ग्रीस
का जनमत संग्रह हुआ बेमानी
ग्रीस
का शर्मनाक आत्मसमर्पण,
मानी
सारी बेहूदी शर्तें
--- Ajay Kumar, Monday,
13 July 2015
13
जुलाई की सुबह, सूर्योदय
के ठीक पहले, ब्रसेल्स में लगातार 17 घंटे की वार्ता के बाद
ग्रीस के प्रधानमंत्री अलेक्सी सिप्रास और यूरो क्षेत्र के नेताओं के बीच ग्रीस
के तथाकथित बेल आउट पैकेज के नाम पर कहने के लिए एक समझौता या सौदा आखिरकार सम्पन्न हो गया। हाँ, यह
'कहने के लिए' ही समझौता है। असल में
तो यह क्यूबा पर बनी उस हॉलीवुड फिल्म की तरह है जिसमें कर्जदाता (निवेशकर्ता)
बड़ी नृशंसतापूर्वक पूरे देश को टुकड़ों में बांट कर उसे चट कर जाने की फिराक में
रहते हैं। यह समझौता नहीं एक ऐसी पटकथा है जिसमें मात्र ग्रीस और यूरोपीय यूनियन
ही नहीं, पूरा का पूरा विश्व-पूँजीवाद प्रहसन और ट्रेजडी
दोनों की प्रतिमूर्ति नजर आ रहा है। यह ग्रीस और यूरोपीय यूनियन के लिए ही नहीं
विश्व-पूँजीवाद के लिए भी अभिशाप साबित होगा यह तय है। ग्रीस वैश्विक वित्तीय
अल्पतंत्र का वह फोड़ा है जो इस समझौते के बाद फूटने ही वाला है। ठीक ही उसे ''वर्साय की संधि'' का नया संस्करण कहा जा रहा है जो
एक बार फिर यूरोप का पीछा कर रहा है। इसकी तुलना भूमध्यसागरीय देशों में सैन्य
शासन स्थापित करने वाले 1967 के राज्य विप्लव (coup d’état) से करते हुए ग्रीस के पूर्व वित्त मंत्री यानिस
वरोफाकिस(Yanis Varoufakis) * ने कहा है –
''यह अपमान की राजनीति है .. इसका अर्थशास्त्र से कुछ भी लेना-देना नहीं है। इसका ग्रीस की सेहत ठीक करने के प्रयासों से भी कुछ लेना-देना नहीं है। यह वर्साय की नई संधि है जो एक बार फिर यूरोप का पीछा कर रही है। यह समझौता, जिस पर 17 घंटों की वार्ता के बाद सहमति हुई है, पेंशन में कटोती, करों में वृद्धि और ग्रीक बैंकों के पुन: पूँजीकरण हेतु सरकारी परिसंपतियों को एक ट्रस्ट फंड में जमा करने जैसे कठोर शर्तों से भरा पड़ा है। ..1967 के राज्य विप्लव में जनतंत्र को परास्त करने के लिए पसंदीदा हथियार टैंक थे, तो इस बार ये हथियार बैंक हैं। इसके पहले बैंक का उपयोग सरकारों पर कब्जा करने के लिए होता था, यहाँ अंतर यह है कि पूरी सरकारी संपति ही हड़प ली जा रही है।''
''यह अपमान की राजनीति है .. इसका अर्थशास्त्र से कुछ भी लेना-देना नहीं है। इसका ग्रीस की सेहत ठीक करने के प्रयासों से भी कुछ लेना-देना नहीं है। यह वर्साय की नई संधि है जो एक बार फिर यूरोप का पीछा कर रही है। यह समझौता, जिस पर 17 घंटों की वार्ता के बाद सहमति हुई है, पेंशन में कटोती, करों में वृद्धि और ग्रीक बैंकों के पुन: पूँजीकरण हेतु सरकारी परिसंपतियों को एक ट्रस्ट फंड में जमा करने जैसे कठोर शर्तों से भरा पड़ा है। ..1967 के राज्य विप्लव में जनतंत्र को परास्त करने के लिए पसंदीदा हथियार टैंक थे, तो इस बार ये हथियार बैंक हैं। इसके पहले बैंक का उपयोग सरकारों पर कब्जा करने के लिए होता था, यहाँ अंतर यह है कि पूरी सरकारी संपति ही हड़प ली जा रही है।''
कैसी बिडंबना है जरा सोचिए! अभी से सिर्फ 6 महीने पहले ग्रीस की जनता ने आम चुनावों में ऑस्टेरिटी** के खिलाफ वोट करते हुए 25
जनवरी 2015 को सिरिजा की सरकार को चुना था और अलेक्सी सिप्रास को प्रधानमंत्री की
कुर्सी पर बिठाया था। इतना ही नहीं, अभी एक सप्ताह पहले 5
जुलाई को प्रधानमंत्री सिप्रास द्वारा बुलाए गए जनमत संग्रह में भी जनता ने ऑस्टेरिटी
को भारी बहुमत (61.3 प्रतिशत) से रिजेक्ट किया था। लेकिन इन सबको धत्ता बताते
हुए यूरोपीय तिकड़ी (यूरोपीय यूनियन, यूरोपीय सेंट्रल बैंक
और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष) ने 13 जुलाई को संपन्न हुए यूरो शिखर वार्ता में
ग्रीस पर एक ऐसा समझौता थोप दिया है जो जनमत संग्रह के समय इसके द्वारा पेश किए
गये समझौते से भी अत्यधिक घिनौना है। और, जैसा कि डर था,
सिप्रास इसे स्वीकार कर चुका है। यह अलग बात है कि ग्रीस की जनता
इसे मानेगी नहीं इसका कड़ा विरोध करेगी। इससे ग्रीस और भी अधिक गहरे संकट में धंस
जाएगा। ग्रोथ रेट पूरी तरह रसातल में चला जाएगा अर्थव्यवस्था पूरी तरह बैठ
जाएगी। ऑस्टेरिटी की जकड़ और भयानक हो जाएगी। ''मरता क्या
नहीं करता'' की तर्ज पर ग्रीस की जनता के पास इसके खिलाफ
विद्रोह करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है।
दरअसल, 5 जुलाई के ग्रीक जनमत संग्रह में भारी बहुमत से व्यक्त हुई जनता की राय को महज 10 दिनों के भीतर दो बार रौंदा गया। पहली बार 9 जुलाई को आधे-अधूरे ढंग से स्वयं प्रधानमंत्री सिप्रास और उनके अनुआइयों द्वारा, और फिर 13 जुलाई को बिल्कुल बुरी तरह यूरो शिखर वार्ता में यूरोपीय गिद्धों, खासकर इन सबमें सबसे ताकतवर जर्मनी के द्वारा! यह है ''सभ्य, समझदार और जनतांत्रिक'' समझे जाने वाले यूरोपीय पूँजीपतियों के अपने घर की कहानी! अब हम और आप इसे प्रहसन समझें या ट्रेजडी, लेकिन असलियत में तो यह दोनों ही है। इसका एक निष्कर्ष जो सभी को समझने लायक है और जिसे पूरी ताकत से सभी को सुनाने के लिए जोर से कहा जाना चाहिए वह यह है कि संकटगस्त यूरोपीय पूँजीवाद के चौखट्टे में ऑस्टेरिटी के बंधन से मुक्त होना संभव नहीं है। यह ग्रीस की जनता के लिए ही नहीं, इसी तरह के गहरे वित्तीय संकट को झेलने वाले अन्य यूरोपीय देशों (स्पेन, इटली, पुर्तगाल और आयरलैंड आदि) के लिए और पूरे विश्व की जनता, जो पूँजीवादी-साम्राज्यवादी जुए के नीचे पीस रही है और जो अवश्यंभावी रूप से ग्रीस जैसी स्थिति के तरफ बढ़ रही है, उनके लिए भी यह उतना ही सही है।
ग्रीस की जनता को यह समझना पड़ेगा कि ग्रीस के संकट का पूर्ण निदान
यूरोपीय, यूनानी
या विश्व पूँजीवाद के दायरे में अब संभव नहीं है। जिन्होंने जनमत संग्रह में ''नहीं'' कहा है, उन्हें यह भी
समझना पड़ेगा कि यूरोपीय यूनियन से तो अलग होना ही पड़ेगा, पूँजीवाद से भी अलग होना
पड़ेगा। दूसरे शब्दों में यूरोपीय यूनियन से समाजवादी
विलगाव किये बिना उनके दुःख-तखलीफों का कोई अंत
नहीं है। उन्हें अगर ''ऑस्टेरिटी'' से मुक्त होना है तो पूँजीवाद से भी मुक्त
होना पड़ेगा। यूरोपीय यूनियन से पूँजीवादी किस्म के अलगाव से अर्थात महज यूरोपीय
यूनियन से अलग हो जाने से उन्हें कोई खास लाभ होने वाला नहीं है। इससे महज राष्ट्रीय
किस्म का पूँजीवाद प्राप्त होगा और वे यूरोपीय पूँजीवाद से निकलकर यूनानी राष्ट्रीय
पूँजी के जुए के नीचे आ जाएंगे। वह ग्रीस भी इसी तरह संकटग्रस्त होगा जैसा कि आज
का ग्रीस है। इसमें भी ऑस्टेरिटी का वही शासन होगा जैसा कि आज है।
13 जुलाई का समझौता: ग्रीस की जनता के हितों पर सीधा आक्रमण
सर्वप्रथम बात यह है कि इसमें सारी जर्मन माँगें मान ली गईं जिससे आज हर कोई अचंभित है। यह एक ऐसा समझौता है जिसको देखते हुए कहा जा सकता है कि ग्रीस की संप्रभुता को यूरोपीय गिद्धों की तिकड़ी ने पूरी तरह हड़प लिया है। मसलन, ग्रीस को यह निर्देश दिया गया है कि वह 72 घंटों के अंदर वैट में वृद्धि करने तथा पेंशन की व्यवस्था में कांट-छांट आदि करने की नीति कानूनी तौर पर बनाए और घोषित करे आदि। इसी तरह अन्य दो कदम उठाने की डेडलाईन 22 जुलाई तय की गई है। जब ये कदम उठा लिए जाएंगे और जब इसकी सत्यता की जाँच यूरो ग्रुप द्वारा कर ली जाएगी, तभी एम.ओ.यू. पर वार्ता शुरू की जा सकती है। इतना ही नहीं, नये एम.ओ.यू. को सम्पन्न करने के लिए अन्य सभी क्षेत्रों में भी और अधिक गहरी व बड़ी कटौतियाँ करने की माँग की गई है। जैसे कि, तत्काल पेंशन में और अधिक कटौती करने, प्रोडक्ट मार्केट रिफार्म पूरा करने, इलेक्ट्रिसिटी ग्रिड कंपनी (ADMIE) का निजीकरण करने आदि की माँग की गई है। पूर्व की कुछ चुनिंदा लेबर रिफार्म नीतियों (जैसे कि कलेक्टिव बारगेनिंग ऐग्रीमेंट, जिसे इसके पहले के एम.ओ.यू. में रद्द कर दिया गया था) को लेकर यह निर्देश दिया गया है कि ग्रीस सरकार चाह कर भी पूर्व की उन नीतियों पर नहीं लौट सकता है। दस्तावेज में जर्मन वित्त मंत्री की 50 बिलियन डॉलर मूल्य के यूरो निजीकरण फंड के लिए ग्रीस की परिसंपतियों को नियंत्रण में लेने की माँग भी शामिल कर ली गई है। बस इतनी छूट दी गई है कि यह फंड लक्जेमबर्ग में नहीं, एथेंस (ग्रीस की राजधानी) में स्थित होगा, लेकिन इसका नियंत्रण और निरीक्षण सक्षम यूरोपियन संस्थाओं के हाथ में अर्थात जर्मनी के हाथों में ही होगा। और सबसे बड़ी बात यह कि यूरोपीय तिकड़ी को एथेंस जाकर सब कुछ की जमीनी जाँच करने की छूट होगी। इतना ही नही, उसे ग्रीस के अतीत व भविष्य के तमाम कानूनों पर वीटो करने का अधिकार होगा। प्रस्ताव में कहा गया है –''सरकार को ...कानून के (भावी) मसौदों को जनता की रायशुमारी के लिए भेजने या संसद के पटल पर रखने से पहले उन पर संस्थाओं (यूरोपीय यूनियन, यूरोपीय सेंट्रल बैंक और आई.एम.एफ.) से राय मशविरा करना और उनसे पूरी तरह सहमत होना जरूरी है।'' यही नहीं, यह तिकड़ी पूर्व के पारित हो चुके कानूनों को भी बदलने के अधिकार से संपन्न होने की माँग करती है। दस्तावेज यह माँग करता है कि –''एक 'ह्यूमनटेरियन क्राइसिस बिल' (मानवीय आपदा विधेयक) को छोड़कर, ग्रीस सरकार को उन कानूनों को बदलने के उद्देश्य से उनकी पुन: जाँच-पड़ताल करनी होगी, जिन्हें 20 फरवरी ऐग्रीमेंट के विरूद्ध अपने पूर्व के कार्यक्रम प्रतिबद्धताओं पर पीछे लौटते इसके द्वारा हुए पेश किए गए थे।''
स्पष्ट है यह माँग वर्तमान सरकार को पिछले तमाम एम.ओ.यू. से पूरी तरह बांधता है जिसकी खिलाफत करते हुए यह सरकार सत्ता में आई है। अब इस सरकार को खूद के द्वारा घोर रूप से जन विरोधी एम.ओ.यू. के विरूद्ध बनाये गये कानूनों को बदलने की कारवाई भी करनी होगी। आश्चर्य की बात यह है कि इतना सब कुछ करने के बाद भी नया बेल आउट मिलेगा या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है।
कोई भी देख सकता है कि यह समझौता नहीं ग्रीस की संप्रभुता और आम जनता पर सीधा आक्रमण है। पाशविक शर्तों से बंधे बेल आउट पैकेट और ''कर्ज के पुनर्गठन'' (याद रखें कर्ज की माफी नहीं कर्ज के पुनर्गठन) के अस्पष्ट वायदों के बदले सिप्रास ने ग्रीस की संप्रभुता यूरोपीय तिकड़ी को सौंप दी है। समझौते की बारीकियाँ, जिन्हें हम ऊपर देख चुके हैं, रोंगटे खड़े कर देने वाली हैं। 9 जुलाई को ग्रीस की सिप्रास सरकार ने जिस तरह के समझौते की पेशकश की थी वह भी अपने आप में इसके पहले के स्टैंड से एक शर्मनाक वापसी (climbdown) था, लेकिन 13 जुलाई को उसने जिस समझौते पर दस्तखत किए हैं वह तो अब तक सभ्य दुनिया में हुए वित्तीय आक्रमण की हदों के भी पार जाने वाला आक्रमण है।
इतना सबके बावजूद ग्रीस को ''डेब्ट रिलिफ'' मिलेगा या नहीं, इस पर दस्तावेज या तो चुप है या वह बस गोल-मोल बात करता है। ''डेब्ट रिलिफ'' के विषय पर दस्तावेज में निहित गोल-मोल बात पर भी इस शर्त के द्वारा यह पाबंदी लगा दी गई है कि ''डेब्ट रिलिफ'' संबंधी कदम ''संभावित नये कार्यक्रम में उठाए गए कदमों के पूर्ण क्रियान्वयन, जिन पर आपसी सहमति होगी, पर निर्भर करते हैं और तभी विचारणीय होंगें जब इन सब पर प्रथम सकारात्मक मूल्यांकन पूरा कर लिया जाएगा।'' अंतत: खुले रूप में इनकार कर दिया गया है कि डेब्ट रिलिफ नहीं मिलेगा (''nominal haircuts on the debt cannot be undertaken") जबकि दूसरी तरफ ग्रीस की सरकार से यह माँग की गई है कि ''वह बेशर्त और बिना किसी लाग लपेट के दिए गए समय के मुताबिक अपने कजर्दाताओं के प्रति अपनी वित्तीय देनदारियों को पूरा करने की अपनी प्रतिबद्धताओं को दुहराए।''
9 जुलाई को सिप्रास द्वारा प्रस्तावित समझौत-प्रस्ताव की कहानी
ग्रीस की सिप्रास सरकार द्वारा पेश 9 जुलाई के समझौता-प्रस्ताव
को दरअसल फ्रांसीसी अधिकारियों की देख-रेख में और उनकी सहमति से तैयार किया गया
था। लेकिन यह सब आधा खुले आधा गुप्त
तरीके से किया गया था। स्पष्ट है फ्रांसीसी पूँजी पूरी तरह अपने हितों को ध्यान
में रखकर चल रहा है। इस प्रस्ताव को अमेरिका का गुप्त समर्थन भी प्राप्त था। कहा तो यह भी जा
रहा है कि इसमें फ्रांस ने अमेरिका के एक एजेंट की भूमिका अदा की है। फ्रांस और
अमेरिका की कोशिश यह थी कि इसे जर्मनी भी मान ले। अमेरिका के समर्थन का मुख्य
उद्देश्य यह है कि वह यूरोपीय यूनियन में जर्मनी के बढ़ते कद को और बढ़ने से
रोकना चाहता है।
ग्रीस ने फ्रांस और जर्मनी के बीच के इस अंतविरोध को भांपकर ही
बीच के एक तथाकथित तौर पर ''कम शर्मनाक'' समझौते की चाल चली थी। इस तरह हम इस
प्रकरण से यूरोपीय यूनियन के अंदरूनी अंतरविरोधों को भी देख व समझ सकते हैं कि
इसके सदस्य राष्ट्र किस तरह अपने-अपने हितों के अनुरूप किस हद तक आपस में उलझे
हुए हैं और किस तरह परदे के पीछे से एक दूसरे पर वार कर रहे हैं। हमने यह भी देखा
कि ''सभ्य और समझदार'' यूरोपीय
पूँजीपतियों के सुंदर चेहरे के पीछे एक वास्तविक दानव बैठा है। खासकर यह तब जाहिर
हुआ जब जर्मन वित्त मंत्री ने खुलेआम यह दिखाया कि वह (जर्मनी) किस तरह पूरी
निर्ममता से ग्रीस की जनता को चूस लेना चाहता है। उसने यह भी दिखाया कि जर्मनी किस
तरह अपने उन सहयोगियों के प्रति घृणा और दुर्भावना से भरा हुआ है जो बीच का रास्ता
चाहते हैं और जो चाहते हैं कि ग्रीस पर एक ऐसा समझौता नहीं थोपा जाए जिससे वह
यूरोपीय यूनियन से अलग हो जाए या उसे निकाल बाहर करना पड़े।
जाहिर है फ्रांस और अमेरिका जैसी शक्तियाँ मुर्गी (ग्रीस) को एक बार में ही हलाल करने के पक्षधर नहीं हैं। वे चाहते हैं कि ''मुर्गी'' को हलाल करने के बदले उससे निकलने वाले चूजे को चूसा जाए। लेकिन इसके लिए मुर्गी (ग्रीस) को ''डेब्ट रिलिफ'' देना जरूरी है नहीं तो मुर्गी हाथ से निकल जाएगी। अब सवाल है, इसका बोझ कौन उठाए? फ्रांस चाहता है, यह भार जर्मनी उठाए। उसका अपना तर्क है। वह यह कि जर्मन बैंक ग्रीस के कर्ज संकट से सबसे ज्यादा एक्सपोज्ड (जुड़े हुए) हैं और इससे होने वाले लाभ और हानि भी उसी के हैं, इसलिए डेब्ट रिलिफ का सबसे ज्यादा बोझ भी इसे ही उठाना चाहिए। जाहिर है जर्मनी इसके लिए तैयार नहीं है। वह यह भी समझता है कि इसके पीछे फ्रांस की वित्तीय व बड़ी पूँजी अपनी चाल चल रही है।
दूसरी तरफ, फ्रांस और अमेरिका इस खतरे को भी
भांप रहे हैं या कम से कम भांपने का दिखावा कर रहे हैं कि ग्रीस संकट के और अधिक
बढ़ने से अर्थात ग्रीस के पूरी तरह दिवालिया हो जाने और यूरोपीय यूनियन से पूरी
तरह बाहर हो जाने से पूरी विश्व की अर्थव्यवस्था, जो पहले
ही जर्जर हो एक और नई मंदी के तरफ सरकती जा रही है, पर इसके
अत्यंत घातक असर पड़ सकते हैं। चीन के स्टॉक एक्सचेंज के बुलबुले के फटने से
विश्व-अर्थव्यवस्था इतनी खतरनाक स्थिति में चली गई है कि एक मामूली झटका भी इसे
फिर से रसातल में पहुँचा सकता है। इसके अतिरिक्त फ्रांस और अमेरिका जैसी शक्तियों
को यह अहसास भी हो चुका है कि ग्रीस के कर्ज को संभाला नहीं जा सकता है या व्यवस्थित
ढंग से मैनेज नहीं किया जा सकता है और ग्रीस कभी भी अपने सारे कर्जे लौटा नहीं
सकेगा। आई.एम.एफ. अपने अधिकारिक रिपोर्ट में कह भी चुका है कि कर्ज के एक हिस्से
को त्यागना ही होगा (a
haircut is needed)। यह भी एक कारण रहा है कि
फ्रांस गुप्त तरीके से और अमेरिका खुले तौर पर यह माँग करता रहा है कि जर्मनी
ग्रीस को ''डेब्ट रिलिफ'' देने के लिए राज़ी हो जाए।
दूसरी तरफ, जर्मनी यह पूछ रहा है कि अगर फ्रांस के पैसे दांव पर लगे होते तो क्या वह इसके लिए राजी होता? वैसे भी जर्मन वित्त पूँजी की जकड़ में फंसे ग्रीस को जर्मन वित्त पूँजी एक मिनट के लिए भी इसे स्वतंत्रतापूर्वक सांस लेते देखना नहीं चाहती है, तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वित्त पूँजी आखिर वित्त पूँजी इसीलिए तो है कि इसमें रत्ती भी भी मानवीयता और इंसानियत नहीं होती है।
संपूर्णता में, परदे के पीछे से 9 जुलाई को सिप्रास के प्रस्ताव के जन्म की यही कहानी है जिसे फ्रांस की सरकार ने वित्त मंत्रियों के यूरोपीय ग्रुप में बहस के लिए पेश किया था।
इस प्रस्ताव को लेकर उधर ग्रीस के संसद में क्या हो रहा था?
हम पाते हैं कि 9 जुलाई के इस प्रस्ताव को संसद की मंजूरी तक
प्राप्त नहीं हो सकी। दरअसल इस प्रस्ताव के संसद के पटल पर रखे जाते ही संसद
टुकड़ों में विभक्त हो गई और ग्रीस की सरकार ने अपना बहुमत खो दिया। फिर भी यह
इसलिए पारित हो सका क्योंकि संसद में इसे विरोधी पार्टियों के सांसदों का सहारा
मिला। संसद का बंटबारा बुछ इस तरह हुआ। सिरिजा के 17 सांसदों ने किसी न किसी
बहाने इसके पक्ष में अपना मत देने से मना कर दिया। इसके दूसरे 15 सांसदों ने विरोध
के साथ इसके पक्ष में मत दिया, जबकि इसके दो सांसदों ने खुल
कर इसके विपक्ष में मत दिया। इसके 8 सांसदों (उर्जा मंत्री और सामाजिक सुरक्षा
मंत्री सहित) ने मतदान का बहिष्कार किया और दूसरे अन्य सात अनुपस्थित रहे। बहिष्कार
करने वालों में पार्टी के लेफ्ट प्लैटफार्म के नेता भी शामिल थे। दूसरी तरफ,
लेफ्ट प्लैटफार्म के 15 सदस्यों ने इसके पक्ष में मतदान करते हुए
भी अपना एक अलग बयान जारी किया जिसमें इन्होंने प्रस्ताव में उठाए गए कदमों का
विरोध किया। इससे यह स्पष्ट है कि सरकार को प्रस्ताव को पारित कराने के लिए
दक्षिणपंथी और धुर दक्षिणपंथी पार्टियों का सहारा लेना पड़ा। और इस तरह अंतत: 11
जुलाई 2015 की सुबह में इसे किसी तरह पारित किया गया। दरअसल इसे पारित नहीं किया
गया, अपितु इस तरह के मतदान के जरिए सरकार को यूरोपीय यूनियन
से इस प्रस्ताव के आधार पर वार्ता करने के लिए अधिकृत किया गया। दूसरी तरफ,
दक्षिणपंथी पार्टियों ने पार्टी के लेफ्ट प्लैटफार्म पर दवाब बनाने
के लिए इसे प्रधानमंत्री अलेक्सी सिप्रास के नेतृत्व में व्यक्त किये गये विश्वास
मत के रूप में पेश किया। हालांकि ''लेफ्ट प्लैटफार्म''
चाहता तो एक अलग ब्लौक के तौर पर प्रस्ताव के सीधे विरोध में अपना
मत डाल सकता था और इन प्रस्तावों के खिलाफ जनगोलबंदी का आह्वान कर सकता था। लेकिन
ग्रीस के संकट से बाहर आने के रास्ते को लेकर स्वयं कई तरह के पूँजीवादी भ्रमों
और पूर्वाग्रहों का शिकार यह लेफ्ट प्लैटफार्म ऐसा करने का साहस नहीं जुटा सका,
जबकि नैतिक तौर पर वह इसके लिए पूरी तरह सक्षम था क्योंकि इस प्रस्ताव
में निहित शर्तें 5 जुलाई को हुए जनमत संग्रह के परिणाम द्वारा व्यक्त जनता की
राय का एकदम खुला उल्लंघन करती हैं।
इस प्रस्ताव को लेकर ब्रसेल्स में क्या हुआ?
हम पाते हैं कि जब यह प्रस्ताव ब्रसेल्स पहुँचा तो वहाँ इसे
जर्मनी के तरफ से खुला और तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका
है। जर्मन वित्त मंत्री ने लिखित तौर पर ग्रीस से एकतरफा आत्मसमर्पण की माँग
की। तर्क यह दिया गया कि ग्रीस के चलते वार्ता टूटते-टूटते बची है, तो इसका दंड
भी इसे मिलना चाहिए। ग्रीस के समक्ष और अधिक कटौतियों और काउंटर-रिफार्म (ग्रीस
सरकार द्वारा किए गए रिफार्म को उलटने वाले रिफार्म) की माँग की गई। 50 बिलियन
डॉलर की ग्रीक परिसंपति को उसके निजीकरण हेतु लक्जेमबर्ग स्थित फंड के नियंत्रण
में रखे जाने की माँग की गई। एक ऐसी माँग भी की गई जिसका व्यवहारिक अर्थ यह है कि
ग्रीस को पाँच बर्ष के लिए यूरो क्षेत्र से बाहर कर दिया जाए।
जर्मन वित्त पूँजी का यह अत्यंत कड़ा रूख उसके इस आकलन पर आधारित है कि ग्रीस का यूरो क्षेत्र से बाहर जाना राजनीतिक और आर्थिक दोनों तौर पर जर्मनी के लिए कोई मायने नहीं रखता है। ग्रीस का यूरो से बाहर चला जाना एक और बेल आउट पैकेज से कम महँगा साबित होगा, उसका ऐसा सोंचना है। उसका मानना है कि तलविहीन गड्ढे में रूपया डालने से बेहतर इस घाटे से बाहर निकल भागना है, जब कि यह पहले से मालूम है कि उसमें से पुन: कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अगर ग्रीस में कोई मानवीय त्रासदी जैसी स्थिति पैदा होती है तो बहुत से बहुत मानवीय मदद के तौर पर वहाँ कुछ रूपये फेंक कर इस झंझट से पूर्ण मुक्ति पा लेना ग्रीस को बेल आउट करने की जिम्मेवारी को ढोते रहने से कहीं सस्ता विकल्प नजर आता है। राजनीतिक तौर पर जर्मनी के इस कड़े रूख का कारण यह है कि वह जानता है कि आज अगर ग्रीस के साथ कुछ नरमी बरती जाती है या इसके कर्ज माफ किए जाते हैं तो कल दूसरे देशों में भी, जहाँ ऑस्टेरिटी लागू हैं, यही माँग उठेगी। यहाँ तक कि फ्रांस की भी लगभग ऐसी ही स्थिति बताई जा रही है। इसीलिए अमेरिका द्वारा, अपने कारणों की वजह से जिसकी चर्चा ऊपर की गई है, ग्रीस को थोड़ी-बहुत राहत पहुँचाने की कोशिश से और इस कोशिश का हिस्सा बने फ्रांस से तिलमिलाए जर्मनी ने आखिरकार शिखर वार्ता में ग्रीस के समक्ष इतनी अहंकारी माँगे रख दी हैं कि उसका एक ही अर्थ लगया जा रहा है। वह यह कि जर्मनी स्वयं यह चाहता है कि ग्रीस तंग होकर वार्ता से और यूरोपीय यूनियन और यूरो से भाग खड़ा हो। बताया जा रहा है कि फिनलैंड, जिसकी सरकार पर पहले ही यूरोपीय यूनियन में अविश्वास रखने वाले धुर दक्षिणपंथी शक्तियों का कब्जा है, ने भी जर्मनी को इस दिशा में उकसाने का काम खूब किया है।
आखिर सिप्रास
ने इस समझौते पर दस्तखत क्यों किए?
यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि आखिर सिप्रास ने इस समझौते पर दस्तखत क्यों किए, जबकि
वह पहले इनका विरोध करता रहा है? हम
पाते हैं कि दरअसल इसका मुख्य कारण सिप्रास और सिरिजा की राजनीतिक रणनीति का वह बुनियादी
आधार है जो पूरी तरह खोखला है जैसा कि वह व्यवहार में आज साबित भी हो चुका है। उनकी
मुख्य स्ट्रेटजी यह थी कि यूरोपीय गिद्धों की तिकड़ी को ऑस्टेरिटी मुक्त
समझौते के लिए समझा लिया जाएगा। फिर आस्टेरिटी के हटने से ग्रोथ होगा जिससे कुछ
दिनों बाद कर्ज की अदायगी भी संभव हो पाएगी। लेकिन जैसा कि आज स्पष्ट हो चुका है, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
जब उसने जनमत संग्रह का आह्वान किया था तो उसके पीछे भी उसकी मंशा यही थी कि जनमत संग्रह में जीत से वार्ता टेबुल पर उसकी आवाज की ताकत बढ़ जाएगी और एक बेहतर समझौता करना आसान और संभव दोनो हो जाएगा। हम देख सकते हैं कि परिणाम ठीक उल्टा हुआ है। हम यह भी देख सकते हैं कि उसका यह विश्वास कि यूरोजोन के साथ रहना एकमात्र विकल्प है उसे वार्ता टेबल पर पूरी तरह हथियारविहीन कर दिया और उसे ग्रीस के लिहाज से बहूदे शर्तों वाले सौदे पर दस्तखत करना पड़ा।
ग्रीस का भविष्य आखिर क्या है?
आगे के संभावित परिदृश्य और ग्रीस के भविष्य के बारे में आज मात्र
यही कहा जा सकता है कि यह समझौता एक और नये संकट की और घिसटते ग्रीस का संभवत:
आखिरी पड़ाव साबित होगा। चंद ही दिनों में संकट और अधिक गहरा हो जाएगा, एक बार फिर ग्रीस दिवालिया
घोषित होगा और इसके बाद या तो वह स्वयं यूरो से बाहर हो जाएगा या उसे बाहर निकाल
दिया जाएगा।
राजनीतिक रूप से यह समझौता सिप्रास सरकार और सिरिजा की राजनीतिक मौत का दस्तावेज है। संभवत: यह सरकार बहुमत खो देगी और गिर जाएगी और एक अस्थाई सरकार बनेगी। यह एक तथाकथित रूप से नेशनल यूनिटी, जिसमें सिरिजा भी संभवत: शामिल होगी, की सरकार होगी जिसके नेतृत्व में अत्यंत ही निर्मम तरीके से ''ऑस्टेरिटी'' लागू की जाएगी जैसा कि यूरोपीय गिद्धों की तिकड़ी चाहती है। इतिहास इस बात का गवाह बनेगा कि वह पार्टी जिसे जनता ने ''ऑस्टेरिटी'' को खत्म करने के लिए चुना था, जल्द वह वह अन्य बुर्जुआ पार्टियों के साथ मिल कर ऑस्टेरिटी को लागू करते देखी जाएगी।
क्या ग्रीस की जनता के पास कोई और विकल्प है?
''लेफ्ट प्लैटफार्म'' के पास विकल्प क्या था?
लेफ्ट प्लैटफार्म द्वारा व्यक्त विकल्प भी उतना ही काल्पनिक
था जितना कि सिप्रास का। उसका मानना है कि ग्रीस को फिर से अपने राष्ट्रीय मुद्रा
में लौट आना चाहिए, लेकिन यूरोपीय यूनियन में बने रहना चाहिए, अर्थात
ग्रीस को राष्ट्रीय पूँजीवाद के युग में लौट आना चाहिए। इसका आधार होगा निर्यात,
राष्ट्रीय उत्पादन, राज्य द्वारा निवेश और ''पब्लिक और प्राईवेट सेक्टर के बीच निर्मित किए जाने वाले एक नये तरह के
उत्पादन संबंध के आधार पर टिकाऊ विकास की ओर अग्रसर होने की नीति। लेकिन यह सोचना
पूरी तरह बकबास है कि एक स्वतंत्र संकटग्रस्त पूँजीवादी ग्रीस के पास संकट से
निकल आने की क्षमता होगी, जबकि उसे लगातार यूरोपीय यूनियन के
मजबूत देशों से जूझते रहना होगा। असल में इस भ्रम की मूल वजह यह है कि ''लेफ्ट प्लैटफार्म'' के लोग शायद यह मानते हैं कि ऑस्टेरिटी एक तरह का
वैचारिक मसला है और वे शायद यह मानते हैं कि ऑस्टेरिटी महज किसी शासक ग्रुप या
व्यक्ति समूह (जैसे बदमाश जर्मन बैंकरों और पूँजीपतियों) की इच्छा और उनके आदेश
से लागू किए जा रहे हैं। वे इसे संकटग्रस्त पूँजीवाद
के आवश्यक उत्पाद के रूप में मान्यता नहीं देते हैं, जबकि ऑस्टेरिटी वह तरीका है जिसके जरिए पूँजीवाद के संकट की कीमत आम जनता व
मजदूर चुकाते हैं। ग्रीस चाहे यूरोपीय यूनियन के भीतर
रहे या अंदर, इस बात में रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ने वाला है। यह गलत धारणा ही
ग्रीस के अवाम के एक अत्यंत ही गाढ़े वक्त में ''लेफ्ट प्लैटफार्म'' की सबसे
बड़ी कमजोरी साबित हुई है।
यह सच है कि आज की तारीख में मेहनतकश लोग ग्रीस के यूरोपीय
यूनियन से बाहर निकलने की कल्पना से भी डरते हैं। उन्हें लगता है ... ग्रीक बैंक
दिवालिया हो बंद हो जाएंगे, उनकी सारी जिंदगी की कमाई बर्बाद हो जाएगी, सारे कल-कारखाने
बंद हो जाएंगे, सब कुछ ठप्प हो जाएगा, ग्रीक पूँजी ग्रीस से निकल कर दूसरे मुल्कों
में मुनाफा कमाने निकल जाएगी आदि आदि। यह भय सही भी है, अगर यूरोपीय यूनियन से अलग
होने के साथ और दूसरे अत्यावश्यक कदम नहीं उठाए जाते हैं। आम जनता का यह भय अगर बना
हुआ है तो यह निश्चित ही सही विकल्प के अभाव को दर्शा रहा है। इस भय को इस गलत और
झूठे तर्क से नहीं भगाया जा सकता है कि ''चंद दिनों तक चीजें गड़बड़
रहेंगी, लेकिन हम अपना रास्ता निकाल ले सकते हैं और एक
मजबूत राष्ट्रीय पूँजीवाद निर्मित कर सकते हैं।'' यह इसलिए
झूठ है क्योंकि इससे अंतत: ग्रीस के लोगों को ऑस्टेरिटी से मुक्ति नहीं मिलेगी,
बल्कि स्थिति वास्तव में और बदतर हो जाएगी, क्योंकि
ग्रीस की भौतिक परिस्थितियाँ और उसके उत्पादन संबंध जस के तस बने रहेंगे। हम
चाहें यूरोपीय यूनियन और यूरो के बाहर या अंदर रहें, संकट की
परिस्थितियों और वजहों में, जिसकी जड़ पूँजीवाद में है,
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। अगर पूरे विश्व में संकट व्याप्त
है तो ग्रीस को निर्यात के बल पर संकट से बाहर निकालने का रास्ता भी एकदम काल्पनिक
ही है।
लेकिन हाँ, अगर ''लेफ्ट प्लैटफार्म'' या कोई अन्य सच्ची क्रांतिकारी ताकत व समूह ग्रीस के यूरोपीय यूनियन व यूरो से ''समाजवादी विलगाव'' की बात करता, तो मेहनतकश अवाम सहित आम जनता को भी यह बात समझ में आती कि सभी कर्जों को मंसूख कर के (वैसे भी ग्रीक संसद द्वारा की गई जाँच में ये सारे कर्ज ''अनैतिक, गैरकानूनी और घृणित'' पाये गए हैं), बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके और ग्रीस के पूँजीपतियों की संपति को जब्त करके अर्थात पूरे ग्रीस को क्रांतिकारी ढंग से पुनर्गठित करने के रास्ते पर चलकर संकट से बाहर आया जा सकता है। और ऐसा करना आज एकदम संभव है। आम अवाम इस बात को समझने के लिए शायद तैयार बैठी है कि सिरिजा के सुधारवादी कम्युनिस्ट नेताओं के ''यर्थाथवाद'' (यर्थाथ से परे कुछ भी नहीं देखने की समझ, जैसे कि यूरोपीय यूनियन और यूरो से जुड़े रहना उनके लिए ऐसा ही एक यर्थाथ है जिसके परे वे नहीं देखना चाहते) से उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं है। आज की स्थिति से बेहतर स्थिति और कोई दूसरी स्थिति नहीं हो सकती है जब समाजवाद की आवश्यकता के बारे में लोगों को समझाया जा सकता है। यह आज आसान और सरल हो चुका है, क्योंकि यह वह समय है जब पिछले पाँच सालों के अत्यंत कटु व्यावहारिक अनुभव ने ग्रीस की जनता को पूँजीवाद की बुराइयों के बारे में गहराई से शिक्षित किया है। ऐसे में उन्हें आसानी से समझाया जा सकता है कि एकमात्र उत्पादन के साधनों के सामुहिक (सामाजिक) स्वामित्व के आधार पर समाज के क्रांतिकारी पुनर्गठन का लक्ष्य ही दुरूह संकट में फंसे ग्रीस के लोगों की मुक्ति का एकमात्र रास्ता बचा है। यही बात स्पेन, इटली, पुर्तगाल और आयरलैंड के लिए भी सही है।
हाँ, यह बात जरूर है कि एक अकेले ग्रीस में समाजवाद की बात करना
कितना जायज होगा, और अगर जायज है भी तो एक अकेले छोटे से देश ग्रीस में समाजवाद
कितना टिकाऊ होगा यह कहना मुश्किल है। ज्यादा उम्मीद है कि यूरोप के बड़े और
मजबूत देश इसका तुरंत गला घोंटने के लिए कूच की तैयारी करेंगे। परंतु, अगर आज ग्रीस
यह कदम उठाने की चेष्टा करता है तो यूरोप के अन्य देश जो इसी तरह के संकट में
फंसे हैं उन तक एक मजबूत क्रांतिकारी संदेश जाएगा और अन्य तरह के संयोगों के मिलन
से यह संभव है कि यूरोप के अपेक्षाकृत एक बड़े हिस्से में कई देश मिलकर एक साथ इस
रास्ते पर कदम उठाने का साहस सकते हैं। तब स्थितियाँ बिल्कुल भिन्न होंगी और शानदार
भी।
यूरोपीय और ग्रीस का पूँजीपति वर्ग को इस बात का गुमान है कि आज की तारीख में ''ऑस्टेरिटी'' को जारी रखने के पक्षधर सांसदों का संसद में बहुमत है। लेकिन वे शायद यह भूल रहे हैं कि वर्ग शक्तियों का संतुलन उनके खिलाफ हो चुका है। अब तो यह दिन के उजाले की तरह साफ है कि या तो यह लड़ाई लड़ी ही नहीं जाएगी और जनता चुपचाप सब कुछ सह लेगी या फिर अगर यह लड़ाई होगी तो संसदीय कार्यवाहियों के जरिए नहीं, अपितु खुले संघर्ष के माध्यम से और सड़क पर लड़ी जाएगी। अगर कोई चीज की कमी दिखाई देती है तो वह है मजदूर वर्ग के खेमे के पास अपना सुदृढ़ और मजबूत सदर मुकाम का अभाव जो उसे ऐसे गाढ़े वक्त में पूरी निर्भीकता, सक्षमता और वैज्ञानिक ढंग की दूर दृष्टि के साथ-साथ वृहत राजनीतिक व सैद्धांतिक रणकौशल के साथ आगे बढ़ने में एक बड़ी बाधा बन रहा है।
फिर भी जब लड़ाई थोप दी गई है और यह सर पर है, तो भला इससे
इनकार कैसे किया जा सकता है? और कौन कह सकता है कि इसी लड़ाई से और इसके दौरान
ही वह सच्ची मजदूर वर्गीय सदर मुकाम नहीं निकल आ सकता है जो सारी कमान अपने हाथों
में थाम ले ले और पूरी तरह ग्रीस का नक्शा बदल दे। कहते हैं न, तूफानी उथल-पथल के दौर में कुछ भी असंभव नहीं है। और ग्रीस ठीक एक ऐसे ही
दौर से तो गुजर रहा है!
इसलिए यह जरूरी है कि ग्रीस में सर्वहारा वर्गीय समाजवाद को
जनता के समक्ष विकल्प के तौर पर पूरी गंभीरता और मजबूती से पेश किया जाना चाहिए।
यह वक्त की माँग भी है, क्योंकि लोग सिप्रास के इस शर्मनाक आत्मसमर्पण से हतप्रभ हैं। जो
हुआ है उस पर लोगों को अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है। लोग पूछ रहे हैं ऐसा
कैसे हो सकता है? लेकिन यही अविश्वास अब आक्रोश और
गुस्से में बदल रहा है। 15 जुलाई को पब्लिक सेक्टर वर्कर्स फेडरेशन (ADEDY) के द्वारा आम हड़ताल की घोषणा
हो चुकी है। उसी दिन पूरे ग्रीस में नये (तीसरे) एम.ओ.यू. के विरोध में प्रदर्शन
करने का फैसला भी हो चुका है। यह दिखा रहा है कि जिन्होने 5 जुलाई को भारी संख्या
में ''नहीं'' कहा है, वे चुपचाप इसे
सहने के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसा लगता है कि एक वृहत वर्गीय लड़ाई का मैदान बन
चुका है और दोनों तरफ की सेनाएँ एक दूसरे के आमने-सामने खड़ी हैं।
अंतत: ग्रीस की वर्तमान हालत अन्य देशों के, खास ग्रीस जैसे संकट झेल रहे देशों के लोगों के लिए भी एक सबक है जो यह समझते हैं कि वे एक ही साथ ''ऑस्टेरिटी'' से लड़ भी सकते हैं और साथ ही में यूरोपीय पूँजीपति वर्ग से समझौता भी कर सकते हैं। और निस्संदेह यह भारत के सीपीआई, सीपीएम और लिबरेशन जैसी सुधारवादी कम्युनिस्ट पाटि्यों के लिए भी सबक है जो यह समझते हैं कि चुनावों में जीत हासिल कर के वे जनता के मुद्दे को और उसके हितों को आगे बढ़ा सकते हैं।
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* ज्ञातव्य हो कि यानिस वरोफाकिस ने समझौता संपन्न होने के
तुरंत बाद सिप्रास को इस शर्मनाक समझौते को संसद में लाने के बजाए आकस्मिक चुनाव
कराने की तैयारी में जाने की सलाह दी थी, लेकिन सिप्रास आज यूरोपीय तिकड़ी
(यूरोपीय यूनियन, यूरोपीय सेंट्रल बैंक और अतरराष्ट्रीय
मुद्रा बैंक) और बुढ़े व जर्जर यूरोपीय साम्राज्यवाद का नया प्यादा बन चुका है।
अब वह संसद के जरिए समझौते की शर्तों को लागू करवाने के लिए ऐड़ी-चोटी का पसीना एक
कर रहा है। यह लेख लिखने तक यह अनिश्चितता बनी हुई है कि संसद में सिप्रास सरकार
की बहुमत रहेगी या जाएगी।
** ''ऑस्टेरिटी'' एक अंग्रेजी शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है सांसारिक सुख-सुविधा का अपनी मर्जी से परित्याग। जब विश्व पूँजीवादी व्यवस्था संकट में पड़ी, विश्व के साम्राज्यवादी बैंकों का दिवाला पिट गया और वित्तीय अल्पतंत्र के किले एक-एक कर ध्वस्त होने लगे, तो पूँजीवादियों-साम्राज्यवादियों ने और खासकर साम्राज्यवादी बैंकरों ने संकट के बोझ को आम जनता खास कर मेहनतकश जनता पर डालने के लिए उनको पूर्व से प्राप्त सुविधाओं में कटोतियाँ शुरू कर दीं (जैसे सब्सिडी खत्म कर देना, पेंशन में कटौती करना, कम (एक तिहाई या एक चौथाई) वेतन पर काम करने के लिए बाध्य करना, ज्यादा से ज्याद कर जनता पर लादना आदि), जबकि स्वयं उनके अपने ठाठ पर कोई आंच तक नहीं आई। आर्थिक व वित्तीय संकट के बोझ को आम जनता पर डालने की इस नीति को ही आज कल ''ऑस्टेरिटी'' कहा जाता है। ग्रीस की आम अवाम पिछले कई बर्षों से यह ''ऑस्टेरिटी'' जबर्दस्ती बर्दाश्त कर रही है। सिरिजा जो कई वाम संगठनों से मिल कर बना है शुरू में इसका विरोधी था और इसीलिए जनता ने इसे जनवरी 2015 में जिताया और सत्ता सौंप दी थी। पिछले 5 जुलाई को हुए जनमत संग्रह में भी जनता ''ऑस्टेरिटी'' का भारी बहुमत से विरोध किया था।
** ''ऑस्टेरिटी'' एक अंग्रेजी शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है सांसारिक सुख-सुविधा का अपनी मर्जी से परित्याग। जब विश्व पूँजीवादी व्यवस्था संकट में पड़ी, विश्व के साम्राज्यवादी बैंकों का दिवाला पिट गया और वित्तीय अल्पतंत्र के किले एक-एक कर ध्वस्त होने लगे, तो पूँजीवादियों-साम्राज्यवादियों ने और खासकर साम्राज्यवादी बैंकरों ने संकट के बोझ को आम जनता खास कर मेहनतकश जनता पर डालने के लिए उनको पूर्व से प्राप्त सुविधाओं में कटोतियाँ शुरू कर दीं (जैसे सब्सिडी खत्म कर देना, पेंशन में कटौती करना, कम (एक तिहाई या एक चौथाई) वेतन पर काम करने के लिए बाध्य करना, ज्यादा से ज्याद कर जनता पर लादना आदि), जबकि स्वयं उनके अपने ठाठ पर कोई आंच तक नहीं आई। आर्थिक व वित्तीय संकट के बोझ को आम जनता पर डालने की इस नीति को ही आज कल ''ऑस्टेरिटी'' कहा जाता है। ग्रीस की आम अवाम पिछले कई बर्षों से यह ''ऑस्टेरिटी'' जबर्दस्ती बर्दाश्त कर रही है। सिरिजा जो कई वाम संगठनों से मिल कर बना है शुरू में इसका विरोधी था और इसीलिए जनता ने इसे जनवरी 2015 में जिताया और सत्ता सौंप दी थी। पिछले 5 जुलाई को हुए जनमत संग्रह में भी जनता ''ऑस्टेरिटी'' का भारी बहुमत से विरोध किया था।
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