Wednesday, May 13, 2015

(किस्‍त5)

आलोचना नहीं निवेदन

काश, राजनीतिक अर्थशास्‍त्र पर यह लेखक

 की अंतिम कृति हो!




''दूसरी और, कुल पूँजी की स्‍वप्रसार दर, अथवा लाभ दर के पूँजीवादी उत्‍पादन का प्रेरक होने के कारण (जैसे पूँजी का स्‍वप्रसार उसका एकमात्र प्रयोजन है) उसका ह्रास नयी स्‍वतंत्र पूँजी की उत्‍पाति को रोकता है और इस प्रकार पूँजीवादी उत्‍पादन प्रक्रिया के विकास के लिए खतरे जैसा प्रतीत होता है। वह अत्‍युत्‍पादन, सट्टाखोरी, संकटों और बेशी आबादी के साथ-साथ बेशी पूँजी को जन्‍म देता है। इसलिए जो अर्थशास्‍त्री रिकार्डो की तरह पूँजीवादी उत्‍पादन प्रणाली को परम मानते हैं, वे इस स्‍थल पर अनुभव करते हैं कि यह प्रणाली स्‍वयं एक बाधा बन जाती है और इस कारण बाधा को उत्‍पादन नहीं, बल्कि प्रकृति से (किराये के सिद्धांत से) जोड़ते हैं। लेकिन ह्रासमान लाभ दर की उनकी दहशत के बारे में मुख्‍य बात यह अहसास ही है कि अपनी उत्‍पादक शक्तियों के विकास में पूँजीवादी उत्‍पादन के आगे एक ऐसी बाधा आती है, जिसका स्‍वयं संपदा के उत्‍पादन से कोई संबंध नहीं होता; और यह विशेष बाधा पूँजीवादी उत्‍पादन प्रणाली की सीमाओं का और उसके मात्र ऐतिहासिक, अस्‍थायी स्‍वरूप का प्रमाण है; इसका प्रमाण है कि संपदा के उत्‍पादन के लिए यह कोई परम प्रणाली नहीं है और यही नहीं, बल्कि एक विशेष मंजिल में यह उसके आगामी विकास के टकराती है।'' (बोल्ड हमारा)

हमारा लेखक (श्री नरेंद्र कुमार जी) मार्क्‍स की उपरोक्‍त पंक्तियों में से कुछ पंक्तियों को यहाँ-वहाँ से उठा लेता है और उनके क्रम को ही नहीं, चुनिंदा रूप से शब्‍दों को भी बदल देता है (बोल्ड किए शब्दों पर गौर करें) देता है जिससे मार्क्‍स के उपरोक्‍त पैराग्राफ के अर्थ के साथ गजब का अनर्थ हो जाता है। ऐसा लगता है कि हमारा लेखक या उनका कोई सलाहदाता यहाँ जानबूझ कर यह साबित करने पर तुला है कि मार्क्‍स भी यही मानते थे कि लाभ दर का गिरना पूँजीवादी उत्‍पादन की सीमा है और उसके संकटों का कारण है। देखिए, हमारा लेखक मार्क्‍स की उपरोक्‍त बातों के साथ किस तरीके से पेश आता है ---

''माल के न बिक पाने की विसंगति की व्‍याख्‍या करते हुए पूँजी खंड-3 के अध्‍याय 15 में मार्क्‍स ने लिखा है कि पूँजीवादी उत्‍पादन अतिरिक्‍त आबादी, अतिउत्‍पादन, संकट और सट्टाखोरी के साथ-साथ बेशी पूँजी को जन्‍म देता है। इस बेशी पूँजी के निवेश की प्रेरणा मुनाफे की दर पर निर्भर करती है। चूँकि मुनाफे की दर पूँजीवादी उत्‍पादन की प्रेरक शक्ति होती है, इसलिए उसका ह्रास स्‍वतंत्र पूँजी की उत्‍पति को रोकता है और इस प्रकार पूँजीवादी उत्‍पादन प्रक्रिया के विकास के लिए खतरा पैदा हो जाता है। ह्रासमान मुनाफे की दर के कारण उत्‍पादक शक्तियों के विकास में बाधा आ जाती है। यह विशेष बाधा ही पूँजीवादी उत्‍पादन प्रणाली की ऐतिहासिक सीमा होती है और यही इस बात का प्रमाण है कि यह कोई परम प्रणाली नहीं है। इसलिए पूँजीवादी उत्‍पादन-व्‍यवस्‍था गतिशील इतिहास में एक अस्‍थायी अवस्‍था है, जो अपने इस आंतरिक संकट के कारण गुजरते समय के साथ एक विशेष मंजिल में पहुँच कर आगे के विकास के साथ टकराने लगती है।'' ( ''महामंदी'', पेज-95, पैराग्राफ-2, बोल्‍ड हमारा, पाठक कृपया बोल्ड किए शब्दों पर ध्यान दें)

यहाँ पाठकों से हम याद रखने का निवेदन कर रहे हैं कि लेखक ने ''मार्क्‍स ने लिखा है कि....'' लिखते हुए भी मार्क्‍स की बातों को कोष्‍ठक में नहीं डाला है और बीच-बीच में अपने शब्‍द या वाक्‍यांश डाल दिए हैं और मार्क्‍स की पंक्तियों के क्रम को उलट-पलट दिया गया है, जैसा कि पहले भी कहा गया है। असावधान पाठक को यह भ्रम होना स्‍वाभाविक है कि ये सारे के सारे शब्‍द मार्क्‍स के ही हैं और शायद लेखक की मंशा भी यही है। यह वह तरीका भी है जिससे लेखक किसी और की कही हुई बातों को मनमाफिक तौर से तोड़ता-मरोड़ता है। फिर भी --  

यहाँ कोई भी देख सकता है कि ''महामंदी'' का हमारा ''महाज्ञानी'' लेखक मार्क्‍स के साथ कैसी फूहड़ता से पेश आता है। आइए, थोड़ी इसकी तफ्शीश करें कि दोनों पैराग्राफ में क्‍या अंतर है।

पहली बात तो यह है कि पूँजी के खंड-3 के अध्‍याय 15 में और विशेषकर उपरोक्‍त उद्धृत पैराग्राफ में ''माल के न बिक पाने की विसंगति की व्‍याख्‍या'' नहीं की गई है जैसा कि हमारा लेखक अपने पैराग्राफ की शुरूआत में ही लिखता है। दरअसल पूँजी के खंड-3 के अध्‍याय-15 में मार्क्‍स ''लाभ दर के गिरने की प्रवृति के नियम की असंगतियों'' को प्रतिपादित करते हैं। लेकिन चूँकि हमारा लेखक यह मान चुका है कि ''लाभ दर के गिरने की प्रवृति'' ही मार्क्‍सवादी राजनीतिक अर्थशास्‍त्र की मूल चीज है और इसीलिए वह बड़ी निश्चिंतता और बेफिक्री के साथ अपने दिमाग में बैठे अधकचरे ज्ञान के समर्थन में मार्क्‍स के शब्‍दों और पंक्तियों को तोड़ता-मरोड़ता है।

और फिर हमारे 'महाज्ञानी' लेखक से इस वाक्‍यांश का अर्थ जरूर पूछा जाना चाहिए कि ''माल के न बिक पाने की विसंगति'' क्‍या चीज होती है भाई! हम पूरे दावे के साथ बता सकते हैं कि इस गूढ़ वाक्यांश का अर्थ दुनिया में एक हमारा लेखक ही बता सकता है, दूसरा कोई और नहीं! बाकी के सीमित ज्ञान वाले दिमाग में ऐसी महान बातें नहीं आया करती हैं!! लेकिन चलिए, आगे बढ़ें, यह बात जोड़ते हुए कि ऐसी बेतुकी बातें इस बात का महज़ प्रमाण भर है लेखक दूर-दूर तक राजनीतक अर्थशास्त्र की भाषा से परिचित नहीं है। 

मार्क्‍स लिखते हैं कि लाभ दर के पूँजीवादी उत्‍पादन का प्रेरक होने के कारण (जैसे पूँजी का स्‍वप्रसार उसका एकमात्र प्रयोजन है) उसका ह्रास नई स्‍वतंत्र पूँजी की उत्‍पाति को रोकता है और इस प्रकार पूँजीवादी उत्‍पादन प्रक्रिया के विकास के लिए खतरे जैसा प्रतीत होता है, तो हमारा 'महाज्ञानी' लेखक मार्क्स को धकियाते हुए लिख देता है कि चूँकि मुनाफे की दर पूँजीवादी उत्‍पादन की प्रेरक शक्ति होती है, इसलिए उसका ह्रास स्‍वतंत्र पूँजी की उत्‍पति को रोकता है और इस प्रकार पूँजीवादी उत्‍पादन प्रक्रिया के विकास के लिए खतरा पैदा हो जाता है(दोनों में बोल्‍ड किए गए वाक्‍यांशों पर पाठक ध्‍यान दें)। खतरे जैसा प्रतीत होता है (मार्क्‍स के शब्‍द) तरा पैदा हो जाता है (महामंदी के लेखक के शब्‍द) बन जाता है। लेकिन अभी धैर्य बनाए रखिए, अभी ऐसे कई उदाहरण हैं।

तरा पैदा हो जाता है वाला वाक्‍य जहाँ खत्‍म होता है, उसके ठीक आगे ये महाशय लिखते हैं ह्रासमान मुनाफे की दर के कारण उत्‍पादक शक्तियों के विकास में बाधा आ जाती है। यह विशेष बाधा ही पूँजीवादी उत्‍पादन प्रणाली की ऐतिहासिक सीमा होती है और यही इस बात का प्रमाण है कि यह कोई परम प्रणाली नहीं है जबकि मार्क्‍स के शब्‍द ये हैं – ''ह्रासमान लाभ दर की उनकी दहशत के बारे में मुख्‍य बात यह अहसास ही है कि अपनी उत्‍पादक शक्तियों के विकास में पूँजीवादी उत्‍पादन के आगे एक ऐसी बाधा आती है, जिसका स्‍वयं संपदा के उत्‍पादन से कोई संबंध नहीं होता; और यह विशेष बाधा पूँजीवादी उत्‍पादन प्रणाली की सीमाओं का और उसके मात्र ऐतिहासिक, अस्‍थायी स्‍वरूप का प्रमाण है।'' (पाठक बोल्‍ड किए गए शब्‍दों पर ध्‍यान दें)

हम देख सकते हैं कि हमारा लेखक इस बात की जल्‍दी में है कि किसी तरह से यह साबित किया जाए कि ''लाभ दर के गिरने की प्रवृति'' ही पूँजीवादी संकट का कारण है और यह कि मार्क्‍स की भी यही समझ थी। मार्क्‍स के शब्‍दों और उनकी पंक्तियों के साथ और इसलिए स्‍वयं मार्क्‍स से ऐसे अनाचार भरे व्‍यवहार लेखक ने हर उस जगह किया है जहाँ कहीं भी उसने पूँजीवादी संकट की मार्क्‍सीय व्‍याख्‍या प्रस्‍तुत करने की कोशिश की है। हम इसे आगे और देखेंगे, लेकिन फिलहाल हम यह देखने और जानने की कोशिश करें कि मार्क्‍स ने ''लाभ दर के गिरने की प्रवृति और उसके नियम की असंगतियों'' के बारे में क्‍या बातें की हैं और उन्‍होने इसे क्‍यों नहीं पूँजीवादी संकट का मुख्‍य कारण बताया है।

मार्क्‍स पूँजी के खंड-3 के अधाय 14 की शुरूआत में ही लिखते हैं कि –

''अगर सभी पूर्ववर्ती कालावधियों की तुलना में अकेले पिछले 30 वर्षो में ही सामाजिक श्रम की उत्‍पादक शक्तियों के जबरदस्‍त विकास पर विचार किया जए, अगर विशेषकर – वास्‍तविक मशीनी के अलावा – समूचे तौर पर सामाजिक उत्‍पादन प्रक्रिया में लगने वाली स्‍थायी पूँजी की विराट सं‍हति पर विचार किया जाए, तो जो कठिनाई अर्थशास्त्रियों को अब तक परेशान करती आयी है, अर्थात ह्रासमान लाभदर की व्‍याख्‍या करना, उसकी जगह एक विपरीत कठिनाई ले लेती है, अर्थात यह स्‍पष्‍ट करना कि यह ह्रास अधिक बड़ा और तीव्रतर क्‍यों नहीं होता। अवश्‍य ही कुछ ऐसे प्रतिकारक प्रभाव कार्यशील होने चाहिए कि जो सामान्‍य नियम के प्रभाव को काटते और निराक़ृत कर देते हैं और जो उसे मात्र एक प्रवृति का अभिलक्षण प्रदान कर देते हैं और जिसके कारण हमने सामान्‍य लाभ दर के ह्रास को ह्रासित होने की प्रवृति ही कहा है।'' इसके बाद मार्क्स ह्रासमान लाभदर की "सबसे सामान्य प्रतिकारी शक्तियों" की ब्योरेबार चर्चा और व्याख्या करते हैं जिनमें शामिल हैं – शोषण की बढ़ती तीव्रता, मजदूरी का श्रम शक्ति के मूल्‍य के नीचे गिरना, स्थिर पूँजी के तत्‍वों का सस्‍ता होना, आपेक्षिक जनाधिक्‍य, विदेश व्‍यापार और स्‍टॉक पूँजी का बढ़ना।   

हम ऊपर देख चुके हैं कि हमारा लेखक पूँजी खंड-3 के आधय-15 को अपनी बात कहने का आधार बनाया है, जबकि अध्‍याय-14 की शुरूआत में ही इतने स्‍पष्‍ट शब्‍दों में मार्क्‍स कह चुके हैं ''ह्रासमान लाभदर का नियम'' पूँजीवादी संकट का मुख्‍य कारण नहीं है और वे इसे महज एक प्रवृति के बतौर ही स्‍वीकार करते हैं। तो क्‍या यह पूछा जाना नहीं चाहिए कि हमारे लेखक ने क्‍या इस अध्‍याय को पढ़ा तक नहीं और सीधे अगले अध्‍याय में चला गया? लेकिन हम ऊपर देख चुके हैं कि लेखक ने उसे भी नहीं समझा है! वाह रे हमारा 'महाज्ञानी' लेखक!!

इसी अध्‍याय-15 में मार्क्‍स की इन पंक्तियों पर हमारे लेखक का ध्‍यान क्‍यो नहीं गया कि

''बहुत सामान्‍य ढंग से कहा जाए, तो असंगति इसमें है कि पूँजीवादी उत्‍पादन पद्धति अपने में सन्निहित मूल्‍य तथा बेशी मूल्‍य के बावजूद और पूँजीवादी उत्‍पादन जिन सामाजिक सामाजिक अवस्‍थाओं के अंतर्गत होता है, उनके बावजूद उत्‍पादक शक्तियों के निरपेक्ष विकास की प्रवृति रखती है; जबकि दूसरी और, उसका लक्ष्‍य विद्यमान पूँजी के मूल्‍य को बनाए रखना और उसके स्‍वप्रसार का अधिकतम सीमा तक संवर्धन करना ( अर्थात इस मूल्‍य की अधिकाधिक तीव्र संवृत्रि का संबर्धन करना) है। इसका विशिष्‍ट लक्षण यह है कि‍ वह पूँजी के विद्यमान मूल्‍य का इस मूल्‍य को अधिकतम सीमा तक बढ़ाने के साधन की तरह उपयोग करती है। जिन तरीकों से वह इसकी सिद्धि करती है, उनमें लाभ दर का गिरना, विद्यमान पूँजी का मूल्‍यह्रास, और पहले ही सृजित उत्‍पादक शक्तियों के मोल पर श्रम की उत्‍पादक शक्तियों का विकास सम्मिलित है।''

यहाँ स्‍पष्‍ट है कि मार्क्‍स की नजर में "लाभ दर का गिरना" पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में मौजूद व अंतर्भूत असंगति का कारण नहीं उसका प्रभाव है।

इसी पृष्‍ठ पर मार्क्‍स के आगे की बातों से यह और भी स्‍पष्‍ट हो जाता है –

''विद्यमान पूँजी का आवधिक मूल्‍यह्रास – जो लाभ दर के ह्रास को रोकने और नयी पूँजी के निर्माण के जरिए पूँजी मूल्‍य के संचयन को त्‍वरित करने के लिए पूँजीवादी उत्‍पादन में अंतर्भूत साधनों में से एक है – उन नियत अवस्‍थाओं को विक्षुब्‍ध कर देता है, जिनके अंतर्गत पूँजी के परिचलन तथ पुनरूत्‍पादन की पक्रिया संपन्‍न होती है और इसलिए उसके साथ उत्‍पादन प्रक्रिया में आकस्मिक विरामों और संकटों का सिलसिला चलता रहता है.......पूँजीवादी उत्‍पादन इन अंतर्भूत बाधाओं पर पार पाने का रनरंतर प्रयास करता है, किंतु वह उन पर पार केवल ऐसे साधनों से पाता है कि जो इन बाधाओं को उसके रास्‍ते में फिर तथा और भी अधिक विकट पैमाने पर खड़ा कर देते हैं।''

और अंत में इस अध्‍याय के उप अध्‍याय-2 के अंत में मार्क्‍स द्वारा लिखित वह अंतिम प्रसिद्ध पैराग्राफ भी है जिसमें बड़े ही स्‍पष्‍ट तौर पर पूँजीवादी उत्‍पादन की वास्‍तविक बाधा के बारे में बात कही गयी है। मार्क्‍स लिखते हैं –

''पूँजीवादी उत्‍पादन की वास्‍तविक बाधा स्‍वयं पूँजी है। इसका मतलब यह है कि पूँजी और उसका स्‍वप्रसार प्रारंभ बिंदु और अंतिम बिंदु, उतपादन का उद्देश्‍य और प्रयोजन बन जाते हैं; उत्‍पादन केवल पूँजी के लिए उत्‍पादन होता है, न कि इसके विपरीत, और उत्‍पादन साधन केवल उत्‍पादकों के समाज की जीवन प्रक्रिया के सतत विकास के ही साधन नहीं होते। उत्‍पादकों के भारी बहुलांश के स्‍वत्‍वहरण और दरिद्रीकरण के आधार जिन सीमाओं के भीतर पूँजी के मूल्‍य का परिरक्षण तथा स्‍वप्रसार हो सकता है, वे सीमाएँ उन उत्‍पादन विधियों से के निरंतर टकराव में आती हैं, जिन्‍हें पूँजी अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए प्रयोग करती है और जो उत्‍पादन के असीमित प्रसार की तरफ, स्‍वयं एक साध्‍य के नाते उत्‍पादन की तरफ , श्रम की समाजिक उत्‍पादिता के अप्रतिबंध विकास की तरफ धकेलती है। साधन – समाज की उत्‍पादक शक्तियों का अप्रतिबंध विकास – सीमित साध्‍य – विद्यमान पूँजी का स्‍वप्रसार – के साथ निरंतर टकराता है। इसी करण पूँजीवादी उत्‍पादन पद्धति उत्‍पादन की भौतिक शक्तियों को विकसित करने और उपयुक्‍त विश्‍व मंडी का निर्माण करने का एक ऐतिहासक साधन हे और साथ ही, उसके इस ऐतिहासिक कार्यभार और सामाजिक उत्‍पादन के उसके अपने अनुरूप संबंधों के बीच सतत संघर्ष भी है।''     

लेकिन अब चलिए, हमारे लेखक द्वारा मार्क्‍स को गलत व अत्‍यंत ही गंदे तरीके से उद्धृत करने के इनके बहुत सारे उदाहरणों में से एक और उदाहरण को देखें। हम पाठकों से यह जानने-समझने की कोशिश करने का निवेदन भी करते हैं कि आखिर इनकी ऐसी अप्रतिबंध हिम्‍मत का कारण क्‍या हो सकता है जिसके बल पर वे मार्क्‍स को लगभग पढ़े बिना ही उनपर किताब लिखने की हिमाकत कर बैठते हैं। शायद उनका सिद्धांत यह है कि ''बदनाम हुए तो क्‍या हुआ, नाम तो हुआ।''

हमने ऊपर लेखक नरेंद्र कुमार की पुस्‍तक से जिस पैराग्राफ को उद्धृत करके छानबीन की है, ठीक उसी पैराग्राफ के ठीक बाद वाले पैराग्राफ में लेखक लिखता है –

'' श्रम के बदले पूँजी की उत्‍पादकता को बढ़ाने के सिद्धांत के खोखलेपन को बताते हुए मार्क्‍स लिखते हैं कि जैसे ही निचोड़े जा सकने योग्‍य अधिकतम संभव उपायों से सरे बेशी श्रम को उत्‍पादित माल में समाविष्‍ट कर दिया जाता है, वैसे ही बेशी मूल्‍य तो उत्‍पादित हो जाता है, लेकिन यह बेशी मूल्‍य का उत्‍पादन पूँजीवादी उत्‍पादन-प्रक्रिया के पहले भाग की क्रिया – प्रत्‍यक्ष उत्‍पादन की क्रिया – होती है, अभी इसका अंतिम रूप से पूँजी में परिवर्तन होना बाकी है................ उत्‍पादित माल में निहित बेशी मूल्‍य को प्राप्‍त करने के लिए कुल उत्‍पाद का बेचा जाना जरूरी है। यदि यह नहीं हो पाता है, या केवल अंशत: होता है, या उत्‍पादित माल कम दाम पर बिकता है, तो श्रमिक का जो शोषण वास्‍तव में किया जा चुका है, वह शोषण पूँजीपति के लिए सिद्ध नहीं हो पाता है। या कहें कि अपने अंतिम लक्ष्‍य पर नहीं पहुँच पाता है। मजदूरों से निचोड़े गए बेशी मूल्‍य का पूर्ण या आंशिक रूप से सिद्धिकृत करने की असमर्थता वस्‍तुत: पूँजी की पूर्ण या आंशिक हानि के रूप में व्‍यक्‍त हेाता है।'' (बोल्‍ड हमारे द्वारा किया गया है जिन पर हम पाठकों का ध्‍यान चाहते हैं)  

हम देख सकते हैं कि मार्क्‍स लिखते हैं के पहले एक बार फिर से एक जुमला जोड़ दिया गया है अर्थात ''श्रम के बदले पूँजी की उत्‍पादकता को बढ़ाने के सिद्धांत के खोखलेपन को बताते हुए'' वाला जुमला जोड़ दिया गया है। यहाँ हम अपने सुधि पाठकों से अपील करते हैं कि पूँजी के खंड-3 और इसके अध्‍याय-15 के उप-अध्‍याय-1, जिसमें से लेखक ने मार्क्‍स को उद्धृत किया है, में वे जाएँ और देखें कि मार्क्‍स आखिर किस जगह ''श्रम के बदले पूँजी की उत्‍पादकता को बढ़ाने के सिद्धांत'' की आलोचना कर रहे हैं!! सच में, मन में बहुत ही अधिक कोफ़्त पैदा होता है। दरअसल इस पूरे अध्‍याय में, जैसा कि पहले भी मैंने लिखा है, मार्क्‍स लाभ दर के गिरने की प्रवृति के ''नियम की असंगतियों का प्रतिपादन'' कर रहे हैं और इसके प्रथम उप-अध्‍याय में वे इस प्रतिपादन का सामान्‍य निरूपण पेश कर रहे हैं। इसके पूर्व वाले पैराग्राफ में भी इन्‍होंने यह लिख दिया था कि ''माल के न बिक पाने की विसंगति की व्‍याख्‍या करते हुए पूँजी खंड-3 के अध्‍याय 15 में मार्क्‍स ने लिखा है कि ..........."

दूसरे, मार्क्‍स की बातों के बीच लेखक ने एक अपना जुमला – "या कहें कि अपने अंतिम लक्ष्‍य पर नहीं पहुँच पाता है" - घुसा दिया है जो बेकार है और कुछ हद तक इसी पैराग्राफ में मार्क्‍स की कही बातों के अर्थ को बिगाड़ने की चेष्टा करता है। इसके अतिरिक्‍त लेखक ने बीच से मार्क्‍स के बहुत सारे वाक्‍यों को गोल कर दिया है जिससे पूरे चीज का अर्थ बिगड़ कर रह गया है।  

लेकिन अंत में लेखक ने अपनी चिरपरिचि‍त फूहड़ शैली का प्रयोग करते हुए मार्क्‍स की कही बातों को आखिरकार विरूपित कर ही दिया है जब वह पैराग्राफ का अंत करते हुए यह लिख देता है कि ''मजदूरों से निचोड़े गए बेशी मूल्‍य का पूर्ण या आंशिक रूप से सिद्धिकृत करने की असमर्थता वस्‍तुत: पूँजी की पूर्ण या आंशिक हानि के रूप में व्‍यक्‍त हेाता है।'' पाठक बोल्‍ड शब्‍दों पर ध्‍यान दें जो मार्क्‍स के कथन को विरूपि‍त करते हैं।

दरअसल मार्क्‍स यह लिखते हैं - ''यदि यह नहीं हो पाता है, या केवल अंशत: होता है, या उत्‍पादित माल कम दाम पर बिकता है, तो श्रमिक का जो शोषण वास्‍तव में किया जा चुका है, वह शोषण पूँजीपति के लिए सिद्ध नहीं हो पाता है, और इसे मजदूर से निचोड़े गए बेशी मूल्‍य को सिद्धिकृत करने की पूर्ण अथवा आंशिक असमर्थता के साथ, वस्‍तुत: पूँजी की आंशिक अथवा पूर्ण हानि तक से जोड़ा जा सकता है।'' जबकि बीच की बात को गोल करके हमारे लेखक ने लिखा है कि ''मजदूरों से निचोड़े गए बेशी मूल्‍य का पूर्ण या आंशिक रूप से सिद्धिकृत करने की असमर्थता वस्‍तुत: पूँजी की पूर्ण या आंशिक हानि के रूप में व्‍यक्‍त हेाता है।''

हम समझ सकते हैं कि हमारा लेखक, जो अपने को मार्क्‍सवादी कहता है, किस तरह का मार्क्‍सवादी है; कि वह कैसा मार्क्सवादी लेखक है जो मार्क्‍स को ठीक से उद्धृत करना भी नहीं जानता।

हो सकता है कि हमारे लेखक के अतिरिक्‍त उनके सलाहदाताओं को भी यह लगे कि दोनों बात एक ही है। दरअसल ऐसे लोगों की जमात आजकल बढ़ गई है। उनके लिए मेरी सलाह है वे और कुछ नहीं तो वे इस अध्‍याय को ही ठीक से पढ़ लें तो उन्‍हें समझ में आ जाएगा। और मैं भी लंबे-लंबे उद्धरण लिखने से बच जाऊंगा.....  

मित्रों, हम अपनी इस हद दर्जे की उबाऊ, नीरस और हतोत्‍साहित करने वाली आलोचना के आगे के किस्‍तों में यह भी देखेंगे कि श्रम की उत्‍पादकता बनाम पूँजी की उत्‍पादकता का द्वंद्व क्‍या है और इसके बारे में हमारे ''महामंदी के महाज्ञानी लेखक'' के विचार क्‍या हैं, लेकिन ''दूसरों की नाक साफ करने'' में लगा मैं अब इतना थक चुका है, खासकर इसलिए कि कई जरूरी काम का दबाव भी सर पर है, कि अब आपसे विदा लेता हूँ, इस आशा और उम्‍मीद के साथ कि जल्‍द ही मैं आलोचना की अगली किस्‍त लिखने के लायक चंगा बन जाउंगा। गर्मी में 12 से 20 घंटे लेट चलती रेलों में सेकेंड क्‍लास में अत्‍यंत लंबे सफर के बाद मन और शरीर दोनों इस कदर थक चुके हैं कि एकमात्र जिम्‍मेवारी के गहरे अहसास ने ही इस किस्‍त को लिखने के लिए प्रेरित किया है। खुश हूँ कि इसे न्‍यूनतम रूप से ही सही लेकिन संतोषप्रद ढंग से पूरा किया है और इसके लिए मुझे अपने साथियों से शाबाशी भरे उत्‍साहवर्द्धन की दरकार है।                                            
        
और अंत में ....

काश, अगर हमारा 'महाज्ञानी' लेखक नाम कमाऊ तरीके से किताब लिखने की लालसा के वशीभूत होकर अपने अधकचरे ज्ञान का प्रदर्शन करने के बदले पहले पूँजी के तीनों या चारों खंडों का सम्‍यक अध्‍ययन करने में समय (आर्थिक रूप से जरूरत से भी अधिक सक्षम होने की वज़ह से, और लोगों के विपरीत, समय और सुविधा की उनके पास कोई कमी नहीं थी/है) और परिश्रम लगाता, तो न सिर्फ उसका भला होता, बल्कि हमारा, हम सबका और इस पुस्‍तक को पढ़ने वाले पाठकों का भी बड़ा भला होता। लेकिन लेखक यहाँ बुरी तरह चूक गया है और अब वह बड़े बैनर का 'लेखक' बन चुका है और जहाँ तक मुझे पता है वह आगे और भी ऐसी ही 'ऊँचे' दर्जे की पुस्‍तकें लिखने का बीड़ा अपने सलाहदाताओं और प्रकाशक (संवाद) के कहने पर और उनके समर्थन से उठा चुका है। तो फिर हमारा यह कहना भी मजबूरी है कि तब हम जैसे लोगों को भी यह पूरा हक होगा, जैसा कि आज भी है, कि हम इनकी पूरी खैरियत से मजम्‍मत करें।