Tuesday, January 20, 2015

सम्पादकीय (15 जनवरी 2015, "सर्वहारा")
शंकर बिगहा नरसंहार : सोलह साल आये फैसले में बरी हुए सभी 22 दलितों के 24 के हत्यारोपी

एक बार फिर दिखा न्यायालय पूर्वाग्रहित और पक्षपातपूर्ण 

शंकर बिगहा नरसंहार मामले में दो दिनों पूर्व 16 वर्षों की तपस्या के बाद जहानाबाद व्यवहार नयायालय के अतिरिक्त जिला न्यायाधिश ने जो फैसला दिया है उसने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि गैर-वर्गीय और आम तौर पर सामान्य मसलों पर अत्यंत ही संवेदनशील और क्रियाशील दिखने वाले "न्याय के मंदिर" वर्गीय तौर पर कितने पूर्वाग्रहित और यहां तक कि पक्षपातपूर्ण भी दिखते हैं. ज्ञातव्य है कि उक्त गांव में 25 जनवरी 1999 की रात में रणवीर सेना के द्वारा 22 गरीब ग्रामीणों की घुप्प अंधेरे में नृशंस हत्या कर दी गयी थी और 14 अन्य को घायल कर दिया गया था. 
न्यायालय का तर्क भी वही घिसापिटा है कि पर्याप्त सबूत नहीं थे. तो न्यायलय ने कम से कम पुलिस को फिर से अभियोग पत्र दाखिल करने के लिए क्यों नहीं कहा? आखिर क़त्ल तो हुए और किसी ने तो 22 लोगों के क़त्ल किए थे! क़त्ल मंगल ग्रह के काल्पनिक वासिंदों तो नहीं किये हैं न! लेकिन न्यायालय ने ऐसा कुछ भी नहीं किया. ऐसे फैसले आम लोगो को भी नयायालय की आलोचना के लिए तैयार करेंगे यह तय है और तब न्यायालय यह चीख पुकार करेगा कि उसका अवमानना हो रहा है.
बिहार या भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में, जहां भी वर्ग विभाजित समाज है, न्याय के इन तथाकथित मंदिरों का यही चेहरा सामने प्रकट होता रहा है. अमरीका और ब्रिटेन जैसे अत्यधिक विकसित पूंजीवादी जनतंत्रों में भी न्यायालय का न्याय वर्गीय न्याय ही होता है. अभी चंद दिनों पहले ही अमेरिका के सेंट लुई मेट्रोपोलिटन सिटी के फेर्गुसन (Ferguson) शहर में यहां के एक स्थानीय न्यायालय के ग्रैंड जूरी ने एक एक काले निर्दोष युवक की हत्या करने वाले गोरे पुलिस ऑफिसर डैरेन विल्सन को बरी कर दिया था जबकि उसे एक  व्यक्ति की जान लेने के लिए सख्त सजा होनी चाहिए थी. इसके विरुद्ध झड़पें हुईं और पूरे फेर्गुसन में काले लोगों का जबर्दश्त आन्दोलन उठ खड़ा हुआ. और यह सब तब हुआ जब अमेरिका में आज के राष्ट्रपति भी काले हैं.  
बिहार में, अभी चंद दिनों पहले ही, 2013 में, बाथे, बथानी टोला, नगरी और मियापुर में इसी रणवीर सेना के द्वारा रचाए गए नरसंहार  के मामले में भी पटना उच्च न्यायालय का एक ऐसा ही हृदयविदारक, जनविरोधी और विस्मयकारी फैसला आया था जिसका बिहार में कार्यरत सभी जनपक्षीय ताकतों ने खुलकर प्रतिवाद किया था. जन अभियान ने उक्त नरसंहार पीड़ित गावों और इलाको का बाजाप्ता दौरा करते हुए और हजारों की संख्या में परचा वितरित करते हुए इसका प्रतिवाद किया था जिसके विरुद्ध पटना उच्च नयायालय की एक तल्ख़ टिपण्णी भी सामने आई थी. 
इस मौके पर मारुती उद्योग के संघर्षशील और जेल में बंद 147 कामगारों की जमानत याचिका पर मई 2013 में हरियाणा उच्च न्यायलय का फैसला और फैसला देने वाले न्यायाधीशों के उस कमेन्ट को भी यहां याद करना चाहिए जिसने दिखाया था कि "न्याय के मंदिरों" में बैठने वाले लोग स्वयं और पूंजीवादी बुद्धिजीवी जमात चाहे जो कह लें, सच यही है कि ये 'मंदिर' भी वर्ग से ऊपर नहीं है और यहां भी सब कुछ शासक वर्गों के बुनियादी हितों को ध्यान में रखकर ही फैसले किये जाते हैं. जजों ने अपने फैसले में कहा था कि इन मजदूरों को इसलिए जमानत नहीं दी जा सकती है क्योंकि इससे देश में एफ.डी.आई. का माहौल बिगड़ेगा. तब से उनके साथी और परिजन दर्ज़नों बार उच्चतम न्यायालय का चक्कर लगा चुके हैं, लेकिन उन्हें अभी तक न्याय नहीं मिला है. न्यायालयों के वर्गीय चरित्र का इससे अधिक प्रमाण और क्या हो सकता है? 
याद रखना होगा कि मारे गए लोग महज़ "गरीब लोग" नहीं थे, वे पुरातन अर्थात ढहते सामंती समाज और इससे उभरते खुंखार पूंजीवादी भूस्वामियों द्वारा चलाये जा रहे पुराने बर्चस्व के खिलाफ जनता की चल रही राजनीतिक लड़ाई के भी वे प्रतीक थे और इसीलिए यह वर्ग शासन को मंजूर नहीं हो सकता है कि ऐसे "मारे लोगों" को न्याय मिले. यह पुराने सामंती ताकतों की एक और हर होती. न्यायलय ने सच में बड़ी वर्गीय  इमानदारी  दिखाई  है!  
जाहिर है न्यायालय स्वयं यह साबित कर रहा है कि वह न्याय का मंदिर नहीं ऊपरी तौर पर तठस्थ दिखने वाला लेकिन वास्तव में वर्ग शासन को और पुखता बनाने वाला वर्गीय शासन का एक एक और निकाय भर है. और तब इसका विरोध भी होगा और इतिहास का दरबार ऐसे फैसले लिखने वाले को ही कठघरे में रखना चाहेगा. जहानाबाद जिला अदालत का यह फैसला और इसी तरह के अन्य फैसले सच में इस बात के पुख्ता प्रमाण है इतिहास करवट लेने को बेचैन है. (15.01.2015) 

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