Thursday, October 27, 2016

नवंबर क्रांति में दुर्गम रास्‍तों के बीच कार्यनीतिक लचीलापन, केंद्रीकरण और जनवादी केंद्रीयता का आपस में समन्‍वय किस तरह किया गया ?

महान रूसी क्रांतिकारी चेर्निशेब्‍स्‍की ने कहा था - ''ऐतिहासिक कार्रवाई नेव्‍स्‍की राजमार्ग की पटरी नहीं है।'' इसी तरह 'अमेरिकी मजदूरों के नाम पत्र' में लेनिन लिखते हैं - ''वह क्रांतिकारी नहीं है जो महज 'इस शर्त पर' पर सर्वहारा क्रांति के 'राजी' हो कि वह आसानी के साथ और बिना किसी दिक्‍कत के ही हो जाएगी, कि क्रांति का पथ प्रशस्‍त, खुला हुआ और सीधा होगा, कि उसमें हार न होने की गारंटी होगी, कि क्रांति के विजय अभियान में भारी से भारी से क्षति उठाने, 'मुहासिरबंद किले में समय का इंतजार करने' या बेहद संकरे, दुर्गम टेढ़े-मेढ़े और खतरनाक पहाड़ी रास्‍तों से गुजरने की जरूरत नहीं होगी। ऐसा सोचने वाला व्‍यक्ति क्रांतिकारी नहीं है ....ऐसा व्‍यक्ति हमारे दक्षिणपंथी समाजवादी-क्रांतिकारियों, मेंशेविकों और वामपंथी समाजवादी-क्रांतिकारियों की तरह निरंतर प्रतिक्रांतिकारी पूँजीपति वर्ग के खेमे में खिसकताा हुआ पाया जाएगा।''
        यह कहने की जरूरत नहीं है कि रूसी नवंबर क्रांति की तैयारी दुर्गम, टेढ़े-मेढ़े और असीम कठिनाइयों से भरे नुकीले मोड़ भरे रास्‍तों से गुजर कर की गई जिसमें क्रां‍तिकारी लचीलेपन का अब तक का सबसे बेजोड़ प्रदर्शन किया गया। संघर्ष की लगातार बदलती परिस्थिति‍यों में इसके नाना प्रकार के रूपों को अपनाने और कार्यनीतियों में नाना प्रकार के बदलावों की तीक्ष्‍ण और तीव्र होती जरूरतों के अनवरत दबाव के बीच बोल्‍शेविज्‍म प्रत्‍येक महत्‍वपूर्ण व निर्णायक घड़ी में, सत्‍ता हाथ में लेने की धड़ी में भी, एक चट्टान की भांति एकताबद्ध बना रहा। सवाल है, हमारे अपने अनुभवों के विपरीत (जिसके अनुसार हर नुकीले मोड़ पर पार्टी टूटती रही है) बोल्‍शेविकों द्वारा लचीलापन प्रदर्शित करने के साथ-साथ अपनी संठनात्‍मक एकता को बनाये रखने की उसकी इस बेजोड़ क्षमता का स्रोत आखिर क्‍या था? 
     इसका एक मुख्‍य स्रोत था - सर्वोन्‍नत किस्‍म की विचारधारा यानि मार्क्‍सवाद के मूलाधार पर निर्मित वैचारिक व सांगठनिक केंद्रीकरण का वह संयुक्‍त प्रशिक्षण जो बोल्‍शेविक पार्टी में इसके जन्‍म से ही मौजूद था। यही कारण है कि बोल्‍शेविकों ने इस बात का जवाब सफलतापूूर्वक ढूँढ़ लिया था कि आम मार्क्सवादी क्रातिकारी उसूलों को पार्टी-संगठन की फौलादी और अनुसाशनबद्ध एकजुटता के साथ किस तरह मिलाया जाए। वर्षों की मुश्‍तरका व केंद्रीकृत कार्यवाहियों के अपने व्‍यवहारिक अनुभव से उन्‍होंने यह सीख लिया था कि संकट की घड़ी में बिना बिखरे अचूक सार संकलन करते हुए और प्रहार क्षमता को लगातार विकसित करते वास्‍तविक एकजुटता व एकनिष्‍ठता किस तरह कायम की जाती है और की जानी चाहिए। 
     रूसी नवंबर क्रांति के सर्वप्रमुख नेता और विश्‍व सर्वहारा के महान शिक्षक कॉमरेड लेनिन की शिक्षा हमें बताती है कि कम्‍युनिस्‍ट पार्टी में सर्वहारा केंद्रीकरण सच्‍चे जनवाद पर टिका होता है जबकि दिखाबटी और औपचारिक जनवाद पर पार्टी के अंदर की नौकरशाही पनपती और टिकी रहती है। इसे ठीक से समझना अतिआवश्‍यक है। यह ठीक उसी तरह होता है जिस तरह सर्वहारा अधिनायकत्‍व, जो सर्वहारा के वर्ग शासन की सर्वाधिक केंद्रीकृत कार्रवाई है, सच्‍चे सर्वहारा जनवाद पर टिका हुआ होता है जबकि पूँजीवादी तानाशाही औपचारिक जनवाद यानि दिखाबटी जनवाद, जो सभी पूँजीवादी जनतांत्रिक देशों में अनि‍वार्यत: पाया जाता है, पर आसाीन होती है, टिकी रहती है। 
      क्‍या होता है पूँजीवादी जनतंत्र के अंतर्गत पाये जाने वाले दिखाबटी जनवाद का स्‍वरूप? यह इस तरह का होता है: एक तरफ, पूँजी की सर्वशक्तिमत्‍ता व उसके जुए के नीचे 'सभी को वोट देने के अधिकार', 'कानून के समक्ष सभी की बराबरी केे अधिकार' आदि सहज रूप से बाह्य आवरण में बने रहते हैंं यानि ऊपरी दिखाबेे की चीज बने रहते हैं, जबकि अंदर ही पूँजी की बादशाहत कायम रहती है। दूसरी तरफ, सर्वहारा अधिनायकत्‍व है जिसमें यूँँ तो बाह्य तौर पर जनवाद का अभाव दिखता है, क्‍याेंकि इसके अंतर्गत कल के मुट्टी भर मानवद्रोही आदमखोर पूुँजीपतियों के लिए आैपचारिक जनवाद के ढाेंग को खत्‍म कर दिया जाता है, वहीं इसमें बहुसंख्‍यक सर्वहारा व मजूदर-मेहनतकश वर्ग और आम जनों को सच्‍चे तौर पर जनवाद प्राप्‍त होता है। इसका मुख्‍य कारण यह है कि सर्वहारा तानाशाही के अंतर्गत पूँजी को और उसकी उस ताकत को खत्‍म कर दिया जाता है जो जनवाद की जनता से दूर किये रहती है। पूँजी की ताकत को कुचले हुए जनवाद का प्रसार नीचे तक हो सकता है यह सोचना मूर्खता की हद है, खासकर आज जब कि पूरे विश्‍व में एकाधिकार और अल्‍पतंत्र का खुला और नग्‍न साम्राज्‍य कायम हो चुका है और जनतंत्र की न्‍यूनतम अभिव्‍यक्ति भी खतरे में आ चुकी है।
     कम्‍युनिस्‍ट संगठन के अंदर सजीव एकता कायम करने के सवाल पर लेनिन जनवादी केंद्रीयता को अत्‍यधिक महत्‍व देते थे। परंतु, लेनिन के लिए जनवादी केंद्रीयता जनवाद और केंद्रीयता का कोई समांगी या विषमांगी मिश्रण जैसी चीज नहीं थी जैसा कि आंदोलन में कुछ लोग समझते है। उसमें इंच और टेप लेकर पार्टी में जनवाद और केंद्रीयता की सापेक्ष उपस्थिति को मापने की कोई विधि तो कतई मौजूद नहीं है। लेनिन की इसकी शिक्षा सच्‍चे जनवाद और इस पर ट‍िके केंद्रीकरण, जिसके बारे में ऊपर कहा गया है, के वास्‍तविक संश्‍लेषण पर आधारि‍त है जिसके अनुसार जनवादी केंद्रीयता सर्वहारा जनवाद और केंद्रीयता का एक ऐसा संलयन (fusion) है जिसे 'लगातार मुश्‍तरका कार्यवाही और समूचे पार्टी संगठन के द्वारा लगातार मुश्‍तरका संघर्ष के आधार पर ही हासिल किया जा सकता है।' 
     दरअसल पार्टी के अंदर और इसके द्वारा चलायेे जाने वाले मुश्‍तरका कार्यवाही और संघर्ष को ही लेनिन कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के अंदर का केंद्रीयकरण कहते हैं। लेनिन इसकी व्‍याख्‍या इस तरह करते हैं : कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के अंदर के केंद्रीयकरण का मतलब है कम्‍युनिस्‍ट कार्यवाहियों का केंद्रीयकरण, यानि युद्ध के लिए तैयार एक ऐसे शक्तिशाली केंद्र (सदर मुकाम का सदर मुकाम) का निर्माण जो बदलती परिस्थितियों के अनुरूप अपने स्‍वरूप और नीतियों को बदलने में और इसके साथ ही अपने नेतृत्‍व में चलने वालेे तमाम पार्टी संगठनों को भी अपनी क्रांतिकारी प्रतिष्‍ठा के बल पर अपने साथ ले चलने में सक्षम हो। 
     यहाँँ स्‍पष्‍ट है कि लेनिन की पार्टी के अंदर मौजूद कार्यनीतिक लचीलेपन, जिसके बारे में ऊपर बात की गई है, का स्रोत और संबंध कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के अंदर मौजूद एक ऐसे ही शक्तिशाली केंद्र के निर्माण से था जो बदलती परिस्थितियों में अपने को उसी तेजी से बदल लेता था जितनी तेजी से परिस्‍थितियाँँ बदल जाती थीं। हमें इसे रूसी क्रांति से प्राप्‍त होने वाला एक आम सबक मानना चाहिए कि ऐसे केंद्रीकरण के बिना लेनिनवादी पार्टी का निर्माण और इसीलिए पूँजीपति वर्ग से युद्धरत सर्वहारा वर्ग के सदर मुकाम के रूप में, क्रांंति के एक हथियार के रूप में और सर्वहारा वर्ग के सच्‍चे कार्यकारी व क्रांतिकारी हरावल के रूप में कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का गठन असंभव है। 
     हम यहाँँ स्‍वयं देख सकते हैं कि नवंबर क्रांति में इस तरह की पार्टी के उपस्थित रहने का क्‍या अहम योगदान रहा है। अगर ऐसी पार्टी मौजूद नहीं होती तो बाह्य परिस्थितियों के बावजूद नवंबर क्रांति होती या नहीं यह प्रश्‍नचिन्‍ह खड़ा हो जाता है। 
       हम मानते हैं कि भारत के कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारियों और सर्वहारा वर्ग की टुकड़ि‍यों को इसेे अमल में लाना चाहिए, क्‍योंंकि इसके अभाव में क्रांति के उबड़-खाबड़ रास्‍तों पर, जिसकी संभावना भारत जैसे देश में और अधिक है, विजय की मंजिल तक यात्रा करना असंभव जान पड़़ता है। आइये, रूसी क्रांति के इस संबंध में कुछ महत्‍वपूर्ण दृष्‍टांतों पर गौर कर करते हैं जो हमें इसे समझने में और ज्‍यादा मदद करेंगे। 
      प्रथम विश्‍वयुद्ध छिड़ने के वक्‍त बोल्‍शेविकों का सिर्फ एक नारा था - गृहयुद्ध। लेकिन मार्च-अप्रैल 1917 में, जब लेनिन रूस लौटेे उन्‍होंने 'अपना रूख बिल्‍कुल बदल लिया' क्‍योंकि रूसी किसान और मजदूर 'मातृभूमि की प्रतिरक्षा' की मेंशेविक नीति के प्रभाव में थे। प्रतिकूल परिस्थिति‍ को समझने में लेनिन ने कोई देरी नहीं की। 7 अप्रैल को प्रकाशित अपनी थेसिस में लेनिन ने अत्‍यंत सावाधानी और धैर्य से लिखा - ''हमें सरकार का तख्‍ता उलट देना चाहिए, क्‍योंकि वह हमें न तो रोटी दे सकती है और न ही शांति। परंतु उसे तत्‍काल उलटा नहीं जा सकता, क्‍योंकि वह अभी भी मजदूरों का विश्‍वासपात्र बनी हुई है। हम ब्‍लांकीवादी नहीं हैंं और हम मजदूर वर्ग के अल्‍पमत को लेकर बहुमत पर शासन नहीं करना चाहते।' 
     तो क्‍या विश्‍वयुद्ध की शुरूआत में तय की गई नीति (निर्मम व तत्‍काल गृहयुद्ध के प्रचार की नीति) गलत थी? नहीं। लेनिन को पूरा और गंभीरता से पढ़ने वाले सभी जानते हैं और लेनिन लिखते हैं कि उसका मुख्‍य लक्ष्‍य पार्टी के अंदर एक निश्चित दृढ़संकल्‍पी केंद्र की स्‍थापना करना था। बाद की नीति यानि अस्‍थाई सरकार का तख्‍ता तत्‍काल उलट देने के विचार के विरोध की नीति का मुख्‍य लक्ष्‍य तत्‍काल गृहयुद्ध की नीति‍ को रोक कर जनसाधारण का समर्थन प्राप्‍त करने तक तैयारी को अंतिम रूप देते हुए इंतजार करना था। 
       लेनिन इतने सावधान थे कि 20 अप्रैल 1917 को आये पहले बड़े संकट के वक्‍त भी, जब दर्रे-दनियाल के बारे में घटित मिल्‍युकोव के प्रपत्र कांड के बाद अस्‍थाई सरकार की कलई खूल गई थी और इससे उत्‍तेजि‍त और बिगड़े सश्‍स्‍त्र सैनिकों ने सरकारी इमारत को घेर कर मिल्‍युकोव को वहाँँ से निकाल बाहर कर दिया था, तब भी लेनिन ने गृहयुद्ध का आह्वान नहीं किया। लेनिन ने अत्‍यंत सावधानी बरतते हुए इस कार्रवाई को 'सशस्‍त्र प्रदर्शन से कुछ अधिक और सशस्‍त्र विद्रोह से कुछ कम' कहा था। 
     यहाँँ तक कि 22 अप्रैल को बोल्‍शेविक पार्टी के हुए सम्‍मेलन में 'वामपंथी प्रवृत्ति के अनुयायियों' ने अस्‍थाई सरकार को तुरंत उलटने की माँँग तक कर डाली थी जिसके विपरीत लेनिन की सलाह पर केंद्रीय कमिटी ने प्रांतों में सभी आंदोलनकार‍ियों को हिदायतें दी गईं कि वे इस झूठ का कि बोल्‍शेविक गृहयुद्ध चाहते हैं का खंडन करें। जितनी महीनी से और छोटी से छोटी चीजों का ख्‍याल रखा जा रहा है और योजना के कार्यान्‍वयन के पहले जाँँचा-परखा जा रहा है, येे सभी देखने लायक चीजें है। 22 अप्रैल को लेनिन ने लिखा - 'अस्‍थाई सरकार को उलटने का नारा गलत है, क्‍योंकि जनता के समर्थन के बिना यह नारा या तो कोरी लफ्फाजी होगी या जुएबाजी।'                                  
नवंबर क्रांति के दुर्गम रास्‍तों के बीच कार्यनीतिक लचीलापन, केंद्रीकरण और जनवादी केंद्रीयता का आपस में समन्‍वय किस तरह ?

महान रूसी क्रांतिकारी चेर्निशेब्‍स्‍की ने कहा था - ''ऐतिहासिक कार्रवाई नेव्‍स्‍की राजमार्ग की पटरी नहीं है।'' इसी तरह 'अमेरिकी मजदूरों के नाम पत्र' में लेनिन लिखते हैं - ''वह क्रांतिकारी नहीं है जो महज 'इस शर्त पर' पर सर्वहारा क्रांति के 'राजी' हो कि वह आसानी के साथ और बिना किसी दिक्‍कत के ही हो जाएगी, कि क्रांति का पथ प्रशस्‍त, खुला हुआ और सीधा होगा, कि उसमें हार न होने की गारंटी होगी, कि क्रांति के विजय अभियान में भारी से भारी से क्षति उठाने, 'मुहासिरबंद किले में समय का इंतजार करने' या बेहद संकरे, दुर्गम टेढ़े-मेढ़े और खतरनाक पहाड़ी रास्‍तों से गुजरने की जरूरत नहीं होगी। ऐसा सोचने वाला व्‍यक्ति क्रांतिकारी नहीं है ....ऐसा व्‍यक्ति हमारे दक्षिणपंथी समाजवादी-क्रांतिकारियों, मेंशेविकों और वामपंथी समाजवादी-क्रांतिकारियों की तरह निरंतर प्रतिक्रांतिकारी पूँजीपति वर्ग के खेमे में खिसकताा हुआ पाया जाएगा।''
        यह कहने की जरूरत नहीं है कि रूसी नवंबर क्रांति की तैयारी दुर्गम, टेढ़े-मेढ़े और असीम कठिनाइयों से भरे नुकीले मोड़ भरे रास्‍तों से गुजर कर की गई जिसमें क्रां‍तिकारी लचीलेपन का अब तक का सबसे बेजोड़ प्रदर्शन किया गया। संघर्ष की लगातार बदलती परिस्थिति‍यों में इसके नाना प्रकार के रूपों को अपनाने और कार्यनीतियों में नाना प्रकार के बदलावों की तीक्ष्‍ण और तीव्र होती जरूरतों के अनवरत दबाव के बीच बोल्‍शेविज्‍म प्रत्‍येक महत्‍वपूर्ण व निर्णायक घड़ी में, सत्‍ता हाथ में लेने की धड़ी में भी, एक चट्टान की भांति एकताबद्ध बना रहा। सवाल है, हमारे अपने अनुभवों के विपरीत (जिसके अनुसार हर नुकीले मोड़ पर पार्टी टूटती रही है) बोल्‍शेविकों द्वारा लचीलापन प्रदर्शित करने के साथ-साथ अपनी संठनात्‍मक एकता को बनाये रखने की उसकी इस बेजोड़ क्षमता का स्रोत आखिर क्‍या था? 
     इसका एक मुख्‍य स्रोत था - सर्वोन्‍नत किस्‍म की विचारधारा यानि मार्क्‍सवाद के मूलाधार पर निर्मित वैचारिक व सांगठनिक केंद्रीकरण का वह संयुक्‍त प्रशिक्षण जो बोल्‍शेविक पार्टी में इसके जन्‍म से ही मौजूद था। यही कारण है कि बोल्‍शेविकों ने इस बात का जवाब सफलतापूूर्वक ढूँढ़ लिया था कि आम मार्क्सवादी क्रातिकारी उसूलों को पार्टी-संगठन की फौलादी और अनुसाशनबद्ध एकजुटता के साथ किस तरह मिलाया जाए। वर्षों की मुश्‍तरका व केंद्रीकृत कार्यवाहियों के अपने व्‍यवहारिक अनुभव से उन्‍होंने यह सीख लिया था कि संकट की घड़ी में बिना बिखरे अचूक सार संकलन करते हुए और प्रहार क्षमता को लगातार विकसित करते वास्‍तविक एकजुटता व एकनिष्‍ठता किस तरह कायम की जाती है और की जानी चाहिए। 
     रूसी नवंबर क्रांति के सर्वप्रमुख नेता और विश्‍व सर्वहारा के महान शिक्षक कॉमरेड लेनिन की शिक्षा हमें बताती है कि कम्‍युनिस्‍ट पार्टी में सर्वहारा केंद्रीकरण सच्‍चे जनवाद पर टिका होता है जबकि दिखाबटी और औपचारिक जनवाद पर पार्टी के अंदर की नौकरशाही पनपती और टिकी रहती है। इसे ठीक से समझना अतिआवश्‍यक है। यह ठीक उसी तरह होता है जिस तरह सर्वहारा अधिनायकत्‍व, जो सर्वहारा के वर्ग शासन की सर्वाधिक केंद्रीकृत कार्रवाई है, सच्‍चे सर्वहारा जनवाद पर टिका हुआ होता है जबकि पूँजीवादी तानाशाही औपचारिक जनवाद यानि दिखाबटी जनवाद, जो सभी पूँजीवादी जनतांत्रिक देशों में अनि‍वार्यत: पाया जाता है, पर आसाीन होती है, टिकी रहती है। 
      क्‍या होता है पूँजीवादी जनतंत्र के अंतर्गत पाये जाने वाले दिखाबटी जनवाद का स्‍वरूप? यह इस तरह का होता है: एक तरफ, पूँजी की सर्वशक्तिमत्‍ता व उसके जुए के नीचे 'सभी को वोट देने के अधिकार', 'कानून के समक्ष सभी की बराबरी केे अधिकार' आदि सहज रूप से बाह्य आवरण में बने रहते हैंं यानि ऊपरी दिखाबेे की चीज बने रहते हैं, जबकि अंदर ही पूँजी की बादशाहत कायम रहती है। दूसरी तरफ, सर्वहारा अधिनायकत्‍व है जिसमें यूँँ तो बाह्य तौर पर जनवाद का अभाव दिखता है, क्‍याेंकि इसके अंतर्गत कल के मुट्टी भर मानवद्रोही आदमखोर पूुँजीपतियों के लिए आैपचारिक जनवाद के ढाेंग को खत्‍म कर दिया जाता है, वहीं इसमें बहुसंख्‍यक सर्वहारा व मजूदर-मेहनतकश वर्ग और आम जनों को सच्‍चे तौर पर जनवाद प्राप्‍त होता है। इसका मुख्‍य कारण यह है कि सर्वहारा तानाशाही के अंतर्गत पूँजी को और उसकी उस ताकत को खत्‍म कर दिया जाता है जो जनवाद की जनता से दूर किये रहती है। पूँजी की ताकत को कुचले हुए जनवाद का प्रसार नीचे तक हो सकता है यह सोचना मूर्खता की हद है, खासकर आज जब कि पूरे विश्‍व में एकाधिकार और अल्‍पतंत्र का खुला और नग्‍न साम्राज्‍य कायम हो चुका है और जनतंत्र की न्‍यूनतम अभिव्‍यक्ति भी खतरे में आ चुकी है।
     कम्‍युनिस्‍ट संगठन के अंदर सजीव एकता कायम करने के सवाल पर लेनिन जनवादी केंद्रीयता को अत्‍यधिक महत्‍व देते थे। परंतु, लेनिन के लिए जनवादी केंद्रीयता जनवाद और केंद्रीयता का कोई समांगी या विषमांगी मिश्रण जैसी चीज नहीं थी जैसा कि आंदोलन में कुछ लोग समझते है। उसमें इंच और टेप लेकर पार्टी में जनवाद और केंद्रीयता की सापेक्ष उपस्थिति को मापने की कोई विधि तो कतई मौजूद नहीं है। लेनिन की इसकी शिक्षा सच्‍चे जनवाद और इस पर ट‍िके केंद्रीकरण, जिसके बारे में ऊपर कहा गया है, के वास्‍तविक संश्‍लेषण पर आधारि‍त है जिसके अनुसार जनवादी केंद्रीयता सर्वहारा जनवाद और केंद्रीयता का एक ऐसा संलयन (fusion) है जिसे 'लगातार मुश्‍तरका कार्यवाही और समूचे पार्टी संगठन के द्वारा लगातार मुश्‍तरका संघर्ष के आधार पर ही हासिल किया जा सकता है।' 
     दरअसल पार्टी के अंदर और इसके द्वारा चलायेे जाने वाले मुश्‍तरका कार्यवाही और संघर्ष को ही लेनिन कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के अंदर का केंद्रीयकरण कहते हैं। लेनिन इसकी व्‍याख्‍या इस तरह करते हैं : कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के अंदर के केंद्रीयकरण का मतलब है कम्‍युनिस्‍ट कार्यवाहियों का केंद्रीयकरण, यानि युद्ध के लिए तैयार एक ऐसे शक्तिशाली केंद्र (सदर मुकाम का सदर मुकाम) का निर्माण जो बदलती परिस्थितियों के अनुरूप अपने स्‍वरूप और नीतियों को बदलने में और इसके साथ ही अपने नेतृत्‍व में चलने वालेे तमाम पार्टी संगठनों को भी अपनी क्रांतिकारी प्रतिष्‍ठा के बल पर अपने साथ ले चलने में सक्षम हो। 
     यहाँँ स्‍पष्‍ट है कि लेनिन की पार्टी के अंदर मौजूद कार्यनीतिक लचीलेपन, जिसके बारे में ऊपर बात की गई है, का स्रोत और संबंध कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के अंदर मौजूद एक ऐसे ही शक्तिशाली केंद्र के निर्माण से था जो बदलती परिस्थितियों में अपने को उसी तेजी से बदल लेता था जितनी तेजी से परिस्‍थितियाँँ बदल जाती थीं। हमें इसे रूसी क्रांति से प्राप्‍त होने वाला एक आम सबक मानना चाहिए कि ऐसे केंद्रीकरण के बिना लेनिनवादी पार्टी का निर्माण और इसीलिए पूँजीपति वर्ग से युद्धरत सर्वहारा वर्ग के सदर मुकाम के रूप में, क्रांंति के एक हथियार के रूप में और सर्वहारा वर्ग के सच्‍चे कार्यकारी व क्रांतिकारी हरावल के रूप में कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का गठन असंभव है। 
     हम यहाँँ स्‍वयं देख सकते हैं कि नवंबर क्रांति में इस तरह की पार्टी के उपस्थित रहने का क्‍या अहम योगदान रहा है। अगर ऐसी पार्टी मौजूद नहीं होती तो बाह्य परिस्थितियों के बावजूद नवंबर क्रांति होती या नहीं यह प्रश्‍नचिन्‍ह खड़ा हो जाता है। 
       हम मानते हैं कि भारत के कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारियों और सर्वहारा वर्ग की टुकड़ि‍यों को इसेे अमल में लाना चाहिए, क्‍योंंकि इसके अभाव में क्रांति के उबड़-खाबड़ रास्‍तों पर, जिसकी संभावना भारत जैसे देश में और अधिक है, विजय की मंजिल तक यात्रा करना असंभव जान पड़़ता है। आइये, रूसी क्रांति के इस संबंध में कुछ महत्‍वपूर्ण दृष्‍टांतों पर गौर कर करते हैं जो हमें इसे समझने में और ज्‍यादा मदद करेंगे। 
      प्रथम विश्‍वयुद्ध छिड़ने के वक्‍त बोल्‍शेविकों का सिर्फ एक नारा था - गृहयुद्ध। लेकिन मार्च-अप्रैल 1917 में, जब लेनिन रूस लौटेे उन्‍होंने 'अपना रूख बिल्‍कुल बदल लिया' क्‍योंकि रूसी किसान और मजदूर 'मातृभूमि की प्रतिरक्षा' की मेंशेविक नीति के प्रभाव में थे। प्रतिकूल परिस्थिति‍ को समझने में लेनिन ने कोई देरी नहीं की। 7 अप्रैल को प्रकाशित अपनी थेसिस में लेनिन ने अत्‍यंत सावाधानी और धैर्य से लिखा - ''हमें सरकार का तख्‍ता उलट देना चाहिए, क्‍योंकि वह हमें न तो रोटी दे सकती है और न ही शांति। परंतु उसे तत्‍काल उलटा नहीं जा सकता, क्‍योंकि वह अभी भी मजदूरों का विश्‍वासपात्र बनी हुई है। हम ब्‍लांकीवादी नहीं हैंं और हम मजदूर वर्ग के अल्‍पमत को लेकर बहुमत पर शासन नहीं करना चाहते।' 
     तो क्‍या विश्‍वयुद्ध की शुरूआत में तय की गई नीति (निर्मम व तत्‍काल गृहयुद्ध के प्रचार की नीति) गलत थी? नहीं। लेनिन को पूरा और गंभीरता से पढ़ने वाले सभी जानते हैं और लेनिन लिखते हैं कि उसका मुख्‍य लक्ष्‍य पार्टी के अंदर एक निश्चित दृढ़संकल्‍पी केंद्र की स्‍थापना करना था। बाद की नीति यानि अस्‍थाई सरकार का तख्‍ता तत्‍काल उलट देने के विचार के विरोध की नीति का मुख्‍य लक्ष्‍य तत्‍काल गृहयुद्ध की नीति‍ को रोक कर जनसाधारण का समर्थन प्राप्‍त करने तक तैयारी को अंतिम रूप देते हुए इंतजार करना था। 
       लेनिन इतने सावधान थे कि 20 अप्रैल 1917 को आये पहले बड़े संकट के वक्‍त भी, जब दर्रे-दनियाल के बारे में घटित मिल्‍युकोव के प्रपत्र कांड के बाद अस्‍थाई सरकार की कलई खूल गई थी और इससे उत्‍तेजि‍त और बिगड़े सश्‍स्‍त्र सैनिकों ने सरकारी इमारत को घेर कर मिल्‍युकोव को वहाँँ से निकाल बाहर कर दिया था, तब भी लेनिन ने गृहयुद्ध का आह्वान नहीं किया। लेनिन ने अत्‍यंत सावधानी बरतते हुए इस कार्रवाई को 'सशस्‍त्र प्रदर्शन से कुछ अधिक और सशस्‍त्र विद्रोह से कुछ कम' कहा था। 
     यहाँँ तक कि 22 अप्रैल को बोल्‍शेविक पार्टी के हुए सम्‍मेलन में 'वामपंथी प्रवृत्ति के अनुयायियों' ने अस्‍थाई सरकार को तुरंत उलटने की माँँग तक कर डाली थी जिसके विपरीत लेनिन की सलाह पर केंद्रीय कमिटी ने प्रांतों में सभी आंदोलनकार‍ियों को हिदायतें दी गईं कि वे इस झूठ का कि बोल्‍शेविक गृहयुद्ध चाहते हैं का खंडन करें। जितनी महीनी से और छोटी से छोटी चीजों का ख्‍याल रखा जा रहा है और योजना के कार्यान्‍वयन के पहले जाँँचा-परखा जा रहा है, येे सभी देखने लायक चीजें है। 22 अप्रैल को लेनिन ने लिखा - 'अस्‍थाई सरकार को उलटने का नारा गलत है, क्‍योंकि जनता के समर्थन के बिना यह नारा या तो कोरी लफ्फाजी होगी या जुएबाजी।'                                  

Tuesday, October 25, 2016



महान रूसी अक्‍तुब्‍ार क्रांति का विश्‍व-ऐतिहासिक महत्‍व और उसके कुछ ठोस सबक 
part - I

25 अक्‍तुबर 1917 (नये कैलेंडर के अनुसार 7 नवंबर 1917) के दिन, आज से 99 वर्ष पूर्व, रूस में बोल्‍शेविकों द्वारा संगठित सर्वहारा समाजवादी क्रांति ने पूँजीपति वर्ग का तख्‍ता पलट दिया था और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्‍व की स्‍थापना की थी। 18 मार्च 1871 के दिन पेरिस कम्‍यूून की स्‍थापना और फिर साढ़े 3 महीने के भीतर ही (28 मई 1871 को) उसके पतन के बाद विश्‍वपूँजीवाद की चूल हिला देने वाली मजदूर-तेहनतकश वर्ग की यह पहली महान ऐतिहासिक कार्रवाई थी। इस क्रांति ने एक संक्रमणकारी सर्वहारा राज्‍य को जन्‍म दिया और मजदूर वर्ग के हमारे रूसी पूर्वजों ने एक नयी शोषणमुक्‍त समाज व्‍यवस्‍था बनाने के अपने चिरकालिक स्‍वप्‍न को अपनी आँँखों के समक्ष साकार हाेते देखा। पॅूंजीवाद पर दृढ़ता से विजय पाते ही उस पूँजीवादी महामारी - प्रत्‍येक कुछ वर्षों के अंतराल पर 'अतिउत्‍पादन' के कारण बार-बार प्रकट होने वालेे आर्थिक संकट और विनाश की पूँजीवाद की लाइलाज बीमारी - पर भी विजय पा लिया गया जो आज भी सभी पॅूंजीवादी मुल्‍कों में अनिवार्य रूप से पायी जाती है।  विश्‍वपूँजीवाद का गला घोंट देने वाली 1930 के दशक की वैश्विक महामंदी के दौरान भी सोवियत अर्थव्‍यवस्‍था का अत्‍यधिक ऊँचे दर से विकास करना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। मशीनीकरण से बेरोजगारी की समस्‍या की तीव्रता का बढ़ना पूँजीवादी विकास की एक आम प्रवृत्ति है, लेकिन सोवियत समाजवादी विकास ने इसे भी अतीत की चीज बना दिया था। उपरोक्‍त महामंदी के ठीक बीचो-बीच सोवियत कृषि में अत्‍यंत तेजी से मशीनीकरण हुआ, लेकिन इससे बेरोजगारों की कोई फौज खड़ी नहीं हुई। ऐसी तेजी पूँजीवादी मुल्‍कों में बेरोजगारी को विस्‍फोटक स्‍तर पर पहुँचा देती। उल्‍टे, यह हुआ कि मशीनीकरण से कृषि से मुक्‍त हुए लाखों-करोड़ों लोगों ने समाजवादी औद्योगीकरण में हाथ बंटाये और इसके सभी मायनों में भागीदार बने। यह एक अकाट्य सच्‍चाई है कि स्‍तालिन काल तक सोवियत यूनियन में मशीनीकरण ने न तो किसी की रोजी-रोटी छीनी और न ही नई गगनचुंबी सोवियत औद्योगिक सभ्‍यता के मलबे के नीचे गरीब, मेहनतकश व जन साधारण लोगों की जिंदगियों को दफन होना पड़ा। जबकि दूसरी तरफ, प्रत्‍येक पूँजीवादी मुल्‍क में विकास के साथ-साथ ऐसा ही होता आया है और आज भी हो रहा है। सोवियत समाजवादी अर्थव्‍यवस्‍थाा में सोवियत मजदूर व मेहनतकश व किसान सभी नवीन सभ्‍यता के निर्माता भी थे और इसके स्‍वामी भी। राेजगार और काम के अधिकार की सौ फीसदी गारंटी तो थी ही, श्रम की गरिमा को भी प्रतिष्ठित किया गया अर्थात 'जो कााम नहीं करेगा, वह खायेगा  भी नहीं' के मूलमंत्र को सोवियत संविधान की आत्‍मा बना दिया गया।* (*ARTICLE 12 of the Soviet Constitution constituted in 1936 under Stalin's leadership reads as such - "In the U.S.S.R. work is a duty and a matter of honour for every able-bodied citizen, in accordance with the principle: He who does not work, neither shall he eat." The principle applied in the U.S.S.R. is that of socialism : "From each according to his ability, to each according to his work.")       
           जब कि आज भी पूँजीवाद के तहत पूरे विश्‍व में भुुखमरी, कुपोषण और बेरोजगारी की समस्‍या का कोई समाधान नहीं हुआ है, उल्‍टे इसका साम्राज्‍य और भी ज्‍यादा फैलता गया है ; जब कि, इतना ही नहीं, मानवजाति के महाविनाश की आहटें भी सुनाई देने लगी हैं तथा प्रकृति के अवैज्ञानिक पूँजीवादी अतिदोहन के कारण पृथ्‍वी का अस्तित्‍व भी संकट में पड़ता दिख रहा है, तो रूसी अक्‍तुबर समाजवादी क्रांति आज हमारी चाहत नहीं अपितु हमारेे अस्तित्‍व के लिए, पूरी मानवजाति के अस्तित्‍व की रक्षा के लिए हमारी परम आवश्‍यकता के रूप में प्रकट हो रहीी है। भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में आबादी की बहुसंख्‍या के उत्‍तरोत्‍तर संपतिहरण व स्‍वत्‍वहरण्‍ा के आधार पर खड़ी और कार्यरत यह पूँजीवादी-साम्राज्‍यवादी व्‍यवस्‍था अब सभ्‍यता के विकास में रोड़े ही नहीं अटका रही है, अपितु इस अनमोल आधुनिक सभ्‍यता का भक्षण भी कर रही है, इसे नष्‍ट और बर्बाद कर रही है। पूरे विश्‍व में अतिप्रचुरता के बीच घोर दारिद्रय का बर्बर दृश्‍य इसका ही प्रमाण है। आज के विश्‍व की ऐसी आदमखोर अवस्‍था अपने आप में वह एक बड़ा कारण है जिसकी वजह से हमारे लिए और पूरी मानवजाति के लिए नवंबर क्रांति के पैगाम को एक बार फिर से पूरे शिद्दत के साथ याद करनाा जरूरी हो गया है। 
        क्‍या है नवंबर क्रांति का? वह पैगाम यह है कि पूँजीवाद पूरी तरह मानवद्रोही बन चुका है और इसे इतिहास और समााज के रंगमंच से हटाने का वक्‍त आ चुका है, समाज की ड्राइविंग सीट से इसे उतार फेंकने का कार्यभार, जो पहले से ही उपस्थि‍त हो चुका था, आज फौरी जरूरत बन चुका है। इतिहास के दरबार से न्‍याय की वह पर्ची कट चुकी है जिसमें लिखा है कि मौत बांटने वाली इस आदमखोर पूँजीवादी व्‍यवस्‍था को तख्‍त पर लटकाने में देरी करना इतिहास के साथ और इसके न्‍याय की भी अवमानना होगी। आज इस पैगाम को याद करने का नहीं, इसे लागू करने के लिए पूरे शिद्दत से लग जाने का वक्‍त है।
      खास भारत की बात करें, तो इस पैगाम का महत्‍व कई अर्थों में बढ़ जाता है। विगत कई दशकों के दौरान ऊपर से जारी राज्‍य-प्रायोजित सुधारों द्वारा हुए क्रमिक व मंद पूँजीवादी विकास का घोर अंतरविरोधी, प्रतिक्रियावादी व घिनौना स्‍वरूप आज अपने नग्‍नतम रूपों में हम सबके सामने प्रकट हो रहा है, उदघाटित हो रहा है। भारत की संपदा और यहाँँ के जन साधारण खासकर मजदूरों-मेहनतकशों के श्रम के शोषण व लूट का शायद यह सर्वाधिक निर्लज्‍ज व निष्‍ठुर दौर है जिसके हम सब गवाह बन रहे हैं।  इसकी विद्रुप तस्‍वीर हर कहीं देखी जा सकती है। एक तरफ आँखे चौंधिया देने वाले ऐश्‍वर्य के चंद टापू दिखाई देते हैं, तो दूसरी तरफ कंगाली और दरिद्रता का महासमुद्र नजर आता है। एक तरफ रात-दिन गुलछर्रे उड़ाते सुविधा-संपन्‍न अतिधनाड्य मुट्ठी भर लोगों की एक छोटी सीमित दुनिया उग आई है, तो दूसरी तरफ कुंठा, हताशा, कुपोषण, कर्जग्रस्‍तता, भूख, कुपोषण और बीमारी से बजबजाती, नरक से भी बदतर, गिरती-पड़ती और बदहबास एक अलग विशाल दुनिया उठ खड़ी हुई है जो लगातार फैलती और विस्‍तारित होती जा रही है। आम लोगों के दुखों का मानों कोई अंत ही न हो। ऐश्‍वर्य और दारिद्रय का यह घिनौना वैपरित्‍य आज निर्लज्‍जता की सारी हदेंं लांघ चुका है। 
        कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसी बेरहम परिस्थितियाँँ  दिन-प्रतिदिन क्रांतिकारी परिस्थिति को परिपक्‍व बना रहीं हैंं। ऐसेे में नवंबर समाजवादी क्रांति के व्‍यवहारिक व सैद्धांतिक दोनों तरह के अनुभवों का सटीक आकलन करना भारत के सक्रिय कम्‍युनिस्‍टों का का एक बड़ा काम है। रूसी बोल्‍शेविकों की क्रांतिकारी तैयारी  के पूरे काल का सावधानी से सार संकलन करना और फिर उससे मिले सबकों को पूरी तरह आत्‍मसात करना आज हमारी फौरी जरूरत बन चुकी है। भारत में आज जिस तरह से फासीवाद अपने विजय के तरफ कदम बढ़ाता जा रहा है वह इसे और भी मौजूं बना दे रहा है। फासीवाद के खिलाफ हमारी मूहिम को किस तरह अक्‍तुबर क्रांति के सबकों के साथ मिलाया जाये और कैसे बिना पीछे हटेे ही दोनों कार्यभारों को एक ही रणनीति के तहत संयुक्‍त किया जाए यह आज का हमारा सबसे महत्‍वपूर्ण युगीन कार्यभार है जो यह माँँग कर रहा है कि हम नवंबर क्रांंति के अनुभवों को, इस क्रांति की तैयारी में आये तमाम नुकीले मोड़ों को और बिना किसी सांगठनिक टूट और बिखराव के कार्यनीतियों व रणनीतियों में लचीलेपन को लागू करने की बोल्‍शेविक विलक्षणता के स्रोतों को यानि संपूणता में बोल्‍शेविक क्राति के समग्र विकासक्रम को काफी नजदीकी से समझा जाये। आइये, रूसी नवंबर क्रांति के ठोस सबकों में से कुछ के बारे में हम यहाँँ बात करें।   (क्रमश: जारी)                         
महान अक्टूबर रूसी समाजवादी क्रांति जिंदाबाद!

पुराने कैलेंडर के अनुसार, आज ही के दिन (25 अक्टूबर 1917) लेनिन एवं स्तालिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों के द्वारा महान रूसी समाजवादी क्रांति सम्पन्न हुई थी। वैसे अब नये कैलेंडर के अनुसार इसे नवम्बर क्रांति के रूप में ज्यादा याद किया जाता है जिसके अनुसार यह क्रांति 7 नवम्बर 1917 को सम्पन्न हुई। इसी के साथ हम रूसी समाजवादी क्रांति के शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं। आइये, पूरे जोश से पूरे वर्ष (7 नवम्बर 2016 से 7 नवम्बर 2017 तक) हम यह बात लोगों के बीच प्रचारित व प्रसारित करने में विशेष/अतिरिक्त जोर लगाएं कि हालांकि स्तालिन की मृत्यु के पश्चात् ख्रुश्चेव की गद्दारी के कारण नवम्बर क्रांति और प्रथम कामयाब समाजवाद की वह महान धरती हमसे छीन गयी, लेकिन एक समय ऐसा था जब इस दुनिया के एक बड़े देश सोवियत यूनियन में पूँजीपतियों और जमींदारों से रहित शोषणविहीन व्यवस्था कायम हुई थी और जो 34 सालों तक न सिर्फ टिकी रही, अपितु इतने छोटे काल में ही सम्पूर्ण मानव विकास केे वैसे सारे महान रिकॉर्ड अपने नाम हासिल कर लिए, जिन्हें हासिल करने में 250 सालों का बूढ़ा पूँजीवाद जीवनपर्यंत असफल रहा। रूसी सोवियत समाजवाद एक ऐसा राज्य था जो बेरोजगारी और आर्थिकी मंदी जैसी बीमारी, जो आज के आधुनिक युग में सबसे बड़ी लाइलाज पूँजीवादी महामारी बन चुकी है, से पूरी तरह मुक्त था। इतना ही नहीं, इसने फासीवाद को द्वितीय विश्वयुद्ध में भारी कुर्बानी देकर जिस तरह शिकस्त दी और जिस उदात्त भावना से समस्त मानवजाति की रक्षा की, उसने साबित कर दिया कि सर्वहारा राज्य और सर्वहारा जनतंत्र ही हम सबका भविष्य है जिससे होकर मानवताजाति मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण से पूरी तरह मुक्त और नेशन, जेंडर तथा कास्ट की असमानता सहित अन्य सभी तरह के उत्पीड़न का खात्मा कर देने वाली समाज व्यवस्था को बनाने और पूरे समाज को इस आधार पर पुनर्गठित करने का कार्यभार पूरा करेगी। लेनिन और स्टालिनकालीन सोवियत समाजवाद ने यह व्यवहार में दिखाया कि हम एकमात्र सर्वहारा राज्य से गुजरकर ही पूरी तरह से मुक्त मानव का दिग्दर्शन कर सकेंगे और सोवियत समाजवादी राज्य जैसे राज्य से गुजरकर ही मानवजाति समानता के अधिकार के संकुचित पूँजीवादी मानकों के उस पार यानि पूरी तरह से एक नए क्षितिज में छलांग लगा सकेगी। आइये, इस नए क्षितिज के द्वार खोलने वाली रूसी समाजवादी क्रांति शताब्दी वर्ष के आगमन का दिल खोलकर स्वागत करें और सालों भर इसकी यादों और उपलब्धियों को और सोवियत समाजवाद की सच्चाइयों को, जिन्हें पूँजीवाद-साम्राज्यवाद हमेशा से झूठे मनगढंत तथ्यों के बल पर और गढ़ी हुई झूठी कहानियों के जरिये नकारने की चेष्टा करता रहा है, पूरे जनगण के बीच ले जाएं और प्रचारित करें और उससे सबक और हिम्मत ग्रहण करें।
महान अक्टूबर रूसी समाजवादी क्रांति जिंदाबाद!
विश्व-सर्वहारा के महान शिक्षक कामरेड लेनिन और कामरेड स्तालिन अमर हैं!
पूँजीवाद-साम्राज्यवाद की हार और मज़दूर वर्ग की विजय होकर रहेगी!!

Monday, October 24, 2016

फासीवाद विरोध की संसदीय लाईन बनाम क्रांतिकारी लाईन
की मौजूदा स्थिति  

भारत में फासीवाद के विरूद्ध जब भी संयुक्‍त मोर्चा बनाने की बात आती है, तो सीपीआई-सीपीएम सरीखी वाम पार्टियों के आज तक के व्‍यवहार से इसका एक ही अर्थ लगाया जाता है। और वह अर्थ है वाम पार्टियाँ का भाजपा व संघ विरोधी दलों व पार्टियों से यहाँ तक कि कांग्रेस के साथ चुनावी मोर्चा। इनके लिए फासीवाद विरोधी रणनीति‍ और कार्यनीति का सदैव से यही अर्थ रहा है। 2014 के पूर्व तक इनकी यह रणनीति‍ सांप्रदायिक भापजा और संघ को सरकार में आने से रोकने के लिए कांग्रेस सहित अन्‍य पार्टियों से चुनावी गठबंधन के रूप में कार्यरत थी, संसद के अंदर और संसद के बाहर। जमीनी स्‍तर पर पूँजी और इसकी लूट के विरूद्ध लडा़ई इस रणनीति का हिस्‍सा कभी नहीं रही, कभी नहीं थी। फासीवाद के उभार को रोकने के लिए पूँजी के विरूद्ध, वर्ग शत्रु के खिलाफ और फासीवाद के विरूद्ध मजदूर वर्ग का आह्वान करना इसका हिस्‍सा नहीं था। कांग्रेस और अन्‍य विपक्षी पार्टियों से चुनावी मोर्चा बनाने के अतिरिक्‍त, केंद्र और राज्‍य में बुर्जुआ सत्‍ता की मैनेजरी हासि‍ल करने की जी तोड़ कोशिश के अतिरिक्‍त इसमें और कुछ नहीं था, जब कि फासीवाद के विरूद्ध अंतरराष्‍ट्रीय मजदूर वर्ग के संघर्ष की विरासत को देखें तो हम साफ-साफ यह देख सकते हैं कि वहाँँ क्‍या नीति अपनाई गई थी और हमें यहाँँ क्‍या नीति अपनानी चाहिए थी। कॉमरेड दिमित्रोव 1935 में इस निमित तैयार किये गये रिपोर्ट में कहते हैं – ''... इसके भी पहले कि मजदूर वर्ग का बहुसंख्यक भाग पूँजीवाद को उखाड़ फेंकने और सर्वहारा क्रांति को विजयी बनाने के लिए संघर्ष में एकताबद्ध हो, यह जरूरी है कि मजदूर वर्ग के सभी हिस्सों की, चाहे वो जिस पार्टी या संगठन के हों, कार्रवाई की एकता कायम हो। ..... कम्युनिस्ट इंटरनेशल कार्रवाई की एकता के लिए एक के अलावा और कोई शर्त नहीं रखता और वह भी सभी मजदूरों को स्वीकार्य एक प्रारंभिक र्शत है अर्थात यह कि कार्रवाई की एकता फासिज्म के खिलाफ, पूँजी के हमले के खिलाफ, वर्ग शत्रु के खिलाफ निर्दिष्ट हो। यही हमारी शर्त है।''  
                हमारे संसदीय वाम की यह रणनीति देश में लंबे काल तक चली। इस बीच इन्‍होनें राज्‍यों में ही नहीं, केंद्र में भी बुर्जुआ सत्‍ता में हिस्‍सेदारी की। केरल, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में तो ये कई दशक तक शासन में रहे हैं और आज भी हैं, बंगाल को छोड़ कर। बुर्जुआ सत्‍ता में इतने लंबे काल तक बने रहना ही इस बात का प्रमाण है कि इन्‍होंने पूँजी के पक्ष में मजदूर–मेहनतकश वर्ग के ऐतिहासिक हितों की तिलांजलि दे दी है। बंगाल में जिस तरह से इन्‍होनें 34 सालों तक शासन किया, जिस तरह से आम जनता के हितों की अनदेखी की ( जो कि देय और स्‍वाभाविक बात है और थी क्‍योंकि पूँजी की सत्‍ता में वाम के होने से पूँजी का पहिया उलटा नहीं धुमने लगता है) और जिस तरह से पूँजीपतियों के खुंखार सिडीकेट खड़े ‍कर जनता के हितों को कुुचला गया उसका कुप्रभाव पूरे कम्‍युनिस्‍ट और वाम आंदोलन पर पड़ना लाजिमी था सो पड़ा। इस परिस्थिति ने ही फासीवाद के लिए रास्‍ता साफ कर दिया। जब पूँजी का संकट गहरा हुआ, तो इनकी रणनीति ने मजदूर  वर्ग को निहत्‍था कर दिया। आम जनता के बीच भी लाल झंडा इतना बदनाम हो चुका था कि जब संकट से पीस रही जनता हम कम्‍युनिस्‍टों की ओर देखती, जो स्थिति थी उसमें उल्‍टे वाम आंदोलन ही संकट में घिर गया। एकाधिकारी पूँजी के लिए इस तरह रास्‍ता खुला छोड़ दिया गया। गहरे आर्थिक संकट में फंसी पूॅजी को फासीवाद का रास्‍ता अख्तियार करने से आखिर रोकने वाला कौन ?  
                खैर, अभी इस लेख में हमारा उद्दे्श्‍य इसके इस पक्ष पर लिखने का नहीं है। अभी हमारा इरादा एक दूसरी परिस्थिति की ओर इशारा करने का है जो इसी से पैदा हुआ है और अत्‍यधिक खतरनाक है। संसदीय वाम की उपरोक्‍त गद्दारीपूर्ण रणनीति का कुप्रभाव सिर्फ यही नहीं पड़ा कि फासीवाद के लिए रास्‍ता खुला छोड़ दिया गया, अपितु इसका एक बड़ा असर यह पड़ा कि फासीवाद विरोधी संयुक्‍त संघर्ष के नाम से ही कम्‍युनिस्‍टों का एक हिस्‍सा बिदकने लगा। खासकर क्रांतिकारी कम्‍युनिस्‍टों का एक बड़ा हिस्‍सा यह समझने लगा और आज भी समझता है कि फासीवाद के विरूद्ध संयुक्‍त मोर्चा बनाने का अर्थ होगा कांग्रेस और अन्‍य विपक्षी पार्टियों से चुनावी गठबंधन करना। यह हिस्‍सा यह समझता है कि फासीवाद विरोध के लिए संयुक्‍त मोर्चा की या तो जरूरत ही नहीं है और इसके लिए ये लोग किसी न किसी तरह इस बात से ही इनकार करते हैं कि फासीवाद का कोई खतरा है, या फि‍र वे जब मोर्चे की जरूरत महसूस करते हैं तो फिर इन्‍हें वाम की यही पुरानी रणनीति‍ ही सही लगती है और वे यह कहते पाये जाते हैं कि अगर फासीवाद आ गया है तो विपक्षी बुर्जुआ पाटियों से तो मोर्चा बनाना ही पड़ेगा। 
     इसमें मौजूदा ठोस परिस्थिति का ठोस मूल्‍यांकन करने की जद्दोजहद कहीं नहीं दिखती है। यह समझने की कोशिश कहीं नहीं दिखती है कि आज की परिस्थिति में फासीवाद की ताकत क्‍या है, कमजोरी क्‍या है और उसका हमें क्‍या फायदा उठाना चाहिए, इससे हमारी कार्यनीति और रणनीति पर क्‍या असर पड़ेगा,  ऐतिहासिक रूप से वर्ग शक्तियों का संतुलन क्‍या है आदि आदि। यह समझने की कोशिश का तो दूर-दूर तक कोई उम्‍मीद नहीं की जा सकती है कि पूँजीपति वर्ग के बिना भी हम फासीवाद विरोधी विशाल मोर्चा कायम कर सकते हैं या नहीं। एक तरह की गद्दारी से दूसरी तरह की मूर्खता का प्रसार कैसे होता है इसका इससे बढि़या नमूना मिलना मुश्किल है।
           बिखरे हुए और छोटी ताकत के रूप में मौजूद क्रांतिकारियों के बीच पायी जाने वाली इस प्रवृत्ति ने इनकी सांगठनिक कमजोरियों को सौ गुना बढ़ा दिया है। एेसे लोगों के साथ कुछ दिनों पहले तक की हुई बहसों का अनुभव यह है कि अव्‍वल तो ये यह मानते रहे हैं कि फासीवाद का बस हौवा है फासीवाद नहीं है और भारत जैूसे गहरे जातीय विभाजन वाले देश में फासीवाद संभव ही नहीं है। उनकी बातों से यह भी महसूस हाता है कि वे तब तक नहीं मानेंगे जब तक कि भारत का फासीवाद युद्धोन्‍मादी हो युद्ध न शुरू कर दे, संसद को भंग न कर दे, फासीवादी सैन्‍यवाहिनियाँ गलियों और सड़कों पर मार्च करना न दिखे, वे हमारे घरों में घुस कर हममें से एक-एक को गायब न करने लगे, पार्टियों खासकर कम्‍युनिस्‍ट संगठनों को प्रतिबंधित न कर दे आदि आदि। यानि संक्षेप में, जब तक फासीवाद हमें विनाश के उस कगार पर नहीं पहुँचा देता है जहाँँ के बाद हमारा अस्तित्‍व ही असंभव हो जाए तब तब तक हम नहीं मानेंगे कि फासीवाद है!
वाह !  क्या समझ है!!
       लेकिन बात इतनी ही नहीं है। इनमें से अधिकांश जब यह स्‍वीकारने के लिए बाध्‍य होते हैं, जैसा कि ये किसी खास भगवा आतंकी घटना के बाद अक्‍सरहाँँ होते रहते हैं, कि हाँ फासीवाद का खतरा तो सच में है, तो फिर से वे कोई ठोस परिस्थिति का ठोस मूल्‍यांकन करने का धैर्य नहीं रखते हैं। जब वे फासीवादि‍यों केे सत्‍ता में आ जाने को स्‍वीकारते हैं तो उसके बाद रूक कर इस बात पर सोंचने का धैर्य इनके अंदर नहीं है कि भारत में फासीवादियों की स्थिति क्‍या है, इनका शक्ति संतुलन क्‍या है और इससे हमारी रणनीति पर क्‍या असर पड़ता है। फासीवाद की आज की स्थिति है कि ये पूरे देश में खुल्‍लमखुला हमला करने की स्थिति में नहीं हैं। इनके रास्‍ते की कई अड़चने अभी भी बड़ी हैं और उन्‍हें तुरंत दूर करना इनके लिए अासान नहीं है। जाहिर है इनके सुदृढ़ीकरण की अपनी समस्‍यायेंं हैं। इनके पूर्ण विजय की स्थिति सब कुछ के बावजूद अभी दूर है। इसलिए आज की स्थिति में हम पोपुलर फ्रंट बनाने की आवश्‍यकता से अधिक सर्वहारा वर्गीय मोर्चा बनाने की आवश्‍यकता है। लेकिन इन सारी बातों से इन्‍हें कोई मतलब नहीं होता है। या तो ये फासीवाद से आँख मूँद लेते हैं और कह देते हैं कि मोर्चे-वोर्चे की जरूरत ही नहीं है या फिर अगर यह समझ में आ गया कि अरे हाँ खतरा तो है, तो फिर यह इनके लिए दिव्‍य ज्ञान जैसा होता है और ये इतने घबड़ा जाते हैं कि वे फि‍र बुजुर्आ की शरण में चले जाते हैं। सच में यही स्थिति है !
 ‍    
प्रोलितेरियन मोर्चे का निमार्ण वक्‍त की अहम जरूरत है  
आज और अभी, कल देर हो जाएगी

        हम उपरोक्‍त चर्चा को इसके दूसरे छोर से पकड़ कर आगे बढ़ें। इसका व्यवहारिक अर्थ आखिर क्‍या होगा कि आज के अत्‍यंत खतरनाक हो चले दौर में भी हम मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी मोर्चे को अभी हाथ में लेने से इनकार करते हैं? इसका क्‍या मायने हैं जब हम यह कहते हैं कि हम इस काम को एकमात्र तभी हाथ में लेंगे जब पूर्ण रूप से विजयी फासीवाद हमारे समक्ष आपादमस्‍तक प्रकट हो जाएगा, और तब तक हम इसके और खूँखार होने का और पूरे समाज के इसके आगे नतमस्‍तक हो जाने का इंतजार करेंगे? आज की तुलना में वह दिन कितना भयानक होगा हमें यह समझना चाहिए। जब वह दिन आयेगा उसके पूर्व ही क्रांतिकारी, जनवादी व प्रगतिशील शक्तियों के एक बड़े हिस्से को फासीवाद नष्ट कर चुका रहेगा। उसकी जकड़ में समाज का अधिकांश क्षेत्र आ चुका होगा और क्रांतिकारी पहलकदमी हमारे हाथों से पूरी तरह निकल चुकी होगी। जब हम यह समझेंगे तभी हमें इसका जवाब मिल सकता है कि फासीवाद के विरूद्ध प्रोलितेरियन मोर्चे का निर्माण आज और अभी ही क्‍यों जरूरी है।
          हम थोड़ी देर के लिए यह मान लें कि अभी फासीवाद विरोधी किसी मोर्चे की जरूरत नहीं है, क्‍योंकि अभी फासीवाद पूरी तरह विजयी नहीं हुआ है। जाहि‍र हम अगर महज फासीवादी प्रवत्तियों तक बात करते हैं, तो इससे यही कार्यनीति निकलेगी कि हम फासीवाद विरोधी किसी रणनीतिक मुहिम के बारे में कम से कम आज नहीं सोंचेंगे। यानि हम इस मोर्चे के बारे में तब सोचेंगे जब फासीवाद पूर्वात: विजयी हो जाएगा। यह संसद वगैरह को भंग कर देगा, राजनीतिक पार्टियों खासकर वाम व कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों व संगठनों को प्रतिबंधित कर देगा और इसकी गंडावाहिनियाँ गलियों और मोहल्‍लों में चुन-चुन कर हमला करने लगेंगी।
            दरअसल इस कार्यनीति से यही चित्र उभरता है जो डरावना है। अगर मान लें कि कल फासीवाद पूर्णरूपेण विजयी हो जाता है और बुर्जुआ जनवाद को पूरी तरह कुचल देता है तो क्‍या हम इसके क्या मायने भी समझते हैं? इसके क्‍या परिणाम होंगे क्‍या हम इसे समझते हैं? यही कि समाज तब तक पूरी तरह पश्‍चगमन की स्थिति में चली जाएगी। हमारे सारे जनतांत्रिक अधिकार पूरी तरह कुचल दिये जाएंगे और मजदूर वर्ग पूरी तरह फासीवाद के चंगुल में जा चुका होगा। आज की तुलना में उसका हाल कितना बुरा होगा हम समझ सकते हैं। फासिज्‍म को पीछे धकेलने का काम तब कितना कठिन हो जाएगा क्‍या हम यह नहीं समझ सकते हैं? हमारा (प्रगतिशील व क्रांतिकारी शक्तियों का) वजूद भी कितना बचेगा हम नहीं कह सकते। तब? तब हमें काफी पीछे हटते हुए और बहुत कुछ गंवाकर इसके विरूद्ध तैयारी करनी पड़ेगी। हमें मजदूर वर्ग के दूरगामी और तात्कालिक सभी लक्ष्यों को स्‍थगित करके एक वृहत्तर पोपुलर मोर्चे के तहत पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से के नेतृत्व के अधीन चलते हुए फासीवाद के विरोध के तरीके में जाना होगा जिसका परिणाम अधिक से अधिक बुर्जुआ जनवाद की पुनर्बहाली होगी। इससे अधिक कुछ नहीं।
                लेकिन आइए, हम उस परिस्थिति की बात करें जब हम आज और अभी ही फासिज्‍म के विरूद्ध एक क्रांतिकारी यानि प्रोलितेरियन मोर्चा कायम करने की शुरूआत करते हैं और बहस को आगे बढ़ाने के लिए हम मान लेते हैं कि हम इसमें सफल भी होते हैं। तब क्‍या होगा? इसका सबसे पहला सुखद परिणाम यह होगा कि हम आज फासीवाद को इसे पूर्ण रूप से ताकतवर और विजयी होने के पूर्व ही परास्‍त कर सकते हैं (और यही बात हमारे लिए सबसे महत्‍वपूर्ण है कि हम इसे पूर्ण रूप से ताकतवर और अजेय होने के पूर्व ही परास्‍त करने की सोचें, अन्‍यथा भारी विध्‍वंस के बाद ही इससे मुक्ति मिलेगी) और उस संभावित विनाश से समाज को बचा सकते हैं जिसकी हमने ऊपर बात की है। आज जबकि फासीवादी अभी पूर्ण रूप से विजयी नहीं हुए हैं और इन्‍होंने अभी सारे किले फतह नहीं किये हैं, हम इसे मजदूरों-मेहनतकशों व गरीब किसानों के विशाल संश्रय के आधार पर (बिना उदार पूँजीपति वर्ग के ही) इसे जमीनी लडा़ई में परास्त कर सकते हैं, बशर्ते हम तमाम मजदूर वर्गीय ताकतें इसके विरूद्ध एक ऐसे मोर्चे का निमार्ण करने के लिए राज़ी हों जो मजदूरों-मेहनतकशों की तमाम तरह की लड़ाईयों को इससे संयुक्त करते हुए तमाम प्रगतिशील ताकतों को सफलतापूर्वक एक सशक्त और एकताबद्ध लामबंदी के लिएजमीनी स्‍तर पर आह्वान कर सके। तब हम न सिर्फ इसके विजय अभियान को रोक सकते हैं, अपितु मजदूर-किसानों का यह विजयी संश्रय बिना रूके अपनी अगली मंजिल यानी फासीवाद को जन्म देने वाली तमाम अन्य शक्तियों को भी जड़मूल से उखाड़ फेंक सकते हैं, यानि हम मजदूर वर्गीय क्रांति की वह मंजिल भी फतह कर सकते हैं जो अन्यथा हमसे काफी दूर प्रतीत होती है। इस तरह हम फासीवाद विरोधी क्रांतिकारी कार्रवाइयों को मजदूर वर्गीय क्रांति के दूरगामी कार्यभार के मातहत ला सकते हैं, उससे संयुक्त कर सकते हैं और इस तरह एक दूसरे को आगे बढ़ा सकते हैं। यह एक ऐसी कार्यनीति जो अगर सफल होती है तो हम एक तीर से दो निशानों पर एक साथ हमले करने में सफल हो जाते हैं। फासीवाद की पूर्ण पराजय और इसका समूल विनाश करने वाला प्रोलितेरियन मोर्चा आगे बढ़कर इतिहास की अगली मंजिल में प्रवेश कर सकती है, जब कि प्रोलितेरियन मोरचे को सुदूर कल के लिए टालने की कार्यनीति हमें फासीवादी विनाश की संभावनाओं को अमली रूप लेने तक इंतजार करने और अंतत: उदार पूँजी‍पति वर्ग के नेतृत्‍व में मोर्चा कायम करने की पश्‍चगामी नीति‍ की ओर धकेलती है। हमें तय करना होगा कि हम क्‍या चाहते हैं?    
                हम दुहरा देना चाहते हैं कि अगर हम फासीवाद के विरूद्ध मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी रणनीति के प्रश्न पर आज उपरोक्‍त आलस्यपूर्ण नीति अपनाते हैं और इतने के बावजूद व्‍यवहार में ऐसा कोई वास्तविक खतरा नहीं देखते हैं, तो इसका अर्थ यही हो सकता है कि हम मजदूर वर्ग सहित तमाम फासीवाद विरोधी ताकतों को भावी खतरों के प्रति हम न सिर्फ उन्‍हें आगाह नहीं करना चाहते हैं, बल्कि उन्‍हें उस समय पूरी तरह निहत्‍था बनाये रखने का अपराध करते हैं जबकि उन्‍हें पूरी तरह भावी खतरों के विरूद्ध पूरी तरह जागरूक और जीवन-मरण के संघर्ष के मैदान में होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्‍य से यही मानसिकता और परिस्थिति आज कम्‍युनि‍स्‍ट आंदोलन में चौतरफा हावी है। यह आलस्‍यपूर्ण परिस्थिति मजदूर वर्ग के आज के राजनीतिक कार्यभार को नेपथ्‍य में धकेल देती रही है। इसे इतना सुदूर धकेल दे रही है कि हम अगर मोर्चा बनाने की बात करते भी हैं तो महज आर्थिक माँगों तक सीमित रहने वाले तात्‍कालिक मोर्चा से आगे कुछ भी देख पाने में अक्षम हो जाते हैं। ऐसा मोर्चा अपने अंतर्य में अतिरक्षात्‍मक तो है ही बुरी तरह असफलता की संभावनाओं से भी ग्रस्‍त है। हम कहना चाहते हैं कि अंतिम परिणाम के तौर पर अपने सीमित अर्थ में भी यह फलदायी नहीं होगा। क्‍योंकि महज आर्थिक माँगों तक सीमित यह मोर्चा जमीनी स्‍तर पर टिकाऊ ही नहीं होगा। मजदूर वर्ग पर जिस तरह के निरंकुश हमले हो रहे हैं, उसमें मजदूर वर्ग का कोई भी मोर्चा हर हाल में निरंकुशता के विरोध के प्रति समर्पित हुए बिना जमीन पर उतर ही नहीं सकेगा। जमीन पर उतरते ही इसे जिस तरह की परिस्थिति का सामना करना पड़ेगा, उससे इसे फासीवाद विरोधी रूख अख्तियार करना ही होगा। दुहरा दें कि अगर यह सच में जमीन पर उतरेगा, तो यही होगा अन्‍यथा यह जमीन पर उतरेगा ही नहीं।      
                आखिर मजदूर वर्ग पर हो रहा आज का हमला आम हमला नहीं है। अगर हमला ज्यादा बड़ा है, निरंकुश, फासिस्‍ट, खुली पूँजीवादी तानाशाही के आवेग से भरा है, अगर इन हमलों की हरेक खेप के साथ उग्र राष्ट्रवाद से युक्त हमले भी शामिल हैं, जब यूनियन बनाने और स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अधिकार खतरे में हैं, आर्थिक हमलों की शक्ल में हमला अगर मजदूर वर्ग के समस्‍त जनवाद और उसके वजूद पर है, तो मोर्चा इन पहलुओं से इतर खालिस आर्थिक माँगों तक कैसे सीमित रह सकता है? वर्तमान दौर में फासीवादी प्रवृत्तियों की अनुगूंज अभी भी उग्रतम रूप में नहीं है यह सच है, लेकिन यह भी सच है कि उसकी पूर्ण विजय की आहट चप्पे-चप्पे पर सुनाई दे रही है। आज कोई मजदूर वर्गीय देशव्यापी संयुक्त कार्रवाई का कोई मंच बनता है और वह इन युगीन राजनीतिक कार्यभारों से इतर बनता है तो वह अत्यंत ही सीमित महत्व का होगा और इसलिए इसका भविष्य शुरू से ही प्रश्नों के घेरे में होगा। हालांकि हम आर्थिक-तात्‍कालिक मोर्चे के महत्व को एकदम से अस्वीकार नहीं रहे हैं।
                दरअसल आज हमें एक ऐसी पहल की जरूरत है जो हमारी क्रांतिकारी पहलकदमी को खोले, हमें भावी चुनौतियों के लिए हमें आज ही तैयार करे, हमारे मौजूदा दौर के क्रांतिकारी कार्यभार को हमारे दूरगामी क्रांतिकारी कार्यभार से जोड़े और उसे पर्याप्त ठोस संदर्भ से लैस करते हुए तमाम सहयोगी शक्तियों की लामबंदी करने में मदद दे और एक पहल से कई और दूसरे बड़े कार्यभारों को पूरा करने का सुयोग प्रदान करे। हमें मौजूदा कार्यभार के प्रति उदासीन, आलस्यपूर्ण और निष्क्रिय रवैया अपनाने और बुर्जुआ वर्ग की पिछलग्गू और क्रांतिकारी दृष्टि से पंगु रणनीति की तरफ ले जाने वाली, हमारे हाथ बांधने वाली और भावी खतरों के प्रति हमें अचेत बनाये रखने वाली नीति का तुरंत परित्याग कर देना चाहिए।
                
फासीवाद विरोध की संसदीय लाईन बनाम क्रांतिकारी लाईन
की मौजूदा स्थिति  

भारत में फासीवाद के विरूद्ध जब भी संयुक्‍त मोर्चा बनाने की बात आती है, तो सीपीआई-सीपीएम सरीखी वाम पार्टियों के आज तक के व्‍यवहार से इसका एक ही अर्थ लगाया जाता है। और वह अर्थ है वाम पार्टियाँ का भाजपा व संघ विरोधी दलों व पार्टियों से यहाँ तक कि कांग्रेस के साथ चुनावी मोर्चा। इनके लिए फासीवाद विरोधी रणनीति‍ और कार्यनीति का सदैव से यही अर्थ रहा है। 2014 के पूर्व तक इनकी यह रणनीति‍ सांप्रदायिक भापजा और संघ को सरकार में आने से रोकने के लिए कांग्रेस सहित अन्‍य पार्टियों से चुनावी गठबंधन के रूप में कार्यरत थी, संसद के अंदर और संसद के बाहर। जमीनी स्‍तर पर पूँजी और इसकी लूट के विरूद्ध लडा़ई इस रणनीति का हिस्‍सा कभी नहीं रही, कभी नहीं थी। फासीवाद के उभार को रोकने के लिए पूँजी के विरूद्ध, वर्ग शत्रु के खिलाफ और फासीवाद के विरूद्ध मजदूर वर्ग का आह्वान करना इसका हिस्‍सा नहीं था। कांग्रेस और अन्‍य विपक्षी पार्टियों से चुनावी मोर्चा बनाने के अतिरिक्‍त, केंद्र और राज्‍य में बुर्जुआ सत्‍ता की मैनेजरी हासि‍ल करने की जी तोड़ कोशिश के अतिरिक्‍त और इसमें और कुछ नहीं था, जब कि फासीवाद के विरूद्ध अंतरराष्‍ट्रीय मजदूर वर्ग के संघर्ष की विरासत को देखें तो हम साफ-साफ यह देख सकते हैं कि वहाँँ क्‍या नीति अपनाई गई थी और हमें यहाँँ क्‍या नीति अपनानी चाहिए थी। कॉमरेड दिमित्रोव 1935 में इस निमित तैयार किये गये रिपोर्ट में कहते हैं – ''... इसके भी पहले कि मजदूर वर्ग का बहुसंख्यक भाग पूँजीवाद को उखाड़ फेंकने और सर्वहारा क्रांति को विजयी बनाने के लिए संघर्ष में एकताबद्ध हो, यह जरूरी है कि मजदूर वर्ग के सभी हिस्सों की, चाहे वो जिस पार्टी या संगठन के हों, कार्रवाई की एकता कायम हो। ..... कम्युनिस्ट इंटरनेशल कार्रवाई की एकता के लिए एक के अलावा और कोई शर्त नहीं रखता और वह भी सभी मजदूरों को स्वीकार्य एक प्रारंभिक र्शत है अर्थात यह कि कार्रवाई की एकता फासिज्म के खिलाफ, पूँजी के हमले के खिलाफ, वर्ग शत्रु के खिलाफ निर्दिष्ट हो। यही हमारी शर्त है।''  
                हमारे संसदीय वाम की यह रणनीति देश में लंबे काल तक चली। इस बीच इन्‍होनें राज्‍यों में ही नहीं, केंद्र में भी बुर्जुआ सत्‍ता में हिस्‍सेदारी की। केरल, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में तो ये कई दशक तक शासन में रहे हैं और आज भी हैं, बंगाल को छोड़ कर। बुर्जुआ सत्‍ता में इतने लंबे काल तक बने रहना ही इस बात का प्रमाण है कि इन्‍होंने पूँजी के पक्ष में मजदूर–मेहनतकश वर्ग के ऐतिहासिक हितों की तिलांजलि दे दी है। बंगाल में जिस तरह से इन्‍होनें 34 सालों तक शासन किया, जिस तरह से आम जनता के हितों की अनदेखी की ( जो कि देय और स्‍वाभाविक बात है और थी, क्‍योंकि पूँजी की सत्‍ता में वाम के होने से पूँजी का पहिया उलटा नहीं धुमने लगता है) और जिस तरह से पूँजीपतियों के खुंखार सिडीकेट खड़े ‍कर जनता के हितों को कुुचला गया उसका कुप्रभाव पूरे कम्‍युनिस्‍ट और वाम आंदोलन पर पड़ना लाजिमी था सो पड़ा। इस परिस्थिति ने ही फासीवाद के लिए रास्‍ता साफ कर दिया। जब पूँजी का संकट गहरा हुआ, तो इनकी रणनीति ने मजदूर  वर्ग को निहत्‍था कर दिया। आम जनता के बीच भी लाल झंडा इतना बदनाम हो चुका था कि जब संकट से पीस रही जनता हम कम्‍युनिस्‍टों की ओर देखती, जो स्थिति थी उसमें उल्‍टे वाम आंदोलन ही संकट में घिर गया। एकाधिकारी पूँजी के लिए इस तरह रास्‍ता खुला छोड़ दिया गया। गहरे आर्थिक संकट में फंसी पूॅजी को फासीवाद का रास्‍ता अख्तियार करने से आखिर रोकने वाला कौन ?  
                खैर, अभी इस लेख में हमारा उद्दे्श्‍य इसके इस पक्ष पर लिखने का नहीं है। अभी इमारा इरादा एक दूसरी परिस्थिति की ओर इशारा करने का है जो इसी से पैदा हुआ है और अत्‍यधिक खतरनाक है। संसदीय वाम की उपरोक्‍त गद्दारीपूर्ण रणनीति का कुप्रभाव सिर्फ यही नहीं पड़ा कि फासीवाद के लिए रास्‍ता खुला छोड़ दिया गया, अपितु इसका एक बड़ा असर यह पड़ा कि फासीवाद विरोधी संयुक्‍त संघर्ष के नाम से ही कम्‍युनिस्‍टों काा एक हिस्‍सा बिदकने लगा। खासकर क्रांतिकारी कम्‍युनिस्‍टों का एक बड़ा हिस्‍सा यह समझने लगा और आज भी समझता है कि फासीवाद के विरूद्ध संयुक्‍त मोर्चा का अर्थ होगा कांग्रेस और अन्‍य विपक्षी पार्टियों से चुनावी गठबंधन। यह हिस्‍सा यह समझता है कि फासीवाद विरोध के लिए संयुक्‍त मोर्चा की या तो जरूरत ही नहीं है और इसके लिए वे किसी न किसी तरह इससे ही इनकार करते हैं कि फासीवाद का कोई खतरा है, या फि‍र वे जब मोर्चे की जरूरत महसूस करते हैं तो फिर इन्‍हें वही वाम की पुरानी रणनीति‍ ही सही लगती है और वे यह कहते पाये जाते हैं कि अगर फासीवाद आ गया है तो विपक्षी बुर्जुआ पाटियों से तो मोर्चा बनाना ही पड़ेगा। 
          बताइये, कहाँ है इसमें मौजूदा ठोस परिस्थिति का ठोस मूल्‍यांकन करने की जद्दोजहद? कहाँ है यह समझने की कोशिश कि आज की परिस्थिति में फासीवाद की ताकत क्‍या है, ऐतिहासिक रूप से वर्ग शक्तियों का संतुलन क्‍या है? कहाँ है यह समझने की कोशिश कि पूँजीपति वर्ग के बिना भी हम फासीवाद विरोधी विशाल मोर्चा कायम कर सकते हैं कि नहींएक तरह की गद्दारी से दूसरी तरह की मूर्खता का प्रसार कैसे होता है इसका इससे बढि़या नमूना मिलना मुश्किल है।
                बिखरे हुए और छोटी ताकत के रूप में मौजूद क्रांतिकारियों के बीच पायी जाने वाली इस प्रवृत्ति ने इनकी सांगठनिक कमजोरियों को सौ गुना बढ़ा दिया है। कुछ दिनों पहले तक की हुई बहसों में अव्‍वल तो ये यह मानते रहे हैं कि फासीवाद को हौवा है फासीवाद नहीं है। उनकी बातों से यह महसूस हाता है कि वे तब तक नहीं मानेंगे जब तक कि भारत का फासीवाद युद्धोन्‍मादी हो युद्ध न शुरू कर दे, संसद को भंग न कर दे, फासीवादी सैन्‍यवाहिनियाँ गलियों और सड़कों पर मार्च करना न दिखे, वे हमारे घरों में घुस कर हमसे से एक-एक को गायब न करने लगें, पार्टियों खासकर कम्‍युनिस्‍ट संगठनों को प्रतिबंधित न कर दे आदि आदि। यानि संक्षेप में, जब तक फासीवाद हमें विनाश के उस कगार पर नहीं पहुँचा देता है जहाँँ के बाद हमारा अस्तित्‍व ही रहेगा कि नहीं यह सोचना पड़ेगा तब तब तक हम नहीं मानेंगे कि फासीवाद है!!
वाह ! वाह ! क्या समझ है!!
       लेकिन बात इतनी ही नहीं है। इनमें से अधिकांश जब यह स्‍वीकारने के लिए बाध्‍य होते हैं कि हाँ फासीवाद का खतरा है, तो फिर से वे कोई ठोस फि‍र से ठोस परिस्थिति का ठोस मूल्‍यांकन करने का धैर्य नहीं रखते हैं। जब वे फासीवादि‍यों का सत्‍ता में आ जाने को स्‍वीकारते हैं तो उसके बाद रूक कर इस बात पर सोंचने का धैर्य इनके अंदर नहीं है कि भारत में फासीवादियों की स्थिति क्‍या है, इनका शक्ति संतुलन क्‍या है, ये पूरे देश में खुल्‍लमखुला हमला करने की स्थिति में हैं या नहीं, इनके रास्‍ते की अड़चने क्‍या हैं और इस वजह से इनकी कमजोरियों क्‍या हैं, इनके पूर्ण विजय की स्थिति क्‍या है, और इसलिए आज की स्थिति में क्‍या हम पोपुलर फ्रंट बनाये बिना सर्वहारा वर्गीय मोर्चे के तहत ही परास्‍त कर सकते हैं कि नहीं... इन सारी बातों से इन्‍हें कोई मतलब नहीं होता है। या तो फासीवाद से आँख मूँद लेना है और कह देना है कि मोर्चे-वोर्चे की जरूरत ही नहीं है या फिर अगर यह समझ में आ गया कि अरे हाँ खतरा तो है फिर यह इनके लिए दिव्‍य ज्ञान जैसा होता है और  ये इतने घबड़ा जाते हैं कि वे फि‍र बुजुर्आ की शरण में चले जाते हैं। 
सच में यही स्थिति है।  
 ‍    
आज प्रोलितेरियन मोर्चे का निमार्ण वक्‍त की अहम जरूरत है  
आज और अभी, कल देर हो जाएगी

                 हम उपरोक्‍त परिचर्चा को इसके दूसरे छोर से पकड़ कर आगे बढ़ें। इसका व्यवहारिक अर्थ आखिर क्‍या होगा कि आज के अत्‍यंत खतरनाक हो चले दौर में  भी हम मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी मोर्चे को अभी हाथ में लेने से इनकार करते हैं? इसका क्‍या मायने हैं जब हम यह कहते हैं कि हम इस काम को एकमात्र तभी हाथ में लेंगे जब पूर्ण रूप से विजयी फासीवाद हमारे समक्ष आपादमस्‍तक प्रकट हो जाएगा, और तब तक हम इसके और खूँखार होने का और पूरे समाज के इसके आगे नतमस्‍तक हो जाने का इंतजार करेंगे। आज की तुलना में वह दिन कितना भयानक होगा हमें यह समझना चाहिए। जब वह दिन आयेगा उसके पूर्व ही क्रांतिकारी, जनवादी व प्रगतिशील शक्तियों के एक बड़े हिस्से को फासीवाद नष्ट कर चुका रहेगा। उसकी जकड़ में समाज का अधिकांश क्षेत्र आ चुका होगा और क्रांतिकारी पहलकदमी हमारे हाथों से पूरी तरह निकल चुकी होगी। जब हम यह समझेंगे तभी हमें इसका जवाब मिल सकता है कि फासीवाद के विरूद्ध प्रोलितेरियन मोर्चे का निर्माण आज और अभी ही क्‍यों जरूरी है।
                हम थोड़ी देर के लिए यह मान लें कि अभी फासीवाद विरोधी किसी मोर्चे की जरूरत नहीं है, क्‍योंकि अभी फासीवाद पूरी तरह विजयी नहीं हुआ है। जाहि‍र हम अगर महज फासीवादी प्रवत्तियों तक बात करते हैं, तो इससे यही कार्यनीति निकलेगी कि हम फासीवाद विरोधी किसी रणनीतिक मुहिम के बारे में कम से कम आज नहीं सोंचेंगे। यानि हम इस मोर्चे के बारे में तब सोचेंगे जब फासीवाद पूर्वात: विजयी हो जाएगा। यह संसद वगैरह को भंग कर देगा, राजनीतिक पार्टियों खासकर वाम व कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों व संगठनों को प्रतिबंधित कर देगा और इसकी गंडावाहिनियाँ गलियों और मोहल्‍लों में चुन-चुन कर हमला करने लगेंगी।
                दरअसल इस कार्यनीति से यही चित्र उभरता है जो डरावना है। अगर मान लें कि कल फासीवाद पूर्णरूपेण विजयी हो जाता है और बुर्जुआ जनवाद को पूरी तरह कुचल देता है तो क्‍या हम इसके क्या मायने भी समझते हैं? इसके क्‍या परिणाम होंगे क्‍या हम इसे समझते हैं? यही कि समाज तब तक पूरी तरह पश्‍चगमन की स्थिति में चली जाएगी। हमारे सारे जनतांत्रिक अधिकार पूरी तरह कुचल दिये जाएंगे और मजदूर वर्ग पूरी तरह फासीवाद के चंगुल में जा चुका होगा। आज की तुलना में उसका हाल कितना बुरा होगा हम समझ सकते हैं। फासिज्‍म को पीछे धकेलने का काम तब कितना कठिन हो जाएगा क्‍या हम यह नहीं समझ सकते हैं? हमारा (प्रगतिशील व क्रांतिकारी शक्तियों का) वजूद भी कितना बचेगा हम नहीं कह सकते। तब? तब हमें काफी पीछे हटते हुए और बहुत कुछ गंवाकर इसके विरूद्ध तैयारी करनी पड़ेगी। हमें मजदूर वर्ग के दूरगामी और तात्कालिक सभी लक्ष्यों को स्‍थगित करके एक वृहत्तर पोपुलर मोर्चे के तहत पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से के नेतृत्व के अधीन चलते हुए फासीवाद के विरोध के तरीके में जाना होगा जिसका परिणाम अधिक से अधिक बुर्जुआ जनवाद की पुनर्बहाली होगी। इससे अधिक कुछ नहीं।
                लेकिन आइए, हम उस परिस्थिति की बात करें जब हम आज और अभी ही फासिज्‍म के विरूद्ध एक क्रांतिकारी यानि प्रोलितेरियन मोर्चा कायम करने की शुरूआत करते हैं और बहस को आगे बढ़ाने के लिए हम मान लेते हैं कि हम इसमें सफल भी होते हैं। तब क्‍या होगा? इसका सबसे पहला सुखद परिणाम यह होगा कि हम आज फासीवाद को इसे पूर्ण रूप से ताकतवर और विजयी होने के पूर्व ही परास्‍त कर सकते हैं (और यही बात हमारे लिए सबसे महत्‍वपूर्ण है कि हम इसे पूर्ण रूप से ताकतवर और अजेय होने के पूर्व ही परास्‍त करने की सोचें, अन्‍यथा भारी विध्‍वंस के बाद ही इससे मुक्ति मिलेगी) और उस संभावित विनाश से समाज को बचा सकते हैं जिसकी हमने ऊपर बात की है। आज जबकि फासीवादी अभी पूर्ण रूप से विजयी नहीं हुए हैं और इन्‍होंने अभी सारे किले फतह नहीं किये हैं, हम इसे मजदूरों-मेहनतकशों व गरीब किसानों के विशाल संश्रय के आधार पर (बिना उदार पूँजीपति वर्ग के ही) इसे जमीनी लडा़ई में परास्त कर सकते हैं, बशर्ते हम तमाम मजदूर वर्गीय ताकतें इसके विरूद्ध एक ऐसे मोर्चे का निमार्ण करने के लिए राज़ी हों जो मजदूरों-मेहनतकशों की तमाम तरह की लड़ाईयों को इससे संयुक्त करते हुए तमाम प्रगतिशील ताकतों को सफलतापूर्वक एक सशक्त और एकताबद्ध लामबंदी के लिएजमीनी स्‍तर पर आह्वान कर सके। तब हम न सिर्फ इसके विजय अभियान को रोक सकते हैं, अपितु मजदूर-किसानों का यह विजयी संश्रय बिना रूके अपनी अगली मंजिल यानी फासीवाद को जन्म देने वाली तमाम अन्य शक्तियों को भी जड़मूल से उखाड़ फेंक सकते हैं, यानि हम मजदूर वर्गीय क्रांति की वह मंजिल भी फतह कर सकते हैं जो अन्यथा हमसे काफी दूर प्रतीत होती है। इस तरह हम फासीवाद विरोधी क्रांतिकारी कार्रवाइयों को मजदूर वर्गीय क्रांति के दूरगामी कार्यभार के मातहत ला सकते हैं, उससे संयुक्त कर सकते हैं और इस तरह एक दूसरे को आगे बढ़ा सकते हैं। यह एक ऐसी कार्यनीति जो अगर सफल होती है तो हम एक तीर से दो निशानों पर एक साथ हमले करने में सफल हो जाते हैं। फासीवाद की पूर्ण पराजय और इसका समूल विनाश करने वाला प्रोलितेरियन मोर्चा आगे बढ़कर इतिहास की अगली मंजिल में प्रवेश कर सकती है, जब कि प्रोलितेरियन मोरचे को सुदूर कल के लिए टालने की कार्यनीति हमें फासीवादी विनाश की संभावनाओं को अमली रूप लेने तक इंतजार करने और अंतत: उदार पूँजी‍पति वर्ग के नेतृत्‍व में मोर्चा कायम करने की पश्‍चगामी नीति‍ की ओर धकेलती है। हमें तय करना होगा कि हम क्‍या चाहते हैं?    
                हम दुहरा देना चाहते हैं कि अगर हम फासीवाद के विरूद्ध मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी रणनीति के प्रश्न पर आज उपरोक्‍त आलस्यपूर्ण नीति अपनाते हैं और इतने के बावजूद व्‍यवहार में ऐसा कोई वास्तविक खतरा नहीं देखते हैं, तो इसका अर्थ यही हो सकता है कि हम मजदूर वर्ग सहित तमाम फासीवाद विरोधी ताकतों को भावी खतरों के प्रति हम न सिर्फ उन्‍हें आगाह नहीं करना चाहते हैं, बल्कि उन्‍हें उस समय पूरी तरह निहत्‍था बनाये रखने का अपराध करते हैं जबकि उन्‍हें पूरी तरह भावी खतरों के विरूद्ध पूरी तरह जागरूक और जीवन-मरण के संघर्ष के मैदान में होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्‍य से यही मानसिकता और परिस्थिति आज कम्‍युनि‍स्‍ट आंदोलन में चौतरफा हावी है। यह आलस्‍यपूर्ण परिस्थिति मजदूर वर्ग के आज के राजनीतिक कार्यभार को नेपथ्‍य में धकेल देती रही है। इसे इतना सुदूर धकेल दे रही है कि हम अगर मोर्चा बनाने की बात करते भी हैं तो महज आर्थिक माँगों तक सीमित रहने वाले तात्‍कालिक मोर्चा से आगे कुछ भी देख पाने में अक्षम हो जाते हैं। ऐसा मोर्चा अपने अंतर्य में अतिरक्षात्‍मक तो है ही बुरी तरह असफलता की संभावनाओं से भी ग्रस्‍त है। हम कहना चाहते हैं कि अंतिम परिणाम के तौर पर अपने सीमित अर्थ में भी यह फलदायी नहीं होगा। क्‍योंकि महज आर्थिक माँगों तक सीमित यह मोर्चा जमीनी स्‍तर पर टिकाऊ ही नहीं होगा। मजदूर वर्ग पर जिस तरह के निरंकुश हमले हो रहे हैं, उसमें मजदूर वर्ग का कोई भी मोर्चा हर हाल में निरंकुशता के विरोध के प्रति समर्पित हुए बिना जमीन पर उतर ही नहीं सकेगा। जमीन पर उतरते ही इसे जिस तरह की परिस्थिति का सामना करना पड़ेगा, उससे इसे फासीवाद विरोधी रूख अख्तियार करना ही होगा। दुहरा दें कि अगर यह सच में जमीन पर उतरेगा, तो यही होगा अन्‍यथा यह जमीन पर उतरेगा ही नहीं।      
                आखिर मजदूर वर्ग पर हो रहा आज का हमला आम हमला नहीं है। अगर हमला ज्यादा बड़ा है, निरंकुश, फासिस्‍ट, खुली पूँजीवादी तानाशाही के आवेग से भरा है, अगर इन हमलों की हरेक खेप के साथ उग्र राष्ट्रवाद से युक्त हमले भी शामिल हैं, जब यूनियन बनाने और स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अधिकार खतरे में हैं, आर्थिक हमलों की शक्ल में हमला अगर मजदूर वर्ग के समस्‍त जनवाद और उसके वजूद पर है, तो मोर्चा इन पहलुओं से इतर खालिस आर्थिक माँगों तक कैसे सीमित रह सकता है? वर्तमान दौर में फासीवादी प्रवृत्तियों की अनुगूंज अभी भी उग्रतम रूप में नहीं है यह सच है, लेकिन यह भी सच है कि उसकी पूर्ण विजय की आहट चप्पे-चप्पे पर सुनाई दे रही है। आज कोई मजदूर वर्गीय देशव्यापी संयुक्त कार्रवाई का कोई मंच बनता है और वह इन युगीन राजनीतिक कार्यभारों से इतर बनता है तो वह अत्यंत ही सीमित महत्व का होगा और इसलिए इसका भविष्य शुरू से ही प्रश्नों के घेरे में होगा। हालांकि हम आर्थिक-तात्‍कालिक मोर्चे के महत्व को एकदम से अस्वीकार नहीं रहे हैं।
                दरअसल आज हमें एक ऐसी पहल की जरूरत है जो हमारी क्रांतिकारी पहलकदमी को खोले, हमें भावी चुनौतियों के लिए हमें आज ही तैयार करे, हमारे मौजूदा दौर के क्रांतिकारी कार्यभार को हमारे दूरगामी क्रांतिकारी कार्यभार से जोड़े और उसे पर्याप्त ठोस संदर्भ से लैस करते हुए तमाम सहयोगी शक्तियों की लामबंदी करने में मदद दे और एक पहल से कई और दूसरे बड़े कार्यभारों को पूरा करने का सुयोग प्रदान करे। हमें मौजूदा कार्यभार के प्रति उदासीन, आलस्यपूर्ण और निष्क्रिय रवैया अपनाने और बुर्जुआ वर्ग की पिछलग्गू और क्रांतिकारी दृष्टि से पंगु रणनीति की तरफ ले जाने वाली, हमारे हाथ बांधने वाली और भावी खतरों के प्रति हमें अचेत बनाये रखने वाली नीति का तुरंत परित्याग कर देना चाहिए।
                

Monday, October 17, 2016

टप्पूखेड़ा (अलवर, राजस्थान) के होंडा के संघर्षरत मजदूरों के साथ खड़े हों!
कौन नहीं जानता है होंडा कंपनी को? पहले यह हीरो-होंडा के रूप में भारत व जापान के मालिकों का एक संयुक्त उद्यम था। 2010 में इसके जापानी मालिक ने संयुक्त उद्यम से बाहर निकलने का फैसला कर लिया। भारतीय पार्टनर, हीरो साईकिल ग्रुप के मालिकों मुंजल भाइयों ने होंडा के शेयर खरीद लिए और हीरो मोटर कॉरपोरेशन नाम से अलग कंपनी बना ली। तब से होंडा कंपनी अलग हो गई और आज की तारीख में यह जापान की होंडा मोटर कंपनी लिमिटेड की 100 प्रतिशत सब्सिडियरी कंपनी है।
इन सबके बावजूद न तो होंडा के ब्रांड के नाम में कोई बट्टा लगा, न इसके उत्पादन में कोई गिराबट आई। मुनाफा का ग्राफ भी ऊपर चढ़ता गया। पूरे भारत में इसके कई प्लांट है। हम जिस प्लांट के मजदूरों की बात लेकर यहाँ उपस्थित हैं वह अलवर, राजस्थान के टप्पूखेड़ा में स्थित है। होंडा कंपनी आज भी भारत के दोपहिये वाहन बनाने वाली कंपनियों में नंबर एक के रूप में विख्यात है। लेकिन जो बात विख्यात नहीं हो पाई वह बात यह है कि यह कंपनी अपने मजदूरों के शोषण-उपीड़न में भी नंबर एक है। हम इस कंपनी में बनी मोटर साइकिलों पर सवार हो इसके मजे लेते हैं और इसकी खूबियों को जानते ही नहीं रटते भी रहते हैं। लेकिन जो मजदूर इन्हें बनाते हैं क्या उनके बारे में भी जानते हैं? क्या हम जानते हैं कि उन्हें किस तरह यह कंपनी नोचती-खसोटती है? इसके इस पक्ष को जब हम जानेंगे और मजदूरों के साथ इस कंपनी द्वारा किये जा रहे करतूतों को सुनेंगे तो रोंगटे खड़े हो जाएंगे। कोई भी यह जानकर सहम उठेगा कि होंडा कंपनी अपने कुशल मजदूरों को भी लगातार कई दिनों तक लगातार आठो पहर ओवर टाइम करने के लिए बाध्य करती है! लगता है न कि भला यह कैसे संभव है? लेकिन यह सच है। इस कंपनी के मजदूरों का वर्तमान संघर्ष 16 फरवरी को तब शुरू होता है जब फैक्टरी के अंदर जारी ऐसे ही अमानवीय शोषण व उत्पीड़न के खिलाफ मजदूरों ने अंतत: लड़ने का मन बना लिया। और जैसा कि ऐसे हर मामले में होता है, मजदूरों को तब से ही कंपनी के भाड़े के गुंडों के, पैसे और ताकत से खरीद लिये गये पुलिस प्रशासन के और संर्पूणता में पूरी राज्य मशीनरी के भयानक दमन का सामना करना पड़ रहा है। आइये, पहले संक्षेप में यह समझें कि होंडा मजदूरों का वर्तमान संघर्ष 16 फरवरी को आखिर शुरू कैसे हुआ।
ज्ञातव्‍य है कि इस फैक्टरी में 16 फरवरी 2016 को एक श्रमिक के साथ जबरन मारपीट करके ओवर टाइम करने के लिये जबर्दस्ती रोका गया जबकि वह मजदूर पहले ही दो दिनों से ओवर टाइम कर रहा था और बीमार भी था। उस दिन पहली शिफ्ट के तुरंत बाद सुपरवाइजर ने, जो एक इंजियनर है, उसे दूसरी शिफ्ट में काम पर लगा दिया। जब मजदूर ने इनकार किया तो उसे सुपरवाइजरों ने बुरी तरह मारा तथा अपमानित किया। जब अन्य श्रमिकों को इस बात की जानकारी मिली तो सभी ने मिलकर इसका विरोध और कम्पनी के प्रबंधन से दोषी इंजीनियरों पर कार्रवाई की माँग की। किन्तु पूँजी की बादशाहत में जैसा होता आया है, प्रबंधन ने मजदूरों को सुनने के बजाय फैक्टरी में अंदर से तालाबंदी करवा कर मज़दूरों को बाहर जाने से रोक दिया और जबर्दस्ती काम करने को कहा। शाम होते ही जब अँधेरा हुआ तो अपने बाउन्सरों के द्वारा, यानि भाड़े के अपने गुंडों को मज़दूरों की यूनिफार्म पहना कर मजदूरों के साथ मारपीट करवाई। इतना ही नहीं, पुलिस को बुलवा कर मज़दूरों के साथ बुरी तरह से मारपीट की गई जिसमें कई मज़दूरों को गंभीर चोटें आईं। इतना ही नहीं, पुलिस ने 44 मजदूरों को गिरफ्तार कर उन पर धारा 307 (हत्या की कोशिश), धारा 148 (घातक हथियार से सज्जित हो बल्वा करना), धारा 336 (दूसरे के जीवन और सुरक्षा को नुकसान पहुचना) इत्यादि लगा दिया गया । इसके अलावा 42 और मजदूरों पर धारा 149 (ग़ैरक़ानूनी रूप से एकत्रित होना ) और धारा 395 (डकैती) जैसे संगीन धारायें लगायी गईं। 44 मजदूरों को जयपुर उच्च न्यायालय से दो जमानती और 1 लाख रुपये के मुचलके के आधार जमानत मिली, किन्तु एक लाख रुपये की जमानत राशि क्या किसी सामान्य मजदूर के लिये इकट्ठा करना आसान है? जबकि उच्चतम न्यायालय अपने एक फैसले में कह चुका है कि जमानत की राशि उतनी ही हो जितना कि वह व्यक्ति दे पाये। ऐसे सभी मजदूर जेल में डाल दिये गये। इतना ही नहीं, 2500 से अधिक दक्ष मजदूरों को बर्खास्त भी कर दिया गया और आज की स्थिति यह है कि अकुशल मजदूरों से फॉल्ट वाले होंडा मोटरसाइकिलों का निर्माण कराया जा रहा है और ग्राहकों को भी धोखा दिया जा रहा है। दीवाली में लोग नये वाहन खरीदते हैं और होंडा प्रबंधन ने इसका फायदा उठाने के लिए अत्यंत कम वेतन पर रखे गये अकुशल मजदूरों द्वारा धड़ाधड़ फॉल्ट वाली मोटर साईकिलों का निर्माण कराया जा रहा है।
होंडा में मजदूरों के शोषण का सिलसिला पुराना है। इसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाएंगे। पहले तो यह कि 16 फरवरी की घटना कोई पहली घटना नहीं है। बल्कि इस कंपनी का मजदूरों के शोषण और हक ना देने का एक लम्बा इतिहास रहा है। होंडा के मज़दूर लम्बे अरसे से अपने कानूनी और संविधान द्वारा दिए गए श्रम अधिकारों को हासिल करने के लिए अपनी यूनियन को पंजीकृत करवाने के लिए प्रयासरत थे। टप्पूखेड़ा के प्लांट में ज्यादातर राजस्थान, हरियाणा के सुदूर इलाकों सहित बिहार, यूपी आदि से आये मजदूर काम करते हैं। इन मजदूरों के काम करने के हालात अत्यंत ही कठिन हैं। काम इस गति से लिया जाता है कि मजदूर हमेशा काम के दबाव में रहते हैं। दम मारने का समय भी इन्हें नहीं मिलता। समय की पाबंदी ऐसी कि थोड़ी भी देर हुई नहीं कि वेतन में में एक बड़ी कटौती हो जाती है। जितना अधिक काम की तीव्रता है और प्राप्य वेतन इतना कम कि शोषण की तीव्रता अत्यधिक जानलेवा बन जाती है। शायद ही ये कभी मूल वेतन से अधिक कमा पाते हैं। ऊपर से कानूनी हथियार तो उनके पास है ही नहीं। जब यूनियन ही बनाने दिया जाता है तो अन्य कानूनी सुविधाओं की बात ही क्या की जाए। प्रबंधन की बात ही कानून और न्याय है यहाँ। मजदूर यहाँ प्रजा हैं और प्रबंधन राजा। हर समय बरखास्तगी की चाबुक लिये प्रबंधन के डर से मजदूर मेमने की तरह डरते हुए यहाँ काम करते हैं। टिफिन का समय और पेशाब-पैखाना का वक्त भी ठीक से नहीं मिलता। तभी तो 18 सेकेंड में एक इंजन मजदूर कस देते हैं। प्रतिदिन 4000 से ऊपर दोपहिया वाहन बन कर तैयार हो जाते हैं। और यह होता है मजदूरों को आठो पहर और लगातार ओवरटाइम की भट्टी में जबर्दस्ती झोंक कर। यही नियति यहाँ कार्यरत चारो तरह के मजदूरों – ठेका, कैजुअल, ट्रेनी और स्थाई – सभी तरह के मजदूरों की है। वेतन 10000 रूपये से 23000 रूपये तक मिलता है। लेकिन कटौती होने पर, जो होती ही है, किसी भी मजदूर को 4700 से लेकर 6500 रूपये तक ही मिल पाते हैं। जब 16 फरवरी को संघर्ष की शुरूआत हुई, तो होंडा मैनेजमेंट मज़दूरों की यूनियन को पंजीकृत होने से रोकने के लिए तमाम हथकंडे पहले से अपना रखी थी। ऐसी घटनाएँ कोई नयी बात नहीं हैं। जब भी मज़दूर अपने हकों के लिए आवाज़ उठाते है तब-तब उनके साथ ऐसा ही बर्ताव किया जाता है। 16 फरवरी की घटना के बाद मज़दूरों ने जब भी टप्पूखेड़ा, धारुहेड़ा में कोई भी प्रदर्शन या रैली आयोजित करने का प्रयास किया, तब होंडा मैनेजमेंट के इशारे पर उन पर राजस्थान पुलिस ने बर्बर लाठीचार्ज किया। जैसा कि हमने मारुती मजदूर आन्दोलन में देखा है, आज भी पूरी राज्य की ताक़त मैनेजमेंट के साथ खड़ी नज़र आ रही है। मजदूरों को राज्य मशीनरी एक अपराधी की तरह पेश आ रही है।
दोस्तों, आखिर मजदूर कब तक यह स्थिति झेलते रहते। एक न एक दिन तो यह संघर्ष होना ही था। यही सबक सारे मजदूरों को सीखना होगा और शोषण के खिलाफ एकजुट हो कर उठ खड़ा होना होगा। फिलहाल होंडा मजदूरों ने अपने संघर्ष को आगे बढ़ाते हुए 19 सितंबर से दिल्ली के जंतर-मंतर पर आमरण अनशन शुरु दिया। इसी क्रम में मजदूरों ने 23 सितंबर 2016 को राजस्थान भवन पर अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करने पहुंचे। किंतु अपनी जायज माँगों के लिए इन मजदूरों का शांतिपूर्वक प्रदर्शन भी प्रशासन को रास न आया और 50 प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर संसद मार्ग थाने पर पहुँचा दिया गया है।
हम देख रहे हैं कि जब से नव उदारवादी पूँजीवाद का दौर शुरू हुआ है तब से और जब से केंद्र और कई राज्यों में भाजपा की सरकार बनी है तब से राज्य और उसकी मशीनरी ने मजदूर वर्ग के खिलाफ़ जैसे एक अघोषित युद्ध छेड़ रखा है। जैसे ही मजदूर अपने हक के लिये आवाज़ उठाते हैं, तो सारे नियम कानून को ताक पर रख कर, सारे जनतांत्रिक अधिकार को कुचल कर और निरंकुशता थोपते हुए मजदूरों को संगीन आपराधिक मामलों में फंसा कर जेल में डाल दिया जाता है। दूसरी तरफ, फिर कानूनी दांव-पेंच में उलझा कर पूरे मामले को ठंढे बस्ते में डाल कर पूँजीपतियों के पक्ष में खुलेआम शासन चलाया जा रहा है। मोदी सरकार ने 'श्रम मेव जयते' की उद्घोषना कर मज़दूरों को श्रम ऋषि बोलने के ठीक बाद श्रम कानून को पूँजीपतियों के हवाले कर दिया । शायद इन श्रम-ऋषियों को जंगल (या जेल) में भजने की सरकार ने पूरी तैयारी कर ली है। सरकार ने पूँजीपतियों की सुविधा के लिये फैक्ट्री एक्ट 1948, ट्रेड यूनियन एक्ट 1926, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1948, ठेका मज़दूरी कानून 1971, एपरेंटिस एक्ट 1961 से लेकर तमाम श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर उन्हें पूरी तरह से कमज़ोर और ढीला कर दिया है। इस तरह अब मज़दूरों को कानूनी तौर पर मालिक हर अधिकार से वंचित कर सकता है और कर रहा है। मज़दूरों के लिए यूनियन बनाना और भी मुश्किल बना दिया गया है। पहले किसी भी कारखाने या कम्पनी में 10 प्रतिशत या 100 मज़दूर मिलकर यूनियन पंजीकृत करवा सकते थे पर अब ये संख्या बढ़कर 30 प्रतिशत कर दी गई है। ठेका मज़दूरों के लिए बनाया गया ठेका मज़दूरी कानून-1971 भी अब सिर्फ 50 या इससे ज्यादा मज़दूरों वाली फैक्टरी पर लागू होगा। मतलब अब कानूनी तौर पर भी ठेका मज़दूरों के शोषण और उनके श्रम की लूट पर कोई रोक नहीं होगी। सरकार ने कारखाना अधिनियम के अनुच्छेद 56 में संशोधन कर भोजनावकाश के साथ 8 घण्टे काम की अवधि को बढ़ाकर साढ़े दस घंटे से 12 घण्टे तक करने का प्रावधान कर दिया है। इस अतिरिक्त काम को ओवरटाइम नहीं माना जायेगा और इसके लिए सामान्य वेतन ही देय होगा। इसी प्रकार अनुच्छेद 64-65 में संशोधन करके वर्तमान ओवरटाइम को 50 घण्टे प्रति तिमाही से बढ़ाकर सीधे 100 घण्टे करने और जनहित के नाम पर राज्य सरकार द्वारा छूट देने पर 125 घण्टे तक किया जा सकता है। इसके लिए भी मजदूरों को महज समान्य वेतन ही देय होगा। इसी तरह अनुच्छेद 66 में संशोधन कर महिलाओं को रात्रि पाली में काम करने पर लगी रोक समाप्त कर दी गयी है। सबसे महत्वपूर्ण बात इस संशोधन में यह है कि इसमें राज्य सरकारों को कारखाना कानून का दायरा तय करने के लिए नियोजित मजदूरों की संख्या तय करने का अधिकार दे दिया गया है जो अधिकतम 40 मजदूरों की सीमा के अंदर कोई भी सीमा तय कर सकती है।
दरअसल सरकार ने श्रम कानूनों को खतम कर कुछ संहिताओं में समेटने जा रही है। जिसमें से वेतन विधेयक श्रम संहिता और औद्योगिक सम्बंधों पर श्रम संहिता विधेयक का प्रारूप सरकार ने पेश किया है। वेतन विधेयक श्रम संहिता में न्यूनतम वेतन अधिनियम, बोनस भुगतान अधिनियम, वेतन भुगतान अधिनियम, समान वेतन अधिनियम आदि चार अधिनियमों को मिलाकर यह संहिता बनायी गयी है। इस संहिता में श्रम कानूनों को लागू कराने के लिए निरीक्षण की व्यवस्था को समाप्त कर निरीक्षकों की भूमिका मददकर्ता की बना दी गयी है। हौंडा में भी ठेका मजदूरी करा कर जहाँ एक ओर कंपनी अपने मुनाफे को तेज़ी से बढाया है, वही दूसरी और मजदूरों के शोषण का भी एक नया इतिहास लिख डाला है।
साथियों, होंडा मजदूरों के संघर्ष की जीत होगी या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि मजदूर एकट्ठा हो इनके समर्थन में उठ खड़े होते हैं कि नहीं। और जो आज होंडा मजदूरों के साथ हो रहा है, बीते कल में मारूती मजदूरों के साथ हुआ और कई दूसरे दर्जनों-सैंकड़ों फैक्टरियों के मजदूरों के साथ हुआ है। और आगे न जाने कितने मजदूरों के साथ दुहराया जाएगा। मजदूरों के साथ ही क्यों, यही पूँजीपति वर्ग निम्न पूँजीपति वर्ग के बेरोजगार नौजवानों और गरीब लोगों के साथ भी तो यही कर रही है। छोटे दुकानदार, छोटे किसान, छोटे व्यवसायी, ..... आखिर कोई बड़ी पूँजी की मार से आज बच गये हैं! आखिर इसका उपाय क्या है? इसका उपाय इसके सिवा और कुछ नहीं है कि हम सब एकजुट हो इसके खिलाफ संघर्ष तेज करें। साथियों, किसी भी बुर्जुआ पार्टी और उसकी सरकार से अब उम्मीद करना बंद कर देना चाहिए। मोदी सरकार की कारगुजारियों ने यह सीखा दिया है कि वायदे करने वाला कोई हो और वायदे चाहे जितने भी लुभावने क्यों नहीं हों, इनका कोई महत्व नहीं है। अगर महत्व है तो बस इस बात का कि हम सब मिल कर लड़ें और लड़ते हुए इस लूट की व्यवस्था को ही पलट दें जो इस तरह की लूट को संभव बनाती है। इसकी शुरूआत हम चाहे तो आज कर सकते हैं। होंडा मजदूरों के साथ खड़ा होना हमारा कर्तव्य है और स्वयं हमारी जरूरत भी। आइये, होंडा मजदूरों के जायज संघर्ष के समर्थन में देश के कोने-कोने से आवाज बुलंद करें।