Monday, April 27, 2015

किस्‍त – 4
आलोचना नहीं निवेदन ............

राजनीतिक अर्थशास्‍त्र के क्षेत्र में ''महामंदी'' के लेखक नरेंद्र जी की विश्‍लेषनात्‍मक क्षमता या बौद्धिक स्‍तर क्‍या है इसके बारे में हम उनकी पुस्‍तक से उद्धरण देकर अपनी आलोचना की तीसरी किस्‍त में ही बता चुके हैं। अब यह सर्वविदित है उन्‍हें उपयोग मूल्‍य, मूल्‍य और विनिमय मूल्‍य जैसी प्राथमिक चीजों का प्राथमिक ज्ञान भी सही से नहीं है। अगर कोई पाठक गंभीरता से इस पुस्‍तक को पढ़ेगा तो वह देख सकता है कि हमारी इस बात की पुष्टि पुस्‍तक में लगभग प्रत्‍येक जगह मिलती है। मैं तो हैरान हूँ यह देखकर कि ''महामंदी'' के लेखक इस पुस्‍तक में दुनिया भर के अखबारों और पत्रिकाओं से जुटाई गई रिेपोर्टों से इतर जैसे ही अर्थशास्‍त्रीय विवेचना में जाता है, वहीं उसकी स्थित हास्‍यास्‍पद हो जाती है और तुरंत इस बात का आभास होने लगता है कि लेखक ने कम से कम मार्क्‍सवादी राजनीतिक अर्थशास्‍त्र को तो बिल्‍कुल ही नहीं समझा है। लेकिन यह देखकर कोई भी मुस्‍कुराए बिना नहीं रहेगा कि भले ही उन्‍होंने मार्क्‍सवादी राजनीतिक अर्थशास्‍त्र को नहीं समझा है या राजनीतिक अर्थशास्‍त्र की भाषा तक पर इनकी पकड़ नहीं है, लेकिन इससे जुड़े गूढ़ विषयों पर अपने अधूरे-अधकचरे ज्ञान का प्रदर्शन लेखक इतने आत्‍मविश्‍वास के साथ करता है कि एकबारगी कोई भी धोखा जाए।                

किस्‍त–4, भाग–1

जैसा कि सबको मालूम है, अपनी आलोचना की तीसरी क़िस्त में मैंने इस पुस्तक के पृष्ठ 90 पर से एक उद्धरण देकर यह बताया था कि किस तरह लेखक ने राजनीतिक अर्थशास्त्र की प्राथमिक शब्दाब्लियों को सुना भर है लेकिन समझा नहीं है!

लेकिन लेखकीय उर्जा, आत्मविश्वास और दर्प व अभिमान से लैश हमारा लेखक इस बात की कोई फ़िक्र नहीं करता! वह अपने लक्ष्य पर दृढ़ता से कायम रहता है और मार्क्स की तरह ही लाभ दर और बेशी मूल्य की दर की विवेचना गणितीय क्षगणनाओं के आधार पर करने की हिम्मत भी करता हैI

लेकिन अफ़सोस! एक बार फिर से बस यही साबित हो सका है कि आत्मविश्वास का लेखक का यह प्रदर्शन बस दिखावटी है, जो उन्हें लेखक कम नाम कमाऊ प्रवृति से ग्रसित कोई नौसिखुआ के रूप में ज्यादा पेश करता हैI   

महज़ एक पेज के उपरांत अर्थत पेज 91 पर वे मार्क्‍स के मुनाफा की दर और बेशी मूल्‍य की दर की व्‍याख्‍या प्रस्‍तुत करते हुए वह लिखता है  –

''मार्क्‍स का विचार था कि बेशी मूल्‍य मशीन से नहीं, बल्कि श्रम शक्ति से पैदा होता है, इसलिए पूँजीपति परिवर्तनशील पूँजी यानी मजदूरी पर v पूँजी खर्च कर s बेशी-मूल्य प्राप्त करता है।" (बोल्ड हमारा)

यहाँ मामूली रूप से जानकार कोई भी व्‍यक्ति यह देख सकता है कि नरेंद्र कुमार ने यह कह कर कि बेशी मूल्‍य श्रम शक्ति से पैदा होता है, एक बार फिर यह प्रदर्शित कर दिया है कि उन्हें बेशी मूल्य और बेशी मूल्य की दर के बारे में भी कोई बुनियादी समझ नहीं हैI

दरअसल, उन्होंने यह पढ़ रखा है कि बेशी-मूल्य की दर s' = s/v होता है (इसे उन्होंने इस लिखा भी है) और क्योंकि बेशी मूल्य की दर को मार्क्स बेशी मूल्य और परिवर्तनशील पूँजी, जिससे पूँजीपति श्रमशक्ति रूपी माल को खरीदता है, के अनुपात में व्यक्त करते हैं, इसीलिए बस उन्होने यह समझ लिया होगा के जरूर बेशी मूल्य श्रमशक्ति से पैदा होता हैI

यह पढ़कर कुछ लोग कह सकते हैं यानी तर्क कर सकते हैं कि लेखक ने शायद ऐसा सिर्फ चालू भाषा में यह साबित करने के लिए कहा हो कि बेशी मूल्य मशीन से नहीं पैदा होता है, बल्कि किसी और चीज़ से अर्थात श्रम शक्ति खर्च करने से (नरेंद्र जी की बात को सुधरे हुए रूप में कहें तो) पैदा होता है, जिसे अजय जी जान बुझकर extrapolate कर रहे हैं .....वगैरह वगैरह।

ऐसे लोगों के लिए जवाब लेखक नरेन्द्र जी ने ही स्वयं उपलब्ध करा दिया हैI वे दूसरी पंक्ति में ही लिखते हैं ---

"चूँकि बेशी-मूल्य सिर्फ परिवर्तनशील पूँजी से (मजदूरी) से प्राप्त होता है ..............."

तो यह रहा "महामंदी" के हमारे "महाज्ञानी" लेखक श्री नरेन्द्र कुमार जी के ज्ञान का अद्भुत चमत्कार। इस चमत्कार का प्रभाव यह है कि बेशी मूल्य, जो पहले बेशी/अतिरिक्त श्रम, जिसके लिए पूँजीपति मजदूर को एक धेला नहीं देता है, से प्राप्त होता था, अब श्रमशक्ति से या परिवर्तनशील पूँजी से प्राप्त होता है अर्थात उस पूँजी से पैदा होता है जिसे पूँजीपती मजदूर को उसकी श्रमशक्ति खरीदने के लिए अदा करता है!!

और सबसे बड़ी बात यह है कि नरेन्द्र जी का इन सबके बारे में कहना है कि ये मार्क्स के विचार है!!

मित्रों! मार्क्सवादी लोग अपने काबिल विरोधियों को भी सम्मान देते आये हैं, लेकिन हमारे इस लेखक के साथ कैसा व्यवहार किया जाए जो बात तो करता है क्रांति और समाजवाद की, लेकिन लेखक बनकर नाम कमाने की शुद्ध रूप से व्यक्तिवादी ललक के कारण मार्क्सवाद को प्रहसन की चीज़ बनाने और स्वयं को एक ....बनाने पर तुला हुआ है?

किस्‍त–4, भाग–2

पूँजीवादी संकट के कारण व आधार पर अत्‍यंत भद्दा गड़बड़झाला ------  

वे अगले ही पृष्ठ पर कहते हैं – 

"अतः यह कहा जा सकता है कि मुनाफे की दर (p') बेशी मूल्य की दर (s') से छोटी होती जाएगी..........मार्क्स ने इस आधार पर कहा कि बेशी मूल्य की दर (s') के बढ़ने के बावजूद मुनाफे की दर (p') में गिरने की प्रवृति पूँजीवादी संकट का कारण बनती है, क्योंकि पूँजीपति सिर्फ और सिर्फ मुनाफे के लिए उत्पादन करते हैंI

यानी, दूसरे शब्दों में, मार्क्सीय व्याख्या के अनुसार पूँजीवादी संकट का कारण यानी उसका आधार ''बेशी मूल्य की दर (s') के बढ़ने के बावजूद मुनाफे की दर (p') में गिरने की प्रवृति'' हैI

यह पूरी तरह गलत बात है। हालांकि उपरोक्‍त वाक्‍य में अन्‍य ग‍ड़बडि़याँ भी हैं, लेकिन उन पर बाद में। 

मित्रों, इसकी सम्पूर्ण मार्क्सीय व्याख्या लेकर आने की कोशिश हम जल्द ही करेंगेI अभी जल्दी में हम अंग्रेजी से कुछ उद्धरण भर देकर अपनी बात को ख़त्म करेंगेI

मार्क्स ''लाभ दर के गिरने की प्रवृत्ति'' के नियम को "double-edged law" के रूप में देखते और व्‍याख्‍या करते हैं। मार्क्‍स ने यह दिखाया है कि ''countervailing factors transformed this law into a tendency'' वे आगे कहते हैं -  “The law operates therefore simply as a tendency, whose effect is decisive only under certain particular circumstances and over long periods.” (Marx, Capital, vol.3, pp.326 &346, Penguin edition)

मार्क्‍स ''थ्‍योरी ऑफ सरप्‍लस वैल्‍यू'' (Marx, Theories, vol.3, p.84 ) में यह स्‍पष्‍ट तौर पर लिखते हैं कि ---

'' The fact that bourgeois production is compelled by its own immanent laws, on the one hand, to develop the productive forces as if production did not take place on a narrow restricted social foundation, while, on the other hand, it can develop these forces only within these narrow limits, is the deepest and most hidden cause of crises, of the crying contradictions within which bourgeois production is carried on and which, even at a cursory glance, reveal it as only a transitional, historical form.''
“This is grasped rather crudely but nonetheless correctly by Sismondi, for example, as a contradiction between production for the sake of production and distribution which makes absolute development of productivity impossible.” 

इसी में और आगे पृष्‍ठ 122 (Ibid, p.122) पर मार्क्‍स लिखते हैं –

'' “Overproduction, the credit system, etc., are means by which capitalist production seeks to break through its own barriers and to produce over and above its own limits… Hence crises arise, which simultaneously drive it onward and beyond [its own limits] and force it to put on seven-league boots, in order to reach a development of the productive forces which could only be achieved very slowly within its own limits.”

यही बात मार्क्‍स Capital, vol.3, p.615 पर अलग तरीके से दुहराते हुए कहते हैं कि ----- 

''The ultimate reason for all real crises always remains the poverty and restricted consumption of the masses as opposed to the drive of capitalist production to develop the productive forces as though only the absolute consuming power of society constituted their limit.” 

ड्यूहरिंग मत खंडन में एंगेल्स लिखते हैं --- 

'' We have seen that the ever increasing perfectibility of modern machinery is, by the anarchy of social production, turned into a compulsory law that forces the individual industrial capitalist always to improve his machinery, always to increase its productive force”, explains the author. “The bare possibility of extending the field of production is transformed for him into a similar compulsory law. The enormous expansive force of modern industry, compared with which that of gases is mere child’s play, appears to us now as a necessity for expansion, both qualitative and quantitative, that laughs at all resistance.” (पृष्‍ठ 326)


मित्रों, उपरोक्‍त उद्धरणों से कम से कम इतना तो स्‍पष्‍ट हो ही गया है कि मार्क्‍स ने किसी भी आधार पर यह नहीं कहा कि '' बेशी मूल्य की दर (s') के बढ़ने के बावजूद मुनाफे की दर (p') में गिरने की प्रवृति पूँजीवादी संकट का कारण बनती है''  हाँ, यह जरूर है कि  यह प्रवृत्ति पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है ...... 

(आगे भी जारी)  

Friday, April 24, 2015


आलोचना नहीं एक निवेदन 

काश, राजनीतिक अर्थशास्‍त्र पर यह लेखक

 की अंतिम कृति हो!

(किस्‍त–3)

                           
सफ़र में चलते_चलते 

यूँ तो ''महामंदी'' के बारे में इसके शुरूआती दस पृष्‍ठों को पढ़कर ही यह समझ में आ गया था कि ''महामंदी'' एकमात्र विश्‍व पूँजीवादी व्यवस्था में ही नहीं, विचार जगत में भी, यहाँ तक कि तथाकथित मार्क्सवादी 'लेखकों' और 'चितंकों' के बीच भी बुरी तरह व्याप्त है। लेकिन स्थिति इतनी खराब होगी, इसकी कल्‍पना नहीं की थी। आखिर तभी तो यह संभव हुआ कि ''महामंदी'' जैसी किताब प्रेस में जाने से पहले, जब यह पांडुपलि‍पि के रूप में ही थी, ख्‍यातिप्राप्‍त क्रांतिकारी कन्‍युनिस्‍ट नेताओं, तथाकिथत रूप से जिनके सुझाव और सहयोग के लिए इसकी पाण्डुलिपि दी गयी थी, उनकी नजरों से गुजर कर भी अक्षुण्‍ण बनी रही! उनसे इस सम्बन्ध में मिले ''उपयोगी'' सह्योग के बारे में लेखक द्वारा लिखित भूमिका में पाठकों को भव्य तरीके से सूचित भी किया गया है। वे जिन्हें इसकी पांडुलिपि दी गयी थी इनमे प्रमुख हैं – कामरेड एस.आर.भाई जी, कामरेड अर्जुन प्रसाद सिंह, कामरेड नंद्किशोर सिंह तथा कामरेड मनोज कुमार सिन्‍हां आदि। इनके अतिरिक्‍त, ''उपयोगी'' सुझाव देने वालों में एक नाम ऐसे व्‍यक्ति का भी है जो किसी भी मायने में मार्क्‍सवादी नहीं है। यह व्‍यक्ति मेरी जान-पहचान के भी हैं और वे किसी भी तरह से मार्क्‍सवादी नहीं हैं और मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उन्‍होंने किसी भी तरह का ''उपयोगी'' सुझाव नहीं दिया होगा, सिवाए प्रोत्‍साहन के जो हर किसी को इस दुनिया का हर सामान्‍य या चालू व्‍यक्ति दुनियादारीपरस्‍त तरीके से ''आगे बढ़ते'' रहने के लिए आम तौर पर देता रहता है। इसलिए इनसे कुछ भी कहना नहीं है। नरेंद्र जी के लिए इनका 'उपयोगी मूल्‍य' जरूर ही कुछ और रहा होगा, जिससे इस पुस्‍तक व लेखक की आलोचना के क्रम में मुझे कुछ भी लेना-देना नहीं है। इसके अतिरिक्‍त, विद्यानंद चौधरी, मधु (नरेंद्र की जीवनसंगि‍नी, बैंककर्मी और यूनियन नेत्री) और अमृत राज के नाम भी शामिल हैं जिनके बारे में कहा गया है कि वे इस पुस्‍तक को लिखने की प्रक्रिया में यानि लेखक की विचार-प्रक्रिया में शामिल रहे हैं। हम इन सब के प्रति पूरे सम्‍मान और आदर के साथ यह आग्रह करते हैं कि ये सभी लोग और साथ ही वे भी जिन्‍होंने फेसबुक पर नरेंद्र जी को इस किताब का लेखक बनने पर जम कर  बधाइयाँ दी हैं और इस पुस्तक के प्रचार में भूमिका निभाई है, मेरी समझ से वे सभी इस बात के लिए कर्तव्‍यबद्ध हैं कि वे या तो नरेंद्र जी के पक्ष से तर्क करें, या फिर अपनी अन्‍यान्‍य स्थिति स्‍पष्‍ट करें,  खासकर, निम्‍न पंक्तियों के बारे में, जिनमें लेखक मंदी और पूँजीवादी संकट की मार्क्‍सीय व्‍याख्‍या प्रस्‍तुत करते हुए लिखता है कि - 

        '' .......मार्क्स ने सिद्ध किया कि कुछ निश्चित सामाजिक परिस्थितियों में प्रत्येक माल के उत्पादन के लिए जितना औसत श्रम-काल आवश्यक होता है, उसी द्वारा उसका मूल्य निर्धारित होता है। इस मूल्य को (अर्थात औसत श्रम-काल द्वारा निर्धारित मूल्‍य को*) वस्तु का उपयोग मूल्य कहते हैं। पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया में पूँजीपति जो विनिमय मूल्य तय करता है, उसमें उपयोग मूल्य और मुनाफा जुड़ा होता है।" (''महामंदी'' की पृष्‍ठ संख्‍या 90 से उद्धृत, कोष्ठक में तारांकित शब्द मेरे)   

      ऊपरोक्त साथियों से अनुरोध है कि वे बताएं कि क्या वे नरेन्द्र जी की इस बात से सहमत हैं या नहींI अगर वे कोई जवाब नहीं देते हैं, तो मुझे यह समझने का अधिकार होगा कि वे भी नरेन्द्र जी की इस मार्क्सीय व्याख्या से सहमत हैं। 

      अंत में, फिलहाल, हमें अत्‍यधिक खेद, पीड़ा और और घोर आश्‍चर्य के साथ यह पूछना पड़ रहा है कि जिस व्यक्ति को मूल्‍य और उपयोग मूल्‍य की प्राथमिक समझ नहीं है, वह व्‍यक्ति पूँजीवादी संकट और महामंदी जैसी विश्‍वव्‍यापी और अत्यंत ही महत्वपूर्ण आर्थिक व सामाजिक परिघटना के ऊपर मार्क्‍स के राजनीतिक अर्थशास्त्र की दृष्टि और विचारों के आलोक में एक किताब की रचना कैसे कर देता है? यह कौन सी प्रवृति है? और इसे किसी भी रूप में कोई कैसे समर्थन कर सकता है? जो चीज सबसे ज्‍यादा परेशान करने वाली है वह बात यह है कि इसमें किसी न किसी रूप में शामिल उपरोक्त क्रांतिकारी लोगों ने इन्‍हें आखिर किस तरह के ''उपयोगी'' सुझाव दिये थे कि मालो में निहित औसत श्रम या औसत श्रम-काल और उससे बना मूल्य उसका उपयोग मूल्य हो जाता है? इसी तरह, भला विनिमय मूल्य में उपयोग मूल्य किस तरह समाहित हो गया? क्या वे "उपयोगी" सुझाव सच में ऐसे थे? यह बात और भी दुखदायी है और अत्‍यधिक रोष इसलिए पैदा करता है, क्योंकि ऐसा करने वाला व्यक्ति हमारे बीच का है, किस और खेमे का नहीं। 

  मार्क्स बारंबार स्पष्ट करते हुए लिखते हैं –

    "उपयोग-मूल्यों के रूप में पण्यों में सबसे बड़ी बात यह होती है कि उनमें अलग-अलग प्रकार के गुण होते हैं, लेकिन विनिमय-मूल्य के रूप में वे महज़ अलग-अलग परिमाण होते हैं, और इसीलिए उपयोग मूल्य का उनमें एक कण भी नहीं होता है।''   

        हम समझते हैं कि पाठकों को मार्क्‍स के इस एकमात्र उद्धरण से मूल्‍य, उपयोग मूल्‍य और विनिमय मुल्‍य के बारे में माकर्सीय विचार की स्थिति स्‍प्ष्‍ट हो चुकी होगी। पिलहाल इतना ही..................
                                                                                                                           (आगे भी जारी )

Thursday, April 23, 2015


पंजाब में 'लोकपक्ष' द्वारा मई दिवस, 2015 के  अवसर पर दनामण्डी,मलोट में आयोजित खुली आम सभा के  लिए जारी पर्चा 
 

मज़दूर दिवस जिंदाबाद!            सर्वहारा समाजवादी क्रांति जिंदाबाद!           इंक़लाब जिंदाबाद!


मई दिवस पर लोकपक्ष की अपील

     मेहनतकश वर्ग क्या करे ?

साथियों,
    मई दिवस, यानि कि मज़दूरों के संघर्ष का दिन, वह दिन जब मेहनतकश जनता इन्सान के हाथों इन्सान के शोषण और दमन के ख़िलाफ अपनी संघर्षशील एकजुटता का इज़हार करती हैं, करोड़ों मेहनतकशों को भूख, ग़रीबी, शोषण और ज़िल्लत की ज़िन्दगी से आज़ाद कराने की प्रतिज्ञा करती है। यह दिन है हमारी एकता का, शोषण के खिलाफ़ विद्रोह का, यह दिन है मेहनतकशों का, उन लोगों का जिन्होंने गुलामी और जिल्लत के साथ सर झुका के समझौता करना नहीं सीखा, जो आज़ाद इंसान की तरह जीना चाहते हैं, गुलामों की तरह जिंदगी बसर नहीं करना चाहते। यह दिन है विश्व में चल रहे मज़दूरों, किसानों और तमाम अन्य जनपक्षीय संघर्षों के साथ एक होकर पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ अपनी आवाज़ को एकजुट हो बुलंद करने का।
    आज हमारे सामने दो दुनिया खड़ी है। एक ओर है संकटग्रस्त सड़ती हुई मरणासन्न पूँजीवादी व्यवस्था और दूसरी ओर है एक ऐसी नई दुनिया का सपना जिसमे कोई जुल्म न झेले, भूख क्या होती है यह न जाने। एक ऐसी दुनिया जिसमें साझी मेहनत से पैदा हुई दौलत से मुट्ठी भर अमीरों को नहीं, बल्कि सभी मेहनत करने वालों को फायदा होगा।
    आज जहाँ पूँजीवाद अपने एक संकट से दूसरे संकट तक घिरता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर यह भी सच है कि इसने मज़दूरों पर अपना आक्रमण व शोषण और भी तेज़ कर दिया है। मेहनतकश अवाम का ख़ून चूसने वाले सरमायेदार मुट्ठी भर हैं, लेकिन उन्होंने फैक्टरियाँ और मिलें, तमाम मशीनें व औज़ार हथिया रखे हैं। उन्होंने करोड़ों एकड़ ज़मीन और दौलत के पहाड़ों को अपनी निजी जायदाद बना लिया है। उन्होंने सरकार और उसके तमाम दूसरे अंगों, चाहे वो पुलिस हो, सरकार चलाने वाले नेता हों या फिर फौज हो, सब को इन्‍होंने अपना ख़िदमतगार, लूट-खसोट से इकट्ठा की हुई अपनी दौलत की रखवाली करने वाला वफादार सेवक बना लिया है। मज़दूरों को इनसे कोई आशा नहीं रखनी चाहिए। इस व्यवस्था में अगर मज़दूरों के साथ कुछ होगा तो केवल जुल्म, शोषण और अत्याचार।
    चाहे भारत हो या कोई और देश, पूँजीपतियों ने अपने शोषण के साम्राज्य को हर तरफ फैला रखा है। इसने मज़दूरों को धन्ना सेठों के सामने हाथ फैलाने पर मजबूर कर रखा है। रोटी के एक टुकड़े के लिए भी उन्हें तमाम उम्र एड़ियाँ रगड़नी पड़ती हैं। काम पाने के लिए भी गिड़गिड़ाना पड़ता है, कमरतोड़ श्रम में अपने ख़ून की आख़िरी बूँद तक झोंक देने के बाद भी गाँव की अँधेरी कोठरियों और शहरों की सड़ती, गन्दी बस्तियों में भूखे पेट ज़िन्दगी गुज़ारनी पड़ती है। लेकिन ऐसा नहीं है की विश्व में किसी चीज़ की कमी है। इसके विपरीत, टेक्नोलॉजी के विकास के कारण आज इतिहास के किसी भी समय की तुलना में ज्यादा उत्पादन क्षमता विकसित हो गई है, लेकिन तब भी, इस ज्यादा में भी, मानवता दरिद्रता का शिकार है। कहीं अनाज सड़ रहे हैं, तो कहीं लोग भूख से मर रहे हैं।
    विश्‍व पूँजीवाद का संकट जो 2008  से शुरू हुआ अभी तक खत्म नहीं हुआ है, बल्कि ज्यादा गहराता जा रहा है। विश्व शक्ति कहलाने वाले अमरीका में वहाँ  के सरकारी आकड़ों के अनुसार लगभग 4.5 करोड़ लोग अपना जीवन गरीबी रेखा से नीचे बिताने पर मजबूर हैं, या कहें ये वो लोग हैं  जिनके पास दो वक़्त की रोटी खाने के लिये पैसे तक नहीं हैं। ऐसे लोग वहाँ की कुल आबादी के करीब 20 प्रतिशत हैं। और दूसरी और, यह वही देश है जो अपने रक्षा बजट में हर साल करीब पाँच हजार करोड़ डॉलर खर्च करता है और पूरी दुनिया में अपनी फौजी ताक़त के बल पर जनता की आवाज़ को कुचलने का काम करता रहता है।
    सन 2008 से ही विश्वपूँजीवाद खुद को बचाने के चक्कर में लगा हुआ है, पर अपने संकट से निकलने का उसे कोई रास्ता नहीं दिख रहा। इसलिए तो सबसे पहले अरबों डॉलर के राहत पैकेज के जरिये डूबे हुए बैंकों और सरमाएदारों को तो बचा लिया, किन्तु इस सारी वित्त गड़बड़ी का ठीकरा गरीब मेहनतकशों के सर पर फोड़ दिया। यूरोप और अमरीका में मज़दूरों की छंटनी, उनके वेतन में कटौती, स्वास्‍थ्‍य सुविधा में कटौती और उसका निजीकरण और अन्‍य तमाम सुविधाओं में भारी कटौती पूरे जोर-शोर से लागू की जा रही है। नतीज़ा यह है कि यूरोप के कई देशों में खास कर ग्रीस, स्पेन, इत्यादि में लोग अपने बच्चों को अनाथ आश्रमों में छोड़ने तक मजबूर हो गए हैं। हालात यहाँ तक पहुँच चुकी है कि लोगों की पूरी जीवन की कमाई बैंक के डूबने से खत्म हो गयी है और वो भीख पर गुजारा करने को मजबूर हैं।
   
पूँजीवाद के इसी पक्ष पर मज़दूरों के महान नेता और शिक्षक लेनिन ने लिखा था  ----

   “...[पूँजीवादी] संकट यह दर्शाता है कि मज़दूरों को अपना संघर्ष केवल आर्थिक मुद्दे तक ही सीमित नहीं रखना चाहिये, क्योंकि जब आर्थिक संकट आता है तब जो सहूलियतें पूँजीपतियों ने मज़दूरों को दी होती हैं, उन्हें न केवल वे हटा लेते हैं, बल्कि मज़दूरों की असहाय स्थिति का फायदा उठाते हुए उनकी मजदूरी को और नीचे कर देते हैं। यह स्थिति तब तक चलती रहेगी जब तक सर्वहारा वर्ग की समाजवादी सेना पूँजीवाद का पूरी तरह से नाश नहीं कर देती।”
साथियों! हमारे अपने देश में श्रमिकों और किसानों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। जब से श्री नरेंद्र मोदी की सरकार आई है इसने देश पर सरमाएदारों (पूँजीपतियों) के जोर को और भी तेज़ कर दिया है। 'श्रम मेव जयते' का उदघोषणा कर मज़दूरों को श्रम-ऋषि बोलने के ठीक बाद श्रम कानून को पूँजीपतियों के हवाले कर दिया। शायद इन श्रम-ऋषियों को जंगल में भजने की सरकार ने पूरी तैयारी कर ली है। दरअसल केंद्र के इस नए निजाम के जनविरोधी कारनामों की फेहरिस्त काफी लम्बी है और जगह कम। मोदी सरकार ने पूँजीपतियों की सुविधा के लिये फैक्ट्री ऐक्ट 1948, ट्रेड यूनियन ऐक्‍ट 1926, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1948, ठेका मज़दूरी कानून 1971, एपरेंटिस ऐक्ट 1961 से लेकर तमाम श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर उन्हें पूरी तरह से कमज़ोर और ढीला कर दिया। उदाहरण के तौर पर जहाँ पहले फैक्ट्री एक्ट की धारा 10 कर्मचारी द्वारा बिजली की मदद से और 20 कर्मचारी द्वारा बिना बिजली से चलने वाली फैक्ट्रियों पर लागू होती थी, वहीं बदलाव के बाद यह क्रमशः 20 और 40 मजदूर वाले कारखानों/संस्थानों पर लागू होगी। इसी तरह अब मज़दूरों को कानूनी तौर पर मालिक हर अधिकार से वंचित कर सकता है। इसके अलावा केंद्र  सरकार ने एक माह में ओवरटाइम की सीमा को 50 घण्टे से बढ़ाकर 100 घण्टे कर दिया । वहीं दूसरी तरफ मज़दूरों के लिए यूनियन बनाना और भी मुश्किल कर दिया गया है। पहले किसी भी कारखाने या कम्पनी में 10 प्रतिशत या 100 मज़दूर मिलकर यूनियन पंजीकृत करवा सकते थे पर अब ये संख्या बढ़कर 30 प्रतिशत कर दी गई है। ठेका मज़दूरों के लिए बनाया गया ठेका मज़दूरी कानून-1971 भी अब सिर्फ 50 या इससे ज्यादा मज़दूरों वाली फैक्टरी पर लागू होगा। मतलब अब कानूनी तौर पर भी ठेका मज़दूरों के शोषण और उनके श्रम की लूट पर कोई रोक नहीं होगी। औद्योगिक विवाद अधिनियम के नए प्राविधानों के तहत अब कारखाना प्रबंधन को तीन सौ कर्मचारियों की छंटनी के लिए सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं होगी, पहले यह सीमा सौ मजदूरों की थी! साथ ही फैक्टरी से जुड़े किसी विवाद को श्रम अदालत में ले जाने के लिए पहले कोई समय-सीमा नहीं थी, अब इसके लिए भी तीन साल की सीमा तय कर दी गयी है। एप्रेंटिस ऐक्ट में संशोधन कर सरकार ने बड़ी संख्या में स्थायी मज़दूरों की जगह ट्रेनी (प्रशिक्षु) मज़दूरों को भर्ती करने का कदम उठाया है। साथ ही किसी भी विवाद में अब मालिकों के ऊपर किसी भी किस्म की कानूनी कार्रवाई का प्रावधान हटा दिया गया है। अब अप्रेंटिसशिप ऐक्ट न लागू करने वाले फैक्ट्री मालिकों को गिरफ्तार या जेल में नहीं डाला जा सकेगा। यही नहीं कामगारों की आजीविका की सुरक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में समरूपता लाने संबंधी उपाय राज्य सरकारों की मर्जी पर छोड़ दिए गए हैं। तो यह सौगात दिया है मोदी जी ने मजदूरों और युवाओं को!
    हमारा अपना पंजाब जो कभी शहीदों की धरती कहलाता था आज शराब और ड्रग माफियाओं की धरती के नाम से कुख्यात हो रहा है। पंजाब जो इस देश के 'अनाज का कटोरा' कहलाता था आज बदहाली और तबाही के दौर से गुजर रहा है। किसान क़र्ज़ में डूबते जा रहे हैं और खुदकुशी कर रहे हैं। छोटी आय व जोत वाले मेहनतकश किसान आज उजड़ने के कगार पर है। पूँजीवादी खेती और हरित क्रांति का नाम रटने वाले कहीं दूर तक इस परेशानी का उपाय निकालते नहीं नज़र आ रहे है। आज पंजाब में कोई भी धरना प्रदर्शन नहीं कर सकता, ऐसा काला कानून इस सरकार ने जनता के माथे पर फोड़ दिया है। इस कानून के अनुसार कोई भी यदि प्रदर्शन करता पाया गया तो उसकी सम्पति पर सरकार कब्ज़ा कर लेगी, क्या यह कानून अंग्रेजों के कानून जैसा या उससे भी बदतर नहीं है? पंजाब की धरती, भगत सिंह की धरती आज कराह रही है।
    साथियों, ऐसी स्थति में निराशा और मायूसी स्वाभाविक है। किन्तु जहाँ एक ओर शोषण और दमन का राज है, वहीं दूसरी और इसको खत्म करने वालों ने भी विद्रोह का बिगुल बजा दिया है। पूरे विश्व में पूँजीवाद और शोषण के राज को खत्म करने के लिए मेहनतकश सड़कों पर आ रहे हैं । यही बात हमारी आशा का केंद्र है। मजदूरों की बगावत दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है। यह संकेत है बदलाव का। हमारे देश में भी कोयला बिल के खिलाफ कोयला खान मज़दूरों नें शानदार तरीके से हड़ताल कर सरकार की नींद उड़ा दी थी। हरियाणा में हर रोज़ मज़दूर हड़ताल और संघर्ष कर रहे हैं। लाख कोशिश और दमन के बावजूद मारुती के मज़दूर हारे नहीं और लड़ कर उन्होंने अपने जेल में कैद साथिओं को आज़ाद करवा लिया। झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओड़िसा या तमिलनाडु हर जगह मज़दूर-संघर्ष बढ़ रहा है और आने वाले समय में और बढ़ेगा, क्योंकि पूँजीवाद के पास हमे देने के लिए दुःख, तकलीफ और मुश्किल के सिवा कुछ नहीं है।
    साथियों! इसलिए हम उन लोगों की तरह नहीं हैं जो मई दिवस को धार्मिक भावना से मनाते हैं, जैसा कि आजकल का चलन हो गया है। इस दिन को भी होली-दिवाली-बैसाखी की तरह एक रस्मअदायगी करने का अवसर बना देने की साजिश की जा रही है। ये कुछ नारा और भाषण दे कर अगले साल तक के लिए सो जाते हैं। इन्हीं की तरह, तथाकथित वामपंथी - संशोधनवादी नेताओं, जो लाल झंडा पकड़ कर पूँजीवाद के खिलाफ संघर्ष का दिखावे करते हुए अंतिम तौर पर शोषक-शासक वर्गों की तरफदारी करते हैं, के खिलाफ भी हमें कटु राजनैतिक व वैचारिक संघर्ष करना होगा।
    साथियों, यह दिन है बीते साल हमने जो संघर्ष किये उनका लेखा-जोखा करने का और नए संघर्ष के बारे में चिंतन करने का। साथ ही साथ यह दिन है आगामी दिनों में सभी तरह के शोषण व उत्‍पीड़न के खिलाफ मजदूरों, किसानों व छात्रों-युवाओं के संघर्षों को फैसलाकुन मंजिल तक ले जाने के प्रश्‍नों पर गंभीरता से विचार करने का। हमें सोचना होगा कि किस प्रकार से हमे इस सड़ी-गली पूँजीवादी व्यवस्था को खत्म करना है और मज़दूरों-मेहनतकशों का राज कायम करना है।
    साथियों! आइए , दोगुने जोश से आने वाले निर्णायक संघर्ष की तैयारियों पर विचार करें। आइए, क्रांतिकारी और संघर्षशील सर्वहाराओं की तादात तेज़ी से बढ़े और हमारी मुक्ति की बात दूर-दूर तक फैले इसके लिए कमर कसें। मई दिवस के इस अवसर पर हम हजारों-लाखों मज़दूर-किसान-युवा एकजुट हो कर एक मुक्ति की एक नई जंग का एलान करें। यह वह जंग है जिसमें हमारी जीत न सिर्फ हमारे अपने देश, बल्कि इस पूरी धरती से शोषण और पूँजी की गुलामी से सदा के लिए मुक्ति दिलाकर एक नई आज़ादी और शोषणमुक्‍त समाज की उदघोषणा करेगी।

क्रांतिकारी अभिवादन के साथ 
लोकपक्ष/मई दिवस तैयारी कमिटी 

पर्चा जारी करने की तिथि -24/04/2015    

Wednesday, April 22, 2015

ON LENIN'S BIRTHDAY

A Very Timely And Befitting Quote

“Lenin has been  pictured by some writers  as a man of  irascible temprament who could not work with others, and the splits and controversies among Russian socialists have been attributd to this cause. Certainly he did not mince words when he felt deeply. But there seems little doubt that the sharpness of controversy in which he indulged was due, not to personal ill-will, but to his sense of the overwhelming importance of the issues involved. For him controversy was the forge of truth. It is clear that he parted from such colleagues as Plekhanov and Martov only with personal distress ; and when a  comrade, in the dark period of 1908, chided him for isolating himself by his strictness of principle, he replied simply - “There are occasions when a leader must stand alone to preserve the purity of his flag”.
                                               ----- Morris Dobb

Friday, April 17, 2015


आलोचना नहीं एक निवेदन 

काश, राजनीतिक अर्थशास्‍त्र पर लेखक

 की अंतिम कृति हो!

(किस्‍त–2)

क़िस्त 2 का भाग 1  


आइए, थोड़ी तफसील और गहराई से नरेंद्र जी के राजनीतिक अर्थशास्‍त्र के बारे में 'मार्क्‍सवादी' ज्ञान को समझा जाए। 

महामंदी के लेखक नरेंद्र जी विषय प्रवेश में ही, धुमिल की कविता की पैरोडी के ठीक बाद, लिखते हैं - 

''.... आज के अर्थशास्‍त्री, पूँजीवादी राज्‍यों के संचालक, उद्योगपति और पत्रकार अर्थशास्‍त्र के जनक  एडम स्मिथ की चर्चा सिर्फ मुक्‍त बाजार की अवधारणा और तीन सौ बर्षों से जारी इसकी सफलता के दावे के क्रम में करते हैं, लेकिन सामाजिक इतिहास और क्‍लासिकी अर्थशास्‍त्र के महारथी एडम स्मिथ और रिकार्डो बर्षों पहले इस बात को बता चुके थे कि उत्‍पादित मालों में मूल्‍य का सृजन श्रम से होता है और श्रम के इसी रूप को पूंजीपति मूल्‍य के रूप में हासिल करता है।''

इस पैराग्राफ में लेखक द्वारा पंडिताऊ (पूँजीवादी-बाजारू) ज्ञान बघारने के अलावा और कुछ किया गया है क्या? नहीं, बिलकुल ही नहींI नरेंद्र जी अपने को मार्क्‍सवादी घोषित करते हैं, लेकिन ऊपर की पंक्तियाँ बता रही हैं कि उनका मार्क्सीय ज्ञान भंडार पर कम बाजारू 'ज्ञानवर्द्धक' चीजों पर अधिक निर्भर है। इतना ही नहीं, पूँजीवाद के अंतर्गत पाये जाने वाले ज्ञान को वे हू-बहू अपनी किताब में परोस कर आनंदित भी होते हैं और फिर अपने इस ज्ञान पर मार्क्‍स का नाम चस्‍पा करने के लिए यह घोषणा और दावा करते हैं कि ''इसके बारे में विस्‍तार से समझने में जिनकी रूचि है, उन्‍हें मार्क्‍स की कृति 'पूँजी' का गहन अध्‍ययन करना चाहिए।'' वे इसके लिए पाठकों को कष्‍ट उठाने के लिए भी प्रेरित करते हैं और लिखते हैं कि ''यह कष्‍ट हम अपने पाठकों को आगे के अध्‍यायों में देंगे।" कोई भी देख सकता है कितनी आत्‍मत़ृप्ति का भाव है यहाँ! 


लेकिन जब वे एडम स्मिथ को 'अर्थशास्त्र का जनक' कहते हैं तो वे बस अर्थशास्त्र या राजनीतिक अर्थशास्त्र के हाई स्कूलों के कोर्स में लिखित/मौजूद ज्ञान को ही परोसते हैं और स्‍वघोषि‍त रूप से ही सही लेकिन एक मार्क्‍सवादी लेखक के बतौर अत्‍यंत ही बाजारू बात कर रहे होते हैं जिससे शायद ही किसी नवांगतुक क्रांतिकारी का सच्चा ज्ञानवर्धन होगा। यह बात कि 'एडम स्मिथ अर्थशास्त्र के जनक' थे, हाई स्‍कूल की परीक्षाओं में अंक प्राप्त करने के लिए तो सही हो सकती है लेकिन यहाँ इस किताब में पूँजीवादी कोर्स बुक के ज्ञान को बिल्‍कूल उसी तरह हू-बहू लिख दिया जाना भला क्‍या दिखाता है, सिवाय इसके कि दूसरों को मार्क्‍स की कृति पढ़ने के लिए कष्‍ट उठाने का आह़वान करने वाला ''महामंदी'' का हमारा 'महाज्ञानी' लेखक स्‍वयं "मार्क्‍स की कृति 'पूँजी' का गहन अध्‍ययन" करने का कष्‍ट उठाने में पिछड़ गया है? 

मार्क्स के इसी ग्रन्थ ("पूँजी") के खंड IV के प्रथम भाग में मार्क्स लिखते हैं – 

 "The analysis of capital, within the bourgeois horizon, is essentially the work of the Physiocrats. It is this service that makes them the true fathers of modern political economy. " (bold ours)

ये फिजियोक्रेटस ही थे जिन्‍होंने बेशी मूल्‍य के स्रोत की खोज को सरकुलेशन (प्रचलन) के क्षेत्र से निकालकर प्रत्‍यक्ष उत्‍पादन के क्षेत्र में स्‍था‍नांतरित किया था और इस तरह पूँजीवादी उत्‍पादन के विश्‍लेषण की नींव रखी थी। 


फिजियोक्रेटस के लिए उत्‍पादन के बुर्जुआ रूप अवश्‍यंभावी रूप से प्राकृतिक (और इसीलिए स्‍वाभावि‍क) रूपों के बतौर प्रकट होते थे। यह उनकी महान उपलब्धि थी कि उन्‍होंने इन रूपों को समाज के फिजियोलॉजिकल रूपों में आत्‍मसात किया, उन रूपों में जो स्‍वयं उत्‍पादन की स्‍वाभाविक जरूरतों के मद्देनजर पैदा होते थे और जो किसी की भी इच्‍छा और चाहत से स्‍वतंत्र थे। उन्‍होंने बुर्जुआ उत्‍पादन के नियमों को भौतिक नियम के रूप में आत्मसात किया था और वे इन्‍हें ऐसा ही मानते थे। इस मुतल्लिक उनकी गलती मात्र इतनी थी कि वे इस भौतिक नियम को, जो समाज के किसी एक ऐतिहासि‍क मंजिल व अवस्‍था में और उन पर कार्यरत नियम हैं, एक ऐसे अमूर्त नियम में बदल देते थे, जो मानो समान रूप से समाज के सभी रूपों पर लागू होते थे। 


दूसरे, इन्‍होंने पूँजी के उन रूपों का भी निर्घारण किया जिन्‍हें पूँजी प्रचलन में स्‍वयं धारण करती है, जैसे कि फिक्‍स्‍ड कैपिटल, सरकुलेटिंग कैपिटल आदि, हालांकि वे इन्‍हें दूसरे नामों से पुकारते थे। उन्‍होंने सामान्‍यतया पूँजी के प्रचलन और इसके पुनरूत्‍पादन की प्रक्रिया के बीच के संबंधों को भी स्‍थापित किया।


इन दो सर्वप्रमुख बिंदुओं पर एडम स्मिथ बहुत हद तक फिजियोक्रैट्स की "वसीयत के वारिस" थे और इस संबंध में उनका मुख्‍य योगदान बस यहाँ तक सीमित था, जैसा कि मार्क्‍स स्वयं लिखते हैं, कि ''In these two principal points Adam Smith inherited the legacy of the Physiocrats. His service — in this connection — is limited to fixing the abstract categories, to the greater consistency of the baptismal names which he gave to the distinctions made by the Physiocrats in their analysis. (ibid)



 भाग II 


आगे चलें। हम फिलहाल उपरोक्‍त पंक्तियों/वाक्‍य की अत्‍यंत ही हास्‍यास्‍पद और अस्‍पष्‍ट बनाबट पर कुछ नहीं कहना चाहते हैं सिवाए इसके कि लेखक दरअसल अपनी बात को लगभग घसीटते हुए आगे बढता है जो इस बात का सबूत है कि लेखक के पास इस दुरूह और गुढ़ विषयवस्‍तु, जिसकी स्‍वयं की अपनी भाषा होती है, तक पहुँचने के लिए या तो जरूरी बौद्धिक सामग्री का अभाव है या फिर वह राजनीतिक अर्थशास्‍त्र की भाषा के क्षेत्र में अत्‍यंत दरिद्र है। और ये दोनों चीजें एक लेखक के लिए अत्‍यंत बुरी स्थित का परि‍चायक है जैसा कि यहाँ साबित भी हो रहा है। दरअसल उपरोक्‍त पंकितयों के दोनों हिस्‍सों में सहसंबंध तक स्‍थापि‍त नहीं हो सका है और बड़ा ही हास्‍यास्‍पद प्रतीत होता है। इसे समझने के लिए हमें उन पंक्तियों को फिर से उद्धृत करना पड़ेगा। यह रहा वे पंक्तियाँ – 


- ''.... आज के अर्थशास्‍त्री, पूँजीवादी राज्‍यों के संचालक, उद्योगपति और पत्रकार अर्थशास्‍त्र के जनक  एडम स्मिथ की चर्चा सिर्फ मुक्‍त बाजार की अवधारणा और तीन सौ बर्षों से जारी इसकी सफलता के दावे के क्रम में करते हैं, लेकिन सामाजिक इतिहास और क्‍लासिकी अर्थशास्‍त्र के महारथी एडम स्मिथ और रिकार्डो बर्षों पहले इस बात को बता चुके थे कि उत्‍पादित मालों में मूल्‍य का सृजन श्रम से होता है और श्रम के इसी रूप को पूंजीपति मूल्‍य के रूप में हासिल करता है।'' (बोल्‍ड हमारा)


यहाँ हम यह देख सकते हैं कि ''लेकिन'' शब्‍द के ऊपरी हिस्‍से में स्मिथ के मुक्‍त बाजार की सफलता के दावे करते पूँजीवादी लोगों के बारे में कहा गया है और उसके नीचे के हिस्से में उसका काट दिया जाना था लेकिन जो दिया गया है वह किसी और चीज के बारे में है अर्थात श्रम और मूल्‍य के बारे में स्मिथ और रिकार्डो के विचारों को यहाँ बताया गया है। नतीजे के तौर पर एक दूसरी भारी गड़बडी हो गई है। एक बार फिर से पूँजीवादी मीडिया में टनों में मौजूद ''मुक्‍त बाजार'' की गर्म चर्चा को एक बार फिर से हू-बहू यहाँ डाल दिया गया है। अब दोनों हिस्‍सों को एक साथ समझने की कोशिश करें तो कुछ इस तरह का अर्थ निकलेगा; 

पूँजीवादी महानुभवों, आप कहते हैं कि तीन सौ सालों से स्मिथ के मुक्‍त बाजार की सफलता जारी है, ठीक है यह तो ठीक है लेकिन क्‍या आप नहीं जानते हैं कि उसी स्मिथ ने यह भी कहा था कि उत्‍पादित मालों के मूल्‍य का सृजन श्रम से होता है ..... वगैरह।

  मेरी समझ से उपरोक्‍त वाक्‍य का यही अर्थ निकलता है। स्‍पष्‍ट है कि लेखक इस बाजारू चर्चा से सहमत है कि पि‍छले तीन सौ सालों से दुनिया में मुक्‍त बाजार (जिसके लिए स्‍वतंत्र प्रतिस्‍पर्धा पूर्व में ही मानी हुई और जरूरी चीज़ है) का बोलबाला है। लेकिन क्‍या महामंदी का लेखक अपने पाठकों को बताएगा कि क्‍या यह मुक्त बाज़ार आज संभव है? क्या सच में दुनिया में एडम स्मिथ के 'मुक्‍त बाजार' का साम्राज्‍य कायम है या लेनिन के 'एकाधिकार' का? क्‍या यह सच नहीं है कि साम्राज्‍यवाद के प्रादुर्भाव तथा आगमन के बाद से लेकर अब तक पूरी दुनिया में एकाधिकार का बोलबाला है, मुक्‍त बाजार का नहीं? साम्राज्‍यवाद के युग में ''मुक्‍त बाजार'' वास्‍तव में कभी भी वास्तविकता नहीं हो सकता। इस अवधारणा का बाजारू फैशन सिर्फ राज्‍य को पीछे हटने के लिए बाध्‍य करने के लिए किया गया है, न कि कॉरपारेट पूँजीवाद से भी बाजार को मुक्‍त करने के लिए। ''मुक्‍त बाजार'' या बाजार की शक्तियों को स्‍वतंत्र करने की मांग का अर्थ बाजार के अंदर मौजूद पूँजी के बड़े-बड़े शार्कों और मगरमच्‍छों की कैद में बाजार को ले जाने की हो रही साजिशों से लगाया जा सकता है। उनका मानना है कि इसमें राज्‍य हस्‍तक्षेप जरूर करे लेकिन इन्‍हीं शार्कों और मगरमच्‍छों की तरफ से और इनके हितों के लिए करे। क्‍या कोई कल्‍पना कर सकता है कि आज के तथाकथित मुक्‍त बाजार में सामान्‍य स्‍तर की बड़ी पूँजियों (छोटी पूँजीयों की तो बात ही छोड़ दें) की भी इन मगरमच्‍छों के समक्ष कोई हैसियत है? 21वीं सदी की महामंदी को हमारा लेखक ''मुक्‍त बाजार'' के चश्‍में से देखता है और दावा करता है कि वह पूँजी की अबतक की संपूर्ण यात्रा का वर्णन कर रहा है!! आज के समय में ''मुक्‍त बाजार'' के बाजारू गप्‍प वाले चश्‍में से महामंदी को देखने वाले लेखक से हम आखिर कितनी उम्मीद करें? इनसे ज्यादा समझदार तो इकोसोशलि‍ज्‍म की धारा वाले हैं जो मुक्‍त बाजार के कोरे बाजारू गप्‍प के पीछे की वास्‍तविकताओं को बखूबी समझते हैं और बच्चों जैसी बातें नहीं करती है। इनका एक लेख मैं हाल में ही पढ़ा हूँ। वे लिखते हैं -- 

In 2008, the banks did not uphold the principle of free market values and keeping the state out of the market – they begged the state to use tax payer money to cover their debts whilst only they enjoyed the profits. The IMF recently estimated that this bailout has so far cost the taxpayers of the world £7.12 trillion ($11.9trn). That is the equivalent of a £1,779 hand out to every last human being on earth.
The truth is that most of the globe now labours under corporatized states. Every new policy is tested against the reaction to it by ‘the market’, as if it were this free, independent aggregated assessment of the worthiness of state actions. It is not. It is simply big businesses reaction to the action of the state. All the market reaction tells you is whether or not a cabal of corporations think they can make a profit from it.
In conclusion, not only is the market not free, but it never can be. It requires legislation to prevent rational corporate behaviour which would undermine it, and any regulator (state or otherwise) will be corrupted by corporations seeking to influence them. 

इसका लिंक मैं यहां दे रहा हूँ। चाहूंगा कि इसे सभी पढ़ें, इसलिए नहीं कि यह कोई क्रांतिकारी धारा है, बल्कि इसलिए कि यह हम सबको यह समझने में सहायक होगा कि "महामंदी" के हमारे लेखक का लेखन स्‍तर, उनकी लेखकीय शैली का स्तर और विषय-वस्तु का ज्ञान कितना छिछला और बाजारू है। यह रहा वह लिंक - http://climateandcapitalism.com/2013/02/28/like-unicorns-the-free-market-is-a-myth/   
  

भाग III


अब आइए, इस वाक्‍य के अंतिम हिस्‍से पर, जो और भी ज्‍यादा हास्‍यास्‍पद है। ये स्मिथ और रिकार्डो के हवाले से और उनके मुंह में अपनी बात रखते हुए लिखते हैं कि –


       ''उत्‍पादित मालों में मूल्‍य का सृजन श्रम से होता है और श्रम के इसी रूप को पूंजीपति मूल्‍य के रूप में हासिल करता है।''


पहले तो लेखक से यह पूछा जाना चाहिए कि ''श्रम के इसी रूप'' से लेखक का क्‍या तात्‍पर्य है? यह "इसी रूप" किसके लिए प्रयुक्त हुआ है? अगर हम स्वयं इस वाक्य के पहले हिस्‍से के सहारे इसका अर्थ निकालें, तो श्रम के इस रूप से तात्‍पर्य ''उत्‍पादित मालों के मूल्‍य के सृजन'' से और इसीलि‍ए स्‍वयं ''उत्‍पादित मालों के मूल्‍य'' से होना चाहिए। अर्थात श्रम का यह रूप मूल्‍य ही है। तो हमारे लेखक के अनुसार मूल्‍य श्रम का एक रूप है। हँसिए मत मित्रों! बस याद रखिये, मूल्‍य यानी श्रम का एक रूप!! 


लेकिन फिलहाल आगे बढिए! मूल्य को श्रम का एक रूप मानते हुए वाक्य के अंतिम हिस्से को पूरा करिए, वह इस प्रकार होगा --- 


"मूल्य (श्रम के एक रूप) को पूँजीपति मूल्य के रूप में हासिल करता है" 


अब जिसके पल्ले यह पूरी बात पड़े, वही जाने कि इस पूरे वाक्यांश का क्या अभिप्राय है!! 

मित्रोँ, हम आगे जल्द ही इस सम्बन्ध में स्मिथ और रिकार्डो के स्वयं के उद्धरणों से और इनके सिद्धांतों पर प्रचुरता में मौजूद मार्क्सीय टीकाओं के उद्धरण से यह दिखाने का काम करेंगे कि हमारा लेखक किस तरह उनके विचारों और सिद्धांतों के बारे में लिखते समय हद दर्जे की लापरवाही और फूहड़ता का प्रदर्शन करता है! 

(आगे भी जारी)  

                 

Tuesday, April 14, 2015

आलोचना नहीं एक निवेदन


काश, राजनीतिक अर्थशास्त्र पर लेखक की यह अतिम कृति हो! 

भूमिका के चन्द कड़वे शब्द 

नरेंद्र कुमार जी अपनी 'महान' कृति ''महामंदी'' की शुरूआत धुमिल की एक कविता और उसकी पैरोडी से और इसके तत्‍काल बाद एडम स्मिथ और रिकार्डो के ''मूल्‍य के श्रम सिद्धांत'' पर एक टिप्‍पणी से शुरू करते हैं। स्मिथ और रिकार्डो पर उनकी टिप्‍पणी पर बात बाद में करेंगे, लेकिन आश्‍चर्य है वे कविता के माध्‍यम से राजनीतिक अर्थशास्‍त्र को समझाने और व्‍यक्‍त करने की कोशिश करने वाले 'मुर्ख' कुर्गमैन, जिसकी वे हंसी उ़ड़ाते हैं, से स्वयं ही होड़ करते प्रतीत होते हैं। लेकिन अफसोस। वे यहाँ पिछड़ जाते हैं। जहाँ 'मुर्ख' कुर्गमैन ने अपनी स्‍वयं की कविता का उपयोग किया, वहीं इन्‍होंने उधार ली गई एक शानदार कविता की पैरोडी का। परंतु, आइए, कौन ज्‍यादा मुर्ख या चालाक है इस बात को यहीं छोड़ते हुए हम नरेंद्र कुमार जी द्वारा एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो के ''मूल्‍य के श्रम सिद्धांत'' पर की गई इनकी टिप्‍पणि‍यों पर लौट चलें और इस बात की जाँच-परख करके यह देखने की कोशिश करें कि 'मुर्ख' कुर्गमैन से होड़ करने में पहले ही पिछड़ जाने वाले इस 'महान' लेखक की राजनीतिक अर्थशास्‍त्र की समझदारी इस मुर्ख से कम है या ज्‍यादा ....  

वे लिखते हैं – ''एडम स्मिथ तथा रिकार्डो बर्षों पहले इस बात को बता चुके थे कि उत्‍पादित मालों में मूल्‍य का सृजन श्रम से होता है और श्रम के इसी रूप को पूँजीपति मूल्‍य के रूप में हासिल करता है।'' (बोल्ड हमारा)

अगले ही क्षण लेखक कूद कर मृत श्रम पर आ जाते हैं और लिखते हैं ''पूँजी की विराट राशि के रूप में यही मृत श्रम संकेद्रित होता जाता है, लेकिन इस सिद्धांत में काफी अस्‍पष्‍टता थी।'(बोल्ड हमारा)

सच तो यह है कि यह टिपण्णी मामूली रूप से भी गंभीर किसी सच्‍चे मजूदर वर्गीय आंदोलनात्‍मक पर्चे में लिखे जाने योग्य भी नहीं है। इसके अतिरिक्‍त लेखक ने पाठकों की एक और इच्‍छा भी अधूरी छोड़ दी है। जैसे स्मिथ और रिकार्डो के बारे में अपना 'ज्ञान' इन्‍होंने इन उपरोक्‍त पंक्तियों में उड़ेल रखा है, वैसे ही वे अपने इस ज्ञान का प्रदर्शन भी कर देते तो अच्‍छा था जिससे यह पता चलता कि इस सिद्धांत में, कि ''पूँजी की विराट राशि के रूप में यही मृत श्रम संकेद्रित होता जाता है", क्या अस्पष्टता थी या है। पाठक के नाते मैं यह जानकर अनुगृहित ही होता कि इस संबंध में उनका यह ज्ञान भी स्मिथ, रिकार्डो और मार्क्‍स पर कलम चलाने वाले एक महाज्ञानी होने के अनुरूप ही है।
     
लेकिन पाठकों को, और खासकर मुझे, इस बात के लिए उनका ऋणी होना चाहिए कि कम से कम इन पंक्तियों में लेखक ने मार्क्‍स-एंगेल्‍स का यह स्‍पष्‍ट करके बड़ा भला किया है कि श्रम, मूल्‍य और पूँजी के बारे में इन्‍होंने जो ऊपर महान विचार प्रकट किए हैं वे मार्क्‍स के नहीं हैं, फिर चाहे वे वास्‍तव में एडम स्मिथ और रिकार्डो के भी हो या न हों। जी हाँ, पाठक को यह जानकर आश्‍चर्य होगा कि ये विचार मार्क्‍स के तो नहीं ही हैं, बुनियादी तौर पर या कहें बारीक तौर पर ये एडम स्मिथ और रिकार्डो के भी नहीं हैं, भले ही लेखक नरेंद्र कुमार ने ऐसा दावा किया है। दरअसल ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक को न तो ठीक से यह मालूम है कि एडम स्मिथ का ''मूल्‍य का श्रम सिद्धांत'' क्‍या है तथा रिकार्डो उनकी कहाँ, किसलिए और क्‍या आलोचना करते हैं और न ही उन्‍हें मार्क्‍स द्वारा इनके किए गए परिष्‍कार का ही ज्ञान है अथवा उससे कोई खास मतलब है।

राजनीतिक अर्थशास्‍त्र एक गंभीर विषय है। इसका अध्‍ययन करते समय हर व्‍यक्ति इसकी बारीकियों पर उचित ही ध्‍यान देता है। और जब कोई व्‍यक्ति इस पर कलम चलाता है और दावा करता है कि उसकी कृति ''क्‍लासिक अर्थशास्‍त्र से लेकर अब तक के तमाम प्रभावशाली अर्थशास्त्रियों के विचारों व विश्‍लेषणों तथा पूँजी की उत्‍पति से उसकी अब तक की विकास-यात्रा को ....'' को समेटे हुए है, तो कम से यह उम्‍मीद हर गंभीर अध्‍येता करेगा कि लेखक ने महान सिद्धांतकारों का नहीं, तो कम से कम अपने दावे का मान जरूर रखा होगा। लेकिन यहाँ तो लेखक ने हद ही कर दी है। लेखक ने कहीं से यह आधा-अधूरा ज्ञान हासिल कर लिया है कि श्रम से मूल्‍य बनता है और मूल्‍य से पूँजी, और बस उन्‍होंने अपने को स्मिथ, रिकार्डो और मार्क्‍स पर कलम चलाने के लायक समझ लिया है। यह हद दर्जे के लापरवाह लेखन, जिसे फूहड़पन भी कहा जा सकता है, के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं है जिसका लक्ष्‍य बस अनभिज्ञ पाठकों पर यह रोब गाँठना है कि ''महामंदी'' का लेखक महाज्ञानी भी है और राजनीतिक अर्थशास्‍त्र की बारीकियों को समझता ही नहीं है, उन पर कलम भी चला सकता है। आखिर तभी तो लेखक के अंतिम लक्ष्‍य, जो निश्चिय ही यह होगा कि यह कृति खूब बिके, की पूर्ति होगी।

भला हो उनका जिन्‍होंने यह किताब अभी तक नहीं पढ़ी है! लेकिन जो बेचारे इसे पढ़ चुके हैं और राजनीतिक अर्थशास्‍त्र के बारे में उनके गंभीर अध्‍ययन के प्रथम सत्र के अभी-अभी हुए शुभारंभ की पावन बेला में ही उनका इस कृति/किताब से पाला पड़ चुका है, खासकर कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन में अभी-अभी शामिल हुए नये-नये युवाओं और छात्रों का, और अगर वे इस फूहड़पन के शिकार हो चुके हैं और अगर अभी तक वे सचेत नहीं हुए हैं, तो निश्‍चय ही वे हमेशा के लिए राजनीतिक अर्थशास्‍त्र की सही और वैज्ञानिक समझ से हाथ धो बैठेंगे। इस अर्थ में लेखक अक्षम्‍य अपराध कर रहे है, जिसका साथ जाने या अनजाने 'संवाद प्रकाश' के जिम्‍मेवार लोग भी दे रहे हैं।

नरेंद्र जी हमारे पूर्व के आंदोलन के साथी रहे हैं। जहाँ तक मैं उन्‍हें जानता हूँ उसके अनुसार उनकी कृति पर कलम चलाने से बेहतर काम चादर ओढ़कर सो जाना होता, बशर्ते पानी नाक से ऊपर न चला गया होता। उम्‍मीद है, हमारा साझा राजनीतिक सर्किल और स्‍वयं नरेंद्र जी, हमारी बातों की तीक्ष्‍णता को अन्‍यथा नहीं लेंगे। साथीगण यह समझेंगे कि बात अगर राजनीतिक अर्थशास्‍त्र जैसे गंभीर विषय की हो और सर्वोपरि रूप से समग्रता में कार्ल-मार्क्‍स के सिद्धांतों पर किए जा रहे चौतरफा फुहड़पन से भरे आधातों के खिलाफ तनकर खड़े होने की हो, तो इसे स्‍वस्‍थ वाद-विवाद का ही हिस्‍सा माना जाना चाहिए। 

हम आगे सिलसिलेवार ढंग से अपने मित्र लेखक की 'महान' कृति का ब्योरेबार आलोचना प्रस्तुत करेंगे, लेकिन घनी व्यस्तताओं की वज़ह से ऐसा करना एकमात्र टुकड़ो में ही संभव हो पायेगा (आगे जारी ....)