Monday, October 24, 2016

फासीवाद विरोध की संसदीय लाईन बनाम क्रांतिकारी लाईन
की मौजूदा स्थिति  

भारत में फासीवाद के विरूद्ध जब भी संयुक्‍त मोर्चा बनाने की बात आती है, तो सीपीआई-सीपीएम सरीखी वाम पार्टियों के आज तक के व्‍यवहार से इसका एक ही अर्थ लगाया जाता है। और वह अर्थ है वाम पार्टियाँ का भाजपा व संघ विरोधी दलों व पार्टियों से यहाँ तक कि कांग्रेस के साथ चुनावी मोर्चा। इनके लिए फासीवाद विरोधी रणनीति‍ और कार्यनीति का सदैव से यही अर्थ रहा है। 2014 के पूर्व तक इनकी यह रणनीति‍ सांप्रदायिक भापजा और संघ को सरकार में आने से रोकने के लिए कांग्रेस सहित अन्‍य पार्टियों से चुनावी गठबंधन के रूप में कार्यरत थी, संसद के अंदर और संसद के बाहर। जमीनी स्‍तर पर पूँजी और इसकी लूट के विरूद्ध लडा़ई इस रणनीति का हिस्‍सा कभी नहीं रही, कभी नहीं थी। फासीवाद के उभार को रोकने के लिए पूँजी के विरूद्ध, वर्ग शत्रु के खिलाफ और फासीवाद के विरूद्ध मजदूर वर्ग का आह्वान करना इसका हिस्‍सा नहीं था। कांग्रेस और अन्‍य विपक्षी पार्टियों से चुनावी मोर्चा बनाने के अतिरिक्‍त, केंद्र और राज्‍य में बुर्जुआ सत्‍ता की मैनेजरी हासि‍ल करने की जी तोड़ कोशिश के अतिरिक्‍त और इसमें और कुछ नहीं था, जब कि फासीवाद के विरूद्ध अंतरराष्‍ट्रीय मजदूर वर्ग के संघर्ष की विरासत को देखें तो हम साफ-साफ यह देख सकते हैं कि वहाँँ क्‍या नीति अपनाई गई थी और हमें यहाँँ क्‍या नीति अपनानी चाहिए थी। कॉमरेड दिमित्रोव 1935 में इस निमित तैयार किये गये रिपोर्ट में कहते हैं – ''... इसके भी पहले कि मजदूर वर्ग का बहुसंख्यक भाग पूँजीवाद को उखाड़ फेंकने और सर्वहारा क्रांति को विजयी बनाने के लिए संघर्ष में एकताबद्ध हो, यह जरूरी है कि मजदूर वर्ग के सभी हिस्सों की, चाहे वो जिस पार्टी या संगठन के हों, कार्रवाई की एकता कायम हो। ..... कम्युनिस्ट इंटरनेशल कार्रवाई की एकता के लिए एक के अलावा और कोई शर्त नहीं रखता और वह भी सभी मजदूरों को स्वीकार्य एक प्रारंभिक र्शत है अर्थात यह कि कार्रवाई की एकता फासिज्म के खिलाफ, पूँजी के हमले के खिलाफ, वर्ग शत्रु के खिलाफ निर्दिष्ट हो। यही हमारी शर्त है।''  
                हमारे संसदीय वाम की यह रणनीति देश में लंबे काल तक चली। इस बीच इन्‍होनें राज्‍यों में ही नहीं, केंद्र में भी बुर्जुआ सत्‍ता में हिस्‍सेदारी की। केरल, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में तो ये कई दशक तक शासन में रहे हैं और आज भी हैं, बंगाल को छोड़ कर। बुर्जुआ सत्‍ता में इतने लंबे काल तक बने रहना ही इस बात का प्रमाण है कि इन्‍होंने पूँजी के पक्ष में मजदूर–मेहनतकश वर्ग के ऐतिहासिक हितों की तिलांजलि दे दी है। बंगाल में जिस तरह से इन्‍होनें 34 सालों तक शासन किया, जिस तरह से आम जनता के हितों की अनदेखी की ( जो कि देय और स्‍वाभाविक बात है और थी, क्‍योंकि पूँजी की सत्‍ता में वाम के होने से पूँजी का पहिया उलटा नहीं धुमने लगता है) और जिस तरह से पूँजीपतियों के खुंखार सिडीकेट खड़े ‍कर जनता के हितों को कुुचला गया उसका कुप्रभाव पूरे कम्‍युनिस्‍ट और वाम आंदोलन पर पड़ना लाजिमी था सो पड़ा। इस परिस्थिति ने ही फासीवाद के लिए रास्‍ता साफ कर दिया। जब पूँजी का संकट गहरा हुआ, तो इनकी रणनीति ने मजदूर  वर्ग को निहत्‍था कर दिया। आम जनता के बीच भी लाल झंडा इतना बदनाम हो चुका था कि जब संकट से पीस रही जनता हम कम्‍युनिस्‍टों की ओर देखती, जो स्थिति थी उसमें उल्‍टे वाम आंदोलन ही संकट में घिर गया। एकाधिकारी पूँजी के लिए इस तरह रास्‍ता खुला छोड़ दिया गया। गहरे आर्थिक संकट में फंसी पूॅजी को फासीवाद का रास्‍ता अख्तियार करने से आखिर रोकने वाला कौन ?  
                खैर, अभी इस लेख में हमारा उद्दे्श्‍य इसके इस पक्ष पर लिखने का नहीं है। अभी इमारा इरादा एक दूसरी परिस्थिति की ओर इशारा करने का है जो इसी से पैदा हुआ है और अत्‍यधिक खतरनाक है। संसदीय वाम की उपरोक्‍त गद्दारीपूर्ण रणनीति का कुप्रभाव सिर्फ यही नहीं पड़ा कि फासीवाद के लिए रास्‍ता खुला छोड़ दिया गया, अपितु इसका एक बड़ा असर यह पड़ा कि फासीवाद विरोधी संयुक्‍त संघर्ष के नाम से ही कम्‍युनिस्‍टों काा एक हिस्‍सा बिदकने लगा। खासकर क्रांतिकारी कम्‍युनिस्‍टों का एक बड़ा हिस्‍सा यह समझने लगा और आज भी समझता है कि फासीवाद के विरूद्ध संयुक्‍त मोर्चा का अर्थ होगा कांग्रेस और अन्‍य विपक्षी पार्टियों से चुनावी गठबंधन। यह हिस्‍सा यह समझता है कि फासीवाद विरोध के लिए संयुक्‍त मोर्चा की या तो जरूरत ही नहीं है और इसके लिए वे किसी न किसी तरह इससे ही इनकार करते हैं कि फासीवाद का कोई खतरा है, या फि‍र वे जब मोर्चे की जरूरत महसूस करते हैं तो फिर इन्‍हें वही वाम की पुरानी रणनीति‍ ही सही लगती है और वे यह कहते पाये जाते हैं कि अगर फासीवाद आ गया है तो विपक्षी बुर्जुआ पाटियों से तो मोर्चा बनाना ही पड़ेगा। 
          बताइये, कहाँ है इसमें मौजूदा ठोस परिस्थिति का ठोस मूल्‍यांकन करने की जद्दोजहद? कहाँ है यह समझने की कोशिश कि आज की परिस्थिति में फासीवाद की ताकत क्‍या है, ऐतिहासिक रूप से वर्ग शक्तियों का संतुलन क्‍या है? कहाँ है यह समझने की कोशिश कि पूँजीपति वर्ग के बिना भी हम फासीवाद विरोधी विशाल मोर्चा कायम कर सकते हैं कि नहींएक तरह की गद्दारी से दूसरी तरह की मूर्खता का प्रसार कैसे होता है इसका इससे बढि़या नमूना मिलना मुश्किल है।
                बिखरे हुए और छोटी ताकत के रूप में मौजूद क्रांतिकारियों के बीच पायी जाने वाली इस प्रवृत्ति ने इनकी सांगठनिक कमजोरियों को सौ गुना बढ़ा दिया है। कुछ दिनों पहले तक की हुई बहसों में अव्‍वल तो ये यह मानते रहे हैं कि फासीवाद को हौवा है फासीवाद नहीं है। उनकी बातों से यह महसूस हाता है कि वे तब तक नहीं मानेंगे जब तक कि भारत का फासीवाद युद्धोन्‍मादी हो युद्ध न शुरू कर दे, संसद को भंग न कर दे, फासीवादी सैन्‍यवाहिनियाँ गलियों और सड़कों पर मार्च करना न दिखे, वे हमारे घरों में घुस कर हमसे से एक-एक को गायब न करने लगें, पार्टियों खासकर कम्‍युनिस्‍ट संगठनों को प्रतिबंधित न कर दे आदि आदि। यानि संक्षेप में, जब तक फासीवाद हमें विनाश के उस कगार पर नहीं पहुँचा देता है जहाँँ के बाद हमारा अस्तित्‍व ही रहेगा कि नहीं यह सोचना पड़ेगा तब तब तक हम नहीं मानेंगे कि फासीवाद है!!
वाह ! वाह ! क्या समझ है!!
       लेकिन बात इतनी ही नहीं है। इनमें से अधिकांश जब यह स्‍वीकारने के लिए बाध्‍य होते हैं कि हाँ फासीवाद का खतरा है, तो फिर से वे कोई ठोस फि‍र से ठोस परिस्थिति का ठोस मूल्‍यांकन करने का धैर्य नहीं रखते हैं। जब वे फासीवादि‍यों का सत्‍ता में आ जाने को स्‍वीकारते हैं तो उसके बाद रूक कर इस बात पर सोंचने का धैर्य इनके अंदर नहीं है कि भारत में फासीवादियों की स्थिति क्‍या है, इनका शक्ति संतुलन क्‍या है, ये पूरे देश में खुल्‍लमखुला हमला करने की स्थिति में हैं या नहीं, इनके रास्‍ते की अड़चने क्‍या हैं और इस वजह से इनकी कमजोरियों क्‍या हैं, इनके पूर्ण विजय की स्थिति क्‍या है, और इसलिए आज की स्थिति में क्‍या हम पोपुलर फ्रंट बनाये बिना सर्वहारा वर्गीय मोर्चे के तहत ही परास्‍त कर सकते हैं कि नहीं... इन सारी बातों से इन्‍हें कोई मतलब नहीं होता है। या तो फासीवाद से आँख मूँद लेना है और कह देना है कि मोर्चे-वोर्चे की जरूरत ही नहीं है या फिर अगर यह समझ में आ गया कि अरे हाँ खतरा तो है फिर यह इनके लिए दिव्‍य ज्ञान जैसा होता है और  ये इतने घबड़ा जाते हैं कि वे फि‍र बुजुर्आ की शरण में चले जाते हैं। 
सच में यही स्थिति है।  
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आज प्रोलितेरियन मोर्चे का निमार्ण वक्‍त की अहम जरूरत है  
आज और अभी, कल देर हो जाएगी

                 हम उपरोक्‍त परिचर्चा को इसके दूसरे छोर से पकड़ कर आगे बढ़ें। इसका व्यवहारिक अर्थ आखिर क्‍या होगा कि आज के अत्‍यंत खतरनाक हो चले दौर में  भी हम मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी मोर्चे को अभी हाथ में लेने से इनकार करते हैं? इसका क्‍या मायने हैं जब हम यह कहते हैं कि हम इस काम को एकमात्र तभी हाथ में लेंगे जब पूर्ण रूप से विजयी फासीवाद हमारे समक्ष आपादमस्‍तक प्रकट हो जाएगा, और तब तक हम इसके और खूँखार होने का और पूरे समाज के इसके आगे नतमस्‍तक हो जाने का इंतजार करेंगे। आज की तुलना में वह दिन कितना भयानक होगा हमें यह समझना चाहिए। जब वह दिन आयेगा उसके पूर्व ही क्रांतिकारी, जनवादी व प्रगतिशील शक्तियों के एक बड़े हिस्से को फासीवाद नष्ट कर चुका रहेगा। उसकी जकड़ में समाज का अधिकांश क्षेत्र आ चुका होगा और क्रांतिकारी पहलकदमी हमारे हाथों से पूरी तरह निकल चुकी होगी। जब हम यह समझेंगे तभी हमें इसका जवाब मिल सकता है कि फासीवाद के विरूद्ध प्रोलितेरियन मोर्चे का निर्माण आज और अभी ही क्‍यों जरूरी है।
                हम थोड़ी देर के लिए यह मान लें कि अभी फासीवाद विरोधी किसी मोर्चे की जरूरत नहीं है, क्‍योंकि अभी फासीवाद पूरी तरह विजयी नहीं हुआ है। जाहि‍र हम अगर महज फासीवादी प्रवत्तियों तक बात करते हैं, तो इससे यही कार्यनीति निकलेगी कि हम फासीवाद विरोधी किसी रणनीतिक मुहिम के बारे में कम से कम आज नहीं सोंचेंगे। यानि हम इस मोर्चे के बारे में तब सोचेंगे जब फासीवाद पूर्वात: विजयी हो जाएगा। यह संसद वगैरह को भंग कर देगा, राजनीतिक पार्टियों खासकर वाम व कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों व संगठनों को प्रतिबंधित कर देगा और इसकी गंडावाहिनियाँ गलियों और मोहल्‍लों में चुन-चुन कर हमला करने लगेंगी।
                दरअसल इस कार्यनीति से यही चित्र उभरता है जो डरावना है। अगर मान लें कि कल फासीवाद पूर्णरूपेण विजयी हो जाता है और बुर्जुआ जनवाद को पूरी तरह कुचल देता है तो क्‍या हम इसके क्या मायने भी समझते हैं? इसके क्‍या परिणाम होंगे क्‍या हम इसे समझते हैं? यही कि समाज तब तक पूरी तरह पश्‍चगमन की स्थिति में चली जाएगी। हमारे सारे जनतांत्रिक अधिकार पूरी तरह कुचल दिये जाएंगे और मजदूर वर्ग पूरी तरह फासीवाद के चंगुल में जा चुका होगा। आज की तुलना में उसका हाल कितना बुरा होगा हम समझ सकते हैं। फासिज्‍म को पीछे धकेलने का काम तब कितना कठिन हो जाएगा क्‍या हम यह नहीं समझ सकते हैं? हमारा (प्रगतिशील व क्रांतिकारी शक्तियों का) वजूद भी कितना बचेगा हम नहीं कह सकते। तब? तब हमें काफी पीछे हटते हुए और बहुत कुछ गंवाकर इसके विरूद्ध तैयारी करनी पड़ेगी। हमें मजदूर वर्ग के दूरगामी और तात्कालिक सभी लक्ष्यों को स्‍थगित करके एक वृहत्तर पोपुलर मोर्चे के तहत पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से के नेतृत्व के अधीन चलते हुए फासीवाद के विरोध के तरीके में जाना होगा जिसका परिणाम अधिक से अधिक बुर्जुआ जनवाद की पुनर्बहाली होगी। इससे अधिक कुछ नहीं।
                लेकिन आइए, हम उस परिस्थिति की बात करें जब हम आज और अभी ही फासिज्‍म के विरूद्ध एक क्रांतिकारी यानि प्रोलितेरियन मोर्चा कायम करने की शुरूआत करते हैं और बहस को आगे बढ़ाने के लिए हम मान लेते हैं कि हम इसमें सफल भी होते हैं। तब क्‍या होगा? इसका सबसे पहला सुखद परिणाम यह होगा कि हम आज फासीवाद को इसे पूर्ण रूप से ताकतवर और विजयी होने के पूर्व ही परास्‍त कर सकते हैं (और यही बात हमारे लिए सबसे महत्‍वपूर्ण है कि हम इसे पूर्ण रूप से ताकतवर और अजेय होने के पूर्व ही परास्‍त करने की सोचें, अन्‍यथा भारी विध्‍वंस के बाद ही इससे मुक्ति मिलेगी) और उस संभावित विनाश से समाज को बचा सकते हैं जिसकी हमने ऊपर बात की है। आज जबकि फासीवादी अभी पूर्ण रूप से विजयी नहीं हुए हैं और इन्‍होंने अभी सारे किले फतह नहीं किये हैं, हम इसे मजदूरों-मेहनतकशों व गरीब किसानों के विशाल संश्रय के आधार पर (बिना उदार पूँजीपति वर्ग के ही) इसे जमीनी लडा़ई में परास्त कर सकते हैं, बशर्ते हम तमाम मजदूर वर्गीय ताकतें इसके विरूद्ध एक ऐसे मोर्चे का निमार्ण करने के लिए राज़ी हों जो मजदूरों-मेहनतकशों की तमाम तरह की लड़ाईयों को इससे संयुक्त करते हुए तमाम प्रगतिशील ताकतों को सफलतापूर्वक एक सशक्त और एकताबद्ध लामबंदी के लिएजमीनी स्‍तर पर आह्वान कर सके। तब हम न सिर्फ इसके विजय अभियान को रोक सकते हैं, अपितु मजदूर-किसानों का यह विजयी संश्रय बिना रूके अपनी अगली मंजिल यानी फासीवाद को जन्म देने वाली तमाम अन्य शक्तियों को भी जड़मूल से उखाड़ फेंक सकते हैं, यानि हम मजदूर वर्गीय क्रांति की वह मंजिल भी फतह कर सकते हैं जो अन्यथा हमसे काफी दूर प्रतीत होती है। इस तरह हम फासीवाद विरोधी क्रांतिकारी कार्रवाइयों को मजदूर वर्गीय क्रांति के दूरगामी कार्यभार के मातहत ला सकते हैं, उससे संयुक्त कर सकते हैं और इस तरह एक दूसरे को आगे बढ़ा सकते हैं। यह एक ऐसी कार्यनीति जो अगर सफल होती है तो हम एक तीर से दो निशानों पर एक साथ हमले करने में सफल हो जाते हैं। फासीवाद की पूर्ण पराजय और इसका समूल विनाश करने वाला प्रोलितेरियन मोर्चा आगे बढ़कर इतिहास की अगली मंजिल में प्रवेश कर सकती है, जब कि प्रोलितेरियन मोरचे को सुदूर कल के लिए टालने की कार्यनीति हमें फासीवादी विनाश की संभावनाओं को अमली रूप लेने तक इंतजार करने और अंतत: उदार पूँजी‍पति वर्ग के नेतृत्‍व में मोर्चा कायम करने की पश्‍चगामी नीति‍ की ओर धकेलती है। हमें तय करना होगा कि हम क्‍या चाहते हैं?    
                हम दुहरा देना चाहते हैं कि अगर हम फासीवाद के विरूद्ध मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी रणनीति के प्रश्न पर आज उपरोक्‍त आलस्यपूर्ण नीति अपनाते हैं और इतने के बावजूद व्‍यवहार में ऐसा कोई वास्तविक खतरा नहीं देखते हैं, तो इसका अर्थ यही हो सकता है कि हम मजदूर वर्ग सहित तमाम फासीवाद विरोधी ताकतों को भावी खतरों के प्रति हम न सिर्फ उन्‍हें आगाह नहीं करना चाहते हैं, बल्कि उन्‍हें उस समय पूरी तरह निहत्‍था बनाये रखने का अपराध करते हैं जबकि उन्‍हें पूरी तरह भावी खतरों के विरूद्ध पूरी तरह जागरूक और जीवन-मरण के संघर्ष के मैदान में होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्‍य से यही मानसिकता और परिस्थिति आज कम्‍युनि‍स्‍ट आंदोलन में चौतरफा हावी है। यह आलस्‍यपूर्ण परिस्थिति मजदूर वर्ग के आज के राजनीतिक कार्यभार को नेपथ्‍य में धकेल देती रही है। इसे इतना सुदूर धकेल दे रही है कि हम अगर मोर्चा बनाने की बात करते भी हैं तो महज आर्थिक माँगों तक सीमित रहने वाले तात्‍कालिक मोर्चा से आगे कुछ भी देख पाने में अक्षम हो जाते हैं। ऐसा मोर्चा अपने अंतर्य में अतिरक्षात्‍मक तो है ही बुरी तरह असफलता की संभावनाओं से भी ग्रस्‍त है। हम कहना चाहते हैं कि अंतिम परिणाम के तौर पर अपने सीमित अर्थ में भी यह फलदायी नहीं होगा। क्‍योंकि महज आर्थिक माँगों तक सीमित यह मोर्चा जमीनी स्‍तर पर टिकाऊ ही नहीं होगा। मजदूर वर्ग पर जिस तरह के निरंकुश हमले हो रहे हैं, उसमें मजदूर वर्ग का कोई भी मोर्चा हर हाल में निरंकुशता के विरोध के प्रति समर्पित हुए बिना जमीन पर उतर ही नहीं सकेगा। जमीन पर उतरते ही इसे जिस तरह की परिस्थिति का सामना करना पड़ेगा, उससे इसे फासीवाद विरोधी रूख अख्तियार करना ही होगा। दुहरा दें कि अगर यह सच में जमीन पर उतरेगा, तो यही होगा अन्‍यथा यह जमीन पर उतरेगा ही नहीं।      
                आखिर मजदूर वर्ग पर हो रहा आज का हमला आम हमला नहीं है। अगर हमला ज्यादा बड़ा है, निरंकुश, फासिस्‍ट, खुली पूँजीवादी तानाशाही के आवेग से भरा है, अगर इन हमलों की हरेक खेप के साथ उग्र राष्ट्रवाद से युक्त हमले भी शामिल हैं, जब यूनियन बनाने और स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अधिकार खतरे में हैं, आर्थिक हमलों की शक्ल में हमला अगर मजदूर वर्ग के समस्‍त जनवाद और उसके वजूद पर है, तो मोर्चा इन पहलुओं से इतर खालिस आर्थिक माँगों तक कैसे सीमित रह सकता है? वर्तमान दौर में फासीवादी प्रवृत्तियों की अनुगूंज अभी भी उग्रतम रूप में नहीं है यह सच है, लेकिन यह भी सच है कि उसकी पूर्ण विजय की आहट चप्पे-चप्पे पर सुनाई दे रही है। आज कोई मजदूर वर्गीय देशव्यापी संयुक्त कार्रवाई का कोई मंच बनता है और वह इन युगीन राजनीतिक कार्यभारों से इतर बनता है तो वह अत्यंत ही सीमित महत्व का होगा और इसलिए इसका भविष्य शुरू से ही प्रश्नों के घेरे में होगा। हालांकि हम आर्थिक-तात्‍कालिक मोर्चे के महत्व को एकदम से अस्वीकार नहीं रहे हैं।
                दरअसल आज हमें एक ऐसी पहल की जरूरत है जो हमारी क्रांतिकारी पहलकदमी को खोले, हमें भावी चुनौतियों के लिए हमें आज ही तैयार करे, हमारे मौजूदा दौर के क्रांतिकारी कार्यभार को हमारे दूरगामी क्रांतिकारी कार्यभार से जोड़े और उसे पर्याप्त ठोस संदर्भ से लैस करते हुए तमाम सहयोगी शक्तियों की लामबंदी करने में मदद दे और एक पहल से कई और दूसरे बड़े कार्यभारों को पूरा करने का सुयोग प्रदान करे। हमें मौजूदा कार्यभार के प्रति उदासीन, आलस्यपूर्ण और निष्क्रिय रवैया अपनाने और बुर्जुआ वर्ग की पिछलग्गू और क्रांतिकारी दृष्टि से पंगु रणनीति की तरफ ले जाने वाली, हमारे हाथ बांधने वाली और भावी खतरों के प्रति हमें अचेत बनाये रखने वाली नीति का तुरंत परित्याग कर देना चाहिए।
                

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