Saturday, September 17, 2016

स्थाई व कांट्रैक्ट मजदूर वर्ग की संयुक्त कार्रवाई को पूरे देश में आगे बढ़ाने हेतु
28 अगस्त 2016 को अंबेदकर भवन, झंडेवालान, दिल्ली में कुछ चुने हुए मजदूर संगठनों के एक साझा मंच 'मजदूर अधिकार संघर्ष अभियान' द्वारा आयोजित मजदूर कन्वेंशन में इंडियन फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन्स (सर्वहारा) द्वारा वितरित आलेख
जरूरी सूचना: मूल आलेख में प्रूफ से जुड़ी अशुद्धियाँ को ठीक करने की इसमें भरसक कोशिश की गयी है। फिर भी कुछ रह जा सकती हैं। इस कारण पाठकों को होने वाली असुविधाा के लिए खेद जता रहे हैं। इसके अतिरिक्‍त कुछ कुछ शब्‍दों को और कहीं-कहीं कुछ वाक्‍यों एवं उनके विन्‍यास को, आलेख की मूल दिशा बिना कोई प्रभाव डाले, बदला गया है ताकि इसे प्रवाहमान बनाया जा सके। 

फासीवादी प्रवृत्तियों के दौर में पूँजी के बढ़ते चौतरफे हमले और
 मजदूर वर्ग के समक्ष चुनौतियाँ

               
आज भारत के मजदूर-मेहनतकश, चाहे वे पूर्ण सर्वहारा हैं या अर्धसर्वहारा, चाहे देहातों में खेतों, स्टोन क्रशरों और इंट-भटटों में अपनी जिंदगी झोंकते हैं या कोयला के सैंकड़ों फीट गहरे खदानों में, रेलें बनाते हैं या बिल्डिंगें, खेतों में काम करते हैं या फैक्टरियों में, छोटे प्रतिष्ठानों में काम करते हैं या बड़े-बड़े आधुनिक कल-कारखानों में मशीनों की गति से बंधे हैं, संगठित हैं या असंगठित, बड़ी देशी पूँजी के गुलाम हैं या विदेशी पूँजी के ... दिल्ली में गद्दी पर बैठे हर निजाम ने इनके हितों की अनदेखी की है। सरकार चाहे जिसकी हो सभी ने इन्हें ज्यादा से ज्यादा पूँजी का निवाला बनने के लिए विवश किया है। पिछले दशकों में दिल्ली, गुड़गांव, नोयडा, फरीदाबाद जैसे दर्जनों या कहें सैंकडों नये उठ खड़े हुए औद्योगिक केंद्रों में हजारों की संख्या में जो छोटे-बड़े उद्योग चल रहे हैं और जहाँ लाखों की संख्या में देशी या 'परदेशी' मजदूर काम करते हैं, उनकी स्थिति सच में गुलामों की हो गयी है। कानूनी संरक्षण की बात तो भूल ही जाइये, कारखाने के मालिक और उनके बाउंसर से लेकर थानेदार तक, मकान मालिक से लेकर दुकानदार तक उन्हें कौन नहीं लुटता है! न रहने का ढंग का कोई ठिकाना, न काम की कोई गारंटी, न ही सांस लेने के लिए ताजी हवा। कुछ भी तो नहीं है उनके पास। आत्मसम्मान क्या होता है वे भूल ही चुके हैं। वे इस 'जनतंत्र' के नागरिक हैं और उनके भी कुछ अधिकार बनते हैं, यह जानते हुए भी वे विवश हैं। ये शब्द उनके लिए आज बेमानी हो चुके हैं। कारखानों में लुटने-पिटने के बाद मकान मालिकों, दुकानदारों और उनके लगुए-भगुये की मनमानी झेलते ये हर दूसरे दिन अपनी श्रमशक्ति पूँजीपतियों को बेचने लायक किसी तरह स्वयं अपने और अपने परिवार को जिंदा रख पाते हैं, बस यही उनकी जिंदगी है। यह भी जब तक चल रही है तभी तक। अन्यथा, एक बार रूकी तो फिर खत्म ही समझिये। एक मामूली बीमारी भी उसकी जीवन लीला समाप्‍त कर सकती है।  उसके जीवन की जहालत, खाट पकड़ने की हालत में भी काम करते रहने की मजबूरी और अक्‍सरहाँ बीमारी के लिए छुट्टी लेने का मतलब जॉब से ही छुट्टी हो जाने की स्थिति का जानलेवा दबाव जल्द ही उन्‍हें मौत के करीब पहुँचा देती है। उनका परिवार भी क्या है? पूँजीपतियों के लिए श्रमशक्ति की नयी खेप और अपने जैसे मजदूरों की नयी पीढ़ी पैदा करने का एक कारखाना भर है जहाँ पूँजीपतियों के लिए भावी श्रम शक्ति रूपी माल का उत्पादन होता है। मजदूरों की यह बुरी हालत हम तब से और खराब होते देख रहे हैं जब से नयी आर्थिक नीति कांग्रेसी शासन के द्वारा लागू की गई, यानि 1991 से । आर्थिक उन्‍नति के नाम पर खुल्लमखुल्ला पूँजी के पक्ष में नीतियाँ बनाने का सिलसिला तब से ही शुरू हुआ है। इसे आर्थिक उदारीकरण का नाम दिया गया। तब से लेकर आज तक सरकारें बदलीं, निजाम बदले, मंत्री और प्रधानमंत्री बदले, पूँजीपतियों की तिजोरियाँ और वजनदार हो गईं, सामाजिक न्याय का डंका बजा, फिर सांप्रदायिक दंगे और नरसंहार के नये राष्‍ट्रवादी कीर्तिमान से गौरवान्वित विकास के नये मॉडल खड़े हुए, पूरे विश्व में भारत के विकास का गौरवगान शुरू हुआ, दुनिया के दस सबसे बड़े पूँजीपतियों में भारत के पूँजीपति भी शामिल हो गये, समाज की संपदा सरक कर पूँजीपतियों के हाथों में आ गयी, सारे नजारे बदल गये, देहात और शहर बदल गये, जनतांत्रिक सरकारें बदलते-बदलते 'राष्ट्रवादी' बन गयीं, नारे बदल गये, यहाँ तक कि जनतंत्र के अंदर से हिंदू राष्ट्र निकल आया, देश एकाएक 'महाशक्ति' में बदल गया .... लेकिन अगर कुछ नहीं बदला तो मजदूरों-मेहनतकशों की पूँजी के हाथों हो रही बर्बादी का यह सिलसिला। देश में रोजगार बढ़ाने और देश की आर्थिक तरक्की के नाम पर लागू की गयी नयी आर्थिक नीति के तहत धीरे-धीरे मजदूरों द्वारा लड़कर हासिल किये गये सारे अधिकार पहले व्यवहार में खत्म कर दिये गये और बाद में कानूनों में बदलाव कर के। यह बदलाव आज भी जारी है। यह बदलाव इतना गहरा है कि आज देश और मजदूर वर्ग के हित दो अलग-अलग ध्रुव बन गये हैं। उनके हित पूरी तरह अलग-अलग कर दिये गये हैं। देश के विकास के लिए आज मजदूरों की बलि जरूरी है। जो नजारा आज मौजूद है उसमें यह साफ दिखता है कि देश के विकास का मतलब देश के पूँजीपतियों का विकास है। उनकी तिजोरियों की वज़न में वृद्धि का नाम ही आज देश विकास है और इसके लिए मजदूरों-मेहनतकशों की तबाही और बर्बादी एक स्वाभाविक बात है! हम कह सकते हैं कि यह देश आज मजदूरों को अपने देश के रूप में कहीं कोई सांत्वना नहीं देता प्रतीत होता है। देश की एक ही चौहद्दी में रहने से उनके पेट पर लात मारने वाले को कोई फर्क नहीं पड़ता है। पूँजी का निवाला बनने से बचाने में कोई चौहद्दी उनके काम नहीं आती। पूँजी की लूट सीमा और चौहद्दी से परे हो चुकी है। विश्‍व में जहाँ तक भी मजदूर देखते हैं उन्हें सभी जगह पूँजी की एक जैसी रवायत (हैवानियत) का अहसास होता है। पूरी दुनिया में बड़ी पूँजी के स्वामियों का कब्जा है। आज मजदूरों के दिलों में यह बात आनी स्वाभाविक है कि अपने इस देश को और पूरी दुनिया को पूँजी की बादशाहत से यानि और श्रम के लुटेरे पूँजीपतियों से मुक्त कराये बिना विकास से चमचमाता हमारा यह प्यारा देश और स्वर्ग से भी सुंदर यह दुनिया हमारे किसी काम के नहीं हैं। पूँजी पूरी मानवजाति को लहूलुहान ही नहीं कर रही है, अब तक हासिल उसकी तमाम उपलब्धियों को भी वह नेस्तानाबूद कर रही है। इस मजदूर कन्वेंशन में बैठे तमाम साथियों से हम यह कहना चाहते हैं कि भारत का मजदूर वर्ग आज जिस मोड़ पर खड़ा है और जिस भीषण शोषण और उत्पीड़न का सामना कर रहा है, उसे देखते हुए पूरे देश के पैमाने पर मजदूर संगठनों की संयुक्त कार्रवाई की पहलकदमी एक स्वागतयोग्य कदम है। हमें पूरी शिद्दत से यह समझने की जरूरत है कि मजदूर वर्ग की आज की लड़ाई में मुख्य कड़ी कौन सी चीज है जिसे पकड़कर हम पूरी समस्‍या से सफलतापूर्वक जुझ सकते हैं और वर्तमान दौर में मजदूर आंदोलन के वास्तविक मर्म को भी समझ सकते हैं।  
यह सच है कि आम लोगों की ही तरह ही मजदूरों-मेहनतकशों ने भी 2014 में 'अच्छे दिनों' के वायदे पर भरोसा किया। जमकर वोट भी दिये। लेकिन शासन में आते ही 'अच्छे दिनों' वाली सरकार ने बुरे दिनों की जैसी बरसात की, क्या उसकी उम्मीद इन्होंने की थी? सचेत हिस्से की बात छोड़ दें तो अधिकांश ने पहले से यह उम्मीद नहीं की होगी। लेकिन असल बात यह है कि मसला आज बुरे दिनों से कहीं आगे निकल चुका है। हम आज संकट से भरे खतरनाक दिनों में प्रवेश कर चुके हैं। सारी नादानियों और गलतियों के बावजूद मजदूर जरूर ही इसे समझ चुके हैं, क्योंकि 'अच्छे दिन' के नाम पर शुरू हुए ये अत्यंत बुरे दिन पूँजी के आखेटस्थल से ही, यानि उस जगह से ही शुरू हुए हैं जहाँ मजदूरों के रगों को चूसकर मुनाफा बनाया जाता है और पूँजी अपनी वृद्धि करती है। इसके पहले शिकार मजदूर ही थे और हैं। उन्हें देश की राजधानी दिल्ली में बैठी एक ऐसी नयी राष्ट्रवादी सरकार के बारे में पता है जो पेट पर लात मारते हुए मुँह पर ताले जड़ने की कोशिश कर रही है और एक-एक कर सफल भी होती जा रही है। लेकिन क्या हमें, जो मजदूर आंदोलन के अगुआ हैं और जिन पर मजदूर आंदोलन को आगे ले जाने की जिम्मेवारी है, स्वयं से यह नहीं पूछना चाहिए कि क्या इसका अंदाजा हमें है कि आज जो कुछ होता दिख रहा है वह किस चीज का परिचायक है? क्या हमने इससे निपटने के लिए कुछ तैयारी की है?
साथियो! जिस तरह से गुजरात में धुर आर.एस.एस मार्का फासिस्ट प्रयोगों के नायक नरेंद्र मोदी को 2014 के आम चुनाव में दीर्घकालिक आर्थिक संकट का सामना कर रहे देशी व विदेशी कॉरपोरेट पूँजीपतियों ने हाथों-हाथ लिया था उसी से आज के बुरे दिनों का अंदाजा लग चुका था। साथ में इसका भी अंदाजा लग चुका था कि आगे मजदूरों पर पहले से जारी शोषण के अतिरिक्त कुछ और भी गाज गिरनी तय है। जो समझ सकते थे वे उस वक्त ही समझ चुके थे कि आने वाले समय में 'अच्छे दिनों' की बहार कैसी होगी। लेकिन आज जो हो रहा है वह 'गुजरात ब्रांड' की पुनरावृत्ति भर नहीं है। आज की जो विषवेली है वह नयी है। भले ही उसके बीज पुराने हैं। इसकी नयी चारित्रिक खासियतें हैं। इसके पोषककर्ता देश-विदेश के बड़े पूँजीपति हैं जो निरंकुशता, खुली तानाशाही और फासीवाद की तरफ झुके हुए हैं। वे जनतंत्र नहीं अपनी नंगी तानशाही चाहते हैं ताकि वे अपने संकट के 'हल' के लिए जो चाहे करें। चाहे वे पूरी दुनिया को ही नरक में तब्दील कर दें, लेकिन उन्हें टोकने वाला कोई न हो। यही तो 'गुजरात ब्रांड' था जिसे 2014 के आम चुनाव में विकास के मॉडेल के रूप में झूठे प्रचार के बल पर पूरे देश में वोटों के लिए भंजाया गया और पूरे देश में उसे दोहराने के लिए पूँजीपतियों ने आज सारी ताकत लगा दी है। वैसे इस ब्रांड का असली नाम 'गुजरात 2002 ब्रांड' है जो मुस्लिमों के राज्य प्रायोजित फासीवादी नरसंहार के साथ मोदी काल के घोर पूँजीपक्षीय विकास के मॉडल को एक साथ जोड़कर व्यक्त करता है। इस ब्रांड का खूब लाभ हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के रूप में 'अच्छे दिन'' वालों को 2014 में मिला। लेकिन आज इसमें गुणात्मक परिवर्तन हो चुके हैं। यहाँ-वहाँ सांप्रदायिक दंगे कराने वाले गिरोहों से आज ये आज बहुत आगे निकल चुके हैं। अगर हम इन्हें मुकम्मल फासिस्ट गिरोह कहें तब भी शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी। इनके सैन्य प्रशिक्षण शिविरों की बातें अब गुप्त नहीं हैं, टेलीविजन और सोशल मीडिया पर बड़े शान से इन्हें परोसा जा रहा है।
                बड़ी कॉरपोरेट पूँजीपतियों के हितों से हो चुका इनका पूर्ण विलय वह मुख्य आधार है जिससे यह संभव हो पा रहा है। कुल नजारा इस तरह पेश हो रहा है। मजदूर-मेहनतकश वर्ग से निचोड़े गये अधिशेष, जिसे निचोड़ने में यह सरकार उनकी सारी मदद कर रही है, के एक अच्छे-खासे हिस्से को कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग इन पर लुटा रहा है, फिर यह सरकार कॉरपोरेट पूँजी की सभी तरह की सेवा कर रही है। और इस तरह यह चक्र चल रह रहा है। मजदूर वर्ग से निचोडे गये इसी अधिशेष के बल पर ये आज पूरे देश में अतिप्रतिक्रियावादी मुहिम चला रहे हैं और इसे अंजाम तक पहुँचाने के लिए काम कर रहे हैं। मजदूर वर्ग की समस्याओं और चुनौतियों में एक बड़ी चुनौती यही है। इस चुनौती ने दूसरी अन्य सभी तरह की (तात्कालिक और दूरगामी दोनों) चुनौतियों को पहले से कहीं और ज्यादा कठिन बना दिया है। जटिलताएँ ऐसी खड़ी हो गई हैं मानो मजदूरों की मुक्ति का सवाल ही असाध्य हो चुका हो। मजदूर आंदोलन मानो भयानक जंजाल बन गया हो। क्या हम, जो मजदूर वर्ग के लड़ाकू संगठन हैं, वर्तमान दौर की इस सबसे बड़ी चुनौती को आँखों से ओझल होने देने की भूल कर सकते हैं? क्या हम इससे निरपेक्ष हो अन्य चुनौतियों पर चर्चा कर सकते हैं? जनवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हो रहे भीषण हमलों के खिलाफ लड़े बिना क्या मजदूर वर्ग अपनी आर्थिक-तात्कालिक माँगे निरंकुश सरकार से मनवा सकता है? क्या मजदूर वर्ग या मजदूर संगठनों की किसी देशव्यापी संयुक्त पहल की बात हमारी छाती पर सवार हो गला दबाने को आतुर बड़ी पूँजी की फासिस्ट निरंकुशता के खिलाफ न्यूनतम साझा रणनीति का आगाज किये बिना की जा सकती है? आज यह सब कुछ इतना खुला रूप ले चुका है कि अब इसके बारे में एक निश्चित राय नहीं बनाना, आर्थिक हमलों के प्रतिकार को इस लड़ाई से जोड़कर चलाने के बारे में नहीं सोंचना यानि एक समग्र मजदूर वर्गीय संयुक्त कार्यनीत व रणनीति नहीं बनाना निस्संदेह एक भारी भूल होगी। इसे नहीं भूलना चाहिए कि हम और आप देशव्यापी संयुक्त पहल की बात कर रहे है, न कि किसी कारखाने के स्तर की एक छोटी पहल की। हालांकि तब भी क्या हम अपनी लड़ाई को खूद से इतने तंग दायरे में सीमित हो पेश कर सकते थे यह विचारणीय है।        
आज का दौर आखिर क्या है जिसकी हमने ऊपर चर्चा की? हम संक्षेप में इसे आज के मजदूर कन्वेंशन की चर्चा में शामिल करने की आपसे इजाजत चाहेंगे। आज बड़ी पूँजी के स्वामी, जो पूरे विश्व में लगभग एक दशक से जारी भारी आर्थिक मंदी और संकट से पूँजी निवेश और मुनाफे में आये ह्रास की स्थिति से हलकान हैं, उन्हें इससे निकलने के लिए पूरी धरती, पूरा आसमान और संपूर्ण पाताल पर वर्चस्व चाहिए। इन सबके कोने-कोने पर पूर्ण वर्चस्व चाहिए। समाज की पूरी संपदा और श्रमिकों की हरेक सांस पर पूर्ण अधिकार चाहिए, उनके खून और पसीने के एक-एक कतरे पर एकाधिकार चाहिए। पूरा वर्तमान और समूचा भविष्य चाहिए। यानि, किसी भी तरह के नियंत्रण से परे लूट का एक पूरा निष्कंटक साम्राज्य चाहिए। लेकिन सवाल है, बड़े पूँजीपतियों ने भाजपा को ही इसके लिए सबसे श्रेष्ठ क्यों माना? इसके ठोस कारण हैं। लेकिन इस पर चर्चा करने से पहले यह समझना जरूरी है कि कांग्रेस ही नहीं, देश की किसी भी मेनस्ट्रीम बुर्जुआ पार्टी को इससे गुरेज या परहेज नहीं है। यहाँ तक कि आम आदमी पार्टी को भी नहीं। आखिर कांग्रेस ने ही तो 1991 में आर्थिक उदारीकरण की नीति की नींव रखी थी और बड़ी पूँजी के पक्ष में खुले तौर पर नयी आर्थिक नीति के जरिये श्रम और संपदा की लूट की एक नयी आधारशिला रखी थी। इसी से पूरे देश में एक अति प्रतिक्रियावादी और घोर जनविरोधी राजनीतिक विमर्श का श्रीगणेश हुआ। बड़े कॉरपोरेट की आज की बढ़ी हुई लुटेरी हवस और देश में फासिस्ट प्रवृत्तियों की यह बाढ़ ठीक उसी की निरंतरता में है, उसी का कुल निचोड़ है, उसी को व्यक्त करने वाला परिणाम है। आज ऐसा प्रतीत होता है मानो नयी आर्थिक नीति के तहत बड़ी पूँजी की लूट का एक सफल दौर पूरा हो चुका है। अब वह अगली यात्रा के लिए कूच करने की तैयारी में है जिसका लक्ष्य लूट का एक निरंकुश साम्राज्य कायम करना और रास्ते में आने वाली तमाम विघ्न-बाधाओं को हटाना या कुचल देना है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूँजी की हो रही फजीहत (आर्थिक महामंदी और संकट) भारतीय बड़े पूँजीपतियों को स्वभाविक रूप से और भी अधिक तेजी से इस रास्ते पर धकेल रही है। यह पूँजी के शासन के सामान्य रूप से इतर घोर रूप से गैर जनतांत्रिक कंटेंट वाले शासन व राज्य के तरफ हो रहे शिफ्ट को दिखा रहा है। इस शिफ्ट का योग्यतम वाहक भाजपा ही क्यों, कांग्रेस या कोई अन्य क्यों नहीं, इसकी एक संक्षिप्त व्याख्या जरूरी है और हम इसे फुटनोट* में दे रहे हैं, लेकिन महतत्वपूर्ण बात यह है कि मजदूर वर्ग को इस खतरनाक शिफ्ट को आज अपने विमर्श में जरूर ही शामिल करना चाहिए, क्योंकि मजदूर वर्ग ही इस'' शिफ्ट'' के सबसे निर्मम शिकार हैं और होंगे। आइये, हम यह देखने की कोशिश करें कि हम ऐसा क्यों कह रहे हैं। 

आयोजकों द्वारा उठाये गये मुद्दों पर चंद बातें ...........

                 साथियो! हम आयोजकों द्वारा कन्‍वेंशन में विमर्श के लिए उठाये गये मुद्दों की बात करें, तो बिल्‍कूल सही ही श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी बदलाव, न्यूनतम वेतन और कान्ट्रैक्ट लेबर के भीषण शोषण की तरफ इशारा किया गया है और उससे लड़ने के लिए देश के पैमाने पर अभियान चलाने और संघर्ष का बिगुल फूँकने की बात उठाई गई है। यह सच है कि मजदूर वर्ग देश में हो रहे फासिस्ट हमले के प्रथम शिकार हैं। ये हमले चौतरफा हैं। आर्थिक मार से लेकर उनके जनवादी व कानूनी अधिकारों के क्षेत्र तक। आंकड़ों और रिपोर्टों की बात करें तो हमारे पास मजदूर पक्षीय अखबारों, व्यक्तियों से लेकर स्‍वतंत्र व निष्‍पक्ष पत्रकारों द्वारा तैयार किये कई बेहतरीन रिपोर्टें हैं जो बताती हैं कि वास्तविक हालात क्या हैं। हम यहाँ जो विवरण दे रहे हैं वह इन्हीं रिपोर्टों के आधार पर तैयार किया गया है जो अमूमन मजदूर आंदोलन के सभी जागरूक कार्यकर्ताओं को ज्ञात हैं। आइये, संक्षेप में इसे देखें।
                हम पाते हैं कि देश में सार्वजनिक क्षेत्र में लगभग 50 प्रतिशत और निजी क्षेत्र में 70 प्रतिशत कान्ट्रैक्ट लेबर कार्यरत हैं। इनकी की हालत बेहद खराब है। 1991 से शुरू की गई नयी आर्थिक नीति के तहत कम से कम वेतन देकर ठेका मजदूरों को स्थायी प्रकृति वाले कामों में नियोजित करने (लगाने) और इस तरह पूँजी के मुनाफे में अकूत वृद्धि करने की दिशा अपनाई गई। पिछले दो-ढाई दशक से ठेका मजदूर (विनिमयन एवं उन्मूलन) अधिनियम की धारा 10 का उल्लंघन करते हुए ठेका मजदूरों का जबर्दस्‍त शोषण किया गया। खूद सरकार की देखरेख में श्रम कानूनों को दरकिनार कर यह प्रक्रिया चलायी गयी। इसी लूट के बल पर तेजी से देश में कारपोरेट घरानों की संख्‍या बढ़ी। आज तो स्थिति पूरी तरह बदल गई है, यहाँ तक बदल गई है कि मजदूरों के अपने विमर्श में भी यह विचार तेजी से और जबर्दस्ती ठूँसा गया है कि ''ठेका प्रथा तो रहेगी ही, इसके तहत और क्या सुविधायें हासिल की जा सकती हैं इस पर बात की जाये।'' हम देख सकते हैं कि पहले कहीं न कहीं हार स्वीकार कर ली जाती है, फिर इस पर बात की जाती है। मजदूर संगठनों के बीच जो कमजोरियाँ हैं, उन्‍हें भी हमें सामने लाना होगा।  
                इन ठेका मजदूरों की मजदूरी बेहद कम है। न्यूनतम मजदूरी इन्हें नसीब नहीं। इनके हितों के लिए बने श्रम कानून भी इनके काम नहीं आते, क्योंकि वे ज्यादातर असंगठित हैं और शायद इसीलिए अक्षम और अनभिज्ञ दोनों हैं। मोदी सरकार के कार्यकाल में इन मजदूरों पर हमला और बढ़ा है। 'मेक इन इंडिया' और देशी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों को देश में पूँजी लगाने के लिए आकर्षित करने हेतु यह सरकार लम्बे संघर्षों द्वारा हासिल श्रमिकों के लगभग सारे अधिकार खत्म करने में लगी हुई है। केंद्र के अतिरिक्‍त भाजपा की राज्‍य सरकारें भी इसमें लगी हुई हैं। भाजपा की राजस्थान सरकार ने ठेका मजदूर (विनिमयन एवं उन्मूलन) अधिनियम में संशोधन कर दिया जिसके बाद ठेका मजदूरों के ठेकेदारों की चाँदी ही चाँदी है। अब 49 मजदूर खटाने वाले ठेकेदार इस कानून के प्रावधान से मुक्‍त हो गये, जब कि पहले यह सीमा 20 थी। केंद्र की मोदी सरकार भी इसी रास्‍ते पर बढ़ चुकी है। अब देश में कहीं भी 50 से कम मजदूरों से काम कराने वाले ठेकेदारों को श्रम कार्यालय से न तो पँजीकरण कराने की आवश्यकता है और न ही किसी श्रम कानून का झंझट इनको झेलना है। ठेकेदार मस्‍त हैं, लेकि‍न मजदूर पस्‍त और पूरी तरह निहत्थे हो गये। जो थोड़ा बहुत संरक्षण था वह भी खत्‍म हो गया। श्रम कार्यालय के चक्‍कर काटकर ही सही, लेकिन ठेका श्रमिकों को इससे कुछ इससे कुछ सुविधायें और अधिकार प्राप्त थे जो अब नहीं हैं।
                सरकार ने अप्रेंटिसशिप एक्ट, कारखाना कानून और श्रम कानून (कुछ संस्थानों को विवरणी जमा करने तथा रजिस्टर तैयार करने में छूट) संशोधन अधिनियम 2011 पारित किया है। जहाँ अप्रेंटिसशिप एक्ट में संशोधन कर अब अप्रेंटिस को ठेका मजदूर, कैजुअल मजदूर और दैनिक मजदूरों के साथ शामिल कर लिया गया है और फिर इसे मिलीजुली संख्‍या के आधार पर किसी प्रतिष्ठान में कुल मजदूरों के 30 प्रतिशत के अनुपात में इस तरह के मजदूरों को रखने की इजाजत दे दी गयी है। इसी तरह, कानून के उल्लघंन पर मालिकों को जेल भेजने के प्रावधान को समाप्त कर उसे सजा के तौर पर महज 500 रूपये के आर्थिक दण्ड तक सीमित कर दिया है। इसी तरह श्रम कानून (कुछ संस्थानों को विवरणी जमा करने तथा रजिस्टर तैयार करने में छूट) संशोधन अधिनियम 2011 में किसी भी संस्थान को लघु औद्योगिक संस्थान घोषित होने के लिए मजदूरों की संख्या 19 से बढ़ाकर 40 कर दी गयी है। यानि अब से 40 मजदूरों के संस्‍थान भी लघु संस्‍थान कहे जाएंगे और इन्‍हें विवरणी जमा करने और रजिस्टर रखने के झंझट से मुक्त कर दिया गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि इन तथाकथि‍त लघु संस्‍थानों को ठेका मजदूर (विनियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम, न्यूनतम वेतन कानून, समान वेतन कानून, वेतन भुगतान अधिनियम, कारखाना कानून, बोनस भुगतान अधिनियम आदि सहित कुल 16 श्रम कानूनों को मानने और लागू करने के दायित्व से मुक्त कर दिया गया है। यह ठेका मजदूरों पर सबसे बड़ा हमला है।
                एक और बड़ा हमला देखिये। सरकार ने कारखाना अधिनियम के अनुच्छेद 56 में संशोधन कर भोजनावकाश के साथ 8 घण्टे काम की अवधि को बढ़ाकर 10.5 से 12 घण्टे तक करने का प्रावधान कर दिया है। इस अतिरिक्त काम को ओवरटाइम नहीं माना जायेगा और इसके लिए सामान्य वेतन दिया जाएगा। यानि आठ घंटे के काम के मजदूरों के एक अत्‍यंत ही महत्‍वपूर्ण अधिकार को खत्‍म कर दिया गया है। आठ घंटे के लिए पूरे विश्‍व में न जाने कितनी लड़ाइयाँ हुईं और न जाने कितनी कुर्बानियाँ दी गईं। वे सभी आज बेकार हो गईं।
                इसी प्रकार अनुच्छेद 64-65 में संशोधन करके ओवरटाइम के कानून को बदल दिया गया है। वर्तमान में 50 घंटे प्रति तिमाही के ओवरटाइम को सीधे 100 घण्टे प्रति तिमाही कर दिया गया है। इतनी ही नहीं, जनहित के नाम से और राज्य सरकार द्वारा छूट दिये जाने पर इसे 125 घण्टे तक किया जा सकता है। अनुच्छेद 66 में संशोधन कर महिलाओं को रात्रि पाली में काम करने पर लगी रोक समाप्त कर दी गयी है।
                शायद सबसे खतरनाक बात यह है कि सरकार कई श्रम कानूनों को खत्म करके महज पाँच संहिताओं में उन्हें समेटने की बात पर फैसला ले चुकी है। वेतन विधेयक श्रम संहिता और औद्योगिक सम्बंध श्रम संहिता विधेयक पारित भी हो चुका है। वेतन विधेयक श्रम संहिता को न्यूनतम वेतन अधिनियम, बोनस भुगतान अधिनियम, वेतन भुगतान अधिनियम, समान वेतन अधिनियम आदि चार अधिनियमों को मिलाकर बनाया गया है। इस संहिता में श्रम कानूनों को लागू कराने के लिए निरीक्षण की व्यवस्था को समाप्त कर निरीक्षकों की भूमिका मालिकों के मददकर्ता की बना दी गयी है। आश्चर्य की बात यह है कि समान वेतन अधिनियम को मात्र लिंगभेद तक सीमित कर दिया गया है। ठेका मजदूर (विनियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम की धारा 25 (5)(अ) कहती है कि ठेकेदार द्वारा नियोजित मजदूरों को भी प्रधान नियोजक द्वारा नियोजित (नियमित) मजदूरों जैसी सुविधायें (वेतन, छुट्टी, कार्यावधि आदि) प्राप्‍त होंगी अगर ठेका मजदूर और नियमित मजदूर दोनों के काम एक समान हैं। इस पुराने प्रावधान को नयी संहिता में खत्‍म कर दिया गया है।  
                प्रस्तावित संहिता में उद्योगों/प्रतिष्ठानों की वर्गीकृत सूची के प्रावधान को ही समाप्त कर दिया गया है। न्यूनतम वेतन निर्धारण का अधिकार पूरे तौर पर राज्य सरकार को दे दिया गया है, जबकि इसके निर्धारण की शर्तों का खुलासा नहीं किया गया है। इसी तरह, यदि मजदूर गैर कानूनी हड़ताल में भाग लेता है तो उसका 8 दिन का वेतन काट लिया जायेगा। बोनस कानून भी बदल दिया गया है। पहले यह कानून था कि यूनियन कम्पनी की बैलेंस शीट को चेक कर सकते थे और उसकी के अनुसार दिये जा रहे बोनस की मात्रा पर सवाल खड़ा कर सकते थे। लेकिन इसे समाप्त कर दिया गया है। अब प्रबंधन के साथ सौदेबाजी करके जो हासिल होगा उसे ही मानना होगा।
                औद्योगिक सम्बंध श्रम संहिता को ट्रेड यूनियन एक्ट 1926, स्थायी आदेश कानून 1946, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 को मिलाकर बनाया गया है। इस के अनुसार ट्रेड यूनियन पंजीकरण के लिए अब कुल मजदूरों का 10 प्रतिशत या 100 मजदूर (जो भी कम हों) के बराबर सदस्य होने चाहिए। इतना ही नहीं, रजिस्ट्रार को अपने विवेक के आधार पर यह अधिकार दे दिया गया है कि वह चाहे तो यूनियन को रजिस्टर करे या न करे या निरस्त कर दे। वह चाहे तो किसी भी रजिस्‍टर्ड ट्रेड यूनियन को रद्द कर सकता है। इसी तरह यह नया कानूना बनाया गया है कि संगठित क्षेत्र की यूनियनों में कोई भी बाहरी व्यक्ति न तो पदाधिकारी होगा और न ही कार्यकारणी सदस्य। वहीं असंगठित क्षेत्र की यूनियन में मात्र दो व्यक्ति ही पदाधिकारी हो सकते हैं।
                इस संहिता में ''हायर एंड फायर'' यानि 'जब चाहो रखो और जब चाहो निकाल दो' के मालिकों के अधिकार को 300 मजदूरों तक की संख्या में रोजगार देने वाले सभी प्रतिष्ठानों को दे दिया गया है। यह मजदूरों को मालिकों की मर्जी का गुलाम बनाने के लिए काफी है। संख्‍या को 300 तक बढ़ा देने का अर्थ यह है कि अब अधिकांश उद्योगों में कार्यरत ठेका मजदूर ''हायर एंड फायर'' के दायरे में आ गये हैं। यहाँ तक कि स्थायी आदेश कानून (स्‍टैंडिंग ऑर्डर) में संशोधन करने का अधिकार भी कंपनियों को दे दिया गया है जिसका अर्थ यह होगा कि कंपनियाँ कभी भी मजदूरों की सेवा शर्तें बदल सकती हैं। इस संहिता के अनुसार हड़ताल की नोटिस 6 सप्ताह पहले देनी होगी। यही नहीं, नोटिस देने की तिथि से ही समझौता कार्यवाही प्रारम्भ मान ली जायेगी, चाहे समझौता कार्यवाही प्रारम्भ भी हुई हो या नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि मजदूरों के लिए हड़ताल करना व्‍यवहार में असंभव हो जाएगा, क्‍योंकि समझौता वार्ता जारी रहने और इसके समाप्ति के सात दिन बाद तक हड़ताल नहीं की जा सकती। गो स्लो/प्रदर्शन सभी पर रोक होगी।  यहाँ तक कि यदि आधे से ज्यादा श्रमिक आकस्मिक अवकाश लेते हैं तो भी हड़ताल मान लिया जायेगा और कारवाई की जाएगी। जरा इस पर गौर करिये कि गैर कानूनी हड़ताल में शामिल होने पर मजदूरों पर 20,000 रू0 से लेकर 50,000 रुपये तक अर्थदण्ड या एक माह की जेल की सज़ा दी जा सकती है और इसे उकसाने वाले को 25,000 रुपये से लेकर 50,000 रुपये तक का अर्थदण्ड और जेल की सज़ा दी जा सकती है। यही नहीं अब मजदूर अपने मुकदमे में वकील की सहायता नहीं ले सकता है। मजदूर अगर बर्खास्त किये जाएंगे तो जो कुछ भी सबूत रिकार्ड में हैं उन्हीं को आधार बनाया जायेगा। नए गवाह या सबूत मान्‍य नहीं होंगे या प्रतिबंधित होंगे।
                ठेका मजदूरों की जीवन सुरक्षा के लिए बने ई.पी.एफ. (भविष्य निधि) और ई.एस.आई. (कर्मचारी राज्य बीमा) में भी परिवर्तन करने की तैयारी है। ऐसे ही देश में ठेका मजदूरों के भविष्य निधि के करोड़ो रूपये ठेकेदारों और प्रबंधन के द्वारा लूट लिये जाते हैं, मजदूरों से पैसा काटकर उनके भविष्य निधि खाते में जमा नहीं किया जाता है और जो जमा भी है उसे सरकार लूटने में लगी है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि कर्मचारी भविष्य निधि संगठन के साथ बातचीत किए बगैर ही सरकार ई.पी.एफ. के करोड़ रूपए इधर से उधर करने में लगी है। जैसे कि ई.पी.एफ.का पैसा आम वृद्धावस्था पेंशन में इस्तेमाल करने की धोषणा करना और ई.पी.एफ. की जमा राशि के एक हिस्‍से (5 प्रतिशत से लेकर 15 प्रतिशत तक) को शेयर बाजार में लगाने की अधिसूचना जारी करना इसकी चंद मिसालें हैं। इसी प्रकार बीमार मजदूर को बीमारी की हालत में मिलने वाले नगद लाभ, यानि, ई.एस.आई. को, बीमा और आश्रितों को मिलने वाली पेंशन राशि और प्रसूति लाभ आदि को एकमात्र चिकित्सा बीमा में बदलने में लगी हुई है। यानि या तो उपरोक्‍त लाभ लें या चिकित्‍सा बीमा का लाभ लें। इसके लिए सरकार ई.एस.आई. अधिनियम में संशोधन करने जा रही है।  
                साथियो! अभी-अभी खत्म हुए संसद के सत्र में ये घोषणा सरकार ने की है कि इस बार बहुत सारे मजदूरों के हित वाले विधेयक जो अटके पड़े थे वे पारित हुए हैं। सभी पार्टियों ने खुशियाँ मनायीं कि इस बार लोक सभा और राज्य सभा दोनों ने खूब काम निपटाये हैं। अब जाकर यह पता चला है कि ये ही सारे कानून पारित कराये गये हैं जिन पर सरकार खुशियाँ मना रही हैं! यहाँ सच साफ दिखाई दे रहा है कि कॉरपोरेट के बूते बनी यह सरकार कॉरपोरेट हितों के लिए श्रमिकों की जीवन सुरक्षा और पूर्व में प्रदत्त हमारे सारे कानूनी अधिकारों को छीनने में लगी हुई है। पूँजीवादी शासन में जिस नये ''शिफ्ट'' की बात की गई है, ये ही उसकी झलक हैं। लेकिन झलक ही हैं, अभी पूरी फिल्‍म बाकी है। ये झलक ही यह बताने में सक्षम हैं कि इस 'शिफ्ट'' के पहले शिकार मजदूर हैं और कोई नहीं।  इसके लिए बड़ी चालाकी से सरकार ने यह तर्क प्रणाली चला रखी है कि श्रम कानूनों को लचीला करके ही पूँजी निवेश बढ़ाया जा सकता है और रोजगार का सृजन किया जा सकता है। तीन दशकों के दौरान बनी सभी सरकारों ने यही बात कही है और इसी दिशा में कदम भी बढ़ाए हैं। पर वास्तविकता कुछ और है। जाँच से ठीक इसके विपरीत दास्तान पेश होती है। पिछले तीन दशकों के दौरान रोजगार सृजन की वृद्धि दर न के ही बराबर रही है। 2000-05 के दौरान 2.7 प्रतिशत से घटकर रोजगार वृद्धि दर 2005-10 के दौरान मात्र 0.7 प्रतिशत ही रह गयी है। आज की स्थिति में यह और घटी है।
                दरअसल मोदी सरकार कॉरपोरेट मुनाफे के लिए जिस रास्ते पर आगे बढ़ रही है वह ठेका मजदूरों की तबाही को और भी बढायेगा। इसलिए आज जरूरत है ठेका मजदूरों के एक बड़े संगठित राजनीतिक आंदोलन की जो इन श्रमिकों के नियमितीकरण करने पर केन्द्रित हो और श्रम कानूनों पर किए जा रहे इन हमलों का डट कर मुकाबला कर सके। लेकिन इसके लिए यह जरूरी है कि यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि वर्तमान निजाम की दिशा क्या है और इसकी मंजिल कहाँ है। इसकी मंशा देश के मजदूर वर्ग को गुलाम बनाने की मंशा है और साथ ही तमाम मजदूर वर्गीय, प्रगतिशील, जनवादी और क्रांतिकारी समूहों तथा वैज्ञानिक और शोषणविहीन समाज की सोच रखने वाले बौद्धिक तबकों, रंगकर्मियों, साहित्यकारों, लेखकों, कवियों, नाटककारों, फिल्मकारें, प्रोफेसरों और बुद्धिजीवियों की आवाज को (हिंदू) राष्ट्रवाद के नाम पर हलक के नीचे ही दबा देने की मंशा है। बड़ी पूँजी की निरंकुश और खुली तानाशाही कायम करना, सतत गतिमान मानव सभ्यता को रोकने की चेष्‍टा करना, सभी क्षेत्रों में मानवजाति की महान उपलब्यियों को पलट देना और खासकर मजदूर-मेहनतकश वर्ग को मध्ययुगीन बर्बरता और गुलामी की दोजख में धकेल देना यही आज के बड़े पूँजीपति वर्ग और उसकी सरकारों का मुख्य एजेंडा है। प्रश्न है, मजदूर वर्ग क्या करे?
                इस संदर्भ में जो बात सबसे पहले दिमाग में आती है वह यह है कि सिर्फ समस्‍त मजदूर-मेहनतकश वर्ग की क्रांतिकारी पहलकदमी ही इस स्थिति को पलट सकती है। आज अगर मेहनतकश अवाम पर सरकार हमले कर रही है, तो यह पूरे समाज पर, समाज के अन्य दूसरे जनवादी और प्रगतिशील तबकों को कुचले बिना यह संभव नहीं है। इसका उल्टा भी उतना ही सही है। यानि, मजदूर वर्ग के अधिकारों को और स्‍वयं मजदूर वर्ग को कुचले बिना  पूरे समाज पर भी हमला नहीं कर सकता है। इसीलिए हम देख रहे हैं कि पूरी मजदूरपक्षीय, न्यायसंगत और प्रगतिशील जमातों पर बंदिश लगाने की सरकार की चेष्टा है, तो साथ में मजदूर वर्ग पर भी हमला तेज हो रहा है और हुआ है। इसके केंद्र में है संघर्ष करने और अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक। इसके लिए धर्म और अंधराष्ट्रवाद के आधार पर ध्रुवीकरण किया जा रहा है। हम जानते हैं धर्म और अंधराष्ट्रवाद के आधार पर होने वाला ध्रुवीकरण मजदूर वर्ग के लिए काफी चिंता की बात है, क्योंकि यह मजदूर विरोधी प्रतिक्रियावादी विमर्श का माहौल बनाता है। इससे कॉरपोरेट पूँजी के खूँटे से बंधे फासीवादी शक्तियों को बल मिल मिलता है। यह फासिज्म की जीत को पक्का बनाता है। इसके इतर एक बड़ा खतरा यह भी है कि धर्म, फर्जी देशप्रेम और राष्ट्रवाद आदि के काकटेल से तैयार चेतना मेहनतकश जनता तक अपनी पैठ बना सकती है। ऐसे में, मजदूर हितों की लड़ाई तो दूर, इसकी बात करना भी भला कैसे संभव हो पायेगा? ये सारी चीजें हमारे लिए विचारणीय हैं। जाहिर है मजदूर वर्ग के तात्कालिक हितों के लिए संघर्ष का रास्ता भी फासीवादी प्रवृत्तियों के संगठित विरोध से होकर जाता है।
                कुछ लोग कह सकते हैं कि मजदूर-मेहनतकश वर्ग आज जिस राजनीतिक प्रशिक्षण और अज्ञानता के अभाव में पड़ा है उससे निकलने का रास्ता आखिर क्या है? क्‍या यह संभव है कि इस हालात में पड़ा मजदूर वर्ग फासीवाद का विरोध कर सकता है? ऐसे साथी अक्‍सरहाँ यह तर्क देते हैं कि पहले मजदूरों को आर्थिक मांगों पर संगठित तो किया जाए। फिर आगे देखेंगे कि उन्‍हें फासीवाद के विरूद्ध किस तरह प्रशिक्षित किया जाए। लेकिन हमारा सवाल है कि क्या महज तात्कालिक हितों वाले आंदोलनों से इस राजनीतिक प्रशिक्षण के अभाव और अज्ञानता के हालात से हम मजदूर वर्ग को बाहर निकाल सकते हैं? क्‍या यह संभव है? हम किसी भी छोर से इसे पकड़ कर देखें, फासीवाद विरोधी कार्यभार और मजदूर वर्ग के तात्कालिक आर्थिक कार्यभार पूरी तरह आपस में गूंथे हुए हैं। फासीवादी प्रवृतित्तयों के खिलाफ संघर्ष न सिर्फ मजदूर वर्ग के आर्थिक कार्यभार की जीत की शर्तों में से एक है, बल्कि इसे छोड़कर आज मजदूर वर्ग के दूरगामी हितों की बात सोंची भी नहीं जा सकती है। फन उठाये पूर्ण विजय के लिए हर क्षेत्र में साजिश में लिप्त फासीवादी शक्तियों को परास्त करना आज इतना जरूरी है कि इस कार्यभार को छोड़कर मजदूर वर्ग अपने वर्तमान वजूद को भी नहीं बचा के रख सकेगा यह निश्चित है।

अतिआत्‍मरक्षावाद  से प्रतिरक्षा और फिर प्रतिहमला की ओर  

 उपरोक्‍त चर्चा के साथ यह प्रश्‍न स्‍वाभाविक रूप से उठता है कि फासीवाद को परास्‍त करने की कौन से रणनीति मजदूर वर्ग को अख्तियार करनी चाहिए? क्‍या हमारे पास इसके कुछ अंतरराष्‍ट्रीय अुनभव हैं? आइये, इन मुद्दों पर हम खुलकर बात करें।
                सबसे पहले इस पर विचार करने की जरूरत है कि भारत में संघी फासीवाद के रास्‍ते की वे अड़चने क्‍या हैं जिनका वे आज सामना कर रहे हैं। हम पाते हैं कि मौजूदा परिस्थिति में फासीवादियों के रास्ते की एक बड़ी अड़चन अगर कोई है तो मोदी सरकार स्वयं है। मोदी ने जनता से बड़े-बड़े वायदे किये थे। चुटकी बजाते अच्‍छे दिन लाने और सभी के खातों में 15-15 लाख रूपये जमा कराने के वायदे आज सरकार के गले की हड्डी बन गये हैं। मोदी सरकार जनता को दिखाए सपनों का दशांश भी पूरा करने की स्थिति में नहीं है और बहुत तेजी से जनता के बीच उसकी पोल पट्टी खुलती जा रही है। यह इनकी सबसे बड़ी अड़चन है। भारत की सामाजिक बनावट भी ऐसी है जिसमें इन शक्तियों को दलित जातियों के बीच अपनी  विचारधारा की पैठ बनाने में दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है। इसके खुले व पारंपरिक समर्थक उच्च जाति और वर्ण के हैं। ये दलितों के प्रति अपनी घृणा को बहुत दिनों तक छुपा कर नहीं रख सकते। मौका मिलते ही ये दलितों पर पुराने वर्चस्व के लिए उत्पीड़न का सहारा लेते हैं। यही नहीं, संघी के फासीवाद के प्रतीकों के निशाने पर महज मुसलिम और क्रिश्चियन ही नहीं दलित, आदिवासी और पिछड़े भी आते हैं। यह सब मिलकर एक बड़ी बाधा खड़ा करते हैं। इसका प्रभाव यह पड़ता है कि यह सरकार फासिस्ट प्रचार के प्रति लोगों का आकर्षण बनाए रखने में नाकाम हो रही है।  हम पाते हैं कि यह सरकार विकास, भ्रष्टाचार व कालाधन और रोजगार जैसे मोर्चे पर "कुछ न कुछ" करते दिखना चाहती है और इसके सारे छद्म प्रयास इसी के लिए हैं। अंतत: ये राष्‍ट्रवाद का सहारा ले रहे हैं। यह इनके लिए ज्‍यादा मुफीद प्रतीत हो रहा है।
                लेकिन उपरोक्‍त बाधाओं के बावजूद यह कह देना कि भारत में फासीवादी प्र‍वृतित्‍यों के और अधिक उत्कर्ष और फासीवाद के विजय का कोई खतरा मौजूद नहीं है गलत होगा। फासीवाद की मूल वजह आज का संकटग्रस्त और मुत्युशैया पर पड़ा विश्व पूँजीवाद है जो निस्संदेह न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में तरह-तरह की नव फासीवादी शक्तियों और आन्दोलनों के उभार की एक आम प्रवृत्ति को जन्म दे रहा है। नव उदारवाद अपने आप में आर्थिक फासीवाद का एक रूप है जिसके समकक्ष एक राजनीतिक फासीवाद का जन्म स्वाभाविक है। नरेंद्र मोदी के नेत़ृत्व में भारतीय फासीवादी उभार का यह स्वरूप इसी वैश्विक परिदृश्य का एक अंश या सहउत्‍पाद है।
                साथियों, इसी के साथ 21वीं सदी का फासीवाद हू-बहू बीसवीं शताब्दी के तीसरे-चौथे दशक के फासीवाद का दुहराव कदापि नहीं हो सकता है। ऐसा सोंचने वाले लोग जब समानता नहीं देखते हैं, तो फिर वे फासीवाद के सत्‍तासीन होने के तथ्‍य से ही इनकार कर देते हैं। जो स्‍पष्‍ट है उसे भी नहीं देख पाते। आज की परिस्थितियाँ उस समय की परिस्थिति‍यों से इतनी अधिक भि‍न्‍न हैं कि आज के फासीवादी उभार और उनके सत्‍तासीन होने के अर्थ और बाह्य प्रभावों में काफी कुछ भिन्‍नता मिलेगी जो कि स्‍वाभाविक है। आज जो परिस्थिति‍ है उसमें फासीवादी एकदम से संसद को भंग कर देंगे और एक झटके में जनवाद को कुचल देंगे, यह न तो आवश्‍यक है और न ही संभव। न ही वे तुरंत किसी देश से युद्ध की घोषणा ही कर दे की स्थिति में हैं। हम ऊपर सीमित तौर पर यह बता चुके हैं कि ऐसा क्‍यों है। यह कई तरह की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यहाँ हम दिमित्रोव द्वारा 1935 में पेश रिपोर्ट को देख सकते हैं जो एक साथ कई भ्रमों को दूर कर देता है। वे लिखते हैं - '' फासिज्म का विकास तथा स्वयं फासिस्ट तानाशाही हर देश विशेष की ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों और राष्ट्रीय विलक्षणताओं तथा उसकी अंतरराष्ट्रीय स्थिति के अनुसार विभिन्न देशों में अलग-अलग रूप धारण करती है। कुछ देशों में, खासतौर पर उनमें जहाँ फासिज्म के पास व्यापक जनाधार नहीं है, तथा जहाँ स्वयं पूँजीपति वर्ग के खेमे के भीतर विभिन्न समूहों के बीच संघर्ष अधिक उग्र है, फासिज्म फौरन संसद को समाप्त करने का साहस नहीं करता, बल्कि अन्य पूँजीवादी पार्टियों, साथ ही सामाजिक जनवादी  पार्टियों को किंचित वैधता बनाये रखने देता है। अन्य देशों में, जहाँ शासक पूंजीपति वर्ग को शीघ्र ही क्रांति का विस्फोट हो जाने का डर रहता है, फासिज्म या तो फौरन ही सारी प्रतिद्वंद्वी पार्टियों और समूहों के खिलाफ आतंकशाही और उसका उत्पीड़न तेज कर के अपना निरंकुश राजनीतिक एकाधिकार कायम कर लेता है। जब फासिज्म की स्थिति खासतौर पर संगीन होती है, तो अपना आधार विस्तृत करने की कोशिश में, और अपने वर्ग चरित्र को बदले बगैर संसदवाद के भौंड़े दिखावे के साथ खुली आतंकवादी तानाशाही को संयुक्त करने में, यह चीज फासिज्म के आड़े नहीं आती।''
                बीसवीं सदी का फासीवाद जिस तरह के पूँजीवादी संकट की ज़मीन से पैदा हुआ था वह आवर्ती पूँजीवादी संकट था जो उस समय तक की सबसे बड़ी मन्दी या महामंदी का कारण बना था। आज की परिस्थिति आवर्ती क्रम में आने वाले पूँजीवादी संकट से कहीं आगे निकल चुकी है। आज की लाक्षणिकता यह है कि विश्वपूँजीवाद लगातार संकट में रह रहा है। वह दीर्घकालिक मन्दी के दौर से गुज़र रहा है। जिस तरह उबड़-खाबड़ ढलान में थोड़े बहुत ऊँचे टीले होते हैं, उसी तरह विश्व अर्थव्यवस्था दीर्घकालिक और सर्वजनीन संकट व मंदी की जिस अनवरत ढलान पर है उसमें यदा-कदा होने वाली ग्रोथ रेट में वृद्धि महज कुछ ऊँचे टीले भर हैं और मूल रूप से ये ऊभार अर्थव्यवस्था की अनवरत ढलान के हिस्से मात्र हैं। इसे 'टर्मिनल डिज़ीज़' भी कहा जा रहा है। ऐसे काल में बुर्जुआ जनवाद और नग्न धुर-दक्षिणपंथी बुर्जुआ तानाशाही (फासीवाद) के बीच अंतर समाप्तप्राय हो गया है जिसका अभिप्राय यह है कि आज का फासीवाद बुर्जुआ जनवाद के निकायों और उसकी संस्थाओं का उपयोग करके ही आगे बढ़ रहा है और बढ़ेगा, जब तक कि परिस्थितियाँ इसके पूरी तरह अनुकूल नहीं हो जाती हैं। आज हम देख सकते हैं कि वह बुर्जुआ जनवाद को उसके अंदर से ही समाप्त कर रहा है, उसकी जमीन व आत्मा को छीज रहा है, उसे खोखला और निस्सार बना रहा है। हम पाते हैं कि उन्नत ही नहीं पिछड़े पूँजीवादी देशों तक में फासीवादी शक्तियों, संगठनों और आन्दोलनों के जन्मने और फलने-फूलने लायक उर्वर भूमि आज मौजूद है। जैसा कि पहले गया है अर्थव्यवस्था पर वित्तीय पूँजी का निर्णायक वर्चस्व कायम हो चुका है और दीर्घकालिक आर्थिक संकट के चलते नव-उदारवादी नीतियों को लगातार जनसमुदाय पर लादे रखने की ज़रूरत पैदा हो गई है। ये ही वे चीजें हैं जो नव-फासीवादी उभारों के मुख्य स्रोत और कारक तत्व हैं। भूमंडलीकरण के बाद पैदा हुए मौजूदा वैश्विक संकट की यह स्थिति मौजूदा तौर पर फासीवाद को पूरे ग्लोब पर फैलने की बाध्यता पैदा कर दी है। दरअसल उनके लिए यह बाध्यता भी है और अवसर भी। और यह देशी व विदेशी दोनों तरह की वित्तीय पूँजी की डोर से अर्थात दूसरे शब्दों में साम्राज्यवादी पूँजी और देशी वित्तीय पूँजी दोनों से एक साथ बंधा है। यही कारण है कि जहाँ गत शताब्दी में फासीवादी उभार का मुख्य क्षेत्र विकसित पूँजीवादी विश्व था, वहीं आज के नव फासीवादी उभार के केंद्र साम्राज्यवादी विकसित देशों के अतिरिक्त पिछड़े पूँजीवादी देशों में भी पैदा ले रहे हैं।
                इसे चुनावी हार जीत और समीकरणों के इतर भी देखना चाहिए। 2019 में अगर भाजपा की हार हो जाती है तब भी इन शक्तियों ने समाज में यानि जमीनी तौर पर जो ताकत हासिल कर ली है उसे मजदूर-मेहनतकश वर्ग के क्रांतिकारी हस्तक्षेप के अतिरिक्त किसी और शक्ति से खत्म किया जाना असंभव है। समस्त जनतांत्रिक निकायों का, पुलिस व खुफिया तंत्र का, नौकरशाही आदि का ये जिस तेजी से फासिस्टीकरण कर रहे हैं, आम जन साधारण के बीच ये जिस तरह का जहर फैलाने में सफल हुए हैं, जिस तरह से मजदूरों के बीच भी ये अपनी वैचारिक पैठ बनाने में सफल हुए हैं, जिस तरह से ये पूरे देश में लो इंटेनसिटी वाले फासिस्ट हमले चला रहे हैं, उससे यह तो स्पष्ट हो ही जाना चाहिए कि इसको खत्‍म करने की क्षमता और इच्‍छा किसी अन्य बुर्जुआ दल के पास नहीं है। उल्टे, ये सभी दल किसी न किसी रूप में 'फासिस्ट' चरित्र वाले हैं और वे जमीनी तौर पर हो चुके फासीवादी तत्वों के विस्तार का इसतेमाल करेंगे न कि खात्मा, खासकर जब वे सत्ता में होंगे। फासिज्म के समर्थक बड़े पूँजीपतियों की दूकानें इन सभी पार्टियों और दलों में सजी हैं हम यह जानते हैं। जनवाद के मूल्य आज जितने अधिक कुचले जायेंगे, उसका उतना ही फायदा अन्य बुर्जुआ पार्टियाँ उठायेंगी जब वे सत्तासीन होंगी। 1947 के बाद कांग्रेस ने आ.एस.एस. को खाद-पानी देने का काम कभी बंद नहीं किया। आज सपा और बसपा जैसी पार्टियों ने भी भाजपा के राष्ट्रवाद को किसी न किसी तरह आगे बढ़ाने का काम ही किया है।
                जेएनयू प्रकरण की बात करें, तो हम कह सकते हैं कि इसने हमारे लिए खुलकर राष्ट्रवाद और फासीवाद पर बहस करने तथा इसके विरूद्ध वैचारिक प्रतिहमला करने, आरएसएस की पोल खोलने और सारे मसलों पर जनता के बीच वैचारिक व राजनीतिक बहस ले जाने का अवसर मुहैया कराया। हर नाजूक मौके पर केंद्र की फासिस्ट सरकार को लोगों ने घेरा यह सही है। भूमि अधिग्रहण विधेयक पर सरकार को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया गया। गारमेंट मजदूरों ने भी पी.एफ. के मसले पर नये मजदूर विरोधी कानून को रौल बैक करने के लिए सरकार को मजबूर कर दिया। हजारों-लाखों मजदूरों ने देश के पैमाने पर भी मोदी सरकार की मुखालफत की है। आगे भी वे ऐसा ही करेंगे। लेकिन इससे मात्र इतना ही स्पष्ट होता है कि फासीवादी मुहिम का हमारी जनता मुँहतोड़ जवाब देना चाहती है। लेकिन ये प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ हमारी कोशिशों से कहीं आगे-आगे चल रही हैं और हम अभी तक इनका मुकाबला करने की बात तो दूर मुकम्मल तौर पर जवाबी कार्रवाई करने लायक रणनीति व कार्यनीति बनाने में भी सक्षम नहीं हो पाये हैं। जनता के बीच मोहभंग के बावजूद हम फासिस्ट ताकतों के समक्ष अभी तक रक्षात्मक संघर्ष में ही हैं। इस रक्षात्मक संघर्ष में भी हम बहुत पीछे हैं। विभिन्न मौकों पर (जैसे मुजफ्फरनगर दंगे, दादरी कांड, जेएनयू, हैदरावाद, एफ.टी.आई.आई. आदि प्रकरण के दौरान) हुए जबर्दस्त प्रतिकारों की गर्मी कुछ दिनों के बाद शांत हो जाती है। तमाम संभावनाओं के बावजूद इन उभारों को हम कुछ दिनों बाद दम तोड़ते पाते हैं। आखिर क्यों? क्या मजदूर वर्ग का आगे आना और इन ताकतों को संजोते हुए इनका नेतृत्व न कर पाना इसका एक बड़ा कारण नहीं है? हम मानते हैं कि आज मजदूर वर्ग को फासीवाद के विरूद्ध उभर रही तमाम ताकतों को और फासीवाद विरोधी जनमानस को भी एकत्रित करके अपनी ताकत बढ़ानी चाहिए। लेकिन इसमें सबसे बड़ी बाधा है हमारे बीच यानि मजदूरपक्षीय ताकतों के बीच सच्ची रणनीतिक एकता का अभाव, एकताबद्ध होने की सच्ची दूरगामी भावना का अभाव। एक मुकम्मल फासीवाद विरोधी साझा कार्यक्रम (कार्यनीति व रणनीति) का न होना एक कड़वी सच्चाई है जिसका सभी छिटपुट हो रहे छोटे-बड़े संघषों को एकजुट करने के काम पर बुरा असर पड़ा है। यह भी सच है कि इस वृहत्तर साझा अभियान की नींव मजदूरवर्गीय साझा रणनीतिक एकता को केंद्र में रखकर ही डाली जा सकती है, किसी और तरीके से नहीं। उच्च शिक्षण संस्थानों में फासीवादियों का जमकर विरोध किया गया, लेकिन मौजूदा स्थिति को पलटने या इसे आगे बढ़ने से रोक देने की दृष्टि से ये सारे आंदोलन अपर्याप्त ही साबित हुए। यह दर्शाता है कि अकेले न तो छात्र या नौजवान और न ही कोई बौद्धिक तबका इसका प्रतिकार कर सकता है। ठीक यहीं पर आर्थिक लड़ाई के साथ-साथ फासीवादियों के विरूद्ध मोर्चाबद्ध लड़ाई में उतरने की मजदूर वर्ग की जरूरत रेखांकित होती है। हमारा रक्षात्मक से निकलकर हमलावर स्थिति में आना हमारे इस तरह मोर्चाबद्ध होने या नहीं होने पर ही निर्भर करता है।
                अगर भारत के मौजूदा दौर में फासीवाद और उससे निपटने व लडने के बारे में हमारी समझ में गहरा मतभेद है तो इसे भी स्वस्थ बहस के जरिये दूर किया जाना चाहिए। हमारी नजर में ये हमारे मतभेद ही हैं जो सांगठिनिक आधार की हमारी कमजोरियों को और भी विषम बना दे रही है और उसको तोड़ने की प्रेरणा व चेतना प्रदान करने के बदले उसमें जकड़े रहने की मजबूरी और आलस्यपूर्ण रणनीति से बाँध दे रही है। इस महत्वपूर्ण मौके पर हम समस्त मजदूर वर्ग से आगे बढ़कर इससे उबरने में मदद देने का आह्वान करना चाहते हैं ताकि एक दूसरे से मेलजोल बढ़ सके और एकता की भावना को मजबूत होने का अवसर प्राप्त हो सके। हम अपनी तरफ से आपसी मतभेदों को दूर करने की अपनी सच्ची इच्छा और मजबूत भावना का इजहार करते हैं।
                दोस्तों, हम यह भी कहना चाहते हैं कि फासीवाद की विजय और उसकी अनवरत बढ़त क्रांतिकारी विस्फोटों की जमीन तैयार कर रही है, हलचल और उथल-पथल पैदा कर रही है। जनता के बीच काफी मात्रा में विक्षोभ पैदा हो रहा है। आंदोलन की एक नई लहर पैदा हो रही है। हमें इसका सही उपयोग करना होगा। फासीवादी प्रवृतियाँ जितनी मजबूत बनती जा रही है, इसका जनविरोधी स्‍वरूप उतना ही अधिक अनावृत हो रहा है। इससे अचेतन रूप से ही सही लेकिन फासिज्म से पूर्ण मुक्ति पाने की भावना और चाहत लोगों की जेहन में उतनी ही तेजी से पनप रही है। हमारे लिये यह एक संकेत है कि हमें अपनी दोगुनी ताकत से फासीवादियों के खिलाफ मोर्चाबद्ध होना चाहिए। विश्व में हुए फासीवाद विरोधी संघर्षों के ठोस सबक हमारे काम आएंगे और आने चाहिए।
                समग्र स्थिति पर नजर डालें, तो हम यह भी पाते हैं कि पूँजीवाद, जिसके अत्‍यधिक सड़ने का एक परिणाम यह फासीवाद है, और जो इस अर्थ में फासीवाद की जननी है, का आधार भी आज पूरी दुनिया में संकुचित हुआ है। द्वितीय विश्वयुद्ध के लगभग 75 साल बाद इस बीच पूरे विश्‍व में हुए तेज पूँजीवादी विकास से पूँजीवाद का आधार अंतत: कमजोर ही हुआ है जबकि मजदूर वर्ग की संख्या में हुई काफी वृद्धि से सामाजिक प्रगति की आधारभूत ताकतों में काफी इजाफा हुआ है। इसी के साथ, छोटे तथा प्रत्‍यक्ष उत्पादकों और छोटी तथा निम्‍न-मंझोली पूँजियों का स्वत्वहरण तीव्र हुआ है जिससे आज निजी संपत्ति के तथाकथित नैसर्गिक अधिकार और भावना के ऐतिहासिक औचित्य पर भी अधिकाधिक कुठाराघात हो रहा है और इसीलिए इसके निषेध का औचित्य भी लोगों की जेहन में लगातार बैठता जा रहा है। दूसरे शब्दों में, समाज में बढ़ते पूँजीवादी ध्रुवीकरण से भावी वर्ग-संघर्ष के लिए मैदान बिल्कुल साफ और विस्तृत हो चुका है। शक्ति संतुलन की यह स्थिति फासीवाद के समूल नाश और उसकी पूर्ण पराजय को सुनिश्चित बना सकती है, बनाती है। अगर हम हर मोर्चे पर लड़ने और जीतने की मुकम्मल तैयारी करें, जिसकी पहली शर्त है कि मजदूरों-मेहनतकशों और गरीब व निम्‍न-मध्यम किसानों की इसके विरूद्ध ज्यादा से ज्यादा लामबंदी हो, तो फासीवाद को परास्त करना और पूरी तरह इसे नष्ट करना कतई असंभव बात नहीं है।
                साथियों, हम इसे बिल्‍कूल दूसरे छोर से पकड़ कर आगे बढ़ें, तो एक बड़ा डरावना चित्र उभरता है। अगर मान लें कि कल को फासीवाद पूर्णरूपेण विजयी हो जाता है और बुर्जुआ जनवाद को पूरी तरह कुचल देता है। इसके क्या परिणाम होंगे? यही कि हमारे सारे जनतांत्रिक अधिकार कुचल दिये जाएंगे। मजदूर वर्ग का हाल आज की तुलना कितना बुरा होगा हम समझ सकते हैं। तब क्‍या हम मजदूर संगठन, चाहे वे जितने भी सच्‍चे और क्रांतिकारी हों, तात्‍कालिक माँगों को उठाने की स्थिति में रह सकेंगे। फासिज्‍म को पीछे धकेलने का काम तब कितना कठिन हो जाएगा हम यह समझ सकते हैं। हमारा यानि प्रगतिशील क्रांतिकारी शक्तियों का वजूद भी कितना बचेगा कह नहीं सकते। तब हमें काफी पीछे हटते हुए और बहुत कुछ गंवाकर इसके विरूद्ध तैयारी करनी पड़ेगी। हमें मजदूर वर्ग के दूरगामी और तात्कालिक सभी लक्ष्यों को कुछ समय के लिए ही सही लेकिन स्‍थगित कर एक वृहत्तर पोपुलर मोर्चे के तहत पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से के नेतृत्व में चलते हुए फासीवाद का विरोध करना पड़ेगा। यह सच में डरावना है।
                लेकिन आज, जबकि फासीवादी अभी पूर्ण रूप से विजयी नहीं हुए हैं, हम इसे मजदूरों-मेहनतकशों व गरीब किसानों के विशाल संश्रय के आधार पर बिना पूँजीपति वर्ग के इसे जमीनी लडा़ई में परास्त कर सकते हैं, बशर्ते हम तमाम मजदूर वर्गीय ताकतें इसके विरूद्ध एक ऐसे मोर्चे का निमार्ण करने के लिए राज़ी हों, जो मजदूरों-मेहनतकशों की तमाम तरह की लड़ाईयों को इससे संयुक्त करते हुए तमाम प्रगतिशील ताकतों को सफलतापूर्वक एक सशक्त और एकताबद्ध लामबंदी के लिए आह्वान कर सके। तब हम न सिर्फ इसके विजय अभियान को रोक सकते हैं, अपितु मजदूर-किसानों का यह विजयी संश्रय बिना रूके अपनी अगली मंजिल यानी फासीवाद को जन्म देने वाली तमाम अन्य शक्तियों को भी जड़मूल से उखाड़ फेंक सकते हैं, यानि हम क्रांति की वह मंजिल भी फतह कर सकते हैं जो अन्यथा हमसे काफी दूर प्रतीत होती है। इस तरह हम फासीवाद विरोधी क्रांतिकारी कार्रवाइयों को मजदूर वर्गीय क्रांति के दूरगामी कार्यभार के मातहत ला सकते हैं, उससे संयुक्त कर सकते हैं और इस तरह दूसरे को आगे बढ़ा सकते हैं। 
                लेकिन हम दुहरा देना चाहते हैं कि अगर हम फासीवाद के विरूद्ध मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी रणनीति के प्रश्न पर आज आलस्यपूर्ण नीति अपनाते हैं और इतने के बावजूद व्‍यवहार में इसका कोई वास्तविक खतरा नहीं देखते हैं, तो इसका अर्थ यही हो सकता है कि किसी भी तरह के मोर्चे की भी कोई जरूरत नहीं है। यही मानसिकता या कहिए यही परिस्थिति आज हावी है। जाहिर है यह स्थिति मजदूर वर्ग के आज के राजनीतिक कार्यभार को नेपथ्‍य में धकेल देती रही है, इसे भावी प्रश्‍न के रूप में पेश कर रही है। महज आर्थिक माँगों तक सीमित रहने वाला तात्‍कालिक मोर्चा ही आज मजदूर संगठनों के एजेंडे पर है, जो अपने अंतर्य में अतिरक्षात्‍मक तो है ही बुरी तरह असफलता की संभावनाओं से भी ग्रस्‍त है। हम कहना चाहते हैं कि अंतिम परिणाम के तौर पर अपने सीमित अर्थ में भी यह फलदायी नहीं होगा। क्‍योंकि महज आर्थिक माँगों तक सीमित यह मोर्चा जमीनी स्‍तर पर टिकाऊ ही नहीं होगा। मजदूर वर्ग पर जिस तरह के निरंकुश हमले हो रहे हैं, उसमें मजदूर वर्ग का कोई भी मोर्चा हर हाल में निरंकुशता के विरोध के प्रति समर्पित हुए बिना जमीन पर उतर ही नहीं सकेगा। जमीन पर उतरते ही इसे जिस तरह की परिस्थिति का सामना करना पड़ेगा, उससे इसे, दुहरा दें कि अगर यह सच में जमीन पर उतरेगा, फासीवाद विरोधी रूख अख्तियार करना ही होगा।
                आखिर मजदूर वर्ग पर हो रहा आज का हमला आम हमला नहीं है। अगर हमला ज्यादा बड़ा है, निरंकुश, फासिस्‍ट, खुली पूँजीवादी तानाशाही के आवेग से भरा है, अगर इन हमलों की हरेक खेप के साथ उग्र राष्ट्रवाद और नकली देशभक्ति से युक्त हमले भी शामिल हैं, जब यूनियन बनाने और स्वतंत्र अभिव्यकित के अधिकार खतरे में हैं, आर्थिक हमलों की शक्ल में हमला अगर मजदूर वर्ग के समस्‍त जनवाद और उसके वजूद पर है, तो मोर्चा इन पहलुओं से इतर खालिस आर्थिक माँगों तक कैसे सीमित रह सकता है? वर्तमान दौर में फासीवाद की अनुगूंज उग्रतम रूप में नहीं है, लेकिन यह सच है कि लेकिन उसकी आहट चप्पे-चप्पे पर सुनाई दे रही है। आज कोई मजदूर वर्गीय देशव्यापी संयुक्त कार्रवाई का कोई मंच बनता है और वह इन युगीन राजनीतिक कार्यभारों से इतर बनता है तो वह अत्यंत ही सीमित महत्व का होगा और इसलिए इसका भविष्य शुरू से ही प्रश्नों के घेरे में होगा। आर्थिक-तात्‍कालिक मोर्चे के महत्व को हम एकदम से अस्वीकार नहीं रहे हैं, और इसलिए ऐसे किसी प्रयास के साथ बेहतर तालमेल बैठाने की हम  कोशिश भी करेंगे, लेकिन इसका महिमामंडन करना मुश्किल है, खास कर आज के संदर्भ में।
                इसका व्यवहारिक अर्थ क्‍या होगा? यही कि आज के अत्‍यंत खतरनाक हो चले दौर में भी हम मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी मोर्चे को अभी हाथ में लेने से इनकार करते हैं। यानि, हम इस काम को एकमात्र तभी हाथ में लेंगे जब पूर्ण रूप से विजयी फासीवाद हमारे समक्ष आपादमस्‍तक प्रकट हो जाता है। तब तक हम इसके और खूँखार होने का और पूरे समाज के इसके आगे नतमस्‍तक हो जाने का इंतजार करेंगे। आज की तुलना में वह दिन कितना भयानक होगा हमें यह समझना चाहिए। जब वह दिन आयेगा उसके पूर्व ही क्रांतिकारी, जनवादी व प्रगतिशील शक्तियों के एक बड़े हिस्से को फासीवाद नष्ट कर चुका रहेगा। उसकी जकड़ में समाज का अधिकांश क्षेत्र आ चुका होगा और क्रांतिकारी पहलकदमी हमारे हाथों से पूरी तरह निकल चुकी होगी।
                दरअसल आज हमें एक ऐसी पहल की जरूरत है जो हमारी क्रांतिकारी पहलकदमी को खोले, हमें भावी चुनौतियों के लिए हमें आज ही तैयार करे, हमारे मौजूदा दौर के क्रांतिकारी कार्यभार को हमारे दूरगामी क्रांतिकारी कार्यभार से जोड़े और उसे पर्याप्त ठोस संदर्भ से लैस करते हुए तमाम सहयोगी शक्तियों की लामबंदी करने में मदद दे और एक पहल से कई और दूसरे बड़े कार्यभारों को पूरा करने का सुयोग प्रदान करे। हमें मौजूदा कार्यभार के प्रति उदासीन, आलस्यपूर्ण और निष्क्रिय रवैया अपनाने और बुर्जुआ वर्ग की पिछलग्गू और क्रांतिकारी दृष्टि से पंगु रणनीति की तरफ ले जाने वाली, हमारे हाथ बांधने वाली और भावी खतरों के प्रति हमें अचेत बनाये रखने वाली नीति का तुरंत परित्याग कर देना चाहिए। दिमित्रोव 1935 में पेश अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं - ''पूँजीवादी देशों के लाखों मजदूर और मेहनतकश यह सवाल पूछ रहे हैं कि फासिज्म को सत्तारूढ़ होने से कैसे रोका जा सकता है और सत्ता प्राप्त कर लेने के बाद फासिज्म को कैसे उखाड़ फेंका जा सकता है, इसके जवाब में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल कहता है कि जो चीज सबसे पहले की जानी चाहिए, जिस चीज के साथ शुरूआत होनी चाहिए  वह यह है कि एक संयुक्त मोर्चा बनाया जाए, हर कारखाने में, हर जिले में, हर इलाके में, हर देश में, संपूर्ण विश्व में मजदूरों की कार्रवाई की एकता कायम की जाए। राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय पैमाने पर सर्वहारा की कार्रवाई की एकता ऐसा शक्तिशाली हथियार है जो मजदूर वर्ग को फासिज्म के खिलाफ, वर्ग शत्रु के खिलाफ न सिर्फ सफल आत्मरक्षा करने, बल्कि सफल जवाबी हमला करने में भी सक्षम बनाती है। ... इसके भी पहले कि मजदूर वर्ग का बहुसंख्यक भाग पूँजीवाद को उखाड़ फेंकने और सर्वहारा क्रांति को विजयी बनाने के लिए संघर्ष में एकताबद्ध हो, यह जरूरी है कि मजदूर वर्ग के सभी हिस्सों की, चाहे वो जिस पार्टी या संगठन के हों, कार्रवाई की एकता कायम हो। ..... कम्युनिस्ट इंटरनेशल कार्रवाई की एकता के लिए एक के अलावा और कोई शर्त नहीं रखता और वह भी सभी मजदूरों को स्वीकार्य एक प्रारंभिक र्शत है अर्थात यह कि कार्रवाई की एकता फासिज्म के खिलाफ, पूँजी के हमले के खिलाफ, वर्ग शत्रु के खिलाफ निर्दिष्ट हो। यही हमारी शर्त है।''   

अंत में ......
                साथियों, अगर सर उठा रहे इन फासीवादी ताकतों को हमने परास्त नहीं किया तो हमें एक बड़े प्रतिक्रियावादी ध्वंस और तबाही को झेलने के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा। आज जो काले खतरनाक बादल मंडरा रहे हैं उन्हें दूर करने के लिए समस्त मजदूर-मेहनतकश वर्ग को आगे आने का आह्वान करना समय की सबसे अहम माँग है। एक नयी शोषणिवहीन, सुंदर व सुखमय दुनिया बनाने के मजदूर वर्ग के सपनों का रास्ता, भावी मजदूर आंदोलनों की जीत का रास्ता इन शक्तियों के कब्र के रास्ते से होकर ही जाती है। इसलिए आइए, हम यथार्थ को पहचानें और मजदूर वर्गीय संयुक्त क्रांतिकारी रणनीति व कार्यनीति बनाने के लिए आगे बढ़ने का साहस करें। एकमात्र तभी मजदूर वर्ग की सही लड़ाई का आगाज हो सकेगा, तभी मजदूर वर्ग के ऊपर मंडरा रहे भावी महाविध्वंस से हम उसे बचा सकेंगे, तभी हम मजदूर वर्ग के आर्थिक मार्चे की लड़ाई की राजनीतिक जरूरतें भी पूरी कर सकेंगे। उम्मीद है हम सब न्यायसंगत, बुद्धिसम्मत और क्रांतिसम्मत निर्णय लेंगे ताकि मजदूर वर्ग पर जारी निर्मम हमलों का संयुक्‍त और माकूल प्रतिकार हो सके। हम उम्‍मीद करते हैं कि हम मजदूर वर्ग को परिस्थितियों का दास बने रहने के लिए नहीं, अपितु इनका स्‍वामी बनने का आह्वान करेंगे। आज की परिस्थिति में यह तभी संभव है जब हम इसके लिए किसी संयुक्‍त मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी मोर्चे के लिए देशव्‍यापी पहल करेंगे। उम्‍मीद है हम सभी इस उद्देश्‍य की पूर्ति के लिए जल्‍द ही एकताबद्ध होंगे।    


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