kinhi anyako visheshanoñse mahimaamandan sansaadhanka apvyay hai.

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    1. जी, आगे से ख्याल रखूँगा .....

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