वह दिन जल्द ही आने वाला है जब देश की सम्पदा पर कब्ज़ा जमाए अम्बानियों (पूंजीपतियों) और उनके सरकारी व गैर सरकारी दलालों को भारत्त की मेहनतकश ज़नता माकूल सजा देगी!
देश की गैस संपदा किसकी है? जनता की या अंबानी की? इस देश का संविधान कहता है इस देश की धरती के अंदर और आकाश में मौज़ूद सारी संपदा का असली और अंतिम मालिक स्वयं देश की जनता है। फिर यह कैसे हो रहा है कि अंबानी के साथ मिलकर हमारी ही चुनी हुई सरकार हमें ही चुना लगाने पर तुली हुई है? और क्या हम अंबानी/अंबानियों और सरकार को सबक नहीं सीखा सकते हैं? अगर हाँ, तो कैसे?
आज़ गैस के दाम आसमान छू रहे हैं. इसमें सरकार और रिलाएँस दोनों जनता के साथ मनमानी कर रहे हैं. पहले यह देखें कि कुएं अम्बानी ने किस तरह हथियाये। अम्बानी के KG बेसिन का मालिक बनने की कहानी बहुत दिलचस्प है जो बताती है कि हमारे देश का जनतंत्र वास्तव मे क़िस तरह का जनतंत्र हैं। दरअसल जनतंत्र के नाम पर एक डाकेजनी क़ी वयवस्था चल रही हैं।
KG बेसिन क्या है? KG बेसिन यानी कृष्णा गोदावरी बेसिन आंध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्र में कृष्णा और गोदावरी नदी किनारे करीब 50000 स्क्वायर किलोमीटर में फैला वह इलाका हैं जहाँ के एक हिस्से में रिलायंस इंडस्ट्री ने देश के सबसे बड़े गैस के भण्डार का पता लगाया था। इसे ही KG D6 अर्थात KG धीरुभाई-6 कहा जाता है। यह 7645 स्क्वायर किलोमीटर का एरिया है और इसमें जिस खास जगह पर गैस का पता लगा उस जगह को KG-DWN-98/1 कहा जाता है। इस बेसिन के रिलायंस के हाथ में जाने की कहानी 1991 में शुरू हुई निजीकरण कि नीतियों से जुडी है जिसके तहत भारत सरकार ने कई भारतीय निजी कंपनियों और विदेशी कंपनियों को तेल की खोज और उसके उत्पादन में शामिल किया। लेकिन फिर 1999 में, वाजपेयी की सरकार ने न्यू एक्सप्लोरेशन एंड लाइसेंसिंग पालिसी (NELP) लाकर छोटे-छोटे ब्लॉक्स, जो अलग-अलग कंपनियों को दिए जा रहे थे, को बंद करके एकमुश्त एक बड़ा ब्लाक, अर्थात KG D6, रिलायंस को दे दिया गया। इस तरह से रिलायंस का इस क्षेत्र में एकाधिकार दिया गया।
इसमें सरकार के अपने तर्क है? उसका कहना है कि जो इस काम में सक्षम हैं उनको ही तो दिया तेल उत्पादन का काम दिया जाना चाहिए। अब यह सवाल बेमानी है कि "बेसिन तो रिलायंस को दे दिया गया, पर क्या सरकार का उस पर नियंत्रण है?" जब एकाधिकार ही दे दिया गया, तो सरकार का नियंत्रण क्योँ और कीस तरह रहेंगा ? यह तो कहने भर की बात है कि "क्योंकि कोई भी प्राकृतिक सम्पदा देश के जनता की होती है. इसीलिए सरकार इस एक्सप्लोरेशन और प्रोडक्शन को मॉनिटर करती है।" कहने के लिए हम कह सकते है क़ि "प्राकृतिक सम्पदा को निजी कंपनी कैसे निकालती और बेचती है इसे मॉनिटर करने के लिए सरकार प्रोडक्शन शेयरिंग कॉन्ट्रैक्ट (PSC) के तहत निजी कंपनियों के साथ समझौता और उन पर निगरानी करती है" आदि आदि, लेकिन सच्चाई यही है कि यह सब सिर्फ दिखाबे के लिए होता है। दिखाबे के तहत ही PSC के बारे में कहा जाता है कि यह "दरअसल एक कॉन्ट्रैक्ट है जिसमें खरीदने और बेचने वाली पार्टी के लिए नियम कानून तय किये गए हैं।" फिर यह भी कहा जाता है कि "प्राकृतिक सम्पदा की खोज करने से लेकर उस सम्पदा को निकाल कर बेचने तक कौन-कौन से प्रक्रियाओं को फॉलो करना है… साथ ही इस कॉन्ट्रैक्ट में मुनाफे का बंटवारा कैसे होगा… इसकी भी एक कानूनी प्रक्रिया है और इस कॉन्ट्रैक्ट का उल्लंघन न हो, इस बात को तय करने के लिए डायरेक्टरेट जनरल ऑफ़ हाइड्रोकार्बन (DGH) भी नियुक्त किया गया है", लेकिन हम जानते है कि इस PAC कॉन्ट्रैक्ट, जिस पर रिलायंस और भारत सरकार ने साईन किया है, का आज क्या हश्र हो चुका है।
अब आगे बढ़ें। जून 2004 में NTPC ने 2600 मेगावाट वाले अपने दो पॉवर प्लांट (कवास और गंधार में मौजूद है) के लिए बोली लगाती है रिलायंस को NTPC को 17 साल तक 2.34$ के हिसाब से 132 ट्रिलियन यूनिट गैस देने का ठेका मिल जाता है। लेकिन कुछ ही दिनों बाद रिलायंस ने NTPC को 2.34$ के हिसाब से गैस देने से मना कर दिया. NTPC ने रिलायंस को मुंबई कोर्ट में घसीटा, लेकिन 20 दिसंबर 2005 से लेकर 2014 तक 9 साल बाद भी यह ख़त्म नहीं हो पाया है. NTPC जैसी संस्था के साथ इतने बड़े धोखें के बावजूद सरकार चुपचाप देखती रही। सरकार को रिलायंस पर चाबूक चलाकर उसे सबक सिखाना चाहिए था, लेकिन उलटे 2007 में, जब NTPC और रिलायंस का झगड़ा कोर्ट में चल ही रहा रहा था, सरकार ने इस मामले को एमपावर्ड ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स (EGOM) के सुपुर्द कर के, जिसकी अध्यक्षता अभी के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी खुद कर रहे थे, 2.34$ की दर को बढ़ा कर 4.2$ कर देने का फैसला कर दिया! यह था रिलायंस मोनोपोली क़ा प्रभाव, जो बिलकुल स्पष्ट है और कोई भी देख और समझ सकता है।
कोई पूछ सकता है कि रेट बढ़ाने का आखिर कोइ तो आधार होगा। लेकिन यह जानकर किसी को भी आश्चर्य होगा कि दाम बढ़ाने-घटाने और कोर्ट कचहरी आदि का खेल तब चल रह था जब जब KG बेसिन से एक ग्राम गैस भी नहीं निकाली गयी थी। बेसिन बंद था. दरअसल यह सब दाम/रेट बढ़ाने हेतु दबाव बनाने के लिए ही किया गया था। जैसे ही दाम 4.2$ किया गया, वैसे ही रिलायंस ने गैस निकलना शुरू कर दिया। इस पर एक पूरा का पूरा नाटक रचा गए और फिर उसे मंचित किया गया। रिलायंस ने ही सरकार को एक फार्मूला दिया था कि उन कंपनियों को, जो रिलायंस से गैस लेना चाहते थे, एक ख़ास रेट/ दाम (4.54$ और 4.75$ के बीच) बताया जाय। फिर रिलायंस ने ही EGOM को दाम 4.59$ कर देने को कहा। बाद में रिलायंस ने इसे भी कम करके 4.3$ कर दिया. इसके बाद प्रणब मुखर्जी ने इसमें मामूली कटौती करके 4.2$ कर दिया और अपनी पीठ थपथपाई कि न उसकी चली, न इसकी चलेगी, चलेगी तो सिर्फ हमारी ही चलेगी. इस तरह रिलायंस और सरकार ने मिलकर इस ड्रामे को अंजाम तक पहुँचाया। इस ड्रामे पर भारत सरकार के पॉवर एंड एनर्जी विंग के प्रिंसिपल एडवाइजर सूर्या पी सेठी ने आपत्ति भीं की थीं, लेकिन उनकी सुनने वाला कौन था? उनका कहना था कि "विश्व में कहीं भी गैस की कीमत 1.43$ से ज्यादा नहीं है, फिर अपने ही देश के कुएं से लोग 4.2$ में गैस क्यों लें?"
यही नहीं, "2011 की कैग की रिपोर्ट के अनुसार बिना कोई कुआँ खोदे रिलायंस पेट्रोलियम मिलने के दावे करती रही. मतलब खुद रिलायंस को नहीं पता था कि कितना गैस कितने कुओं में है। रिलायंस को केवल 25% हिस्से पर काम करना था, लेकिन PSC के कॉन्ट्रैक्ट के खिलाफ जाकर रिलायंस ने समूचे बेसिन में काम शुरू कर दिया था और सरकार ने इसमें कोई टोका टाकी तक नहीं की।"
लेकिन रिलायंस के मुनाफे की भूख तो असीमित हैं। 4.2$ के रेट पर भी वह कब तक ठहरती? जब भाजपा की मोदी सरकार बनी, उसके पहले ही मोदी को समर्थन औऱ सहयोग देने के बदले इस रेट को बढ़ाकर 8$ करने का कॉन्ट्रैक्ट मोदी और भाजपा से हो गया था, इस बात का प्रमाण यह है कि मोदी की सरकार आते है इस 4.2$ के रेट को बढ़ाकर 8$ कर दिया गया है। इसी बेसिन से बंगलादेश को यही गैस करीब 2$ में दिया जाता है !! अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में भी यह रेट नहीं है। दुनिया में केवल 1.43$ के रेट से लोगों को गैस मिल रहा है।
देश की गैस संपदा किसकी है? जनता की या अंबानी की? इस देश का संविधान कहता है इस देश की धरती के अंदर और आकाश में मौज़ूद सारी संपदा का असली और अंतिम मालिक स्वयं देश की जनता है। फिर यह कैसे हो रहा है कि अंबानी के साथ मिलकर हमारी ही चुनी हुई सरकार हमें ही चुना लगाने पर तुली हुई है? और क्या हम अंबानी/अंबानियों और सरकार को सबक नहीं सीखा सकते हैं? अगर हाँ, तो कैसे?
आज़ गैस के दाम आसमान छू रहे हैं. इसमें सरकार और रिलाएँस दोनों जनता के साथ मनमानी कर रहे हैं. पहले यह देखें कि कुएं अम्बानी ने किस तरह हथियाये। अम्बानी के KG बेसिन का मालिक बनने की कहानी बहुत दिलचस्प है जो बताती है कि हमारे देश का जनतंत्र वास्तव मे क़िस तरह का जनतंत्र हैं। दरअसल जनतंत्र के नाम पर एक डाकेजनी क़ी वयवस्था चल रही हैं।
KG बेसिन क्या है? KG बेसिन यानी कृष्णा गोदावरी बेसिन आंध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्र में कृष्णा और गोदावरी नदी किनारे करीब 50000 स्क्वायर किलोमीटर में फैला वह इलाका हैं जहाँ के एक हिस्से में रिलायंस इंडस्ट्री ने देश के सबसे बड़े गैस के भण्डार का पता लगाया था। इसे ही KG D6 अर्थात KG धीरुभाई-6 कहा जाता है। यह 7645 स्क्वायर किलोमीटर का एरिया है और इसमें जिस खास जगह पर गैस का पता लगा उस जगह को KG-DWN-98/1 कहा जाता है। इस बेसिन के रिलायंस के हाथ में जाने की कहानी 1991 में शुरू हुई निजीकरण कि नीतियों से जुडी है जिसके तहत भारत सरकार ने कई भारतीय निजी कंपनियों और विदेशी कंपनियों को तेल की खोज और उसके उत्पादन में शामिल किया। लेकिन फिर 1999 में, वाजपेयी की सरकार ने न्यू एक्सप्लोरेशन एंड लाइसेंसिंग पालिसी (NELP) लाकर छोटे-छोटे ब्लॉक्स, जो अलग-अलग कंपनियों को दिए जा रहे थे, को बंद करके एकमुश्त एक बड़ा ब्लाक, अर्थात KG D6, रिलायंस को दे दिया गया। इस तरह से रिलायंस का इस क्षेत्र में एकाधिकार दिया गया।
इसमें सरकार के अपने तर्क है? उसका कहना है कि जो इस काम में सक्षम हैं उनको ही तो दिया तेल उत्पादन का काम दिया जाना चाहिए। अब यह सवाल बेमानी है कि "बेसिन तो रिलायंस को दे दिया गया, पर क्या सरकार का उस पर नियंत्रण है?" जब एकाधिकार ही दे दिया गया, तो सरकार का नियंत्रण क्योँ और कीस तरह रहेंगा ? यह तो कहने भर की बात है कि "क्योंकि कोई भी प्राकृतिक सम्पदा देश के जनता की होती है. इसीलिए सरकार इस एक्सप्लोरेशन और प्रोडक्शन को मॉनिटर करती है।" कहने के लिए हम कह सकते है क़ि "प्राकृतिक सम्पदा को निजी कंपनी कैसे निकालती और बेचती है इसे मॉनिटर करने के लिए सरकार प्रोडक्शन शेयरिंग कॉन्ट्रैक्ट (PSC) के तहत निजी कंपनियों के साथ समझौता और उन पर निगरानी करती है" आदि आदि, लेकिन सच्चाई यही है कि यह सब सिर्फ दिखाबे के लिए होता है। दिखाबे के तहत ही PSC के बारे में कहा जाता है कि यह "दरअसल एक कॉन्ट्रैक्ट है जिसमें खरीदने और बेचने वाली पार्टी के लिए नियम कानून तय किये गए हैं।" फिर यह भी कहा जाता है कि "प्राकृतिक सम्पदा की खोज करने से लेकर उस सम्पदा को निकाल कर बेचने तक कौन-कौन से प्रक्रियाओं को फॉलो करना है… साथ ही इस कॉन्ट्रैक्ट में मुनाफे का बंटवारा कैसे होगा… इसकी भी एक कानूनी प्रक्रिया है और इस कॉन्ट्रैक्ट का उल्लंघन न हो, इस बात को तय करने के लिए डायरेक्टरेट जनरल ऑफ़ हाइड्रोकार्बन (DGH) भी नियुक्त किया गया है", लेकिन हम जानते है कि इस PAC कॉन्ट्रैक्ट, जिस पर रिलायंस और भारत सरकार ने साईन किया है, का आज क्या हश्र हो चुका है।
अब आगे बढ़ें। जून 2004 में NTPC ने 2600 मेगावाट वाले अपने दो पॉवर प्लांट (कवास और गंधार में मौजूद है) के लिए बोली लगाती है रिलायंस को NTPC को 17 साल तक 2.34$ के हिसाब से 132 ट्रिलियन यूनिट गैस देने का ठेका मिल जाता है। लेकिन कुछ ही दिनों बाद रिलायंस ने NTPC को 2.34$ के हिसाब से गैस देने से मना कर दिया. NTPC ने रिलायंस को मुंबई कोर्ट में घसीटा, लेकिन 20 दिसंबर 2005 से लेकर 2014 तक 9 साल बाद भी यह ख़त्म नहीं हो पाया है. NTPC जैसी संस्था के साथ इतने बड़े धोखें के बावजूद सरकार चुपचाप देखती रही। सरकार को रिलायंस पर चाबूक चलाकर उसे सबक सिखाना चाहिए था, लेकिन उलटे 2007 में, जब NTPC और रिलायंस का झगड़ा कोर्ट में चल ही रहा रहा था, सरकार ने इस मामले को एमपावर्ड ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स (EGOM) के सुपुर्द कर के, जिसकी अध्यक्षता अभी के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी खुद कर रहे थे, 2.34$ की दर को बढ़ा कर 4.2$ कर देने का फैसला कर दिया! यह था रिलायंस मोनोपोली क़ा प्रभाव, जो बिलकुल स्पष्ट है और कोई भी देख और समझ सकता है।
कोई पूछ सकता है कि रेट बढ़ाने का आखिर कोइ तो आधार होगा। लेकिन यह जानकर किसी को भी आश्चर्य होगा कि दाम बढ़ाने-घटाने और कोर्ट कचहरी आदि का खेल तब चल रह था जब जब KG बेसिन से एक ग्राम गैस भी नहीं निकाली गयी थी। बेसिन बंद था. दरअसल यह सब दाम/रेट बढ़ाने हेतु दबाव बनाने के लिए ही किया गया था। जैसे ही दाम 4.2$ किया गया, वैसे ही रिलायंस ने गैस निकलना शुरू कर दिया। इस पर एक पूरा का पूरा नाटक रचा गए और फिर उसे मंचित किया गया। रिलायंस ने ही सरकार को एक फार्मूला दिया था कि उन कंपनियों को, जो रिलायंस से गैस लेना चाहते थे, एक ख़ास रेट/ दाम (4.54$ और 4.75$ के बीच) बताया जाय। फिर रिलायंस ने ही EGOM को दाम 4.59$ कर देने को कहा। बाद में रिलायंस ने इसे भी कम करके 4.3$ कर दिया. इसके बाद प्रणब मुखर्जी ने इसमें मामूली कटौती करके 4.2$ कर दिया और अपनी पीठ थपथपाई कि न उसकी चली, न इसकी चलेगी, चलेगी तो सिर्फ हमारी ही चलेगी. इस तरह रिलायंस और सरकार ने मिलकर इस ड्रामे को अंजाम तक पहुँचाया। इस ड्रामे पर भारत सरकार के पॉवर एंड एनर्जी विंग के प्रिंसिपल एडवाइजर सूर्या पी सेठी ने आपत्ति भीं की थीं, लेकिन उनकी सुनने वाला कौन था? उनका कहना था कि "विश्व में कहीं भी गैस की कीमत 1.43$ से ज्यादा नहीं है, फिर अपने ही देश के कुएं से लोग 4.2$ में गैस क्यों लें?"
यही नहीं, "2011 की कैग की रिपोर्ट के अनुसार बिना कोई कुआँ खोदे रिलायंस पेट्रोलियम मिलने के दावे करती रही. मतलब खुद रिलायंस को नहीं पता था कि कितना गैस कितने कुओं में है। रिलायंस को केवल 25% हिस्से पर काम करना था, लेकिन PSC के कॉन्ट्रैक्ट के खिलाफ जाकर रिलायंस ने समूचे बेसिन में काम शुरू कर दिया था और सरकार ने इसमें कोई टोका टाकी तक नहीं की।"
लेकिन रिलायंस के मुनाफे की भूख तो असीमित हैं। 4.2$ के रेट पर भी वह कब तक ठहरती? जब भाजपा की मोदी सरकार बनी, उसके पहले ही मोदी को समर्थन औऱ सहयोग देने के बदले इस रेट को बढ़ाकर 8$ करने का कॉन्ट्रैक्ट मोदी और भाजपा से हो गया था, इस बात का प्रमाण यह है कि मोदी की सरकार आते है इस 4.2$ के रेट को बढ़ाकर 8$ कर दिया गया है। इसी बेसिन से बंगलादेश को यही गैस करीब 2$ में दिया जाता है !! अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में भी यह रेट नहीं है। दुनिया में केवल 1.43$ के रेट से लोगों को गैस मिल रहा है।