बंगाल
विधान सभा चुनाव में
सच्चे
कम्युनिस्टों के कार्यभार
बंगाल में विधान सभा चुनाव होने वाले हैं। आम जनता के समक्ष विकल्प क्या हैं? जनता क्या करे? वह क्या सोंचती है, क्या चाहती है? क्या महज सरकार बदलने से अपने जीवन में परिवर्तन होने की उम्मीद वह अब भी करती है? इन प्रश्नों का स्पष्ट जवाब कोई नहीं दे सकता है, लेकिन यह सच है कि ऐसे प्रश्न आज पूरे बंगाल में उठ रहे हैं और स्वयंस्फूर्त तौर से (अपने आप) उठ रहे हैं। जनता गहरे अंतर्द्वद्व से गुजर रही है : तृण्मूल को गद्दी से हटाये या बनाये रखे? तृणमूल को बनाये रखे तो क्यों? और इसे हटाये तो किसे लाये? क्या वामफ्रंट को?क्या भाजपा को??
दूसरी
तरफ, समाज में लोगों के बीच व्याप्त भावना का आलम आज यह है कि अमूमन सभी समझते
हैं कि वोट देकर वे एक ऐसी सरकार चुनते हैं जो अगले ही क्षण से उनका दुश्मन बन
बैठती है। वोट पड़ते ही जनतंत्र उनके दरवाजे से जो गायब होता है दुबारा पाँच सालों
के बाद ही वापस आता है। चुनाव खत्म होते ही यह जनतंत्र पूँजीपतियों के महलों का
चौकीदार बन जाता है। चुनाव आते ही नये परिधान पहन वह एक बार फिर से जनता के बीच
चला आता है। 66 सालों से जनतंत्र की यह रस्मअदायगी जारी
है। इसके एक छोर पर व्यापक मेहनतकश जनता है जो गरीबी और कंगाली की मार से रसातल
में धंसती जा रही है, तो दूसरे छोर पर मुट्ठी भर पूँजीपति, जमींदार, ठेकेदार, अफसर
और नेता हैं जो देश की प्राकृतिक और मेहनत से पैदा हुई संपदा पर हाथ साफ कर रहे
हैं। इन्हीं लुटेरों के शिकंजे में आज पूरा समाज चला गया है।
भारत के अन्य राज्यों की तरह बंगाल भी
इस कड़वी सच्चाई का दर्पण है। बंगाल के लोगों ने 'आजादी' के बाद कई बर्षों तक
कांग्रेसी के शासन को देखा है। इमरजेंसी के बाद बने कांग्रेस विरोधी माहौल में
वामफ्रंट को मिली अप्रत्याशित जीत के बाद से लगातार हमने 34 सालों तक वामफ्रंट की
बहुमत वाली सरकार देखी। पिछले पाँच सालों से हम तृणमूल कांग्रेस की सरकार देखते आ
रहे हैं। थोड़े बहुत अंतर को छोड़ दें तो क्या इनमें कोई बुनियादी अंतर दिखता है? पूँजीपतियों, जमींदारों, ठेकेदारों,
नौकरशाहों, नेताओं और दलालों की तिजोरियाँ भरती गईं और आम लोग कंगाल
होते गये। गैरबराबरी की गहरी खाई, बेरोजगारी और भुखमरी की
भयावह मार, पूँजीपतियों, ठेकेदारों, नेताओं और अफसरों की मनमाना लूट, भ्रष्टाचार,
आम लोगों की बद से बदतर होती जिंदगियाँ और आर्थिक तंगी के कारण उजड़ते लोगों की
असीम व्यथा आज के बंगाल की कड़वी सच्चाई है। एक बड़ी आबादी चौतरफा शोषण की मार
से कराह रही है। लोग तेजी से उजड़ते जा रहे हैं और कीड़े-मकोड़ों में तब्दील होते
जा रहे हैं। फिर भी देश में जनतंत्र और राष्ट्रवाद के जश्न में कहीं कोई बाधा न
पड़े इसके लिए इन कड़वी सच्चाईयों पर चर्चा न हो इसकी पुरजोर कोशिश की जा रही है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सच कहने की आजादी के लिए डटे लोगों पर लगातार हमले
हो रहे हैं।
ये
हमले स्वाभाविक हैं। भयानक आर्थिक गैरबराबरी और वर्ग-विभेद की मार का विस्तार
राजनीति और विचारों तक होता है और हुआ है। जैसे-जैसे पूँजीपति और उनके लगुए-भगुए
मजबूत होते गये, वैसे-वैसे जनता के राजनीतिक अधिकारों पर
भी हमले बढ़ते गये। आज तो जनतंत्र नाम की कोई चीज बंगाल में कहीं नहीं दिखती है। न
जाने कितने अरमानों से बंगाल के लोगों ने वामफ्रंट की तानाशाहीपूर्ण माराकाट और
कुशासन से ऊबकर तृणमूल को गद्दी सौंपी थी! लोग न जाने कितनी आशाओं से भरे थे ममता
'दीदी' को लेकर! माँ, माटी और मानुष के नारे पर लोग न्योछावर होते गये। शायद अभी भी कुछ लोग भ्रम पाले हुए
हों, लेकिन सच में क्या कोई फर्क पड़ा है हमारे जीवन में? कहीं
कुछ बदला, सिवाये इसके कि सरकार और अधिक जनविरोधी हो गई?
सिवाये इसके कि जनता के आर्थिक-सामाजिक रूप से उजड़ने की प्रक्रिया
और तेज हो गई? क्या किसी ने सोचा था कि बंगाल में सी.पी.एम
विरोध के नाम पर आम जनता और मजदूरों को अपनी आवाज तक बुलंद करने से रोका जाएगा,
हड़ताल करने से रोका जाएगा? लेकिन हमने देखा कि ऐसा हुआ और
आज भी हो रहा है। यह सनद रहे कि वामफ्रंट सरकार के मुखिया बुद्धदेव भट्टाचार्य भी
हड़ताल पर रोक की बात कह चुके थे। अपने विरोधियों को गैरकानूनी तरीके से कुचलने की
नीति वामफ्रंट से लेकर आज तक जारी है।
बंगाल
में इससे जो निराशा पैदा हुई है या हो रही है और जिस तरह के एक राजनीतिक शून्य की
स्थिति बनी है वह अत्यंत खतरनाक है। इसका फायदा आज पूरे बंगाल में आर.एस.एस और
भाजपा जैसी धुर फासिस्ट ताकतें उठा रही हैं और अपने पैर पसार रही हैं। यह ''कड़वे
करैलों पर नीम के चढ़ने'' की कहावत को चरितार्थ करता है। जैसे भ्रष्ट और लुटेरी
कांग्रेस से परेशान जनता ने झूठे सपने, जुमलों और वायदों के कारोबारी फासिस्टों
के हाथों में देश की गद्दी सौंप दी, वैसे ही अगर बंगाल में 'वाम' और तृणमूल से ऊब
कर फासिस्टों के हाथों में सत्ता सौंप देती है, तो जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त
के शब्दों में यही कहा जाएगा कि 'चरवाहे से परेशान भेड़ों ने एक भेड़िये को अपना
नेता चुन लिया।'
ये
फासिस्ट कौन हैं ? इनका परिचय क्या है? ये वे लोग हैं जो लुभावने लेकिन झूठे वायदे और देशप्रेम व राष्ट्रवाद के
नाम पर लोगों को झांसा देते हैं। इनकी चिकनी-चुपड़ी बातों की तह में जाने से पता
चलता है कि ये अंबानी, अदानी जैसे बड़े लुटेरे पूँजीपतियों
के मुलाजिम हैं। ये देश और राज्यों में पूँजीवादी व संशोधनवादी (नामधारी
कम्युनिस्ट) पार्टियों के लंबे कुशासन और पूँजीवादी शोषण की मार से रोज-ब-रोज उजड़
रहे तथा पूरी तरह निराश-हताश हो चुके लोगों को ''अच्छे दिनों''
का झूठा सपना दिखाकर देश में खुली तानाशाही की स्थापना करने का
मंसूबा पाले बैठे लोग हैं। ये आज तेजी से
बढ़ रहे हैं, क्योंकि अंबानी और अदानी जैसे बड़े पूँजीपति
इन फासिस्टों के प्रचार में अरबों रूपये झोंक रहे हैं। मीडिया को इनके पक्ष में
लगाया गया है। पूँजीवादी लूट-खसोट को उखाड़ फेंकने के संघर्ष से संशोधनवादी
कम्युनिस्ट पार्टियों के पीछे हट जाने और घोर जनविरोधी सरकारों में शामिल हो
पूँजीवाद की द्वितीय पंक्ति की रक्षावाहिनी में परिणत हो जाने से भी इन्हें
जबर्दसत फायदा मिला है। । इनके इस पतन से देश का संगठित मजदूर वर्ग, जिस पर आजादी के पूर्व से ही इन वाम पार्टियों का वर्चस्व रहा है, राजनीतिक और वैचारिक रूप से निहत्था हो गया। तीखे वर्ग आंदोलनों के अभाव
में आम लोग फासिस्टों के वैचारिक-राजनीतिक प्रचार का आसानी से चारा बन गये।
क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन का आंतरिक ठहराव और सड़न का शिकार हो जाना भी इनके
लिए काफी मुफीद रहा। इस हालत में, निराश-हताश और राजनीतिक रूप
से अप्रशिक्षित जनता को एक मुद्दे से दूसरे नये मुद्दे और एक नारे से दूसरे नये
भ्रामक नारे में फंसाये रखना भी अत्यंत आसान होता गया।
आज यह भी देखने लायक है कि वामफ्रंट और
इसकी संशोधनवादी राजनीति आज किस तरह फासिस्टों का खाद-पानी बन रहे हैं। ये संशोधनवादी
पार्टियाँ जिस पूँजीवादी संसदीय सीमा में बंधी हैं वह सीमा आज इनके हमले के समक्ष
नग्न रूप में हम सबके सामने आई है। वे यह तो कह नहीं सकते हैं कि पूँजी की सत्ता
और मौजूद संपत्ति संबंधों को पूरी तरह बदले बिना जनता की बदहाली और उसका शोषण बंद
नहीं होगा चाहे जिस पार्टी की सरकार हो। लिहाजा 34 सालों के बंगाल में इनके कुशासन
को दिखाकर ये फासिस्ट आज कम्युनिज्म और समाजवाद पर दनादन हमले बोल रहे हैं, और ये पूरी तरह निरूत्तर हैं। कम्युनिस्टों पर राष्ट्रद्रोह के गोले दागे
जा रहे हैं। मजदूर वर्गीय अंतरराष्ट्रीयतावाद और भावी सर्वहारा क्रांति तथा
कम्युनिज्म की ऐतिहासिक अपरिहार्यता पर ये आज जिस तरह चुप्पी साधे हुए हैं यह देख
कर आक्रोशित हुए बिना नहीं रहा जा सकता है। आज पूरे देश में इसके चलते फासिस्टों
के लिए मैदान साफ हो चुका है। पूँजीपतियों के शोषण चक्र से तबाह हो रहे लोगों को
पूँजीपति वर्ग का ही सबसे निरंकुश राजनीतिक सेवक अपना चारा बना ले रहा है।
पूँजीवाद और फासीवाद की संशोधनवादी इससे बड़ी सेवा और क्या कर सकते हैं!
सबसे
बड़ी बात यह कि इनकी यह सेवा 'निस्वार्थ' है! ये पूँजीवादी
पार्टियों के नेताओं की तरह इतने अधिक भ्रष्ट नहीं हैं और इनकी साफ-सुथरी छवि है
लोगों के बीच। इसके लिए इन्हें फासीवाद अवार्ड में एक धेला भी देने वाला नहीं है,
न ही इनसे कोई रियायत ही करने वाला है। संशोधनवादी राजनीति के दुष्चक्र में फंसे हजारों
कार्यकर्ताओं को यह समझ लेना चाहिए कि पूँजीवाद के प्रति नर्म रवैया अपनाने से फासीवाद
उन्हें कुचलने में कोई रियायत या लिहाज नहीं करेगा और न ही कम्युनिज्म के पक्ष
में चुप्पी से मजदूर वर्ग, जनता और कम्युनिस्ट कतारों पर फासीवाद का पागलपन भरा
हमला रूकने वाला है। कॉरपोरेट पूँजी के हितों के रास्ते में आने वाली तमाम चीजों
को ये फासिस्ट बिना किसी फर्क के कुचलने की कोशिश करेंगे और कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री
असम में जनता से कहते फिर रहे हैं - 'भाइयों और
बहनों, आप भाजपा की एक बार सरकार बना कर देखिये, हम साठ सालों के विकास की कमी को पाँच सालों में पूरा कर के दिखायेंगे।'
बंगाल में भी ऐसा ही प्रचार हो रहा है। यह सच है कि बंगाल में
आर.एस.एस-भाजपा की सरकार अब तक नहीं बनी, लेकिन केंद्र में
और राज्यों में इनकी सरकार तो हम देख ही रहे हैं। लोकसभा चुनाव में कौन-कौन से
सपने इन्होंने देश को नहीं दिखाये थे? वायदों की झड़ी लगा दी
थी इन्होंने। लेकिन दो बर्षों में ही यह स्पष्ट हो गया कि ये सभी वायदे झूठे थे।
इनके विकास के मंत्र में देशी-विदेशी बड़े पूँजीपतियों और एन.आर.आई. पूँजीपतियों
को मालामाल करने का मंत्र है। लाखों करोड़़ रूपये पूँजीपतियों ने बैंकों के लूट
लिए। बैंकों का दिवाला निकलने वाला है। ऊपर से इन्हें हर साल लाखों करोड़ रूपये की
टैक्स में छूट और सब्सिडी मिल रही है! क्या-क्या तोहफे नहीं दिये जा रहे
पूँजीपतियों को? तमाम कानूनों को इनके मुफीद बनाया जा रहा है
ताकि वे देश की श्रम शक्ति और संपदा को आनंदपूर्वक लूट सकें, धरती से लेकर आकाश तक की हर चीज पर इन जोंकों का कब्जा हो सके। यही
फासिस्टों का गुप्त एजेंडा है जिसे नरेंद्र मोदी अपनी लच्छेदार बातों में छुपाते
हैं।
आज
इन्हें याद भी नहीं है कि इन्होंने युवाओं से, छात्रों
से, किसानों से और मजदूरों से क्या-क्या वायदे किये थे। आज
कांग्रेस से भी बदतर हालात देश में पैदा कर दिये हैं मोदी सरकार ने। आज दो साल भी नहीं
हुए लेकिन इनका गुप्त एजेंडा पूरी तरह देश के सामने है। पूँजीपतियों को फायदा
पहुँचाने वाली भ्रष्ट कांग्रेस की आर्थिक नीतियों को ही यह सरकार तेजी से लागू कर
रही है फासिस्ट तरीके अपनाकर। अब तो नौबत यह आ चुकी है कि देश में बोलने की आजादी
पर ही रोक लग चुकी है। लोग अब सच बोलने से डर रहे हैं कि कहीं फासिस्टों की लंपट
भीड़ उन्हें निशान न बना ले। यह अलग बात है कि लोग खतरा मोल लेकर भी सच बोल रहे
हैं। स्वतंत्र और वैज्ञानिक तरीके से सोचने वाले बुद्धिजीवियों को निशाना बनाया जा
रहा है। प्रोफेसरों और बुद्धिजीवियों पर शामत आई हुई है। उच्च शिक्षण संस्थानों का
बड़े पैमाने पर दमन करने की तैयारी चल रही है। कल्पना कीजिए, क्या होगा अगर पूरे देश में इन फासिस्टों की विजय हो जाएगी? मजदूरों-किसानों की मुक्ति की बात करना, छात्रों-युवाओं
का अपने सपनों का भारत बनाने की बात करना, देश के कोने-कोने
में और खासकर इनके द्वारा किये जा रहे दमन और अत्याचार की सच्चाई को उजागर करना,
फासिस्टों के मन के मुताबिक इतिहास नहीं पढ़ना या पढ़ाना, अंधविश्वास और धार्मिक पूर्वाग्रहों के खिलाफ बोलना, अंधराष्ट्रवाद का विरोध करना, मोदी सरकार और आरएसएस
का विरोध करना, स्वतंत्र विचारों का बुद्धिजीवी और प्रोफेसर
बनना ..ये सब कुछ राष्ट्रद्रोह बन जाएगा। और इसके लिए किसी कोर्ट-कचहरी की जरूरत
भी नहीं पड़ेगी। फासिस्ट गिरोह के लोग ही न्यायालय और जज बन जाएंगे जैसा कि हो रहा
है। इसके लिए राष्ट्रवाद इनका नया हथियार बन चुका है। केंद्रीय पुलिस व खुफिया
तंत्र से लेकर जनतंत्र और सत्ता के सभी निकायों को इन्होंने साध लिया है। वे
फासिस्टों के साथ मिल कर काम कर रहे हैं। फेडरल व्यवस्था पूरे देश को चंगूल में
लेने में इनके आड़े आ रही है, तो वे किसी भी तरह के वायदे कर
के राज्यों के चुनाव को जीत लेना चाहते हैं। साथ में ये फेडरल व्यवस्था को अंदर
ही अंदर तोड़ने में भी लगे हैं।
आरएसएस
और भाजपा फासिस्ट तानाशाही स्थापित करने के लिए अपने सारे हिटलरी हथियार एक-एक
कर प्रयोग में ला रहे हैं। चिकनी-चुपड़ी बातों से लेकर भयादोहन तक के दर्जनों
हथकंडें अपना रहे हैं। जहाँ-जहाँ इनकी सरकारें हैं, हरियाणा
और महाराष्ट्र से लेकर छत्तीसगढ़ तक और जहाँ तक इनकी पहुँच है, वहाँ पत्रकारों से लेकर प्रोफेसरों तक के मुँह पर ताले जड़े जा रहे हैं।
ऐसी ही देशव्यापी पृष्ठभूमि में बंगाल का
चुनाव हो रहा है। लिहाजा इसका महत्व अत्यधिक बढ़ गया है। चीजें कितनी उलझी हुई हैं
हम यह भी देख सकते हैं। बंगाल में कांग्रेस और वाम एकजुट हो चुके हैं, तो अंदरखाने में यह बात चल रही है कि भाजपा और तृणमूल एकजुट हैं। बंगाल
में ही नहीं पूरे देश की जो स्थिति है उसमें अब यह स्पष्ट हो चुका है कि फासिस्टों
को आगे बढ़ने से रोकने में ये पूँजीवादी या संशोधनवादी पार्टियाँ या इनका कोई
गठबंधन पूरी तरह अक्षम हैं। इनके कुशासन, इनके भ्रष्ट
सिद्धांतहीन आचरण और इनकी छत्रछाया में पूँजी की मार से मची तबाही से जो मोहभंग
हुआ है उसी से पूरे देश में फासीवाद के बढ़ने और इसके फूलने-फलने की जमीन तैयार
हुई है। संशोधनवादियों के नेतृत्व वाले जनसंगठनों से जुड़े कैडर व लोग जरूर पूँजीवाद
के विरूद्ध लड़ाई चलाने के पक्षधर हैं लेकिन उनका नेतृत्व ही उनके आड़े आ रहा है।
इसके लिए इनके अंदर ही एक सैद्वांतिक बहस जरूरी है कि क्यों इनकी रणनीति बस किसी
भी तरह बंगाल की सत्ता पर काबिज होना बन गयी है,कि आखिर क्यों
वे पूँजीवाद की वामपक्षी मैनेजरी से आगे एक कदम नहीं बढ़ाना चाहते हैं। वक्त आ
चुका है कि 'वाम ' के ईमानदार
कार्यकर्ता अपने नेतृत्व से ये प्रश्न जरूर पूछें। तो क्या तब तक आम जनता नग्न पूँजीवादी
हमलों और फासिस्ट तानाशाही को हाथ पर हाथ धरे झेलता रहे हम यह कहना चाहते हैं? नहीं, बिल्कुल नहीं। दरअसल हम बंगाल चुनाव के जरिए बंगाल की धरती से देश
की मौजूदा पृष्ठभूमि को उजागर करते हुए फासीवाद के विरूद्ध साझा क्रांतिकारी
रणनीति के निर्माण की जरूरत को संक्षेप में रेखांकित करने की कोशिश कर रहे हैं,
बंगाल चुनाव के जरिए इस आवाज को पूरे देश में उठा रहे हैं। आज वक्त की माँग है कि
बिना देर किये देश के समस्त सर्वहाराओं, शाषित किसानों और
मेहनतकशों व छात्र-युवाओं और साथ ही वैसे तमाम न्यायपसंद बुद्धिजीवियों, कलाकारों, प्रोफेसरों, पत्रकारों
और तमाम ऐसे लोगों को एकजुट किया जाना जरूरी है जो आज धुर दक्षिणपंथी पूँजीवादी व
फासिस्ट हमलों के विरूद्ध खड़े हैं या खड़े हो सकते हैं। फासीवाद को इनकी
एकताबद्ध ताकत ही परास्त कर सकती है और कोई नहीं। आज इलेक्शन में भाग लेने से
ज्यादा जरूरी काम इन्हें जगाने, इनके समक्ष फासीवाद विरोधी
रणनीतिक कार्यक्रम पेश करने और देश में फैले ऐसे लाखों-करोड़ों लोगों तक फासीवाद
के विरूद्ध एक साझी रणनीतिक लड़ाई का एलान पहुँचाने और उन्हें संगठित करने का है।
कम शब्दों में, एक ''एंटी फासिस्ट
प्रोलितेरियन फ्रंट'' की जरूरत है जो वर्ग-संघर्ष को फासीवाद
विरोधी संघर्ष के साथ जोड़कर एक साझी रणनीति के तहत तमाम फासीवाद विरोधी शक्तियों
को एक बैनर के नीचे एकजुट करे।
आज
की परिस्थिति में यह समझना जरूरी हो गया है कि फासिस्टों को पूर्ण विजय से पीछे
धकेलने, पूरी तरह परास्त करने और समूल रूप से खत्म करने की लड़ाई की साझा
सर्वहारा वर्गीय रणनीति बनाये बिना व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की लड़ाई की बात आज
वर्तमान के संदर्भ से कटी हुई बात बन चुकी है। क्रांति मानो बस कहने भर की बात बन
जाएगी। असल में यह क्रांति को अलगाव में डालने वाली खतरनाक गलती के समान है। आज ये
दोनों कार्यभार एक दूसरे से जुड़े हैं, लेकिन कल जब फासीवाद की पूर्ण विजय हो
जाएगी, तो हमें सर्वहारा क्रांतिकारी रणनीति से पीछे हटते हुए पूँजीपति वर्ग के
अधीन ऐतिहासिक तौर से एक पश्चगामी मोर्चे का हिस्सा बनना होगा। भविष्य में इसकी
हमें काफी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। जबकि सही समय पर सही कदम उठाते हुए अर्थात
सामाजिक क्रांति की रणनीति को फासीवाद विरोधी साझी रणनीति से चाक चौबंद करते हुए
हम आज इस संकट की घड़ी को सर्वहारा क्रांति को आगे बढ़ाने के एक जबर्दस्त मौके
में तब्दील कर दे सकते हैं। अगर ऐसा नहीं हुआ,
तो फासीवाद सब कुछ लील जाएगा, जनता की अगुआ ताकता को भी और उसकी क्रांति को
भी।
बंगाल
के चुनाव में ये सारे मसले आपस में एकदम से गुंथे हुए हैं। इसके मद्देजनर हम बंगाल
और देश की तमाम क्रांतिकारी कतारों से यह अपील करना चाहते हैं कि इस नाजूक दौर से
एक विजयी योद्धा के रूप में बाहर निकलने के लिए यह जरूरी है कि हमारे पास जो रस्सी
है हम उसके सही छोर को पकड़ें और उसकी सबसे मजबूत कड़ी पर कब्जा जमायें। यही आज की
हमारी सबसे बड़ी रणनीति है और होनी चाहिए।
हम
बंगाल की मेहतनकश और गरीब मजदूर जनता से यह कहना चाहते हैं कि यह चुनाव जल्द ही
बीत जाएगा और कोई न कोई सरकार बन जाएगी। लेकिन जनता के जीवन के तमाम सवाल जिनकी
ऊपर चर्चा की गई है जस के तस बने रहेंगे। चुनाव खत्म होते ही केंद्र और राज्य के तरफ से और भी बड़े हमले
शुरू होंगे। इस इलेक्शन का मतलब सिर्फ इतना है कि हमें ही इन्हें वोट देकर अपने
ऊपर हमले करने का अधिकार पत्र (अथोराइजेशन लेटर) देना है। हमारे लिए निजाम के इस हुक्म को बजाने से
अधिक इनका और कोई महत्व नहीं है। हमारे अपने वर्गीय हितों का हुक्म तो यह है कि
अब संघर्ष को तेज और विस्तारित करने का वक्त आ चुका है और इसमें लगना
चाहिए।
अंत
में हम कहने से नहीं चुकना चाहते हैं कि पूँजीवाद और इसका सबसे खुंखार रूप फासीवाद
आज चाहे जितना बलशाली लग रहा हो, यह चिरस्थायी नहीं है।
जीत अंतत: जनता की, मजदूर वर्ग की, प्रगतिशील
ताकतों की और न्याय की होगी। पूँजीवाद का फासिस्ट तानाशाही की ओर कदम बढ़ाना,
जनतंत्र को खत्म करने की कोशिश करना और शोषण को कई गुना तीव्र करना
स्वयं इस बात का प्रमाण है कि पूँजीपति वर्ग अब पुराने तरीके से शासन करने में
अक्षम है। इसका अर्थ है जनता भी पुराने तरीके से नहीं रह पायेगी। वह भी नींद से
पूरी तरह जगेगी और तेजी से राजनीतिक हलचलों और सरगर्मियों में शामिल होगी और
हो रही है। देश में छात्रों-युवाओं, कलाकारों, प्रोफेसरों और आम मजदूरों-मेहनतकशों के बीच जो बेचैनी भरी हलचल दिख रही है
वह इसी बात का प्रमाण है। विश्व सर्वहारा के महान शिक्षक लेनिन के ये शब्द आज पूरी
तरह प्रासंगिक और जीवंत हो उठे है –''जीवन का तकाजा पूरा होकर रहेगा। बुर्जुआ वर्ग
को भागदौड़ करने दो, पागलपन की हद तक क्रुद्ध होने दो, हद पार करने दो, मूर्खताएँ
करने दो, कम्युनिस्टों से पेशगी में ही प्रतिरोध लेने दो, गुजरे कल के और आने
वाले कल के सैंकड़ों, हजारों, लाखों कम्युनिस्टों का कत्ल करने का प्रयास करने
दो। ऐसा करके बुर्जुआ वर्ग उन्हीं वर्गों की तरह पेश आ रहा है जिनके लिए इतिहास
मौत का हुक्म सुना चुका है। कम्युनिस्टों को जनाना चाहिए कि भविष्य हर हाल में
उनका है, इसलिए हम महान क्रांतिकारी संघर्ष में उग्रतम उत्साह के साथ-साथ बहुत
शांति और बहुत धीरज से बुर्जुआ वर्ग की पागलपन भरी भागदौड़ का मूल्यांकन कर सकते
है, और हमें करना ही चाहिए।''
साथियों, आइए हम बुर्जुआ फासीवादी शासन और धनतंत्र के तहत जनतांत्रिक इलेक्शन के
ड्रामे का पर्दाफाश करें और सघर्षों के एक नये तूफान के लिए अपनी कमर कसें,
इस विश्वास के साथ कि इस बार फासीवाद का ही नहीं, पूरी दुनिया से इसकी जननी पूँजीवाद का भी समूल नाश होना तय है। विश्व का
मजदूर वर्ग इन्हें इस बार अजायब घर की वस्तु में बदल देने में कोई गलती नहीं
करेगा।
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