चंद दिनों पहले ''सर्वहारा'' के लिए तैयार किया गया लेख
ग्रीस दिवालिया नहीं हुआ,
इसका दिवाला निकाला गया
-- शेखर
ग्रीस में जनमत संग्रह हो चुका है और भारी संख्या में ''नहीं'' के पक्ष में मतदान करके जनता कह चुकी है कि वह यूरोपीय तिकड़ी (यूरोपीय यूनियन, यूरोपीयन सेंट्रल बैंक और आई.एम.एफ.) के घोर जन विरोधी तथा पूँजीपरस्त प्रस्तावों को नामंजूर करती है। दूसरी तरफ, सिप्रास (ग्रीस के प्रधानमंत्री) यूरो शिखर वार्ता के लिए अर्थात यूरोपीय यूनियन, यूरोपीय सेंट्रल बैंक और आई.एम.एफ. के समक्ष नया समझौता-प्रस्ताव भी भेज चुका है। कहा जा रहा है कि इसमें जनविराधी कदमों (जैसे सरकार की परिसंपतियों का निजीकरण करने, पेंशन कम करने, जनता पर टैक्स का बोझ बढ़ाने आदि) की वैसे ही भरमार है जैसे कि बैंकों के प्रस्ताव में थी। इसीलिए ग्रीस की कम्युनिस्ट पार्टी (के.के.ई.) जनता का आह्वान कर रही है कि वे ''नहीं'' की जीत को सिरिजा–अनेल द्वारा पीछे के रास्ते से ''हाँ'' की जीत में न बदलने दें। के.के.ई. का खुला आह्वान है कि जनता सिरिजा-अनेल के जन विरोधी प्रस्तावों, जिसे सरकार ने यूरोपीय तिकड़ी के समक्ष कर्ज की स्वीकृति के लिए पेश किया है, को आगे बढ़कर नामंजूर करे तथा यूरोपीय यूनियन से पूरी तरह अलग होने और एक सच्ची जन-सरकार (People's Government) के गठन की माँग को अमल में लाने हेतु सख्ती से आगे बढ़े। सवाल है जन-सरकार क्या है और इसके पीछे के.के.ई. की मंशा क्या है? वह पिपुल्स डेमोक्रेसी के लिए लोगों का आह्वान कर रही है या किसी और चीज के लिए, हमारे पास इसका उत्तर देने के लिए कुछ भी नहीं है, सिवाय बेसब्री से इसका इंतजार करने का कि परिस्थितियाँ आगे कौन सी करवट लेती हैं। परंतु इसमें कोई शक नहीं है कि ग्रीस आज विश्वपूँजीवाद का सरदर्द ही नहीं दुनिया का सबसे हॉट स्पॉट बन चुका है। अगर यह सच में चल उठा तो कुछ भी हो सकता है। यहाँ से निकलने वाली लाल चिंगारी दुनिया के किसी भी कोने में सर्वहारा क्रांति की ज्वाला भड़का सकती है, विश्वपूँजीवाद की नींव तो यह पहले ही हिला चुकी है।
सवाल है ग्रीस आज जिस संकट में फंसा है और इसकी वजह से विश्व की अर्थव्यवस्था पर जो कुप्रभाव पड़ेंगे उसके लिए जिम्मेवार कौन है? मुख्यधारा की मीडिया इसके लिए स्वयं ग्रीस को पानी पी-पी कर कोस रही है। सरकार की तथाकथित फिजूलखर्ची को दोषी मानते हुए वह एक सुर से कह रही है कि ग्रीस के संकट का मुख्य कारण वहाँ की सरकार द्वारा जनता पर जरूरत से ज्यादा खर्च करना है। ऐसी तस्वीर पेश की जा रही है मानो 'दयालु' बैंकों ने ग्रीस और ग्रीस की जनता को जब-जब जरूरत पड़ी उसे पैसे दिए, लेकिन कृतघ्न ग्रीस आज उनके पैसे लौटाने में आनाकानी कर रहा है।
सवाल है ग्रीस आज जिस संकट में फंसा है और इसकी वजह से विश्व की अर्थव्यवस्था पर जो कुप्रभाव पड़ेंगे उसके लिए जिम्मेवार कौन है? मुख्यधारा की मीडिया इसके लिए स्वयं ग्रीस को पानी पी-पी कर कोस रही है। सरकार की तथाकथित फिजूलखर्ची को दोषी मानते हुए वह एक सुर से कह रही है कि ग्रीस के संकट का मुख्य कारण वहाँ की सरकार द्वारा जनता पर जरूरत से ज्यादा खर्च करना है। ऐसी तस्वीर पेश की जा रही है मानो 'दयालु' बैंकों ने ग्रीस और ग्रीस की जनता को जब-जब जरूरत पड़ी उसे पैसे दिए, लेकिन कृतघ्न ग्रीस आज उनके पैसे लौटाने में आनाकानी कर रहा है।
संकट के कारण की यह व्याख्या एकदम बकबास है। यह मीडिया की सरासर
बदमाशी है। ग्रीस की तरह का संकट झेल रहे दूसरे देशों जैसे स्पेन, इटली, पुर्तगाल और आयरलैंड के बारे में भी यही कहानी
कही जा रही है। और पीछे जाएँ तो लैटिन अमेरिकी देशों को भी बैंकों ने यही सब कह के
लूटा है। ''फिजूलखर्ची'' के आरोपों की
यह कहानी नई नहीं अत्यंत पुरानी है जिसे आज ग्रीस को लेकर थोड़े-बहुत अंतर से
दुहराया भर जा रहा है। पूरे लैटिन अमेरिका, ऐशिया और अफ्रीका
में हर जगह इन साम्राज्यवादी बैंकों ने सरकारों पर यही आरोप लगाकर यही सब किया है
जो आज वे ग्रीस के साथ कर रहे हैं।
इस तरह इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए कि मुनाफाखोर बैंकों ने ही ग्रीस सरकार को जबर्दस्ती ऐसे कर्जो में धकेल दिया जिससे कर्ज या इसे पर चढ़े ब्याज को लौटाने की इसकी शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती गई। जीडीपी-कर्ज का अनुपात नीचे गिरता चला गया। स्थिति यह हो गई कि कर्ज के ऊँचे ब्याज दरों को चुकाने के लिए इसे और भी ऊँचे ब्याज दरों और कड़े से कड़े शर्तो वाले कर्ज की दरकार होती गई। बैंकों ने इसके अर्थतंत्र को पूरी तरह वित्तीय अस्तव्यस्तता और लुटे-पिटे हालत में पहुँचा दिया। फिर बड़ी आसानी से तकलीफ में फंसे ग्रीस को अपने शिकंजे में ले लिया। यह उस रियल लाईफ माफिया की कहानी है जो किसी रेस्तराँ को कब्जाने के पहले कुछ ऐसा करता है जिससे इसका बिजनेस अस्तव्यस्त हो जाए और डूबने लगे। जब वह इसमें सफल हो जाता है तब वही माफिया दया दिखाते हुए इसे आर्थिक मदद करने का वचन देता है, अपनत्व का इजहार करता है। बदले में वह रेस्तराँ का बही-खाता और लेखा-जोखा हथिया कर स्वयं उसका मालिक बन बैठता है। ठीक ऐसा ही ग्रीस के साथ इन बैंकों ने किया है और आज भी कर रहे हैं।
जहाँ तक ''फिजूलखर्ची'' का सवाल है, यह सर्वविदित है कि तमाम पूँजीवादी मुल्कों में सरकारों में शामिल तमाम लोग अपने ऐेशो-आराम पर फिजूलखर्ची करते हैं और भ्रष्टाचार के जरिए सरकारी धन की लूट भी करते हैं। यह उनकी फितरत है और दुनिया के सभी पूँजीवादी देशों में यह सब होता है और आज भी हो रहा है। लेकिन यह कहना कि यह ''फिजूलखर्ची'' जनता पर किए गए खर्च के कारण है सरासर बकबास है और विशुद्ध रूप से एक पूँजीवादी प्रचार है।
सच तो यह है कि ग्रीस के संकट का मुख्य कारण स्वयं ये साम्राज्यवादी बैंक हैं जिन्होंने अपने मुनाफे के लिए ग्रीस को बहला-फुसलाकर आज की स्थिति में घसीट लाया है। इन्होंने ग्रीस को पहले छद्म समृद्धि के सपने दिखाए और ऋण लेकर निवेश और उत्पादन बढ़ाने के जोखिम भरे रास्ते पर खींच लाया। यूरो जोन में शामिल होने से पहले ग्रीस अपनी स्वाभाविक गति से अर्थात अपनी आय और व्यय में लगभग संतुलन कायम करते हुए प्रगति कर रहा था। प्रगति मंद थी, लेकिन ग्रीस और ग्रीस की जनता पर इस कदर कर्ज नहीं था और कहीं कोई खास परेशानी नहीं थी। लेकिन इस मंद गति से सर्वशक्तिशाली अमेरिका और यूरोप की महाशक्ति जर्मनी को परेशानी थी। उनकी वित्तीय कंपनियों व औद्योगिक शक्तियों की निरंतर तीव्र होती मुनाफे की भूख मिटाने के लिए तीव्र गति से विकसित बाजारों (नए शिकारों) की दरकार थी। उनकी नजर यूनान पर पड़ी और वे झट इसे शिकार बनाने के लिए लालायित हो उठे। ग्रीस को तीव्र गति से समृद्ध होने का सपना दिखाया गया। स्वयं ग्रीक पूँजी इसके लिए तैयार बैठी थी। सबने मिलकर बड़े ही शातिराना ढंग ये ''उत्पादन बढ़ाए बिना ही उपभोग बढ़ा कर समृद्ध होने'' के सपने के रथ पर जनता को भी सवार कर लिया। खालिस रूप से वित्तीय पूँजी के हितों को ध्यान में रखते हुए बिना आय बढ़ाए ऋण लेकर बनाबटी ढंग से उपभोग और माँग बढ़ा कर और इस तरह ''अपने आप'' होने वाले औद्योगिक विकास के आधार पर समृद्धि लाने के खतरनाक तर्क के जाल में ग्रीस को फंसाया गया। ग्रीक पूँजीवादी सरकार ने छक कर ऋण लिए। इसी ऋण से जम कर अमेरिका और जर्मनी से हथियार भी खरीदे गये जिसके लिए अमेरिका और जर्मनी ने पुराना हथकंडा अपनाते हुए ग्रीस के बगल के पड़ोसी रूस से खतरे का हौवा खड़ा किया। यह सर्वविदित है कि अपने बाजार के विस्तार के लिए साम्राज्यवादी देश जहाँ दूसरे देश की सरकारों पर हथियार खरीदने का दबाव बनाते हैं वहीं दूसरे देश के नागरिकों पर अपने औद्योगिक सामान खरीदने के लिए भी दवाब बनाते हैं। ग्रीस में यह खेल जम कर खेला गया और ग्रीस की सरकार और इसके नागरिक समृद्ध देशों खासकर जर्मनी और अमेरिका की वित्तीय संस्थाओं के कर्ज में डूबते चले गये। इस तरह उसका घाटा भी बढ़ता गया और ऋण भी। हालांकि यूरो जोन में सकल आय की तुलना में घाटे की एक निश्चित सीमा भी बांधी गई है, लेकिन मुनाफाखेर वित्तीय पूँजी भला कब और क्यों इन नियमों की मोहताज बनने वाली है! अमेरिका की गोल्डमैन सैक्स और जेपी मॉर्गन चेज ने इस नियम के अनुचित काट निकाल लिए। ऋण लेने-देने की ये गतिविधियाँ जब लोगों की जानकारी में आईं तो 2004 में ग्रीस की सरकार को यह मानना पड़ा। उसे यह भी मानना पड़ा कि वह अपने घाटे को जानबूझ कर कम आंकती रही है, जबकि वह वास्तव में सकल घरेलू उत्पादन का पंद्रह प्रतिशत हो चुका था और उसका सार्वजनिक ऋण बढ़ कर डेढ़ सौ प्रतिशत से अधिक हो चुका था।
लेकिन यह ऋण, खासकर सार्वजनिक लोन औद्योगिक विकास पर नहीं, रक्षा तैयारियों (यूनान के राजनीतिक नेतृत्व को यह समझाया कि रूस से भौगोलिक निकटता उसकी सुरक्षा को खतरा है) और दूसरे सेवा क्षेत्र के तेजी से विस्तार और औद्योगिक सामानों की खरीद में खर्च हुआ।
हम पाते हैं कि ग्रीस इस बनाबटी विकास के मॉडल के आधार पर 2000 से 2007 तक यूरोप की सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बना रहा। यह 90 के दशक के 'एशियन टाइगर' की कहानी से मिलती-जुलती कहानी थी। लेकिन इस वृद्धि में बनाबटीपन ज्यादा था क्योंकि बनाबटी माँग (औद्योगिक देशों का सामान खरीदने के लिए यहाँ के नागरिकों को बैंकों से अधिकाधिक कर्ज लेने के लिए प्रेरित किया गया था) के आधार पर यह विकास हुआ था, न कि वास्तविक आय से हुई माँग में वृद्धि के आधार पर। लेकिन भला हो 2008 के वित्तीय संकट और इसके फलस्वरूप आई आर्थिक मंदी का जिसने ''छद्म समृद्धि का सपना दिखा कर ऋण लादते जाने'' के साम्राज्यवादी बैंकों के इस खेल को खत्म कर दिया। साम्राज्यवादी देशों की ग्रीस में जारी लूट पर इससे करारा कुठाराघात हुआ। उन्हें इस खेल से दोहरा-तिहरा फायदा हो रहा था। उनके उद्योग फुल-फल रहे थे, उनकी सेवा और सामान का बाजार लहलहा रहा था, उनकी वित्तीय कंपनियों और बैंको को मोटा मुनाफा हो रहा था। ज्ञातव्य हो कि ऊँची ब्याज दर की इस लूट में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से लगा कर यूरोपीय बैंक तक सभी सम्मिलित थे। वहीं दूसरी तरफ, ऋण के बढ़ते बोझ और ऋण की ऊँची होती ब्याज दरों के कारण ग्रीस बैंकों के फंदे में फंसता जा रहा था। अब वह वास्तविक आय के अभाव में और भी ऊँचे ब्याज दरों पर ऋण लेकर कर्ज चुकाने की स्थिति में फंस चुका था। इसलिए जब 2007-08 से आरंभ हुई मंदी ने पूंजी के प्रवाह को रोक दिया और नए ऋण मुश्किल हो गए, तो ग्रीस अपनी नई व पुरानी देनदारियाँ चुकाने में असफल होता गया और दिवालिया होने के कगार पर आ पहुंचा।
इसके बाद ग्रीस को बेल आउट करने का सिलसिला शुरू हुआ। यह सिलसिला सर्वप्रथम तो इसलिए चला कि ग्रीस का यह संकट केवल ग्रीस का संकट नहीं था। यह संकट उन देशों और उनके बैंकों का संकट भी था जिन्होंने ''ऋण लेकर समृद्धि के सपने'' के उपरोक्त खेल में ऋण दिया था। ग्रीस के दिवालिया होने पर उनके बैंक के डूबने का खतरा भी था। इसलिए प्रथमत: अपने बैंकों को बचाने के लिए ही साम्राज्यवादी व समृद्ध देशों ने ग्रीस को दिवालिया होने से बचाने के नाम पर और ऋण दिया। यह एक नये खेल की शुरूआत थी जिसमें सर्वप्रथम बात यह समझना जरूरी है कि ऋण का अधिकांश पैसा यूनान की सरकार के पास न आकर सीधे उन बैंकों के पास गया जिनका ग्रीस कर्जदार था। ऊपर से इस मदद के नाम पर ''ऑस्टेरिटी'' और ग्रीस की पब्लिक परिसंपतियों की लूट शुरू हो गई सो अलग। ग्रीस पर ''ऑस्टेरिटी'' के नाम पर अनेक प्रतिबंध थोपे गए। बनाबटी माँग तो हवा हो ही गई थी, ''ऑस्टेरिटी'' के कारण वास्तविक माँग और ग्रोथ दोनों जो नीचे सरकते चले गए तो आज तक नहीं रूके। आर्थिक स्रोत सूखते गए। अर्थव्यवस्था सिकुड़ती चली गई। आधे से ज्यादा लोग बेरोजगार हो गए। लोगों के वेतन में अवश्वसनीय कटौतियाँ की गईं। वृद्ध लोगों के पेंशन आधे रह गए। गरीब, आम अवाम और महनतकश जनता तबाह हो गई। उधर पूँजीपतियों और अमीरों ने अपनी पूँजी ग्रीस से निकाल कर यूरोप के फलते-फूलते बाजारों में लगा दिए। इससे स्थिति और भी गंभीर बन गई।
बेल आउट पैकेज दरअसल किसके लिए है यह इससे भी समझा जा सकता है कि इस ''बेल आउट'' के लिए भी ग्रीस पर घिनौने तरीकों से भारी दवाब बनाया गया। यहाँ तक कि ग्रीस सरकार को भारी कर्ज स्वीकार करने के लिए अंतरराष्ट्रीय बैंकरों ने ग्रीस के बॉड्स के वैल्यू को नीचे गिराने की कार्रवाई तक की गई। यह सब 2009 के अंत से शुरू हुआ। ग्रीक बौंडों पर चढ़ने वाले ब्याज दरों में वृद्धि होने लगी। ग्रीस के लिए अब रूपया उधार लेना या महज पुराने बौंड्स को रॉल ऑवर किए रखना भी काफी खर्चीला हो गया। 2009 से 2010 के मध्य तक दस बर्षीय यूनानी बौंडों पर देनदारी का बोझ तिगुना हो गया! यह एक निर्मम वित्तीय हमला था जिसने ग्रीस को घुटने के बल ला खड़ा किया और जिससे बाध्य होकर प्रथम बार 110 बिलियन डॉलर के विशाल कर्ज का सौदा ग्रीस को काफी कड़े शर्तों पर इन बैंकों से करना पड़ा।
शुरू से ही बेल उाउट के जरिए बैंक की मंशा देशों की राजनीति पर नियंत्रण कायम करने की भी थी। यह स्पष्ट रूप से तक दिखा जब 2011 में जब ग्रीस के प्रधानमंत्री ने दूसरी बार भारी भरकम बेल आउट पैकेज लेने से मना कर दिया। तब बैंकों ने उसे पद से ही हटने के लिए बाध्य कर दिया और उसकी जगह यूरोपीय सेंट्रल बैंक के उपाध्यक्ष को ला बिठाया। ऐसा कई बार किया गया। चुनाव की भी कोई जरूरत नहीं पड़ी। और इसके ऐसे कठपुतली प्रधानमंत्री का बस यही काम था कि बैंकरों द्वारा पेश काजों पर धड़ाधड़ अपना दस्तखत करते जाना। इटली में यही सब दुहराया गया। वहां भी प्रधानमंत्री को हटाकर बैंकर की एक कठपुतली को उसकी जगह ला बिठाया गया। हम पाते हैं कि दस दिनों बाद हुए चुनाव में बैंकरों की वही कठपुतली जीत जाती है और जनता मुँह देखती रह जाती है।
तो यह असली कहानी है 'दयालु' बैंकों और उनके सहयोगी साम्राज्यवादी सराकरों की! बड़े मजे से जर्मनी, अमेरिका और इनके जैसे अन्य देशों ने अपने बैंकों के संकट को यूनान सरकार और वहाँ की जनता के कंधों पर डाल दिया। ग्रीस और बड़ा कर्जदार हो गया लेकिन साम्राज्यवादी देशों के बैंक डूबने से बच गए!
इस तरह इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए कि मुनाफाखोर बैंकों ने ही ग्रीस सरकार को जबर्दस्ती ऐसे कर्जो में धकेल दिया जिससे कर्ज या इसे पर चढ़े ब्याज को लौटाने की इसकी शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती गई। जीडीपी-कर्ज का अनुपात नीचे गिरता चला गया। स्थिति यह हो गई कि कर्ज के ऊँचे ब्याज दरों को चुकाने के लिए इसे और भी ऊँचे ब्याज दरों और कड़े से कड़े शर्तो वाले कर्ज की दरकार होती गई। बैंकों ने इसके अर्थतंत्र को पूरी तरह वित्तीय अस्तव्यस्तता और लुटे-पिटे हालत में पहुँचा दिया। फिर बड़ी आसानी से तकलीफ में फंसे ग्रीस को अपने शिकंजे में ले लिया। यह उस रियल लाईफ माफिया की कहानी है जो किसी रेस्तराँ को कब्जाने के पहले कुछ ऐसा करता है जिससे इसका बिजनेस अस्तव्यस्त हो जाए और डूबने लगे। जब वह इसमें सफल हो जाता है तब वही माफिया दया दिखाते हुए इसे आर्थिक मदद करने का वचन देता है, अपनत्व का इजहार करता है। बदले में वह रेस्तराँ का बही-खाता और लेखा-जोखा हथिया कर स्वयं उसका मालिक बन बैठता है। ठीक ऐसा ही ग्रीस के साथ इन बैंकों ने किया है और आज भी कर रहे हैं।
हम पाते हैं कि अंतरराष्ट्रीय बैंकरों के चंगुल में पूरी तरह फंसे एक समूचे राष्ट्र और उसकी अस्मिता के साथ ये बैंक ''ऑस्टेरिटी'' और ''सरंचनात्मक सुधार'' के नाम पर जम कर खिलवाड़ कर रहे हैं। यह स्पष्ट रूप से वित्तीय गंडागर्दी है जो आज ग्रीस के साथ हो रही है। बेल आउट पैकेज के बदले ग्रीस को अपने कई लाभकारी परिसंपतियों को वित्तीय अलपतंत्र और अंतरराष्ट्रीय निगमों के हाथों बेचने पर मजबूर किया जा रहा है। मनमाने तरीके से निजीकरण को अंजाम दिया जा रहा है। हर वह चीज जो लाभकारी है उसको हड़पने की कार्रवाई हो रही है। जल, बिजली, डाकघर, एयरपोर्ट, राष्ट्रीय बैंक, दूरसंचार, पोर्ट अथोरिटीज .. सभी काम की चीजों और लाभकारी परिसंपतियों का निजीकरण कर दिया गया। इन्होंने मीडिया का भी निजीकरण कर दिया। और अब यही मीडिया दिन रात न सिर्फ इन लालची बैंकों को ग्रीस की जनता के मसीहा के रूप में गुणगान करती रहती है, बल्कि यह भी प्रचारित करती रहती हैं कि ''आस्टेरिटी'' को झेलते रहने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।
इसके अतिरिक्त, ये बैंकर ग्रीस के बजट की एक-एक पंक्ति को डिक्टेट कर रहे हैं। अगर ग्रीस की सरकार सैन्य खर्चों में कटौती करना चाहती है तो ये बैंक कहते हैं - यह संभव नहीं है, आप ऐसा नहीं कर सकते। अगर ग्रीस की सरकार वित्तीय कारोबारियों, कंपनियों व निगमों पर कर बढ़ाना चाहती है तो ये कहते हैं - नहीं, यह संभव नहीं है। ग्रीस की सरकार स्वयं अपने मन का बजट तक नहीं बना सकती। बैंकों ने इन्हें पूरी तरह अपना गुलाम बना लिया है।
इस तरह आज जब बैंकरों में हाथ में सब कुछ, बिलकुल सब कुछ चला गया है तो सरकारी खर्च कम होता गया, लेकिन कर्ज और बढ़ता गया! इससे निजात का रास्ता क्या है? बैंक की बात मानें तो एक यही रास्ता है - इन्हें और लूटने दो, खर्च और कम करो, मजदूरों की छंटनी करो, न्यूनतम मजदूरी की दर कम करो, उन चीजों और सेवाओं पर कर बढ़ाओं जिनका प्रभाव 99% आबादी पर पड़े लेकिन 1% धनी आबादी पर बिलकुल ही न पड़े। इसी का यह परिणाम है कि पेंशन आधा रह गया है। बिक्री कर 20% से बढ़ा दिया गया। ग्रीस के अंदर एक वित्तीय भूचाल सा आ गया जो कि 1930 की महामंदी से भी खराब परिणाम पैदा कर रहा है।
इतना सबके बाद आज भी इन हृदयविहीन बैंकरों के द्वारा यही कहा जा रहा है - और टैक्स बढ़ाओ! पेंशन में और कटौती करो! यही हाल स्पेन, इटली, पुर्तगाल, आयरलैंड और दूसरे अन्य देशों के साथ भी हुआ है जो ''ऑस्टेरिटी'' के शासन में हैं। ज्ञातव्य है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद न जाने कितनी बार आई.एम.एफ. और वर्ल्ड बैंक ने इन्हीं नीतियों को लैटिन अमेरिका, एशिया और अफ्रीका के देशों में लागू किया है। यही है वह दुनिया – कर्ज मालिकों और कर्ज गुलामों की दुनिया, जिसे चंद मुट्ठीभर अंतरराष्ट्रीय निगमों और वित्तीय अल्पतंत्र ने नई वैश्विक व्यवस्था का नाम दिया है और आज का ग्रीस जिसका सबसे नायाब उदाहरण पेश कर रहा है।
2008 के संकट पर चंद और बातें
जब 2008 के संकट की बात चली है, तो आइए, संक्षेप में उस पर भी चंद बातें कर लें।
अमेरिका के सब-प्राइम संकट को याद कीजिए। इससे ऊपजे 2008 का वित्तीय महासंकट ही वह पहला बड़ा कारण है जिसने ग्रीस को पहली बार दिक्कतों में डाला था। क्या इसमें किसी को कोई शक है कि 2008 का वित्तीय संकट अमेरीकी वाल स्ट्रीट और लालची अंतरराष्ट्रीय बैंकरों का किया धरा था? अगर यह कहा जाए कि सब-प्राइम संकट और 2008 का वित्तीय महासंकट निर्लज्ज वित्तीय हरामखोरी की औलाद था तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। संक्षेप में इसकी कहानी कुछ इस प्रकार है जिसे आज हम सभी को एक बार फिर से याद करना चाहिए।
ज्ञातव्य है कि मुनाफा के संकट से जूझ रही अमेरिकी वित्तीय-बैंक पूँजी ने सब-प्राइम कर्ज संकट (अमेरिका के सबसे गरीब और बेधर लोगों, जिनकी आय का कोई निश्चित स्रोत नहीं था, को दिये जाने वाले कर्ज को सब-प्राइम कर्ज कहा जाता है) के माध्यम से गिरवी कारोबार के एक बड़े दैत्याकार कारोबार को जन्म दे दिया था जिसे बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थाओं और महाप्रभुओं ने मिलकर लूट और झूठ का एक बड़ा गोरखधंधा बना दिया। अमेरिका के हाउसिंग सेक्टर में एकाएक भारी उछाल लाया गया। मुनाफा का सूखा और मुद्रा पूँजी की अतितरलता (बैंकों में मुद्रा पूँजी का बेकार पड़ा रहना और कर्ज लेने वालों की कमी) से त्रस्त अमेरिकी बैंकों सहित दुनिया भर की वित्तीय कंपनियों ने इस बहती गंगा में हाथ धोने यानि अधिक से अधिक मुनाफा बटोरने की कोशिश की। दरअसल हुआ यह कि जब सब-प्राइम कर्ज और बढ़े ब्याज दर की अदायगी में छिटपुट दिक्कतें आईं, तो संभलने के बजाए बैंकों ने एक दूसरा ही खेल शुरू कर दिया। ऊँचे ब्याज दरों और संभावित अकूत मुनाफा को दिखाकर बैंकों ने हाउसिंग सेक्टर के उछाल से फायदा उठाने के लिए बेताब वित्तीय साहुकार कंपनियों को इसमें कूदने के लिए आकर्षित और प्रेरित करने का काम शुरू कर दिया। वित्तीय साहुकार कंपनियों ने लोगों के घर गिरवी रख लिए और बैंकों से ऋणपत्र खरीद लिए। गिरवी रखे घरों को बेचकर अकूत लाभ कमाने का मंसूबा इनकी योजना का मुख्य हिस्सा था।
लेकिन बात इतने पर रूकी नहीं। बैंको ने गिरवी कोरोबार में कूदने की वित्तीय कारोबारियों की ललक को ताड़ा और 'मार्टगेज्ड बैक्ड सिक्योरिटीज' और 'कोलैटरलाइज्ड डेब्ट ऑब्लीगेशंस' जैसे नये वित्तीय हथियार डेरिवेटिव शेयर मार्केट में इजाद कर उतार दिए। अब बैंक (कर्जदाता) कर्ज की रिपैकेजिंग कर के अमेरिका और विदेश के दूसरे वित्तीय संस्थानों को शेयर मार्केट के जरिए आसानी से बेच सकते थे। इस तरह शुरू में छिटपुट रूप से चलने वाला धंधा डेरिभेटिव मार्केट में संस्थाबद्ध होने के बाद पूर्ण रूप से गोरखधंधा में परिणत हो गया। ऊँचे ब्याज दर के लोभ के कारण वित्तीय कंपनियाँ इस पर लुझ पड़ीं। ऊँचा ब्याज दर और मकानों के गिरवी कारोबार से प्राप्त होने वाली ऊँची कमाई – वित्त पूँजी को और क्या चाहिए! अब बैंक गरीब लोगों को कर्ज बांटते और फिर इस तरह के कई कर्जे को मिलाकर एक यूनिट बनाकर वित्तीय कंपनियों को बेच देते। कई ऋणों को मिलाकर बने एक यूनिट ऋण को ही डेरिभेटिव कहा जाता है। अकूत मुनाफा के लिए जरूरी था कि घरों की माँग में उछाल-दर-उछाल आए और इसे कृत्रिम तौर पर बनाया रखा जाए। और ठीक यही किया गया। कुछ दिनों तक कृत्रिम तौर पर उछाल-दर-उछाल आता रहा। 'बहती गंगा' में नहाने के उद्देश्य से पूरे विश्व की लगभग सभी बड़ी वित्तीय कंपनियाँ ऐसे शेयरों पर टूट पड़ीं।
बैंकों के इन क्रिमिनल गतिविधियों को बढ़ावा देने का काम बैंकिंग व्यवस्था के ही एक दूसरे अंग रेटिंग एजेंसियों (जैसे कि एस एंड पी, फिच एंड मूडी आदि) ने किया था जिन्होंने इन फिक्शस (काल्पनिक) वित्तीय उत्पादों को चमकदार (बढ़ा-चढ़ा कर) रेटिंग दिए ताकि इनकी साख ऊँची रहे और ये आसानी से ऊँचे दामों पर बिक सकें।
लालची राजनीतिज्ञ भी इसमें कूद पड़े। वित्तीय कंपनियों ने सरकारों की मदद से इस गोरखधंधे को फैलाने के उद्देश्य से राजनीतिज्ञों को अपने पे-रोल पर रखना शुरू कर दिया। सबसे बढ़िया उदाहरण टॉनी ब्लेयर हैं जिनके द्वारा बैंकों ने बाजाप्ता पैसा देकर इन वित्तीय उत्पादों को पेंशन फंड, म्यूनिसिपैलिटी और यूरोप के अन्य देशों से जोड़ने का काम करवाया। बैकों और वाल स्ट्रीट ने सैंकड़ों बिलियन डॉलर इस पर खर्च किए।
लेकिन कुछ ही बर्षों में यह बनाबटी वित्तीय बुलबुला फूट गया। वित्तीय टाईम बम अंतत: ब्लास्ट कर गया। कमर्सियल और निवेश बैंक धड़ाधड़ हफ्ते भर में धराशायी होने लगे। चारो तरफ अफरा-तफरी की स्थिति थी। निवेश और पूँजी दोनो क्षण भर में उड़नछू हो गये।
लेकिन क्या इससे वित्तीय पूँजी की लूट-खसोट की पाशविक प्रवृति पर कोई असर पड़ा? नहीं, बिल्कुल भी नहीं। वित्तीय गिद्धों ने इस स्थिति में भी अपनी लाक्षणिक आदमखोर और पाशविक प्रवृति के अनुरूप ही आचरण किया। आखिर वित्त पूँजी वित्त पूँजी न हो अगर वह सुपर मुनाफा के लिए अंधी दौड़ न लगाए और पाशविक प्रवृति न दिखाए! याद कीजिए वह दिन जब एक तरफ वित्तीय कंपनियाँ धराशाई हो रही थीं और दूसरी तरफ बर्बाद हुई कंपनियों को कौड़ी के मोल खरीदने के लिए दूसरे वित्तीय गिरोह कूदे पड़े हुए थे। इसका सबसे बढ़िया नमूना अमेरिकी कर्ज व निवेश बैंक जे.पी.मार्गन के मुख्य अधिकारी ने पेश किया था, जिन्होंने साफ-साफ कहा था कि ''जोखिम है तो क्या हुआ, यह मुनाफा के विस्तार का अवसर भी देता है।'' यह बयान तब आया था जब बर्बाद हो चुके 'वाशिंटन म्युचुअल फंड' की परिसंपतियों को जेपी मार्गन द्वारा खरीदे जाने की कार्रवाई पर सवाल खड़े हुए थे। अति मुनाफा कमाने के अवसर को दोनों हाथों से बटोरने का वित्त पूँजी का यह चिरपरिचित तर्क है जो दिखाता है कि आज की ग्रीस की माजूदा स्थिति और कुछ नहीं जर्जर पॅूंजीवाद और वित्तीय पूँजी व अल्पतंत्र की ऐसी ही पाशविकता की ऊपज है।
2008 के संकट के समय कुछ बैंक ऐसे भी थे जो ''इनसाइडर'' होने की वजह से सकट के बुरे प्रभावों से बच गए थे। गिद्ध प्रवृति रखने वाले वित्तीय अल्पतंत्र के दूसरे संघटकों जैसे गोल्डमैन सैक्स और अन्य दूसरे बैंकों ने तीन तरीके से मुनाफा कमाया। पहला, इन्होंने दूसरे बैंको जैसे लेहमन ब्रदर्स और वाशिंगटन म्युचुअल को कोड़ियों के भाव खरीद लिए। दूसरा, गोल्डमैन सैक्स और जॉन पॉल्सन, जो इस खेल के अंदरूनी खिलाड़ी थे, ने यह बाजी लगाई थी कि ये सिक्योरिटीज का जल्द ही दिवाला पिटेगा और ये नीलाम होंगे। यह ठीक उसी तरह की चीज थी मानो आतंकवादियों ने 9/11 की बाजी लगाई हो। इस बाजी से उन्होंने बिलियन डॉलर कमाए और मीडिया में इनकी समझदारी का खूब वाह–वाह भी हुआ। तीसरा, बड़े बैंकों ने उन नागरिकों से बेल आउट पैकेज की माँग की जिनकी जिंदगियाँ इन बैंकों ने ही तबाह कर दी थीं। अमेरिका में इन बैंकरों ने सैंकड़ों बिलियन डॉलर टैक्सदाताओं से प्राप्त किए, तो वहीं फेडेरल रिजर्व बैंक से इन्होने ट्रिलियन डॉलर की बेल आउट पैकेज भी प्राप्त किए। और यह फेडेरल रिजर्व बैंक आखिर है क्या है? यह इन्हीं बैंकरों का अग्रिम ग्रुप दस्ता नहीं है? यह ध्यान देने लायक बात है कि ग्रीस में घरेलू बैंकों ने ग्रीस की सरकार से 30 बिलियन डॉलर के बेल आउट पैकेज हड़प लिए थे। गैर जिम्मेवार होने के आरोप से विभूषित ग्रीस सरकार ने जिम्मेवार होने का दावा करने वालों पूँजीवादी बैंकरों को बेल आउट किया था! क्या साम्राज्यवादी बैंकों के भाड़े के टट्टुओं की तरह बात करने वाली मीडिया को यह बात याद है? क्या इन सब बातों का कोई जवाब उनके पास है जो बैंकरों की तरफ से यह तर्क दे रहे हैं कि यह संकट ग्रीस सरकार की गैरजिम्मेवारीपूर्ण घरेलू कारईवाइयों का नतीजा है?
इससे मुक्ति इस वैश्विक अर्थव्यवस्था को नये तरीके से मैनेज करने, इसकी क्रियाविधि में परिवर्तन करने और इसके संचालकों को बदलने आदि में नहीं, बल्कि इसे पूरी तरह से ध्वस्त कर देने और इसकी जगह एक ऐसी नई व्यवस्था कायम करने में निहित है जिसमें निरंकुश पूँजी व वित्तीय पूँजी की अवारागर्दी और हरामखोरी को सदा-सर्वदा के लिए कब्र में दफन कर दिया जाएगा। निश्चय ही इसके सिवा मानवजाति के पास इससे मुक्ति का अन्य कोई दूसरा रास्ता नहीं है।
(यह लेख पहले के स्वरूप से बदले स्वरूप में है)
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