Thursday, October 27, 2016

नवंबर क्रांति में दुर्गम रास्‍तों के बीच कार्यनीतिक लचीलापन, केंद्रीकरण और जनवादी केंद्रीयता का आपस में समन्‍वय किस तरह किया गया ?

महान रूसी क्रांतिकारी चेर्निशेब्‍स्‍की ने कहा था - ''ऐतिहासिक कार्रवाई नेव्‍स्‍की राजमार्ग की पटरी नहीं है।'' इसी तरह 'अमेरिकी मजदूरों के नाम पत्र' में लेनिन लिखते हैं - ''वह क्रांतिकारी नहीं है जो महज 'इस शर्त पर' पर सर्वहारा क्रांति के 'राजी' हो कि वह आसानी के साथ और बिना किसी दिक्‍कत के ही हो जाएगी, कि क्रांति का पथ प्रशस्‍त, खुला हुआ और सीधा होगा, कि उसमें हार न होने की गारंटी होगी, कि क्रांति के विजय अभियान में भारी से भारी से क्षति उठाने, 'मुहासिरबंद किले में समय का इंतजार करने' या बेहद संकरे, दुर्गम टेढ़े-मेढ़े और खतरनाक पहाड़ी रास्‍तों से गुजरने की जरूरत नहीं होगी। ऐसा सोचने वाला व्‍यक्ति क्रांतिकारी नहीं है ....ऐसा व्‍यक्ति हमारे दक्षिणपंथी समाजवादी-क्रांतिकारियों, मेंशेविकों और वामपंथी समाजवादी-क्रांतिकारियों की तरह निरंतर प्रतिक्रांतिकारी पूँजीपति वर्ग के खेमे में खिसकताा हुआ पाया जाएगा।''
        यह कहने की जरूरत नहीं है कि रूसी नवंबर क्रांति की तैयारी दुर्गम, टेढ़े-मेढ़े और असीम कठिनाइयों से भरे नुकीले मोड़ भरे रास्‍तों से गुजर कर की गई जिसमें क्रां‍तिकारी लचीलेपन का अब तक का सबसे बेजोड़ प्रदर्शन किया गया। संघर्ष की लगातार बदलती परिस्थिति‍यों में इसके नाना प्रकार के रूपों को अपनाने और कार्यनीतियों में नाना प्रकार के बदलावों की तीक्ष्‍ण और तीव्र होती जरूरतों के अनवरत दबाव के बीच बोल्‍शेविज्‍म प्रत्‍येक महत्‍वपूर्ण व निर्णायक घड़ी में, सत्‍ता हाथ में लेने की धड़ी में भी, एक चट्टान की भांति एकताबद्ध बना रहा। सवाल है, हमारे अपने अनुभवों के विपरीत (जिसके अनुसार हर नुकीले मोड़ पर पार्टी टूटती रही है) बोल्‍शेविकों द्वारा लचीलापन प्रदर्शित करने के साथ-साथ अपनी संठनात्‍मक एकता को बनाये रखने की उसकी इस बेजोड़ क्षमता का स्रोत आखिर क्‍या था? 
     इसका एक मुख्‍य स्रोत था - सर्वोन्‍नत किस्‍म की विचारधारा यानि मार्क्‍सवाद के मूलाधार पर निर्मित वैचारिक व सांगठनिक केंद्रीकरण का वह संयुक्‍त प्रशिक्षण जो बोल्‍शेविक पार्टी में इसके जन्‍म से ही मौजूद था। यही कारण है कि बोल्‍शेविकों ने इस बात का जवाब सफलतापूूर्वक ढूँढ़ लिया था कि आम मार्क्सवादी क्रातिकारी उसूलों को पार्टी-संगठन की फौलादी और अनुसाशनबद्ध एकजुटता के साथ किस तरह मिलाया जाए। वर्षों की मुश्‍तरका व केंद्रीकृत कार्यवाहियों के अपने व्‍यवहारिक अनुभव से उन्‍होंने यह सीख लिया था कि संकट की घड़ी में बिना बिखरे अचूक सार संकलन करते हुए और प्रहार क्षमता को लगातार विकसित करते वास्‍तविक एकजुटता व एकनिष्‍ठता किस तरह कायम की जाती है और की जानी चाहिए। 
     रूसी नवंबर क्रांति के सर्वप्रमुख नेता और विश्‍व सर्वहारा के महान शिक्षक कॉमरेड लेनिन की शिक्षा हमें बताती है कि कम्‍युनिस्‍ट पार्टी में सर्वहारा केंद्रीकरण सच्‍चे जनवाद पर टिका होता है जबकि दिखाबटी और औपचारिक जनवाद पर पार्टी के अंदर की नौकरशाही पनपती और टिकी रहती है। इसे ठीक से समझना अतिआवश्‍यक है। यह ठीक उसी तरह होता है जिस तरह सर्वहारा अधिनायकत्‍व, जो सर्वहारा के वर्ग शासन की सर्वाधिक केंद्रीकृत कार्रवाई है, सच्‍चे सर्वहारा जनवाद पर टिका हुआ होता है जबकि पूँजीवादी तानाशाही औपचारिक जनवाद यानि दिखाबटी जनवाद, जो सभी पूँजीवादी जनतांत्रिक देशों में अनि‍वार्यत: पाया जाता है, पर आसाीन होती है, टिकी रहती है। 
      क्‍या होता है पूँजीवादी जनतंत्र के अंतर्गत पाये जाने वाले दिखाबटी जनवाद का स्‍वरूप? यह इस तरह का होता है: एक तरफ, पूँजी की सर्वशक्तिमत्‍ता व उसके जुए के नीचे 'सभी को वोट देने के अधिकार', 'कानून के समक्ष सभी की बराबरी केे अधिकार' आदि सहज रूप से बाह्य आवरण में बने रहते हैंं यानि ऊपरी दिखाबेे की चीज बने रहते हैं, जबकि अंदर ही पूँजी की बादशाहत कायम रहती है। दूसरी तरफ, सर्वहारा अधिनायकत्‍व है जिसमें यूँँ तो बाह्य तौर पर जनवाद का अभाव दिखता है, क्‍याेंकि इसके अंतर्गत कल के मुट्टी भर मानवद्रोही आदमखोर पूुँजीपतियों के लिए आैपचारिक जनवाद के ढाेंग को खत्‍म कर दिया जाता है, वहीं इसमें बहुसंख्‍यक सर्वहारा व मजूदर-मेहनतकश वर्ग और आम जनों को सच्‍चे तौर पर जनवाद प्राप्‍त होता है। इसका मुख्‍य कारण यह है कि सर्वहारा तानाशाही के अंतर्गत पूँजी को और उसकी उस ताकत को खत्‍म कर दिया जाता है जो जनवाद की जनता से दूर किये रहती है। पूँजी की ताकत को कुचले हुए जनवाद का प्रसार नीचे तक हो सकता है यह सोचना मूर्खता की हद है, खासकर आज जब कि पूरे विश्‍व में एकाधिकार और अल्‍पतंत्र का खुला और नग्‍न साम्राज्‍य कायम हो चुका है और जनतंत्र की न्‍यूनतम अभिव्‍यक्ति भी खतरे में आ चुकी है।
     कम्‍युनिस्‍ट संगठन के अंदर सजीव एकता कायम करने के सवाल पर लेनिन जनवादी केंद्रीयता को अत्‍यधिक महत्‍व देते थे। परंतु, लेनिन के लिए जनवादी केंद्रीयता जनवाद और केंद्रीयता का कोई समांगी या विषमांगी मिश्रण जैसी चीज नहीं थी जैसा कि आंदोलन में कुछ लोग समझते है। उसमें इंच और टेप लेकर पार्टी में जनवाद और केंद्रीयता की सापेक्ष उपस्थिति को मापने की कोई विधि तो कतई मौजूद नहीं है। लेनिन की इसकी शिक्षा सच्‍चे जनवाद और इस पर ट‍िके केंद्रीकरण, जिसके बारे में ऊपर कहा गया है, के वास्‍तविक संश्‍लेषण पर आधारि‍त है जिसके अनुसार जनवादी केंद्रीयता सर्वहारा जनवाद और केंद्रीयता का एक ऐसा संलयन (fusion) है जिसे 'लगातार मुश्‍तरका कार्यवाही और समूचे पार्टी संगठन के द्वारा लगातार मुश्‍तरका संघर्ष के आधार पर ही हासिल किया जा सकता है।' 
     दरअसल पार्टी के अंदर और इसके द्वारा चलायेे जाने वाले मुश्‍तरका कार्यवाही और संघर्ष को ही लेनिन कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के अंदर का केंद्रीयकरण कहते हैं। लेनिन इसकी व्‍याख्‍या इस तरह करते हैं : कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के अंदर के केंद्रीयकरण का मतलब है कम्‍युनिस्‍ट कार्यवाहियों का केंद्रीयकरण, यानि युद्ध के लिए तैयार एक ऐसे शक्तिशाली केंद्र (सदर मुकाम का सदर मुकाम) का निर्माण जो बदलती परिस्थितियों के अनुरूप अपने स्‍वरूप और नीतियों को बदलने में और इसके साथ ही अपने नेतृत्‍व में चलने वालेे तमाम पार्टी संगठनों को भी अपनी क्रांतिकारी प्रतिष्‍ठा के बल पर अपने साथ ले चलने में सक्षम हो। 
     यहाँँ स्‍पष्‍ट है कि लेनिन की पार्टी के अंदर मौजूद कार्यनीतिक लचीलेपन, जिसके बारे में ऊपर बात की गई है, का स्रोत और संबंध कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के अंदर मौजूद एक ऐसे ही शक्तिशाली केंद्र के निर्माण से था जो बदलती परिस्थितियों में अपने को उसी तेजी से बदल लेता था जितनी तेजी से परिस्‍थितियाँँ बदल जाती थीं। हमें इसे रूसी क्रांति से प्राप्‍त होने वाला एक आम सबक मानना चाहिए कि ऐसे केंद्रीकरण के बिना लेनिनवादी पार्टी का निर्माण और इसीलिए पूँजीपति वर्ग से युद्धरत सर्वहारा वर्ग के सदर मुकाम के रूप में, क्रांंति के एक हथियार के रूप में और सर्वहारा वर्ग के सच्‍चे कार्यकारी व क्रांतिकारी हरावल के रूप में कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का गठन असंभव है। 
     हम यहाँँ स्‍वयं देख सकते हैं कि नवंबर क्रांति में इस तरह की पार्टी के उपस्थित रहने का क्‍या अहम योगदान रहा है। अगर ऐसी पार्टी मौजूद नहीं होती तो बाह्य परिस्थितियों के बावजूद नवंबर क्रांति होती या नहीं यह प्रश्‍नचिन्‍ह खड़ा हो जाता है। 
       हम मानते हैं कि भारत के कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारियों और सर्वहारा वर्ग की टुकड़ि‍यों को इसेे अमल में लाना चाहिए, क्‍योंंकि इसके अभाव में क्रांति के उबड़-खाबड़ रास्‍तों पर, जिसकी संभावना भारत जैसे देश में और अधिक है, विजय की मंजिल तक यात्रा करना असंभव जान पड़़ता है। आइये, रूसी क्रांति के इस संबंध में कुछ महत्‍वपूर्ण दृष्‍टांतों पर गौर कर करते हैं जो हमें इसे समझने में और ज्‍यादा मदद करेंगे। 
      प्रथम विश्‍वयुद्ध छिड़ने के वक्‍त बोल्‍शेविकों का सिर्फ एक नारा था - गृहयुद्ध। लेकिन मार्च-अप्रैल 1917 में, जब लेनिन रूस लौटेे उन्‍होंने 'अपना रूख बिल्‍कुल बदल लिया' क्‍योंकि रूसी किसान और मजदूर 'मातृभूमि की प्रतिरक्षा' की मेंशेविक नीति के प्रभाव में थे। प्रतिकूल परिस्थिति‍ को समझने में लेनिन ने कोई देरी नहीं की। 7 अप्रैल को प्रकाशित अपनी थेसिस में लेनिन ने अत्‍यंत सावाधानी और धैर्य से लिखा - ''हमें सरकार का तख्‍ता उलट देना चाहिए, क्‍योंकि वह हमें न तो रोटी दे सकती है और न ही शांति। परंतु उसे तत्‍काल उलटा नहीं जा सकता, क्‍योंकि वह अभी भी मजदूरों का विश्‍वासपात्र बनी हुई है। हम ब्‍लांकीवादी नहीं हैंं और हम मजदूर वर्ग के अल्‍पमत को लेकर बहुमत पर शासन नहीं करना चाहते।' 
     तो क्‍या विश्‍वयुद्ध की शुरूआत में तय की गई नीति (निर्मम व तत्‍काल गृहयुद्ध के प्रचार की नीति) गलत थी? नहीं। लेनिन को पूरा और गंभीरता से पढ़ने वाले सभी जानते हैं और लेनिन लिखते हैं कि उसका मुख्‍य लक्ष्‍य पार्टी के अंदर एक निश्चित दृढ़संकल्‍पी केंद्र की स्‍थापना करना था। बाद की नीति यानि अस्‍थाई सरकार का तख्‍ता तत्‍काल उलट देने के विचार के विरोध की नीति का मुख्‍य लक्ष्‍य तत्‍काल गृहयुद्ध की नीति‍ को रोक कर जनसाधारण का समर्थन प्राप्‍त करने तक तैयारी को अंतिम रूप देते हुए इंतजार करना था। 
       लेनिन इतने सावधान थे कि 20 अप्रैल 1917 को आये पहले बड़े संकट के वक्‍त भी, जब दर्रे-दनियाल के बारे में घटित मिल्‍युकोव के प्रपत्र कांड के बाद अस्‍थाई सरकार की कलई खूल गई थी और इससे उत्‍तेजि‍त और बिगड़े सश्‍स्‍त्र सैनिकों ने सरकारी इमारत को घेर कर मिल्‍युकोव को वहाँँ से निकाल बाहर कर दिया था, तब भी लेनिन ने गृहयुद्ध का आह्वान नहीं किया। लेनिन ने अत्‍यंत सावधानी बरतते हुए इस कार्रवाई को 'सशस्‍त्र प्रदर्शन से कुछ अधिक और सशस्‍त्र विद्रोह से कुछ कम' कहा था। 
     यहाँँ तक कि 22 अप्रैल को बोल्‍शेविक पार्टी के हुए सम्‍मेलन में 'वामपंथी प्रवृत्ति के अनुयायियों' ने अस्‍थाई सरकार को तुरंत उलटने की माँँग तक कर डाली थी जिसके विपरीत लेनिन की सलाह पर केंद्रीय कमिटी ने प्रांतों में सभी आंदोलनकार‍ियों को हिदायतें दी गईं कि वे इस झूठ का कि बोल्‍शेविक गृहयुद्ध चाहते हैं का खंडन करें। जितनी महीनी से और छोटी से छोटी चीजों का ख्‍याल रखा जा रहा है और योजना के कार्यान्‍वयन के पहले जाँँचा-परखा जा रहा है, येे सभी देखने लायक चीजें है। 22 अप्रैल को लेनिन ने लिखा - 'अस्‍थाई सरकार को उलटने का नारा गलत है, क्‍योंकि जनता के समर्थन के बिना यह नारा या तो कोरी लफ्फाजी होगी या जुएबाजी।'                                  

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