आलोचना नहीं एक निवेदन
काश, राजनीतिक अर्थशास्त्र पर लेखक
की अंतिम कृति हो!
(किस्त–2)
क़िस्त 2 का भाग 1
क़िस्त 2 का भाग 1
आइए, थोड़ी तफसील और गहराई से नरेंद्र जी के राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में 'मार्क्सवादी' ज्ञान को समझा जाए।
महामंदी के लेखक नरेंद्र जी विषय प्रवेश में ही, धुमिल की कविता की पैरोडी के ठीक बाद, लिखते हैं -
''.... आज के अर्थशास्त्री, पूँजीवादी राज्यों के संचालक, उद्योगपति और पत्रकार अर्थशास्त्र के जनक एडम स्मिथ की चर्चा सिर्फ मुक्त बाजार की अवधारणा और तीन सौ बर्षों से जारी इसकी सफलता के दावे के क्रम में करते हैं, लेकिन सामाजिक इतिहास और क्लासिकी अर्थशास्त्र के महारथी एडम स्मिथ और रिकार्डो बर्षों पहले इस बात को बता चुके थे कि उत्पादित मालों में मूल्य का सृजन श्रम से होता है और श्रम के इसी रूप को पूंजीपति मूल्य के रूप में हासिल करता है।''
इस पैराग्राफ में लेखक द्वारा पंडिताऊ (पूँजीवादी-बाजारू) ज्ञान बघारने के अलावा और कुछ किया गया है क्या? नहीं, बिलकुल ही नहींI नरेंद्र जी अपने को मार्क्सवादी घोषित करते हैं, लेकिन ऊपर की पंक्तियाँ बता रही हैं कि उनका मार्क्सीय ज्ञान भंडार पर कम बाजारू 'ज्ञानवर्द्धक' चीजों पर अधिक निर्भर है। इतना ही नहीं, पूँजीवाद के अंतर्गत पाये जाने वाले ज्ञान को वे हू-बहू अपनी किताब में परोस कर आनंदित भी होते हैं और फिर अपने इस ज्ञान पर मार्क्स का नाम चस्पा करने के लिए यह घोषणा और दावा करते हैं कि ''इसके बारे में विस्तार से समझने में जिनकी रूचि है, उन्हें मार्क्स की कृति 'पूँजी' का गहन अध्ययन करना चाहिए।'' वे इसके लिए पाठकों को कष्ट उठाने के लिए भी प्रेरित करते हैं और लिखते हैं कि ''यह कष्ट हम अपने पाठकों को आगे के अध्यायों में देंगे।" कोई भी देख सकता है कितनी आत्मत़ृप्ति का भाव है यहाँ!
लेकिन जब वे एडम स्मिथ को 'अर्थशास्त्र का जनक' कहते हैं तो वे बस अर्थशास्त्र या राजनीतिक अर्थशास्त्र के हाई स्कूलों के कोर्स में लिखित/मौजूद ज्ञान को ही परोसते हैं और स्वघोषित रूप से ही सही लेकिन एक मार्क्सवादी लेखक के बतौर अत्यंत ही बाजारू बात कर रहे होते हैं जिससे शायद ही किसी नवांगतुक क्रांतिकारी का सच्चा ज्ञानवर्धन होगा। यह बात कि 'एडम स्मिथ अर्थशास्त्र के जनक' थे, हाई स्कूल की परीक्षाओं में अंक प्राप्त करने के लिए तो सही हो सकती है लेकिन यहाँ इस किताब में पूँजीवादी कोर्स बुक के ज्ञान को बिल्कूल उसी तरह हू-बहू लिख दिया जाना भला क्या दिखाता है, सिवाय इसके कि दूसरों को मार्क्स की कृति पढ़ने के लिए कष्ट उठाने का आह़वान करने वाला ''महामंदी'' का हमारा 'महाज्ञानी' लेखक स्वयं "मार्क्स की कृति 'पूँजी' का गहन अध्ययन" करने का कष्ट उठाने में पिछड़ गया है?
मार्क्स के इसी ग्रन्थ ("पूँजी") के खंड IV के प्रथम भाग में मार्क्स लिखते हैं –
"The analysis of capital, within the bourgeois horizon, is essentially the work of the Physiocrats. It is this service that makes them the true fathers of modern political economy. " (bold ours)
ये फिजियोक्रेटस ही थे जिन्होंने बेशी मूल्य के स्रोत की खोज को सरकुलेशन (प्रचलन) के क्षेत्र से निकालकर प्रत्यक्ष उत्पादन के क्षेत्र में स्थानांतरित किया था और इस तरह पूँजीवादी उत्पादन के विश्लेषण की नींव रखी थी।
फिजियोक्रेटस के लिए उत्पादन के बुर्जुआ रूप अवश्यंभावी रूप से प्राकृतिक (और इसीलिए स्वाभाविक) रूपों के बतौर प्रकट होते थे। यह उनकी महान उपलब्धि थी कि उन्होंने इन रूपों को समाज के फिजियोलॉजिकल रूपों में आत्मसात किया, उन रूपों में जो स्वयं उत्पादन की स्वाभाविक जरूरतों के मद्देनजर पैदा होते थे और जो किसी की भी इच्छा और चाहत से स्वतंत्र थे। उन्होंने बुर्जुआ उत्पादन के नियमों को भौतिक नियम के रूप में आत्मसात किया था और वे इन्हें ऐसा ही मानते थे। इस मुतल्लिक उनकी गलती मात्र इतनी थी कि वे इस भौतिक नियम को, जो समाज के किसी एक ऐतिहासिक मंजिल व अवस्था में और उन पर कार्यरत नियम हैं, एक ऐसे अमूर्त नियम में बदल देते थे, जो मानो समान रूप से समाज के सभी रूपों पर लागू होते थे।
दूसरे, इन्होंने पूँजी के उन रूपों का भी निर्घारण किया जिन्हें पूँजी प्रचलन में स्वयं धारण करती है, जैसे कि फिक्स्ड कैपिटल, सरकुलेटिंग कैपिटल आदि, हालांकि वे इन्हें दूसरे नामों से पुकारते थे। उन्होंने सामान्यतया पूँजी के प्रचलन और इसके पुनरूत्पादन की प्रक्रिया के बीच के संबंधों को भी स्थापित किया।
इन दो सर्वप्रमुख बिंदुओं पर एडम स्मिथ बहुत हद तक फिजियोक्रैट्स की "वसीयत के वारिस" थे और इस संबंध में उनका मुख्य योगदान बस यहाँ तक सीमित था, जैसा कि मार्क्स स्वयं लिखते हैं, कि ''In these two principal points Adam Smith inherited the legacy of the Physiocrats. His service — in this connection — is limited to fixing the abstract categories, to the greater consistency of the baptismal names which he gave to the distinctions made by the Physiocrats in their analysis. (ibid)
भाग II
आगे चलें। हम फिलहाल उपरोक्त पंक्तियों/वाक्य की अत्यंत ही हास्यास्पद और अस्पष्ट बनाबट पर कुछ नहीं कहना चाहते हैं सिवाए इसके कि लेखक दरअसल अपनी बात को लगभग घसीटते हुए आगे बढता है जो इस बात का सबूत है कि लेखक के पास इस दुरूह और गुढ़ विषयवस्तु, जिसकी स्वयं की अपनी भाषा होती है, तक पहुँचने के लिए या तो जरूरी बौद्धिक सामग्री का अभाव है या फिर वह राजनीतिक अर्थशास्त्र की भाषा के क्षेत्र में अत्यंत दरिद्र है। और ये दोनों चीजें एक लेखक के लिए अत्यंत बुरी स्थित का परिचायक है जैसा कि यहाँ साबित भी हो रहा है। दरअसल उपरोक्त पंकितयों के दोनों हिस्सों में सहसंबंध तक स्थापित नहीं हो सका है और बड़ा ही हास्यास्पद प्रतीत होता है। इसे समझने के लिए हमें उन पंक्तियों को फिर से उद्धृत करना पड़ेगा। यह रहा वे पंक्तियाँ –
- ''.... आज के अर्थशास्त्री, पूँजीवादी राज्यों के संचालक, उद्योगपति और पत्रकार अर्थशास्त्र के जनक एडम स्मिथ की चर्चा सिर्फ मुक्त बाजार की अवधारणा और तीन सौ बर्षों से जारी इसकी सफलता के दावे के क्रम में करते हैं, लेकिन सामाजिक इतिहास और क्लासिकी अर्थशास्त्र के महारथी एडम स्मिथ और रिकार्डो बर्षों पहले इस बात को बता चुके थे कि उत्पादित मालों में मूल्य का सृजन श्रम से होता है और श्रम के इसी रूप को पूंजीपति मूल्य के रूप में हासिल करता है।'' (बोल्ड हमारा)
यहाँ हम यह देख सकते हैं कि ''लेकिन'' शब्द के ऊपरी हिस्से में स्मिथ के मुक्त बाजार की सफलता के दावे करते पूँजीवादी लोगों के बारे में कहा गया है और उसके नीचे के हिस्से में उसका काट दिया जाना था लेकिन जो दिया गया है वह किसी और चीज के बारे में है अर्थात श्रम और मूल्य के बारे में स्मिथ और रिकार्डो के विचारों को यहाँ बताया गया है। नतीजे के तौर पर एक दूसरी भारी गड़बडी हो गई है। एक बार फिर से पूँजीवादी मीडिया में टनों में मौजूद ''मुक्त बाजार'' की गर्म चर्चा को एक बार फिर से हू-बहू यहाँ डाल दिया गया है। अब दोनों हिस्सों को एक साथ समझने की कोशिश करें तो कुछ इस तरह का अर्थ निकलेगा;
पूँजीवादी महानुभवों, आप कहते हैं कि तीन सौ सालों से स्मिथ के मुक्त बाजार की सफलता जारी है, ठीक है यह तो ठीक है लेकिन क्या आप नहीं जानते हैं कि उसी स्मिथ ने यह भी कहा था कि उत्पादित मालों के मूल्य का सृजन श्रम से होता है ..... वगैरह।
मेरी समझ से उपरोक्त वाक्य का यही अर्थ निकलता है। स्पष्ट है कि लेखक इस बाजारू चर्चा से सहमत है कि पिछले तीन सौ सालों से दुनिया में मुक्त बाजार (जिसके लिए स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा पूर्व में ही मानी हुई और जरूरी चीज़ है) का बोलबाला है। लेकिन क्या महामंदी का लेखक अपने पाठकों को बताएगा कि क्या यह मुक्त बाज़ार आज संभव है? क्या सच में दुनिया में एडम स्मिथ के 'मुक्त बाजार' का साम्राज्य कायम है या लेनिन के 'एकाधिकार' का? क्या यह सच नहीं है कि साम्राज्यवाद के प्रादुर्भाव तथा आगमन के बाद से लेकर अब तक पूरी दुनिया में एकाधिकार का बोलबाला है, मुक्त बाजार का नहीं? साम्राज्यवाद के युग में ''मुक्त बाजार'' वास्तव में कभी भी वास्तविकता नहीं हो सकता। इस अवधारणा का बाजारू फैशन सिर्फ राज्य को पीछे हटने के लिए बाध्य करने के लिए किया गया है, न कि कॉरपारेट पूँजीवाद से भी बाजार को मुक्त करने के लिए। ''मुक्त बाजार'' या बाजार की शक्तियों को स्वतंत्र करने की मांग का अर्थ बाजार के अंदर मौजूद पूँजी के बड़े-बड़े शार्कों और मगरमच्छों की कैद में बाजार को ले जाने की हो रही साजिशों से लगाया जा सकता है। उनका मानना है कि इसमें राज्य हस्तक्षेप जरूर करे लेकिन इन्हीं शार्कों और मगरमच्छों की तरफ से और इनके हितों के लिए करे। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि आज के तथाकथित मुक्त बाजार में सामान्य स्तर की बड़ी पूँजियों (छोटी पूँजीयों की तो बात ही छोड़ दें) की भी इन मगरमच्छों के समक्ष कोई हैसियत है? 21वीं सदी की महामंदी को हमारा लेखक ''मुक्त बाजार'' के चश्में से देखता है और दावा करता है कि वह पूँजी की अबतक की संपूर्ण यात्रा का वर्णन कर रहा है!! आज के समय में ''मुक्त बाजार'' के बाजारू गप्प वाले चश्में से महामंदी को देखने वाले लेखक से हम आखिर कितनी उम्मीद करें? इनसे ज्यादा समझदार तो इकोसोशलिज्म की धारा वाले हैं जो मुक्त बाजार के कोरे बाजारू गप्प के पीछे की वास्तविकताओं को बखूबी समझते हैं और बच्चों जैसी बातें नहीं करती है। इनका एक लेख मैं हाल में ही पढ़ा हूँ। वे लिखते हैं --
In 2008, the banks did not uphold the principle of free market values and keeping the state out of the market – they begged the state to use tax payer money to cover their debts whilst only they enjoyed the profits. The IMF recently estimated that this bailout has so far cost the taxpayers of the world £7.12 trillion ($11.9trn). That is the equivalent of a £1,779 hand out to every last human being on earth.
इसका लिंक मैं यहां दे रहा हूँ। चाहूंगा कि इसे सभी पढ़ें, इसलिए नहीं कि यह कोई क्रांतिकारी धारा है, बल्कि इसलिए कि यह हम सबको यह समझने में सहायक होगा कि "महामंदी" के हमारे लेखक का लेखन स्तर, उनकी लेखकीय शैली का स्तर और विषय-वस्तु का ज्ञान कितना छिछला और बाजारू है। यह रहा वह लिंक - http://climateandcapitalism.com/2013/02/28/like-unicorns-the-free-market-is-a-myth/
In 2008, the banks did not uphold the principle of free market values and keeping the state out of the market – they begged the state to use tax payer money to cover their debts whilst only they enjoyed the profits. The IMF recently estimated that this bailout has so far cost the taxpayers of the world £7.12 trillion ($11.9trn). That is the equivalent of a £1,779 hand out to every last human being on earth.
The truth is that most of the globe now labours under corporatized states. Every new policy is tested against the reaction to it by ‘the market’, as if it were this free, independent aggregated assessment of the worthiness of state actions. It is not. It is simply big businesses reaction to the action of the state. All the market reaction tells you is whether or not a cabal of corporations think they can make a profit from it.
In conclusion, not only is the market not free, but it never can be. It requires legislation to prevent rational corporate behaviour which would undermine it, and any regulator (state or otherwise) will be corrupted by corporations seeking to influence them. इसका लिंक मैं यहां दे रहा हूँ। चाहूंगा कि इसे सभी पढ़ें, इसलिए नहीं कि यह कोई क्रांतिकारी धारा है, बल्कि इसलिए कि यह हम सबको यह समझने में सहायक होगा कि "महामंदी" के हमारे लेखक का लेखन स्तर, उनकी लेखकीय शैली का स्तर और विषय-वस्तु का ज्ञान कितना छिछला और बाजारू है। यह रहा वह लिंक - http://climateandcapitalism.com/2013/02/28/like-unicorns-the-free-market-is-a-myth/
भाग III
अब आइए, इस वाक्य के अंतिम हिस्से पर, जो और भी ज्यादा हास्यास्पद है। ये स्मिथ और रिकार्डो के हवाले से और उनके मुंह में अपनी बात रखते हुए लिखते हैं कि –
''उत्पादित मालों में मूल्य का सृजन श्रम से होता है और श्रम के इसी रूप को पूंजीपति मूल्य के रूप में हासिल करता है।''
पहले तो लेखक से यह पूछा जाना चाहिए कि ''श्रम के इसी रूप'' से लेखक का क्या तात्पर्य है? यह "इसी रूप" किसके लिए प्रयुक्त हुआ है? अगर हम स्वयं इस वाक्य के पहले हिस्से के सहारे इसका अर्थ निकालें, तो श्रम के इस रूप से तात्पर्य ''उत्पादित मालों के मूल्य के सृजन'' से और इसीलिए स्वयं ''उत्पादित मालों के मूल्य'' से होना चाहिए। अर्थात श्रम का यह रूप मूल्य ही है। तो हमारे लेखक के अनुसार मूल्य श्रम का एक रूप है। हँसिए मत मित्रों! बस याद रखिये, मूल्य यानी श्रम का एक रूप!!
लेकिन फिलहाल आगे बढिए! मूल्य को श्रम का एक रूप मानते हुए वाक्य के अंतिम हिस्से को पूरा करिए, वह इस प्रकार होगा ---
"मूल्य (श्रम के एक रूप) को पूँजीपति मूल्य के रूप में हासिल करता है"
अब जिसके पल्ले यह पूरी बात पड़े, वही जाने कि इस पूरे वाक्यांश का क्या अभिप्राय है!!
मित्रोँ, हम आगे जल्द ही इस सम्बन्ध में स्मिथ और रिकार्डो के स्वयं के उद्धरणों से और इनके सिद्धांतों पर प्रचुरता में मौजूद मार्क्सीय टीकाओं के उद्धरण से यह दिखाने का काम करेंगे कि हमारा लेखक किस तरह उनके विचारों और सिद्धांतों के बारे में लिखते समय हद दर्जे की लापरवाही और फूहड़ता का प्रदर्शन करता है!
मित्रोँ, हम आगे जल्द ही इस सम्बन्ध में स्मिथ और रिकार्डो के स्वयं के उद्धरणों से और इनके सिद्धांतों पर प्रचुरता में मौजूद मार्क्सीय टीकाओं के उद्धरण से यह दिखाने का काम करेंगे कि हमारा लेखक किस तरह उनके विचारों और सिद्धांतों के बारे में लिखते समय हद दर्जे की लापरवाही और फूहड़ता का प्रदर्शन करता है!
(आगे भी जारी)
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