कॉ. अजय के पुराने (2008 के) अप्रकाशित लेखों में से
आंशिक रूप से संपादित
कॉमरेड
शिवमंगल सिद्धांतकर के
ट्राइलैक्टिक्स
और स्पाइमैटर के सिद्धांत की आलोचना के बहाने ऐतिहासिक भौतिकवाद और द्वंद्ववाद पर एक व्याख्यात्मक टिप्पणी
भाग – I
''वे किसी भी आलोचना के लिए
निम्नस्तरीय हैं, लेकिन तब भी वे आलोचना की विषयवस्तु हैं, उस अपराधी की तरह जो
मानवता के स्तर से नीचे होता है लेकिन तब भी अपने मृत्युदाता के लिए वह एक
विषयवस्तु होता है'' (मार्क्स, ''हेगेल के अधिकार दर्शन की आलोचना'')
पिछले कुछ वर्षों से, खासकर सोवियत यूनियन के
पतन के बाद से, मार्क्सवाद में कुछ नई बात जोड़ने, मार्क्सवाद में सुधार करने, उसको विकसित करने या फिर उसके बुनियादी स्वरूप
को नकारने तक की आकांक्षा हमारे आंदोलन के अंदर जोर-शोर से उठती रही है। तब से
हमारे आंदोलन में बहुत कुछ 'नया' कहा गया है। लेकिन वास्तव में उस 'नये' में नया कुछ भी नहीं है। मार्क्सवाद
के विरूद्ध कही गई पुरानी बातों को ही दुहाराया गया है। उसी में से एक है ''ट्राइलैक्टिक्स'' और ''स्पाईमैटर'' का बेतुका सिद्धांत है, जिसके प्रणेता हैं दिल्ली
के जाने माने 'कम्युनिस्ट' नेता कॉमरेड शिवमंगल सिद्धांतकर। यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि सिद्धांतकर
साहब अतिमहत्वाकांक्षी ख्वाहिशों के स्वामी हैं और अक्सर कुछ नई बात कहने के
आग्रही रहे हैं। वे लेनिन के विरूद्ध भी लिख चुके हैं। वे कहते और लिखते रहे हैं
कि वर्तमान युग ''साम्राज्यवाद के अंतिम चरण का युग है।'' जिनकी इन विषयों पर
उनसे निजी बातचीत हुई है (मैं भी उनमें से एक हूँ)
वे यह मानेंगे कि वे अतिमहत्वाकांक्षी व्यक्ति हैं। ''नया सर्वहारा'' के सिद्धांत,
जिसके अनुसार कॉरपोरेट के सी.ई.ओ. भी सर्वहारा हैं, के भारतीय जनक भी वही हैं इसे हम सभी
भलिभांति जानते हैं। आइए, फिलहाल हम इनके व इनकी पार्टी के नये विश्व दृष्टिकोण
''ट्राइलैक्टिक्स'' और नये पदार्थ ''स्पाइमैटर'' पर चर्चा करें।
हालांकि यह सच है कि ''ट्राइलैक्टिक्स''
का यह सिद्धांत इनके ''नया सर्वहारा'' के सिद्धांत की तरह बहुप्रचारित नहीं है और
न ही हमारे आंदोलन में इसकी कोई खास हैसियत या विशिष्ट पहचान है, फिर भी आज के समय जब कम्युनिस्ट
क्रांतिकारी सिद्धांत और विश्वदृष्टिकोण के
प्रति हमारे आंदोलन में ढीलापन भरा रवैया व्याप्त है वैसे वक्त में अल्प प्रचारित
गलत प्रवृतियाँ भी अत्यंत खतरनाक रूप धारण कर लेती हैं और जाने-अनजाने हमारे
आंदोलन को अंदर ही अंदर दूषित करने लगती हैं। समग्रता में भी आंदोलन जाने-अनजाने प्रभावित
होने लगता है। इसी को ध्यान में रखते हुए हमने इस पर टिप्पणी करना जरूरी समझा है।
लेकिन यह भी सच है कि इस लेख का सर्वप्रमुख लक्ष्य ''ट्राइलैक्टिस'' को ध्वस्त करने
से अधिक इसके बहाने माक्सर्वाद की और खासकर द्वंद्ववाद की महीन बारीकियों को फिर
से आंदोलन के साथियों के संज्ञान में लाना है। साथ ही हम इसके जरिये स्वयं को भी एक बार फिर से शिक्षित व आलोकित करना चाहते हैंं।
सबसे पहले, ''ट्राइलैक्टिक्स''
के सिद्धांत का गठन भारतीय परंपरा के आधार पर, खासकर ब्रह्मा, महेश और विष्णु की क्रमश: सृष्टिकर्ता, विनाशकर्ता तथा
संरक्षणकर्ता की भूमिका को आधार बनाकर किया गया है। क्या कोई विश्वास करेगा कि यह
सिद्धांत किसी कम्युनिस्ट पार्टी का विश्वदृष्टिकोण हो सकता है? लेकिन यह सत्य है। यह
सिद्धांत शिवमंगल सिद्धांतकर के नेतृत्व में चलने वाली वाली सी.पी.आई.(एम.एल)-न्यू
प्रोलितारी का विश्वदृष्टिकोण है। वे किसी ''सुनहरे भूतकाल की पुन:खोज'' की बात करते हुए कहते हैं कि इसका ''सारा श्रेय पिछले दौ सौ
सालों के दौरान वैज्ञानिक पश्चिम और आध्यात्मिक पूरब के बीच हुई सक्रिय
अन्योन्यक्रिया को जाता है।'' इस तरह वे ''पूरब और पश्चिम की अन्योन्यक्रिया'' की बदौलत किसी ऐसे नये विश्वदृष्टिकोण
के गठन की घोषणा करते हैं जिसमें अध्यात्म को ही नहीं, ब्रह्मा, महेश और विष्णु को
भी सम्मानित स्थान प्राप्त होगा। इसमें कोई नई बात नहीं है। विज्ञान और अध्यात्म
के बीच समन्वय स्थापित करने की बात चाहने वाले सदैव से यह अध्यात्म के पक्ष में
यह कहते आये हैं कि अगर विज्ञान आत्मा के अस्तित्व को मान ले तो वह संपूर्णता
प्राप्त कर लेगा। कोई यह दावा भी कर ही सकता है कि ऐसा चाहने वालों में स्वयं
वैज्ञानिकों की श्रेणी में आने वाले लोग भी शामिल रहे हैं। यह संभव है और विज्ञान
के अध्येताओं में काफी मात्रा में अवैज्ञानिक समझ मौजूद रहती है इसकी व्याख्या
हम आगे इस लेख के दूसरे भाग में करेंगे। लेकिन इससे कौन इनकार करेगा कि विज्ञान की
प्रत्येक प्रारंभिक उपलब्धि के पीछे अध्यात्म और धर्म के तरफ की गई प्रताड़नाओं की
ऐसी गाथा रही है जिसमें वैज्ञानिकों और नई खोजों के प्रणेताओं को मौत तक की सज़ा
दी गई है। फिर भी विज्ञान की हर प्रगति व अग्रगति के साथ जब अध्यात्म और धार्मिक
पुरातनपंथी धारणाएं एक-एक कर तर्क की कसौटी पर ध्वस्त होती गईं, तो अध्यात्म को विज्ञान
के साथ समन्वित करने की बारंबार लगायी जाने वाली गुहार और तीव्र होती गई। दूसरे
शब्दों में, विज्ञान
के दरबार में न्याय की याचना तक की गई कि समाज में सुव्यवस्था के लिए धर्म और
अध्यात्म का बने रहना जरूरी है और इसीलिए विज्ञान का अध्यात्म से तालमेल बैठाया जाना चाहिए। लेकिन जरा
मजे देखिए, स्वयं
विज्ञान पर ही यह भार सौंपा जाता है कि वह अध्यात्म को ठोस और वैज्ञानिक आधार
प्रदान करे, ठोस
और वैज्ञानिक तर्को से उसे नवाजे। इस तरह आज भी यह माँग की जाती है कि टुच्चे
बाजारू आध्यात्मिक उपदेशकों को विज्ञान में और इसीलिए द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में
दखलंदाजी करने का, इसके साथ छेड़छाड करने का अवसर और अधिकार दिया जाए।
शिवमंगल सिद्धांतकर एक नये
पदार्थ, आत्मा और पदार्थ के मिलन
से बने एक नये पदार्थ ''स्पाइमैटर'' की बात करते हैं और गीता के उपदेशों और अध्यात्म को क्रांतिकारी दर्शन के
साथ एकीकृत किये जाने की घोषणा करते हैं। शिवमंगल सिंद्धांतकर से किसी और की तुलना
करना गलत होगा, लेकिन हम थोड़ी छूट लेते हुए यह कह सकते हैं कि उनमें मानो फायरबाख
की आत्मा पुनर्जीवित हो उठी हो और कह रही हो कि ''धर्म का उन्मूलन नहीं उसे पूर्णता प्रदान की जानी चाहिए और स्वयं दर्शन को
धर्म में विलीन हो जाना चाहिए, क्योंकि एकमात्र धर्म में ही कोई क्रांतिकारी दर्शन अपना पूरा मूल्य
प्राप्त कर सकता है।'' सिद्धांतकर और दो कदम आगे निकल गए हैं। वे यह घोषणा करते प्रतीत
होते हैं कि मार्क्सवाद को अध्यात्म के साथ मिलकर एक नये सच्चे धर्म की नींव रखने
का काम करना चाहिए, तभी वह अपना पूरा मूल्य प्राप्त कर सकता है।
जैसे पहले कभी पूरब और
पश्चिम के बीच की किसी ऐसी तथाकथित अन्योन्यक्रिया का कोई ब्योरा मौजूद नहीं हैं, वैसे
ही सिद्धांतकर ने न तो ऐसा कोई ब्योरा दिया है और न ही उन्होंने कोई ऐसा तथ्य प्रस्तुत
करने की कहीं कोई ऐसी जहमत ही उठाई है जिसकी जाँच-परख कोई पाठक स्वयं अपने स्तर पर
भी कर सके। और क्योंकि यह नया सिद्धांत विज्ञान और अध्यात्म के आपसी तथाकथित
सक्रिय अन्योन्यक्रिया का प्रतिफल है, इसलिए यह माना जा सकता है कि लेखक का न तो इसका श्रेय जाता है और न ही
उन्होंने इसे निर्मित किया है। और यह सच भी है। ऐसा सिद्धांत, जो विज्ञान और अध्यात्म
को मिलाता हो, और जो प्रकारांतर से इस बात पर आधारित रहा है कि पदार्थ और संवेदन (sensation
or perception) दोनो
एक ही जैसी भौतिक रूप से अस्तित्वमान होने वाली चीज हैं, सिद्धांतकर से पहले से विद्यमान है और दर्जनों बार इसकी धज्जियाँ भी उड़ाई गई हैं। इसके आज के
प्रस्तुतकर्ता सिद्धांतकर साहब ने तो बस उसकी एक नकल भर की है और कुछ हद तक नई
लिबाश पहनाकर उसे पेश भर कर दिया है। यह वर्षों पहले से लोगों की सहज बुद्धि और
ज्ञान के आधार पर उनकी एक ऐसी अतृप्त आकांक्षा के रूप में प्रकट होता रहा है कि ''काश! धर्म और विज्ञान दोनों की चाहत पूरी हो।'' फिर भी हम इसके वर्तमान प्रस्तुतकर्ता
की ऐसी हिम्मत की दाद दिए बिना नहीं रह सकते हैं जो इनसे यह दावा करवाती है कि ''ट्राइलैक्टिक्स और
स्पाइमैटर का यह सिद्धांत कार्ल मार्क्स के द्वंद्ववादी भौतिकवाद का स्थान लेगा।''
वे ''ट्राइलैक्टिक्स'' को परिभाषित करने की
कोशिश करते हैं। वे कहते हैं – ''अब
हम इस पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे कि यह (पूरब का अध्यात्मवाद) क्यों हजारों
सालों पहले पैदा लिया, क्यों इसने अपना गौरव खो दिया और आज किस तरह वह अपने आप को पुन: आविष्कृत
कर रहा है। इसके लिए हम अपना ध्यान भारतीय और विदेशी दोनों तरह के विचारकों और
विचारों – समस्त मानवजाति के वर्ग
आधारित साझा विरासत पर डालते हैं। हम विवेकानंद, रामायण, महाभारत, वेदों और उपनिषदों के
छोटे-बड़े पात्रों, मार्क्स, लेनिन और मैक्स मुलर तथा मानवीय विचारों के अज्ञात सिपाहियों के बारे में
सोंचते हैं .... प्रकृति में हो रहे परिवर्तनों को समझने के लिए पश्चिम जो हमें
सर्वाधिक बेहतरीन चीज मुहैया कराता है वह है द्वंद्ववाद, एक वस्तु जो एक ही समय
में अस्तित्वमान है और नहीं भी है। और यहीं पर पुनर्विचार करना जरूरी है। इसके लिए
हमें भारतीय सामंती संस्कृति के द्वारा इसका सार मुहैया कराया जाता है – सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, विनाशकर्ता महेश या शिव और सरंक्षणकर्ता विष्णु के रूप में। इसलिए
द्वंद्ववाद काम करता है लेकिन हर क्षण कुछ संरक्षित भी होता है, जो दूसरे दौर के परिवर्तन
के लिए पदार्थ मुहैया करता है। हमें यह सोंचने के लिए उत्साहित करता है कि यह
विचार द्वंद्ववाद के द्वारा चीजों को देखने के बारे में एक नये रास्ते के रूप में
एक ठोस उछाल है, जिसे में हम ''ट्राइलैक्टिक्स'' कहते हैं।''
इतना ही नहीं, वे सीधे मार्क्स के
भौतिकवाद पर प्रश्न खड़ा करते हैं –
''यह कहना कि पदार्थ प्राथमिक चीज है, जैसा कि मार्क्स कहते हैं, हमारी समस्या का समाधान
नहीं करता है। आखिर पदार्थ क्या है? आज के इस युग में इसका क्या ठोस रूप है? हमें पदार्थ को एक ऐसी
दुनिया में परिभाषित करना है जहाँ पदार्थ के नये-नये रूपों का आविष्कार
वैज्ञानिकों के द्वारा किया जा रहा है। ... और एक कदम आगे जाते हुए हम इस परिभाषा
में अध्यात्म को भी शामिल करते हैं। यह अत्यात्म क्या है और इसे किस तरह पदार्थ
में समाहित किया जा सकता है?''
इसके बाद लेखक पदार्थ के
बारे में अपने विचारों की विवेचना करते हुए आत्मा, अध्यात्म आदि को पदार्थ में शामिल करना चाहते हैं। वे इसके फायदे भी
गिनाते हैं। एक फायदा यह है कि ''पूरब किसी चीज या सभी चीज का परित्याग करने की बात नहीं करता है, अपितु भौतिक दुनिया से
अलगाव (detachment) की माँग करता है जो इसे और भी अधिक सुसंगतता प्रदान करता है। अलगाव के साथ
काम करना काम के संपादन और इसके परिणाम में और अधिक वस्तुगतता लाता है।''
इस तरह लेखक आत्मा और
ट्राइलैक्टिक्स के संयोजन के द्वारा मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवादी द्वंद्ववाद को
प्रतिस्थापित करना चाहते हैं। वे ऐसा साफ-साफ कहते हैं – ''अब हमारी समस्याओं का
जवाब द्वंद्ववाद और भौतिकवाद नहीं दे सकता है।'' वे यह उम्मीद करते हैं कि ''आने वाली पीढ़ी इस
सिद्धांत (ट्राइलैक्टिक्स*) को और विकसित करेगी और इसे संपूर्णता प्रदान करेगी।'' फिर उन्होंने शायद यह सुन रखा है कि मार्क्सवाद में ''अनंत'' जैसी किसी चीज के बारे
में बात की गई है और वे झट से इसका संबंध आत्मा से जोड़ देते हैं। वे कहते हैं – ''लेकिन क्या हम यह
जानते हैं कि अनंत क्या है – वह आत्मा है।''
आत्मा क्या है? अगर हम शब्दों की
व्युत्पत्ति संबंधी पचड़ों और झगड़ों में न पड़ कर इसके व्यवहारिक ऐतिहासिक अर्थ
पर, जो कि सच्चे वादानुवाद के लिए जरूरी है, अपना दिमाग लगाएं तो यह
आसानी से समझा जा सकता है कि भारतीय धार्मिक परंपरा के अनुसार आत्मा के बारे में
सर्वमान्य धारणा यही है कि आत्मा एक ऐसी विशिष्ट चीज है, वह जीवात्मा है जो शरीर
में अलग से निवास करती है और मनुष्य की सारी चिंतन प्रक्रिया और संवेदना इसी
जीवात्मा द्वारा की जाने वाली प्रक्रियायें हैं। इसी आधार पर मृत्यु की व्याख्या
की गई है। अर्थात यह कि इस जीवात्मा का शरीर से अलग हो जाना ही मृत्यु है। परंतु
स्वयं यह आत्मा की कभी मृत्यु नहीं होती है। यह अमर होती है। और इस तरह आत्मा के
अमरत्व की घोषणा हुई।
आत्मा की उत्पति और इसके बाह्य
जगत से इसके संबंध की शुरूआती अवधारणा कैसे विकसित हुई है, इसके बारे में एंगेल्स
लिखते हैं – ''अतिप्राचीन काल से ही जब मुनष्य
को स्वयं अपने शरीर की रचना के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, सपने में देखी प्रेत
छायाओं के प्रभाव से यह विश्वास करने लगा था कि उसका चिंतन एवं उसका संवेदन उसके
शरीर की क्रियायें नहीं, अपितु एक विशिष्ट जीवात्मा की क्रियायें हैं, जो शरीर में निवास करती
हैं और मुत्यु के समय शरीर का परित्याग कर देती है। तभी से मनुष्य इस आत्मा एवं
बाह्य जगत के संबंध पर विचार करने को विवश हुआ। मृत्यु के पश्चात यदि आत्मा शरीर
का परित्याग करके जीवित रहती है, तो उसके लिए एक और विशिष्ट मृत्यु का आविष्कार करने का सवाल नहीं उठता। इस
तरह उसके अमरत्व की धारणा उत्पन्न हुई, जो विकास की उस मंजिल में सान्त्वनाप्रद धारणा नहीं थी, बल्कि प्रारब्ध की बात
मानी जाती थी जिससे लड़ना व्यर्थ था। ..सांत्वना प्राप्त करने की धार्मिक अभिलाषा
ने नहीं, बल्कि
आम सार्विक अज्ञानता के कारण उठ खड़ी हुई इस उलझन ने कि एक बार आत्मा का अस्तित्व
मान लिए जाने पर शारीरिक मृत्यु के बाद उस आत्मा का क्या किया जाए, सामान्य रूप से वैयक्तिक
अमरत्व की क्लांतिकर धारणा के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया। ठीक इसी प्रकार
प्राकृतिक शक्तियों के मानवीकरण द्वारा प्रथम देवताओं की उत्पति हुई। धर्मों के
विकासक्रम में ये देवता अधिकाधिक पारलौकिक रूप ग्रहण करते चले गए, यहाँ तक कि अंतत: मनुष्य
के बौद्धिक विकास में स्वभावत: होने वाली पृथककरण की प्रक्रिया में – मैं कहूँगा वस्तुत: आसवन द्वारा – अनेकानेक परिमित और एक
दूसरे को परिसीमित करने वाले देवताओं में से, मानव मस्तिष्क में, एकमात्र परमात्मा – एकेश्वरवादी धर्मों के परमात्मा – का विचार उत्पन्न हुआ।''
एंगेल्स आगे लिखते हैं – ''अंत:
समस्त धर्म की तरह ही चिंतन और अस्तित्व के संबंध के प्रश्न, आत्मा और प्रकृति के
संबंध के प्रश्न – जो समग्र दर्शन का
सर्वोपरि प्रश्न हैं – का मूल जांगल अवस्था की
संकीर्ण बुद्धि और अज्ञानतापूर्ण धारणाओं में है। पर यह प्रश्न पहली बार पूरे
उत्कट और तीक्ष्ण रूप में तभी उठाया जा सका, वह अपनी पूर्ण अर्थवत्ता
तभी प्राप्त कर सका, जब यूरोपीय जन ईसाई मध्यकाल की दीर्घ सुषुप्तावस्था से जगे। अस्तित्व के
संबंध में चिंतन की स्थिति का प्रश्न, ..यह प्रश्न कि आत्मा
और प्रकृति में कौन प्राथमिक है, चर्च के संबंध में इस तीक्ष्ण रूप में प्रस्तुत किया गया; क्या इश्वर ने संसार का
सृजन किया है या संसार अनंत काल से अतित्वमान है? दार्शनिकों
ने इस प्रश्न के जो उत्तर दिए, उन्होंने उनको दो बड़े शिविरों में बांट दिया। जिन्होंने आत्मा को प्रकृति
के मुकाबले में प्राथमिकता दी और, इस कारण, आखिर इस या उस रूप में विश्व का सृजन स्वीकार किया – और दार्शनिकों की, उदाहरणार्थ, हेगेल की पद्धति में यह सृजन ईसाई मत के सृजन से भी अधिक जटल और ससंभव
व्यापार बन गया – उनका अपना अलग भाववादी
शिविर बन गया। दूसरे, जिन्होंने प्रकृति की प्राथमिकता स्वीकार की, वे भौतिकवाद की विभिन्न
शाखाओं में शामिल हो गये।'' (एंगेल्स, लुडविग फायरबाख और
क्लासिकीय जर्मन दर्शन का अंत, खंड तीन, भाग दो, संकलित रचनाएं, पेज 223-224)
अंत: यह स्पष्ट है कि आत्मा
के अस्तित्व की धारणा ''सार्विक
अज्ञानता के कारण उठ खड़ी हुई'' और इसका मूल ''जांगल अवस्था की संकीर्णबुद्धि और अज्ञानतापूर्ण धारणाओं'' में है। और इसीलिए चिंतन
और अस्तित्व के संबंध का प्रश्न मूलत: आत्मा और प्रकृति के संबंध का प्रश्न है। तब
हमें यह भी मानना पड़ेगा कि आत्मा के अस्तित्व को मानना और उसे पदार्थ के समकक्ष
खड़ा करना भाववाद के दलदल में लुढ़कना ही नहीं, खुशी-खुशी उसमें लोट-पोट
करने के बराबर है। शिवमंगल सिद्धांतकर का 'दुर्भाग्य' यह है कि वे आधुनिक
विज्ञान में हुए कुछ नये विकास से इतने अधिक अचंभित हैं कि वे आत्मा को ही पदार्थ
का नवीनतम रूप (स्पाइमैटर) मान बैठे हैं। वे बड़े उत्साह से लेकिन बिना समझे ही
पदार्थ और उर्जा के अनयोन्य रूपांतरण, समय और गुरूत्व के एकीकरण, एंटीमैटर, विद्युत चुंबकीय मानवीय परिमल या वातावरण (electromagnetic human
aura), परासंवेदी
ज्ञान (mind to mind telepathy) की बातें करते हैं। विज्ञान की महान खोजों व अनुसंधानों पर चर्चा करना, इन्हें अपने संज्ञान में लेना और फिर इसका समुचित अध्ययन करते हुए इनका
क्रांतिकारी विश्वदृष्टिकोण को अद्यतन बनाने में उपयोग करना एक बात है, लेकिन इन खोजों को बिना ठीक
से समझे इनके बारे में मौजूद बाजारू ज्ञान को आधार बनाकर एक नये सिद्धांत का गठन
करना और उसे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर जबर्दस्ती आरोपित करना एकदम दूसरी बात है। शिवमंगल
सिद्धांतकर यही करते हैं। जब सिद्धांतकर साहब पदार्थ और उर्जा के अन्योन्य
रूपांतरण और समय तथा गुरूत्व के एकीकरण की चर्चा ऐसे करते हैं मानो ये चंद वर्ष
पहले की बात है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इन्होंने इन महान खोजों को न तो पढ़ा है और न
ही समझा है। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने बस यह सब सुन रखा है और बस सुनकर ही
उन्होंने एक नये सिद्धांत और विश्व दृष्टिकोण के गठन का फैसला कर लिया।
जब वे यह कहते हैं कि ''द्वंद्ववाद
में सृष्टि और विनाश की बात है लेकिन संरक्षण की बात नहीं है'' तो वे यही साबित
करते हैं कि वे न तो भौतिकवाद को और न ही द्वंद्ववाद को समझते हैं। क्या
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में ''नये की
सृष्टि और पुराने के विनाश'' के बारे में वास्तविक प्रस्थापना यह है कि नये की सृष्टि और पुराने के
विनाश के बीच कुछ भी सरंक्षित नहीं रहता है? सबसे पहली बात तो यह है
कि नये की सृष्टि और पुराने के विनाश का सिद्धांत आखिर है क्या? नये की सृष्टि और पुराने
का विनाश इसके सिवा और कुछ भी नहीं है कि पदार्थ का एक रूप किसी क्षण है भी और
नहीं भी है। अर्थात, इसका अर्थ यह है कि वस्तुओं में और इनके रूपों में सदैव गतिशीलता होती है
और सतत परिवर्तन का दौर चलता रहता है। सिद्धांतकर यह समझते हैं कि इस गतिशीलता में
पुराना सब कुछ नष्ट हो जाता है और कुछ भी संरक्षित नहीं रहता है। यह बात न तो प्रकृति
विज्ञान अर्थात जंतु और पादप विज्ञान के लिए सही है और न ही इतिहास के लिए। सच यही है कि प्रकृति
में वस्तुओं में होने वाले परिवर्तन के कारण अर्थात नये की सृष्टि और पुराने के
विनाश में सब कुछ के नष्ट हो जाने और उसमें कुछ भी संरक्षित न रहने का सिद्धांत शिवमंगल
सिद्धांतकर की अपना सिद्धांत है और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से उसका कुछ भी लेना-देना नहीं
है।
एंगेल्स लिखते हैं – ''यह एक
शाश्वत चक्र है जिसमें पदार्थ घुमता रहता है, एक ऐसा चक्र जो निश्चित
रूप से अपने कक्ष को समय के उन कालों में पूरा करती है जिसके लिए हमारा सांसारिक
वर्ष उचित माप नहीं है, एक ऐसा चक्र जिसमें उच्चतम विकास का समय, कार्बनिक जगत का समय, तथा स्वत: और प्रकृति के
बारे में जागरूक जीवों ( मनुष्यों) के जीवन के समय के द्वारा माप उतना ही
अप्रयाप्त है जितना कि अंतरिक्ष जिसमें जीवन और स्वचेतना कार्यशील होते हैं; एक ऐसा चक्र जिसमें
पदार्थ के प्रत्येक अस्तित्व का प्रत्येक सीमित रूप, चाहे वह सूर्य हो या
नेबुलर वाष्प, एक जंतु हो या जंतुओं की एक पूरी प्रजाति] रासायनिक संयोग हो या विखंडन, संक्रमणीय होता है, परिवर्तनीय होता है, और जहां कुछ भी शाश्वत
नहीं है अपितु शाश्वत रूप से परिवर्तनशील और शाश्वत रूप से घुमता पदार्थ है और वे
नियम हैं जिनके अनुसार यह घुमता रहता है और परिवर्तित होता है। परंतु चाहे वह
जितना भी प्राय: और चाहे जितना भी बिना रूके अनवरत रूप से यह चक्र समय और अंतरिक्ष
में पूरा किया जाता है, चाहे जितने अरब सूर्य और पृथ्वी जन्म लेते हों, और फिर अस्तित्वविहीन
होते हों, एक
सौर परिवार में, यहाँ तक कि एकमात्र ग्रह पर कार्बनिक जीवन की परिस्थितियों के प्रादुर्भाव
के पहले चाहे जितना लंबा काल लग सकता हो, कार्बनिक जंतुओं, जिन्हें उनके ही बीच से
विचारशील दिमाग वाले जानवरों की उत्पति के पहले भूमिकास्वरूप पैदा लेना और फिर
गुजर जाना है और एक समय के एक छोटे काल के लिए जीवनपयोगी परिस्थितियों को प्राप्त
करना होता हो और जिन्हें बाद में बिना किसी दया के खत्म हो जाना है, की चाहे जितनी अनगिनत
संख्या हो, यह
सुनिश्चित है कि अपने समस्त परिवर्तित रूपों में पदार्थ शाश्वत रूप से मौजूद रहता
है, कि इसका
कोई भी गुण कभी भी गायब नहीं हो सकता है, और इसीलिए यह कि उसी लौह
आवश्यकता के साथ, जिसके द्वारा यह एक फिर पृथ्वी की अपनी उच्चतम रचना, विचारशील मस्तिष्क को
नष्ट कर देगा, ठीक उसी आवश्यकता के तहत यह कहीं और तथा किसी दूसरे समय में एक बार फिर
इसे पैदा कर देगा।'' (from ''introduction to
dialectics in nature'' by Engels, 1875-76)
यहाँ एंगेल्स की लिखी बातों
को देखते हुए यह स्पष्ट है कि द्वंद्ववाद की शिवमंगल सिद्धांकर की समझ बिल्कूल
सतही है जिसकी वजह से ही वे यह मान बैठे हैं कि सृष्टि और विनाश की चलने वाली अनंत
और शाश्वत प्रक्रिया या चक्र में कुछ भी संरक्षित नहीं रहता है।
सजीव और निर्जीव जगत में
यह परिवर्तन (नये की सृष्टि और पुराने का विनाश) किस तरह होता है? और उसमें
किस तरह कुछ संरक्षित होता है? एक बात साफ है कि निर्जीव जगत
को समझना जितना आसान होता है उतना ही आसान सजीव जगत में होने वाले परिवर्तनों को
समझना नहीं होता है। इन्हें समझने के लिए कुछ प्रारंभिक ज्ञान होना जरूरी है। जीवन,
यानि, सजीवता के सार्विक लक्षण क्या हैं जो सभी सजीव चीजों में समान रूप से पाया
जाता है? सभी
सजीव शरीरों में अलबूमिनीय पिंड पाये जाते हैं। ये अत्यंत ही सुक्ष्म कण होते
हैं और जीवन की क्रियाओं के विशिष्ट विभेदीकरण के लिए आधार का काम करते हैं। किसी
सजीव में यह कण अपने वातावरण में से उपर्युक्त द्रव्यों का अवशोषण करते हैं तथा
उनको आत्मसात करते हैं, जबकि इसी पिंड के अन्य अधिक पुराने भागों का विखंडन होता
रहता है। अल्बुमिनीय पिंडों में उसके संघटक तत्वों के इस अविराम रूपांतरण को ही
पोषण और उत्सर्जन की निरंतर चलने वाली एकांतरण की क्रिया कहा जाता है। इसलिए ''जीवन अर्थात किसी भी अलबूमिनीय पिंड के अस्तित्व की प्रणाली मूलतया इस
तथ्य में निहित होती है कि प्रत्येक क्षण यह पिंड जो कुछ है वह भी होता
है तथा कुछ और भी होता है। और यह बात किसी ऐसी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप नहीं होती, जो बाहर से इस पिंड पर प्रभाव डाल रही हो, जैसा कि
निर्जीव पिंडों के साथ होता है। इसके विपरीत जीवन अथवा पोषण और उत्सर्जन के
द्वारा संपन्न होने वाला चयापचय अपने आप संपन्न होने वाली क्रिया है जो अपने वाहक,
अल्बूमिन में अंतर्निहित होती है। जो अल्बूमिन का एक स्वाभाविक
गुण होती है और जिसके अभाव में अल्बूमिलन का अस्तित्व असंभव है। और इसीलिए इससे
यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि रसायन विज्ञान कभी कृत्रिम ढंग से अलबूमिन तैयार
करने में सफल होता है, तो इस अल्बूमिन में भी जीवन की
क्रियायें जरूर दिखाई देनी चाहिए, भले ही वे बहुत ही दुर्बल
क्यों न हों। यह अवश्य ही एक संदेहास्पद प्रश्न है कि क्या उसके साथ-साथ
रसायन विज्ञान इस अलबूमिन के ठीक-ठीक भोजन का भी आविष्कार करने में सफल हो सकेगा।''
(एंगेल्स, वही, बोल्ड हमारा)
इस तरह यह धारणा कि
परिवर्तन में पुराने का सब कुछ विनष्ट हो जाता है एक भ्रामक धारणा है। एक सच्चे
मार्क्सवादी के लिए यह समझना आवश्यक है कि जंतु या सजीव जगत में जो परिवर्तन
होता रहता है उसमें वह जो है वह भी
रहता है तथा कुछ और भी होता है। जब
कोई पूरा जंतु मरता है अर्थात उसका 'विनाश' हो
जाता है तब भी, और यह साबित किया जा चुका है, जिन पदार्थो और तत्वों से वह जंतु बना हुआ था वे तत्व वातावरण या मिट्टी
में पुन: प्रवेश कर के नये जंतुओं में हो रही चयापचय की प्रक्रिया में हिस्सेदार
बनते हैं। इस तरह द्वंद्ववाद की यह समझ सतही है कि ''जो है
वह अगले क्षण नहीं है और एकदम से दूसरी किसी नई चीज में परिवर्तित हो चुकी है इस
तरह कि उसमें नये में पुराने का कुछ भी संरक्षित न रह जाए'', जैसा कि शिवमंगल जी कहते हैं।
निर्जीव जगत में विकास और
परिवर्तन की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया वास्तव में किस तरह घटित होती है? क्या निर्जीव
वस्तुएं भी परिवर्तित होती हैं और उनका भी रूपांतरण होता है? क्या चयापचय की क्रिया निर्जीव वस्तुओं में भी होती है? उत्तर है हाँ, लेकिन ये क्रियायें निर्जीव वस्तुओं में उस तरह से नहीं होती
हैं जिस तरह से ये सजीव वस्तुओं में होती हैं। और हाँ, इसमें भी सब कुछ नष्ट
नहीं होता है। रासायनिक संयोगों में या अन्य रासायनिक परिवर्तनों में जो मौलिक
रूप से नया बनता दिखाई देता है उसके संघटकों को देखें तो वे वही होते हैं जो
पुराने में होते हैं। बहुत पहले जब मैं मार्क्सवाद का छात्र बना ही था, तब ठीक इसी विषय पर अपने (सायंस कॉलेज के) मित्रों से बहस हुआ करती थी,
तब वे हमारे मित्र एंगेल्स की लिखी इन पंक्तियों को दिखाकर मुझे
परास्त करने की कोशिश करते कि - ''अन्य निर्जीव पिंड भी
प्राकृतिक घटनाक्रम के दौरान बदलते हैं, विखंडित होते हैं या
एक दूसरे से संयोजन करते हैं, लेकन ऐसा करने पर वे वह नहीं
रहते हैं, जो पहले थे। .. जिस धातु का औक्सीकरण हो जाता है
वह जंग में बदल जाती है।'' इन पंक्तियों को पढ़कर सिद्धांतकर
भी खुश हो सकते हैं और कह सकते हैं कि 'देखो कहा था न,
नये की सृष्टि में पुराने का विनाश हो जाता है।' लेकिन अगर सच में सिद्धांतकर यह कहते हैं तो वे भारी मुर्खता करेंगे। विज्ञान
की 9वीं क्लास
का छात्र भी आज बता देगा कि लोहे और औक्सीजन के संयोग से बने जंग में लोहा और औक्सीजन
ही मौजूद रहता है और कोई अन्य चीज उसमें प्रवेश नहीं करता है। जंग एक मौलिक
पदार्थ के रूप में लोहे और औक्सीजन से पूरी तरह भिन्न होते हुए भी अपने संघटक
तत्वों के रूप में वह लोहे और औक्सीजन से भिन्न नहीं है अर्थात लोहा और औक्सीजन
जंग में संरक्षित होते हैं, न कि नष्ट हो जाते हैं। जाहिर है
वे पुन: प्राप्त भी किये जा सकते हैं। खनिजों से धातुओं के उत्कर्षन की विधि हजारों
सालों से विद्यमान हैं और सिद्धांतकर साहब इसे जरूरत ही जानते होंगे। जब हम किसी
खनिज से उसके संघटक का, मान लीजिए लौह अयस्क से लोहे का,
उत्कर्षण करते हैं तो क्या इससे यह साबित नहीं होता है कि लोहा
लौह अयस्क में संरक्षित था? इसी तरह क्या हम पानी का विद्युतीय विखंडन कर के हम हाइड्रोजन और औक्सीजन
प्राप्त नहीं करते है? यह नये में पुराने का संरक्षण नहीं तो और क्या है? पदार्थों के और भी अधिक
सुक्ष्म संघटकों (इलेक्ट्रोन और प्रोट्रोन आदि) की बात करें तो संरक्षण की यह प्रक्रिया और भी स्पष्ट दिखाई
देती है।
आइए, अब यह
देखें कि इतिहास में नये में पुराने का संरक्षण होता है अथवा नहीं, और अगर होता है
तो कैसे?
इतिहास में
''निषेध का निषेध''
और नये
में पुराने का संरक्षण
''निषेध के निषेध'' के
बारे में भी आम तौर पर कई लोगों को यह भ्रम रहता है कि इसमें सिर्फ नष्ट होने और
नये का निर्माण होने की बात है, संरक्षण की तो कोई बात नहीं है। खासकर इतिहास
में निषेध के निषेध को लेकर काफी भ्रम की स्थिति है। आइए, देखें
एंगेल्स किस तरह उस सामाजिक क्रांति के संदर्भ में किस प्रकार ''निषेध के निषेध''
की व्याख्या करते हैं जो पूँजीवादी निजी स्वामित्व का निषेध कर देगी, लेकिन तब
भी इसमें पुराने का कुछ संरक्षित भी होता है। वे मार्क्स को उद्धृत करते हैं –
''यह निषेध का निषेघ होता है। इससे उत्पादक के लिए निजी स्वामित्व
की पुनर्स्थापना नहीं होती, किंतु उसे पूँजीवादी युग की
उपलब्धियों पर आधारित अर्थात सहकारिता और भूमि तथा उत्पादन के साधनों के सामूहिक
स्वामित्व पर आधारित व्यक्तिगत स्वामित्व मिल जाता है। व्यक्तिगत श्रम से उत्पन्न होने वाले बिखरे हुए निजी स्वामित्व
के पूँजीवादी निजी स्वामित्व में रूपांतरित हो जाने की क्रिया स्वभावतया
पूँजीवादी निजी स्वामित्व के समाजीकृत स्वामित्व में रूपांतरित हो जाने की
क्रिया की तुलना में कहीं अधिक लंबी, कठिन और हिंसात्मक
होती है, क्योंकि पूँजीवादी निजी स्वामित्व तो व्यवहार में पहले से ही समाजीकृत उत्पादन
पर आधारित होता है।'' (Anti-Duhring)
यहाँ भी स्पष्ट है कि ''निषेध
के निषेध'' में पुराने का सब कुछ नष्ट नहीं हो जाता है। जो समाजीकृत स्वामित्व
अस्तित्व में आता है वह भी शून्य से पैदा नहीं लेता है, अपतिु ''पूँजीवादी युग की उपलब्ध्यिों पर आधारित होता है'' और
समाजीकृत स्वामित्व का भौतिक पूर्वाधार पूँजीवाद के गर्भ में पहले से मौजूद रहता
है इस अर्थ में कि पूँजीवादी निजी स्वामित्व व्यवहार में पहले से ही समाजीकृत
उत्पादन पर आधारित होता है।
बात को और आगे बढ़ाया जाए
तो हमें यह मालूम होगा कि पूँजीवादी निजी स्वामित्व में मौजूद ''निजी स्वामित्व''
भी समाजीकृत स्वामित्व में पूरी तरह नष्ट नहीं हो जाता है।
एंगेल्स लिखते हैं – ''जो कोई भी सीधी और साफ बात समझने की
सामर्थ्य रखता है उसको यह समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी कि इसका अर्थ यह है कि
सामूहिक स्वामित्व भूमि और उत्पादन के अन्य साधनों पर होगा और ''व्यक्तिगत या निजी स्वामित्व'' बाकी वस्तुओं
अर्थात उपभोग की वस्तुओं पर होगा।''
मार्क्स भी लिखते हैं – ''इस समाज
की कुल पैदावार सामाजिक होती है। उसका एक हिस्सा उत्पादन के नये साधनों के रूप
में काम आता है और इसलिए सामाजिक ही बना रहता है। लेकिन दूसरे हिस्से का समाज के
सदस्य जीवन निर्वाह के साधनों के रूप में उपभोग करते हैं। चुनांचे इस हिस्से का
उनके बीच बंटबारा आवश्यक हो जाता है।'' ( बोल्ड मूल लेख में,
पूँजी, मास्को संस्करण, पृष्ठ 885-886)
हम यहाँ भी स्पष्ट देख
सकते हैं कि निजी स्वामित्व का पूरी तरह लोप नहीं हो जाता है, यानि, नये
में पुराने का सब कुछ नष्ट नहीं हो जाता है।
पूँजी का
प्राक इतिहास हमें यह बताता है कि पूँजीवादी युग के आगमन के पहले, लघु उद्योग के जमाने में, उत्पादन के साधन मजदूरों
की निजी संपत्ति हुआ करते थे। पूँजीवादी युग में प्रवेश करते समाज में पूँजी का
आदिम संचय इस तरह हुआ कि उनकी संपति का अपहरण कर लिया गया। परंतु यह यूँ ही नहीं
हुआ, अपितु इसलिए संभव हुआ क्योंकि इसके पीछे यह ऐतिहासिक
कारण मौजूद था कि ''वह (लधु उत्पादन के अंतर्गत उत्पादन के
साधनों पर मजदूरों के निजी स्वामित्व का बना रहना - लेखक) उत्पादन और समाज के
केवल संकुचित और आदिम सीमाओं के साथ ही मेल खाता था।'' लेकिन
यहाँ इस लेख की विषयवस्तु के लिहाज से हमारे लिए महत्वपूर्ण बात यह समझना है कि
उत्पादन के साधनों पर मजदूरों के जिस निजी स्वामित्व का अंत हो गया, वह एक बार फिर से पूँजीवादी निजी स्वामित्व में प्रकट हो गया और उसका
पूरी तरह लोप नहीं हुआ। मार्क्स आगे लिखते हैं – ''जैसे ही
उत्पादन की पूँजीवादी प्रणाली अपने पैरों पर खड़ी होती है, वैसे
ही श्रम का और अधिक रूपांतरण और इसीलिए निजी संपत्ति के मालिकों का और अधिक
संपत्तिहरण एक नया रूप धारण कर लेते हैं'' जो अपने अंतर्य
में नई चीज में परिणत होता जाता है लेकिन बाह्य रूप में निजी स्वामित्व
प्रतिष्ठित रहता है ताकि ''अधिकाधिक बढ़ते पैमाने पर श्रम
क्रिया के सहकारी (समाजीकृत) स्वरूप विकसित होते जाने के फलस्वरूप .... उत्पन्न
होने वाली समस्त सुविधाओं पर कुछ लोगों के (जिनका उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व
कायम हो चुका है) एकाधिकार को बनाया जाना संभव हो और उसे कानूनी रूप भी प्रदान
करे।'' रूप में यह एकाधिकार निजी होते हुए भी अंतर्य में यह सामाजिक स्वामित्व
के भौतिक पूर्वाधार का काम करता है, क्योंकि श्रम के ऐसे
औजार पैदा कर लिए जाते हैं जिनका उपयोग केवल सामूहिक ढंग से ही किया जा सकता है।
यह समाज की वह अवस्था होती है जब उत्पादन के साधन और उत्पादित वस्तुएं दोनों
निजी स्वामित्व के अंतर्गत होती हैं, परंतु जो अपने अंतर्य
में अपने विपरीत में पूरी तरह बदल जाती है।'' यह एक अंतरविरोध की स्थिति है जिसका
समाधान वह सामाजिक क्रांति करती है और ऐसा वह समाजीकृत उत्पादन पर आधारित समाज व्यवस्था
को समाजीकृत स्वामित्व के हवाले कर के करती है। परंतु फिर भी यह ऐसा सिर्फ
पूँजीवादी युग की उपलब्धियों के आधार पर ही करती है और उन उपलब्धियों को बिना
संपूर्ण तौर पर नष्ट किए ही करती है। हम इसके बारे में ऊपर चर्चा कर चुके हैं। इसी
तरह, पूँजीवाद के अंतर्गत मौजूद उत्पादन
के साधनों को क्रांति नष्ट नहीं करती है, अपितु वही वह सबसे
महत्वपूर्ण चीज होती है जिसको आगे की प्रगति का आधार बनाया जाता है, यानि पूँजीवाद के अंतर्गत जो था उसका हम समूल विनाश नहीं करते हैं,
अपितु इन उत्पादन के साधनों के पूँजीवादी स्वरूप को, जो जीवित श्रम को विशीभूत किए हुए था, हम खत्म करते
हैं, इनके सामाजिक चरित्र को पूँजीवादी बंधन से मुक्त कर
देते हैं या दूसरे शब्दों में, हम पूँजी के चरित्र से इसकी
छुट्टी कर देते हैं, इसकी अबाध प्रगति हो सके और श्रम की उत्पादकता इतनी बढ़ जाए
कि आवश्यक श्रमकाल को हम न्यूनतम बना सकें जो इस बात का आधार बनेगा कि सभी लोग
बिना किसी दवाब के अपने श्रम का मनचाहा क्षेत्रों में योगदान दे सकें और इस तरह
श्रम विभाजन का पूरी तरह और ठोस आधार पर खात्मा किया जा सके। ठीक यहीं पर आकर
समाज बुर्जुआ अधिकार के उस संकीर्ण क्षितिज को भी पार कर सकेगा और शारीरिक व
मानसिक श्रम के अंतर को भी ठोस ढंग से खत्म कर सकेगा। लेकिन तब भी हम उपभोग की
वस्तुओं के मामले में निजी स्वामित्व को खत्म नहीं कर सकेंगे, क्योंकि यह खत्म करने की चीज ही नहीं है। शिवमंगल सिद्धांतकर को इस अर्थ
में आश्वस्त रहने की जरूरत है कि मार्क्सवादी द्वंद्ववाद में पुराने का सब कुछ
नष्ट नहीं हो जाता है और न ही किसी ऐसी नई चीज का निर्माण ही होता है जो इस अर्थ
में बिल्कूल नया हो जिसमें पुराने का सब कुछ नष्ट हो जाता है, जिसमें पुराने का कुछ भी शेष न बचे। ऐसा संभव नहीं है। यह विज्ञान नहीं हो
सकता है और इसलिए यह न तो मार्क्सवाद है और न ही द्वंद्ववाद।
नोट : यह
आलोचना या व्याख्या यहीं खत्म नहीं होती है, इसका दूसरा भाग हम जल्द
ही इस ब्लौग में प्रकाशित करेंगे। दूसरे भाग होगा
''विज्ञान का
भाववादी और आस्थावादी उपयोग और कामरेड शिवमंगल सिद्धांतकर''
विज्ञान
की युगांतरकारी खोजों से भौतिकवादी द्वंद्ववाद का रूप अप्रभावित नहीं रहेगा, उसमें परिवर्तन करने होंगे, परंतु उसकी अंतर्वस्तु
बरकरार रहेगी। (पेज – 228, लुडविग फायरबाख और जर्मन क्लासिकीय दर्शन का अंत'')''