Tuesday, January 20, 2015

कोल इंडिया हड़ताल (पांच दिवसीय जिसे आनन-फानन में दो दिनों में ही उठा लिया गया)

फिर चढ़ाई गई मज़दूर हितों की बलि
15 जनवरी, 2015,"सर्वहारा" 


एक हड़ताल जिसकी परिणति सब को मालूम थी और जिसका ऐलान ही जीतने के लिए नहीं बल्कि हारने के लिए किया गया था - यह है संक्षेप में पांच दिवसीय कोयला हड़ताल की कहानी. 6 से 10 जनवरी तक समूचे कोयला मज़दूरों की देशव्यापी हड़ताल की घोषणा चार केंद्रीय ट्रेड यूनियनों -- बी.एम.एस, एटक, इंटक तथा एच.एम.एस द्वारा की गई थी, जिसमें बाद में सीटू भी शामिल हो गया. किन्तु जिस प्रकार से इस हड़ताल को लेकर इन यूनियनों के शीर्ष नेताओं से लेकर जमीनी कार्यकर्ताओं में मायूसी और लाचारी का भाव दिख रहा था, यह कहना कि इन यूनियनों ने लड़ाई शुरू होने से पहले ही हार स्वीकार कर ली थी, कोई गलतबयानी नहीं होगी.
रामपंथी से लेकर संसदीय वामपंथी संगठनों तक ने एक तरह से कोई तैयारी न करने का लगता है कि फैसला कर लिया था. केवल घोषणा करना और अख़बारों और टेलीविज़न में बयानबाजी करना ही अब इन नेताओं का काम रह गया है. इन घोषणावीरों के चरित्र और इनकी राजनीति को देखते हुए यह भी लगता है कि इस तरह के हड़ताल करने का उद्देश्य केवल सरकार और मैनेजमेंट को इशारा करना था कि मज़दूर लडाई के लिए तैयार नहीं हैं और वह अपनी मनमानी बिना किसी डर और मज़दूर प्रतिघात की चिंता किये बगैर कर सकते हैं. वस्तुत इस तरह की हड़ताल का मतलब एक ऐसी कार्रवाई है जिससे सरकार को संभवतः यह अहसास कराया जाता है कि मजदूर संघर्ष के लिए तैयार नहीं हैं और सरकार को बिना किसी से डरे अपना काम करते जाना चाहिए. घोषणावीर केंद्रीय यूनियनें अक्सर कहा करती हैं कि मजदूर लड़ने के लिए तैयार नहीं हैं, लेकिन उल्टे क्या इस हड़ताल में इनके खुद के कुकृत्यों से यह प्रकट नहीं हो गया कि वास्तव में कौन लड़ने के लिए तैयार नहीं है? क्या ऐसे ही नेतृत्व के भरोसे मजदूर वर्ग पूंजीपति वर्ग द्वारा किए जा रहे ताबड़तोड़ हमलों का मुंहतोड़ जवाब देगा? ऐसे नेतृत्व के भरोसे तो सिर्फ हारा जा सकता है जैसा कि इस हड़ताल का परिणाम हुआ. इनके मांगपत्र को लें. किसी को भी यह जानकर आश्चर्य होगा कि इन यूनियनों ने कोल ऑर्डिनेंस, जो वास्तव में कोल इंडिया के निजीकरण का दस्तावेज है, को खारिज करने या वापिस लेने की मांग तक नहीं की थी. ऐसा लगता है इन्होंने सिद्धांततः निजीकरण को मान लिया है और फिर बस कुछ राहत भर की मांग कर रहे थे. इसी तरह इन्होंने मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों, कारखाना कानूनों और अप्रेंटिस कानूनों में किए जा रहे घोर मजदूर विरोधी सुधारों पर भी चुप्पी साध ली थी. मांगपत्र से लेकर हड़ताल करने के इनके तरीके से यह शुरू से ही स्पष्ट था कि इन्होंने हड़ताल की घोषणा जरूर कर दी थी और ये हड़ताल में गिरते-पड़ते चली भी गईं, लेकिन इनकी मंशा मोदी सरकार के मजदूर विरोधी कदमों को वास्तव में रोकने की कतई नहीं थी. 
किन्तु इन सरकारीनिष्ठ केंद्रीय संगठनों को शायद यह आभास नहीं था कि आन्दोलन की दिशा कुछ और ही होने वाली है! बिना किसी केंद्रीय समन्वय तथा सघन और व्यवस्थित रूप से प्रयास के शुरू हुई यह हड़ताल मानो मज़दूरों के स्वस्फूर्त आन्दोलन का रूप अख्तियार कर लेने को तैयार बैठी थी. हम अपने पाठकों को यहां कोल इंडिया के बारे में कुछ बताना चाहेंगे। 
कोल इंडिया दुनिया की सबसे बड़ी कोयला खनन कंपनी है। यह कंपनी भारत में 81 प्रतिशत कोयला उत्पादन करती है, और उसका भारत के कोयला बाज़ार पर 74 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। कंपनी कोयला से चलने वाले 86 थर्मल प्लांटों में 82 को कोयला सप्लाई करती है. उसके पास हर दिन औसतन करीब 15 लाख टन कोयला उत्पादन की क्षमता है। कोल इंडिया का गठन 1975 में किया गया था. इसके गठन और अस्तित्व में आने की भी एक अपनी कहानी है. देश में 1947 के सत्ता हस्तांतरण के बाद भी कोयला उद्योग निजी कम्पनियों के हाथ में ही था. इन कम्पनियों के मालिकों का एक ही उद्देश्य था – अधिक से अधिक कोयला का दोहन. इस प्रक्रिया में उन्होंने न तो कभी नई तकनीकों का इस्तेमाल किया और न ही सुरक्षा और पर्यावरण का ही ख्याल किया. इसका नतीज़ा था कोयला उत्पादन में गतिहीनता और खतरनाक काम करने के हालात. मज़दूरों की हालत तो और भी ख़राब थी. ज्यादातर मज़दूर उस उत्पीड़ित तबके से आते थे जिन्हें मालिक आज भी जानवर से ज्यादा नहीं समझते हैं. इस हालत से निकलने के लिए हजारों मज़दूरों ने आन्दोलन की राह चुनी. उनका सीधा मुकाबला पूंजीपतियों और उनके गुंडे, जो कोयलांचल में माफिया गिरोह के रूप में काम करने लगे थे, होने लगा। सैकड़ों मज़दूरों नें इस संघर्ष में अपनी जान की बाजी लगा दी और कई तो शहीद भी हो गए. कोयलांचल की धरती मज़दूरों के संघर्ष और बलिदान की धरती रही है जिसका अपना यशस्वी और क्रांतिकारी इतिहास रहा है.  मज़दूरों के आन्दोलन और संघर्ष का नतीज़ा था कि सरकार को हार कर कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण करना पड़ा. 1 मई 1972 को देश के सभी 226 कोकिंग कोल खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और 31 जनवरी 1973 को बाकी 711 गैर-कोकिंग कोल खानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया. 
आज नवउदारवादी नीति के समर्थकों का यह कहना कि कोयला उद्योग निजी क्षेत्र द्वारा सुचारू और “ज्यादा अच्छे”  रूप से चलाया जा सकता है, सर्वथा निरर्थक और थोथी-दलील से ज्यादा कुछ नहीं है. अगर निजी क्षेत्र इतना ही पेशेवर और कुशल है, जैसा कि वह अपने ख़रीदे हुए पत्रकारों और दलाल मीडिया के द्वारा प्रचारित करता है, तो फिर पहली बात यह कि कोयला खानों का राष्ट्रीयकरण करना ही क्यों पड़ा? आखिर निजी कम्पनियों के विरुद्ध कड़ा रुख अख्तियार करते हुए उच्चतम न्यायालय को 24 दिसम्बर 2014 को यू.पी.ए सरकार द्वारा आवंटित कोयला ब्लॉकों को क्यों रद्ध करना पड़ा? इस ऐतिहासिक फैसले में न्यायालय ने सरकार की कड़े शब्दों में निंदा करते हुए कहा था कि प्राकृतिक संसाधनों को देश हित में तथा जनता के हित में उपयोग किया जाए न कि कॉरर्पोरेट मुनाफे के लिए, और इसके लिए दीर्घदर्शी (दूरगामी) नीतियां बनाई जाएं. क्या इन सब तथ्यों को देखते हुए भी हम इस बात को स्वीकार कर सकते हैं कि खानों के निजीकरण से ही देश हित की पूर्ति हो सकती है?
जैसे ही हड़ताल की घोषणा की गई, कोल इंडिया के विभिन्न कंपनियों के कामगार सड़क पर उतर गए और इस तरह से शुरू हुई कोयला मज़दूरों की पिछले 30 सालों की सबसे बड़ी औद्योगिक हड़ताल. देश में बिजली संकट मंडराने लगा और सरकार तथा पूंजीपतियों के पैर कांपने लगे. केंद्रीय विद्युत् प्राधिकरण के मुताबिक, देश भर में 100 विद्युत् प्रोजेक्ट हैं जो देश में निकाले गए कोयले से चलते हैं, इनमें से 42 प्रोजेक्ट के पास कोयले का भंडार सात दिन से कम था और 20 के पास तो चार दिन से भी कम था.
5 लाख मज़दूर हड़ताल में पूरी तरह से शामिल हो गए और कुछ इलाकों में तो इन्होनें सरकारी तंत्र का प्रतिघात भी झेला. ईस्टर्न कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड (इ.सी.एल) के राजमहल क्षेत्र में तो प्रदर्शनकारी मज़दूरों पर सरकार और मैनेजमेंट ने अपने सी.आई.एस.एफ. के सशस्त्र सैनिकों द्वारा लाठीचार्ज करवा कर 3 संघर्षरत कामगारों को बुरी तरह से घायल कर दिया जिसके कारण उनको हस्पताल में भरती होना पड़ा. इस बर्बरता की जितनी निंदा की जाए वो कम है. ऐसा लगने लगा कि यह हड़ताल सरकार पर दबाव बनाने में सफल होने को है. फिर क्या था? दूसरे दिन से ही पूंजीपतियों और सरकार की खलबलाहट साफ़ झलकने लगी थी. सरमाएदारों के संघ एसोचैम (ASSOCHAM) ने तो अपना पुराना राग भी आलापना शुरू कर दिया था. उसने दुःखपूर्वक कहा कि देश की अर्थयवस्था पूरी तरह से चरमरा जाएगी तथा देश को रोज़ 200 करोड़ रुपये का नुक्सान उठाना पड़ेगा जो कि इन मुनाफाखोरों की नींद उड़ाने के लिए काफी है. डी.एस.रावत, जो एसोचैम के महासचिव है, ने कहा कि भारत का औद्योगिक विकास प्रभावित होगा, खास कर के पूर्वी और दक्षिणी भाग, जहां पहले से भी बिजली की समस्या है, बुरी तरह प्रभावित होगा. दूसरी सभी चीज़ों (जिनमें इनका मुनाफा सर्वप्रमुख है) के लिए चिंतित रहने वाले इन लोगों के लिए किन्तु मज़दूरों की समस्या कोई मायने नहीं रखती.
एक बात जो हर हड़ताल की तरह इस बार भी सामने आई वह थी  सरकार और मीडिया का खुल कर केवल पूंजीपतियों के नफे नुक्सान का विश्लेषण करना और पूरी तरह से कामगार हितों की अनदेखी करना, मानो ऐसा प्रतीत होता है जैसे मज़दूर हड़ताल अपने मज़े के लिए करते हैं और सारे देश के कल्याण की चिंता और उसका ठेखा मुनाफाखोरों-सरमायादारों ने ले रखी है.  
     पांच दिनों की हड़ताल का असर दूसरे दिन ही दिखने लगा था और राष्ट्रव्यापी समर्थन की दिशा में कदम भी उठने लगे थे. अखबारी रिपोर्टों को भी माने तो हड़ताल पूरे कोल इंडिया में 75 से 80 फीसदी से ऊपर सफल थी. इसीएल के आसनसोल स्थित खदानों में हालांकि हड़ताल शुरू के दो दिनों में उतनी सफल नहीं मानी जाएगी, लेकिन यहां के मजदूरों में भी दूसरे दिन के अंत से गोलबंदी दिखने लगी थी. निजीकरण के विरोध में शुरू हुई पांच दिनों की इस हड़ताल को देश के 12 लाख बिजली कर्मचारियों और अभियंताओं ने भी समर्थन देने की घोषणा की थी. पर जैसा आकलन हमने हमारे पर्चे में ( खान मजदूर कमचारी यूनियन, इफ्टू द्वारा जारी पर्चे में) की थी ठीक वैसा ही हुआ. रस्मअदायगी की मंशा से उतरे दक्षिणपंथी और संशोधनवादी-वामपंथी फिर एक हुए और घुटनों के बल गिर कर नतमस्तक हो गए सरकार तथा मैनेजमेंट के सामने. अखबारों के मुताबिक छह घंटे तक चली वार्ता के बाद हड़ताल वापिस ले ली गई. हर बार की तरह न तो मज़दूरों से सलाह ली गई, न उनको किसी प्रकार की कोई सूचना मिली कि उनके नेतागण छह घंटे तक क्या बातें सरकार से कीं?
सरकार के साथ फैसला
7 तारीख को जब एक तरफ मज़दूरों पर सी.आई.एस.एफ. द्वारा सरकार-मैनेजमेंट के कहने पर लाठी चार्ज कराया जा रहा था, वहीं दिल्ली में श्रमिक नेता कोयला मंत्री के साथ हड़ताल ख़त्म करने की बात कर रहे थे. जहां सडकों पर मज़दूर शानदार संघर्ष कर रहे थे, वहीं ट्रेड यूनियन ब्यूरोक्रेसी के नेता उनकी तक़दीर को फिर से पूंजीपति सरकार के हाथ गिरवी रखने की तैयारी कर रहे थे. अखबारों में छपी खबर के मुताबिक, कोयला अध्यादेश संशोधन के लिए कमिटी बनाने पर दोनों पक्ष की सहमति हुई और कमिटी की रिपोर्ट पर अध्यादेश में आवश्यक फेरबदल करने का सरकार ने वादा किया. इसके अलावा यह भी तय हुआ कि सरकार मज़दूरों की आवास व्यवस्था पर भी विचार करेगी, यानि, सरकार ने कोई फैसला नहीं लिया केवल वायदा भर ही किया और यूनियन नेताओं ने हड़ताल वापिस ले ली. अगर सरकार की मंशा इतनी अच्छी थी तो क्यों नहीं उसने श्रमिक संगठनों की मांग के अनुसार संशोधन कर दिया? क्या यह एक और छलावा नहीं, इस तरह के वायदे न जाने कितनी बार किए  गए हैं और न जाने कितनी बार मजदूरों को छला गया है!
कोयला मंत्री ने निजी कंपनियों को आवंटित कोल ब्लॉक से उत्पादित कोयला बेचने के अधिकार पर कोई बात नहीं की, यानी कि यह बात साफ़ है की सरकार इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाने जा रही. आवंटित कोल ब्लॉक से कोयला बेचने का मतलब होगा निजीकरण, भले ही इसका नाम कुछ भी दे दिया जाए. ज्ञात रहे कि इन निजी ब्लाकों में मज़दूरों की तनख्वाह कोल इंडिया के मज़दूरों के मुकाबले एक तिहाई और कभी तो इससे भी कम होती है और मालिकों द्वारा न ही कोई सुरक्षा या किन्ही और नियमों का पालन होता है, जिसके कारण कोयला बहुत ही सस्ती कीमत में निकाली जाती है. इन कोल ब्लॉक कंपनियो का एक ही उद्देश्य होता है ज्यादा से ज्यादा संसाधनों का दोहन, भले ही उसके कारण कितनी ही जानें चली जाएं और कितने ही पर्यावरण की क्षति हो. इस प्रकार के द्वारा की जाने वाली खनन प्रणाली का नाम अंग्रेजी में Slaughter of Mine यानि "खान का वध" कहा जाता है. जहां कहीं भी इस तरीके से खनन किया गया है या किया जा रहा है, वहां मनुष्यों और पर्यावरण की भारी क्षति हुई है और साथ ही कई बड़ी दुर्घटनाएं भी घटित हुई हैं. इसी प्रणाली को सरकार लाना चाह रही है. वाकई यह सरकार मज़दूरों के अच्छे दिन लाने वाली है.
यूनियन के प्रतिनिधियों से सरकार ने यह भी पारित करवा लिया कि इस हड़ताल से हुए नुकसान की भरपाई भी मज़दूर करेंगे. इसके लिए उनको 1मिलियन (दस लाख) मीट्रिक टन का नया बढ़ा हुआ टारगेट दिया गया है.
यानि, एक तो कोई ठोस बात नहीं मानी गई, ऊपर से नया कमरतोड़ लक्ष्य. जीती हुई लड़ाई को कैसे हारा जाता है यह कोई इन श्रमिक संगठनों से सीखे!
इफ्टू का परचा और संघर्ष
लेकिन इस पूरी हड़ताल के दौरान खान मज़दूर कर्मचारी यूनियन (आई.एफ.टी.यू.-सर्वहारा) ने अपने लड़ाकू तेवर को कायम ही नहीं रखा, बल्कि मज़दूर विरोधी संगठनों को बेनक़ाब भी किया. हमने अपने पर्चे वितरित किए, प्रेस विज्ञप्ति जारी की और सबसे बढ़कर के.एम.के.यू./ आई.एफ.टी.यू.-सर्वहारा के समर्थक हड़ताल का खुल कर समर्थन किया और हड़ताल पर रहे, परंतु साथ में रणछोड़ श्रमिक नेताओं की राजनीति और लाइन का खुल कर विरोध भी किया. हमने अपने पहले पर्चे में ही यह आकलन पेश किया था कि:
''पूरी तस्वीर यह है कि मजदूर वर्ग को हर हाल में एकजुट होकर संघर्ष में उतरना ही होगा, नहीं तो सरकार मजदूरों को पूंजीपति वर्ग का पालतू जानवर बना देने में कोई कोताही नहीं करेगी. हालत यह है कि हम अब और इंतजार या देर नही कर सकते. हमें जल्द ही लड़ाई के केंद्र को मजबूत बनाना और फैलाना होगा और सीधी कार्रवाइयों में उतरना होगा. इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि हम छोटे हैं या वे बड़े हैं. असली ताकत मजदूर वर्ग की एकता में है और यह ताकत तभी उभरेगी जब हम संघर्ष के मैदान में कूदेंगे. असल बात है वक्त का नब्ज पकड़ना और फिर उसके अनुरूप तैयारी में लगना. मजदूर वर्ग की ताकत एकमात्र वर्ग संघर्ष में ही खुल कर प्रकट होती है.''
''इसीलिए आईएफटीयू और खान मजदूर कर्मचारी यूनियन अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों सहित सभी लड़ाकू मजदूरों से यह आहवान करता है कि बिना कोई वक्त गंवाए तथा केंद्रीय यूनियनों के नेतृत्व की जमीर और उनकी अंतरात्मा के जगने का और इंतजार किए बिना पूंजीपति वर्ग के हमलों का मुंहतोड़ जवाब देने हेतु हर स्तर पर सीधी कार्रवाइयों मे एकजुट हो उतरें और अंतिम जीत हासिल करने के मजदूरवर्गीय दमखम के परिचय दें. केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के तौर तरीकों से यह स्पष्ट है कि इस पांच दिवसीय दंतविहीन हड़ताल का केंद्रीय सरकार पर रत्ती भर भी प्रभाव नहीं पड़ेगा, उल्टे, वह और बड़े हमले के लिए प्रोत्साहित होगी. इसीलिए हमें जल्द ही समय को मुट्ठियों में पकड़कर इस लड़ाई को अंजाम तक ले जाने की तैयारी में लग जाना चाहिए. हमें पूरा विश्वास है कि एकमात्र इसी तरीके से मजदूर वर्ग केंद्रीय सरकार के बुरे मंसूबों और साथ ही साथ केंद्रीय यूनियनों के नक्कारेपन और नाकाबिलियत का मुंहतोड़ जवाब देते हुए अपनी ऐतिहासिक जीत की मंजिल पर पहुंच सकता है.'' 
अपने सीमित प्रभाव क्षेत्र में ही सही लेकिन आई.एफ.टी.यू.-सर्वहारा ने मज़दूर राजनीति में क्रांतिकारी लाइन को आगे बढ़ाते हुए मार्क्सवाद-लेनिनवाद के लाल झंडे को धूलधूसरित नहीं होने दिया. कार्ल मार्क्स ने लिखा है कि “इतिहास खुद को दोहराता है, पहली बार एक त्रासदी की तरह, दूसरी बार एक मज़ाक की तरह.”  यदि 24 नवम्बर की हड़ताल का न होना एक त्रासदी थी, तो इस बार के हड़ताल का वापिस होना एक मजाक, यद्यपि एक क्रूर मजाक! 
लेकिन इस नवउदारवादी व्यवस्था में मज़दूर हितों की बात कोई क्यों करेगा! इस पर विचार तो सर्वहारा वर्ग को ही करना होगा. वह कब करता है इसका हम सबको इंतज़ार है. n

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